शनिवार, 31 जनवरी 2015

किरण बनाम अरविन्द में फिर टूटती राजनीति की मर्यादायें

अवधेश कुमार
दिल्ली चुनाव की गर्मी में किरण बेदी बनाम केजरीवाल वाकयुद्ध ने राजनीति की जुगुप्सा को फिर से उभारा है। अरविन्द एवं किरण दोनों एनजीओ चलाने के कारण कई मामलांें पर लंबे समय से साथ रहे हैं। अन्ना अनशन अभियान के मुख्य प्रबंधकार भले केजरीवाल थे, पर किरण भी उसकी एक प्रमुख स्तंभ थीं। इनके बीच मतभेद हुए यह भी हमारे सामने साफ था। किंतु अन्ना हजारे भी अरविन्द केजरीवाल से अलग हुए और उनके खिलाफ खुलकर बोले। अरविन्द के अनेक पुराने साथी अन्ना के साथ रहे। उनमें किरण बेदी भी थीं। जब लोकसभा में पिछले वर्ष लोकपाल कानून पारित हुआ तो अन्ना के साथ किरण बेदी ने भी उसका स्वागत किया। किरण अन्ना के गांव में उनके अनशन के साथ थीं। अन्य कई लोग भी वहां थे। तो उनका मतभेद स्पष्ट था। बावजूद इसके उनके बीच एक दूसरे के प्रति सार्वजनिक शब्द प्रयोग में शिष्टता बनी हुई थी। दिल्ली विधानसभा चुनाव में किरण बेदी के भाजपा मेें शामिल होने तथा मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनते ही वो शिष्टता तो उड़न छू हुई ही, इस प्रकार के आरोपों-प्रत्यारोंपों का दौर चल पड़ा है जिसमें ऐसा लगता है दोनों पक्ष कोई सीमा मानने को तैयार नहीं है।
 यही हमारी राजनीति का दुर्भाग्य है। आम आदमी पार्टी राजानीति में एक मानक स्थापित करने के दावे से आई थी। पर चुनाव की राजनीति ने उसके सारे दावों की कलई खोल दी है। अरविन्द सहित पूरी पार्टी किरण पर यह आरोप लगाते हुए टूट पड़ी है कि वो तो पहले से ही भाजपा के प्रति नरम रुख रखतीं थीं। वो अन्ना अभियान के समय से ही भाजपा पर हमला करने से बचतीं थीं। इसके पहले कुमार विश्वास और आशीष खेतान जैसे आप के नेता किरण को अन्ना अभियान में भाजपा का मोल यानी भेदिया करार दे चुके हैं। हालांकि अरविन्द की ही पूर्व साथी शाजिया इल्मी ने, जो कि आप में भी उनके साथ थीं, यह कह दिया है कि किरण नहीं अरविन्द ही भाजपा के प्रति नरम रुख रखते थे। ध्यान रखिए शाजिया विधानसभा एवं लोकसभा चुनाव दोनों आप की टिकट पर लड़ीं। चुनाव के काफी समय बाद उन्होंने पार्टी में एक चौकड़ी के हाबी होने का आरोप लगाकर सभी पदों से त्यागपत्र दे दिया था। अब वो कह रहीं हैं कि अन्ना अभियान में तो कजरीवाल ही केवल कांग्रेस पर हमला करते थे। पार्टी बनाने के बाद उनने भाजपा को निशाना बनाया।
जो स्थिति बन रही है उसमंे पता नहीं और क्या-क्या सामने आ जाएगा। अरविन्द के जो पुराने साथी भाजपा में आ गए हैं उनके पास ऐसे कई तथ्य हैं जो अरविन्द एवं उनके साथियों को नागवार गुजरता है। वे अब केजरीवाल को ही साजिश के तौर पर पेश कर रहे हैं। ये भी उनको अवसरवादी कह रहे हैं। तो आप की नजर में किरण अवसरवादी, वो सब अवसरवादी जो भाजपा में चले गए, और भाजपा की नजर में अरविन्द और उनके साथी अवसरवादी। अगर हम आप जनता के तौर पर इसे देखें तो हमें दो अवसरवादी चेहरों में से किसी एक को चुनना है। एक तीसरा विकल्प कांग्रेस के अजय माकन हैं, पर लगता ही नहीं कि वो कहीं दौर में हैं। हम किसे अवसरवादी मानें। किरण बेदी कह रहीं है कि अगर मैं भाजपा के प्रति पक्षपाती थी तो मुझे मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बनाने की पेशकश क्यों की? यह सवाल भी वाजिब है। आखिर जब इनको लगता था कि किरण आंदोलन में भाजपा की भेदिया थीं, जासूस थीं, उसकी समर्थक थीं तो फिर उस समय उनके खिलाफ आरोप लगाकर बाहर करने की मांग क्यों नहीं की? यह बात अन्ना हजारे के संज्ञान में था कि नहीं? अगर उनके संज्ञान ंमें था तो वो अरविन्द एवं उनके आज के साथियों को छोड़ गए, पर किरण बेदी उनके साथ बनी रहीं।
केजरीवाल कह रहे हैं कि  किरन बेदी के साथ मेरे मतभेद की शुरुआत नितिन गडकरी के कारण हुई। वह तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष के खिलाफ बोलने के लिए तैयार नहीं थीं। अरविन्द के कथन को मान लें तो किरण के साथ उनकी टेलफोन पर बातचीत भी बंद हो चुकीं थीं। उनका कहना है कि दो साल पहले कोयला ब्लॉक आवंटन के खिलाफ आंदोलन के बाद बेदी ने मेरा फोन उठाना बंद कर दिया था। वह मेरे मेसेज का जवाब भी नहीं देती थीं। उन्होंने कहा था कि हमें नितिन गडकरी के घर का घेराव नहीं करना चाहिए था। लेकिन हमने ऐसा किया और इसके बाद वह खुलकर हमारे खिलाफ हो गईं। इतने भर से फोन पर बातचीत बंद हो जाए यह स्वीकार करने का कोई कारण नहीं है। आखिर अरविन्द एवं मनीष का फोन तो अन्ना हजारे ने भी उठाना बंद कर दिया था।
बहरहाल, इसका अर्थ निकालना लोगों पर छोड़ देना चाहिए। किरण बेदी इस देश में आंदोलनकर्ताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं की बड़ी संख्या हैं जिनके लिए कभी आदर्श नहीं रहीं। एक नौकरशाह से एनजीओ चलाने, बड़े संस्थानों में लैक्चरर देने और झुग्गी झोपड़ी में विद्यालय चलाने के अलावा कुछ एलिट वर्ग के बीच उनका जलवा रहा है। यह तो कोई साधारण समझ वाला भी देख सकता था कि अन्ना अभियान कोई एक राजनीति विचारधारा वालों का अभियान नहीं था। उसमें अलग-अलग विचारधाराओं और संगठनों की भागीदारी थी। भाजपा और संघ परिवार उसमें सर्वप्रमुख थी। रामलीला मैदान के अनशन के पीछे का पूरा प्रबंधन संघ परिवार के हाथों ही दिख रहा था। यह बात अरविन्द जानते थे। उनके साथी भी जानते थे। उनके सामने सब कुछ था। आखिर बारिस से भींगे हुए रामलीला मैदान को किनकी ताकत से 24 घंटे के अंदर मंच से लेकर आयोजन लायक बना दिया गया? भाजपा ने जितना संभव था उस अभियान को ताकत दी। सच कहा जाए तो भाजपा को उम्मीद थी कि यह आंदोलन कांग्रेस सरकार के खिलाफ है और इसमें साथ देने से उसकी ताकत बढ़ेगी, ये सब उसका साथ देंगे। हुआ इसके विपरीत। अरविन्द ने जब पार्टी बनाने का ऐलान कर दिया तब भाजपा उनके खिलाफ खुलकर आई। पार्टी बनाने से अनेक लोग असहमत थे और वो उनके साथ नहीं आए। उसमें किरण बेदी भी थीं।
जब इस तरह आरोप-प्रत्यारोप लगाये जायेंगे तो ऐसी-ऐसी बातें सामने आएंगी जो इनकी राजनीति से वितृष्णा पैदा करेंगी। इसमें यह भी उम्मीद थी कि एक आरोप यह लगायेंगे आपने अपने एनजीओ में कितना फंड विदेशों से लाया, कितने गलत खर्च किए, कहां का पैसा कहां लगाया तो दूसरा इसके प्रत्युत्तर में उनको आईना दिखायेंगे। लेकिन अपने एनजीओ, उसके फंड और कार्यों पर कोई प्रश्न नहीं उठा रहा है। इस मामले पर दोनों पक्ष एक दूसरे की असलियत जानते हैं, इसलिए उस पर खामोश हैं। पर जो हो रहा है वही कम नहीं है। अब देखिए,  एक खुलासा यह हुआ है कि  5 अप्रैल 2011 से जंतर मंतर पर अन्ना अनशन अभियान की शुरुआत हुई और 4 अप्रैल को अरविन्द सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की बैठक में शामिल थीं। उसके बाद अन्ना अभियान के बीच भी वो उन बैठकों में तीन बार गए थे। आपको कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार चोर लगती थी, कांग्रेस भ्रष्टाचार की जननी लगती थी तो फिर उन बैठकों का बहिष्कार क्यों नहीं किया? वैसे भी सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली सलाहकार परिषद इन एनजीओवालों से ही भरा हुआ था जिसने ऐसी-ऐसी योजनायें बनवाईं जिनसे देश का भी अहित हुआ और कांग्रेस का क्या हुआ यह बताने की आवश्यकता नहीं।
लेकिन इस तरह कई भेद खुलेंगे। अन्ना अभियान के लोगों का संघ नेताओं से बातचीत, भाजपा नेताओं से बातचीत, उनके पीछे के प्रबंधन मंे संघ कार्यकर्ताओं का लगना.......आदि सच पहले से उपलब्ध हैं। ऐसी बातें हैं जिनसे दोनांे पक्षों के लिए समस्यायें पैदा हो जाएंगी। आप नेताओं को समझना चाहिए कि आज भी उनकी पार्टी में ऐसे नेता हैं जो भाजपा और संघ की पृष्ठभूमि से हैं। पिछली बार जिसे विधानसभा का अध्यक्ष बनाया गया वो कौन थे और आज कहां हैं। नितीन गडकरी के घर पर प्रदर्शन का विरोध करने से कोई भाजपा समर्थक नहीं हो जाता है। स्वयं अरविन्द ने गडकरी पर जो आरोप लगाए उनका क्या हुआ? वे तो स्वयं गडकरी के घर गए थे अपने साथियों के साथ और मामले पर समझौता कर लिया। सच यह है कि दोनों पक्षों के अनेक ऐसे अधखुले पहलू हैं जिनसे सबके चेहरे नंगे हो सकते हैं। इसलिए सलाह यही होगी कि जिनके घर स्वयं शीशे को हों वो दूसरों पर पत्थर नहीं मारा करते।
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208


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