अवधेश कुमार
अगर प्रियंका बाड्रा राहुल गांधी के निवास पर पार्टी के प्रमुख नेताओं के साथ बैठक में शामिल होतीं हैं तो फिर इसकी सुर्खियां बनना बिल्कुल स्वाभाविक है। महासचिव जनार्दन द्विवेदी के यह कहने भर से कि प्रियंका गांधी एक महत्वपूर्ण राजनीतिक परिवार की सदस्य हैं, हो सकता है वह सक्रिय राजनीति में हिस्सा लेती नहीं दिखती हों लेकिन वह लंबे समय से कांग्रेस की सक्रिय सदस्य है, और समय-समय पर पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ वह चर्चा करती रही हैं, अटकलों को विराम नहीं लग सकता। राहुल की अनुपस्थिति में पहले अकेले उनके घर पर प्रमुख शीर्ष नेताओं के साथ बैठक करना सामान्य घटना नहीं हो सकती। बैठक में अहमद पटेल, जयराम रमेश, जनार्दन द्विवेदी, मधुसूदन मिस्त्री, मोहन गोपाल, अजय माकन, बी. के. हरिप्रसाद, शकील अहमद शामिल थे। ध्यान दीजिए उस बैठक में छह महासचिवों एवं सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल की उपस्थिति का मतलब कांग्रेस के थिंक टैंक यानी रणनीतिकारों की उपस्थिति है। ऐसेे नेताओं के साथ राहुल के आवास पर प्रियंका की बैठक का महत्व आसानी से समझा जा सकता है। इसके दूसरे दिन स्वयं सोनिया गांधी भी इस बैठक में शामिल हुईं तो इसे किसी तरह से सामान्य मेल-मुलाकात नहीं माना जा सकता है। इस बैठक के बाद ही अलग-अलग राज्यों में लोकसभा उम्मीदवार चयन की स्क्रीनिंग समितियों की घोषणा हुई एवं उसके लिए राज्यवार प्रभारियों की भी नियुक्ति हो गई है। तो प्रियंका की औपचारिक शिरकत के अर्थ और संकेतों को समझना होगा।
प्रियंका बाड्रा पर सक्रिय राजनीति में आने की मांग तब से उठती रही है जब सोनिया गांधी ने 1998 लोकसभा चुनाव के लिए प्रचार करना स्वीकार किया था। उत्तर प्रदेश के कई क्षत्रों से बाजाब्ता प्रस्ताव पारित कर उनसे कांग्रेस में सक्रिय होने का अनुरोध किया गया। प्रियंका ने अपने को परिवार तक सीमित रखते हुए सोनिया एवं राहुल के संसदीय क्षेत्रों रायबरेली एवं अमेठी की देखभाल की जिम्मेवारी अपने ऊपर ली। उन दोनों संसदीय क्षेत्रों में प्रियंका का सीधा परिचय अनेक सक्रिय कार्यकर्ताओं नेताओं से हैै। वे अपनी समस्या लेकर जब दिल्ली आते हैं तो अनेक सोनिया एवं राहुल की बजाय प्रियंका के पास जाते हैं। इसके आगे प्रियंका ने न कभी पार्टी कार्य में रुचि दिखाई और न किसी के आग्रह पर चुनाव प्रचार मेें ही गईं। आम कांग्रेसी यह मानते रहे हैं कि यदि वे सीधे मैदान में आ जाएं तो कांग्रेस की स्थिति बेहतर होगी। 1999 में उन्होंने सुल्तानुपर में अरुण नेहरु के खिलाफ भाषण देते हुए जनता से पूछा था कि जिस आदमी ने उनके पिता के साथ विश्वासघात किया आपने उसे कैसे समर्थन दे दिया? उसके बाद सतीश शर्मा चुनाव जीत गए एवं अरुण नेहरु बुरी तरह पराजित हुए। उनके भाषण के तेवर राहुल और सोनिया से अलग आम लोगों को आकर्षित करने वाला माना गया।
यह बात सच है कि राहुल गांधी ने पार्टी के लिए अपनी समझ, सोच और सलाह के अनुसार काफी परिश्रम किया है, वर्तमान हालात में पार्टी के लिए उत्साहजनक चुनावी भविष्य की संभावनाएं पैदा नहीं हो रहीं हैं। इसमें प्रियंका की ओर नजर जाना स्वाभाविक है। किंतु प्रियंका द्वारा राहुल की जगह लेने की अभी कल्पना बेमानी है। न अभी पार्टी ऐसा चाह सकती है, न राहुल, न प्रियंका और न सोनिया ही। दूसरे, उन्होंने अभी तक यह संकेत दिया नहीं है कि वे पूरी सत्ता की राजनीति में कूदने के लिए तैयार हैं। यह सच है कि बच्चों के बड़े होने के बाद अब उनके पास पहले से ज्यादा समय है। इसलिए वे ज्यादा समय लगा सकतीं हैं। ऐसा लग रहा है कि पार्टी द्वारा आगामी 17 जनवरी को राहुल गांधी के हाथों नेतृत्व थमा देने को लेकर गंभीर विचार-विमर्श से निर्मित माहौल एवं संभावनाओं के बीच प्रियंका ने कुछ मोर्चा संभालने का निश्चय किया है। राहुल को नेतृत्व थमाने का औपचारिक ऐलान हो या नहीं इन विमर्शों मंे शिरकत करना उनकी सक्रियता को दर्शाता है। इसमें उनके मत का महत्व कितना होगा यह बताने की आवश्यकता नहीं। हो सकता है राहुल ने प्रियंका को ही यह जिम्मेवारी दी हो कि विचार-विमर्श कर जो निष्कर्ष आए उन्हें बताए या जो उचित लगे उसके अनुसार सुझाव दे। यह परिवार का भी निर्णय हो सकता है। जो भी हो यह पार्टी की निर्णय प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाना ही है। दोनों दिनों की बैठकों में उन्होंने इसके अलावा आगामी चुनाव के लिए उम्मीदवार चयन ही नहीं, नीचे स्तर तक की संरचना पर भी बातचीत की। रायबरेली संसदीय क्षेत्र की सभी पांचों विधानसभा स्थान कांग्रेस पिछले विधानसभा चुनाव मंें हार चुकी है। अमेठी में भी कांग्रेस केवल दो स्थानों पर जीत सकी। इसके बाद प्रियंका ने वहां संगठन को अपने अनुसार खड़ा किया। केवल जिला नहीं प्रखंड और न्याय पंचायत स्तर तक। इसके अलावा भी लोगों को सक्रिय करने के लिए उनने वहां कई कदम उठाए हैं।
बहरहाल, देखना यह होगा कि अंदर की विमर्श प्रक्रिया के बाहर आने वाले समय में प्रियंका किस तरह की भूमिका में आतीं हैं। 14 सितंबर 2012 को प्रियंका के राजनीति में सक्रिय होने की खबरें जब जोर पकड़ने लगीं तो उन्होंने एक समाचार चैनल को एसएमएस भेजकर कहा था कि मैं राजनीति में शामिल नहीं हो रही हूं। मैं सिर्फ अपनी मां और भाई राहुल गांधी के संसदीय क्षेत्रों का काम देखती हूं और आगे भी यह जिम्मेदारी संभाले रहूंगी। हालांकि पार्टी के नेताओं की कोशिश यही रही है कि लोकसभा चुनाव से पहले संगठन में प्रियंका की भूमिका बढ़े और वे देशव्यापी प्रचार करें। प्रियंका इस समय वंश की एक मात्र वयस्क चेहरा हैं जिनके राजनीतिक प्रभावों को परीक्षण नहीं हुआ है।कांग्रेस के नीति निर्माता नेताओं के साथ बैठकों में आने से यह तो साफ हो गया है कि प्रियंका की भूमिका का विस्तार हो रहा है। इनसे यह संकेत मिल रहा है कि उन्हें औपचारिक पद मिले या न मिले, वे राहुल गांधी एवं इन नेताओं के बीच एक कड़ी की भूमिका निभा सकतीं हैं। उपाध्यक्ष बनने के साथ राहुल पहले से ही सोनिया गांधी के बाद पार्टी में दूसरे स्थान पर हैं। लोकसभा चुनाव के लिए बनी समितियों के वे प्रमुख हैं एवं हाल में मंत्रिमंडल के निर्णय की घोषणा करने वे मंत्रियों के साथ आए तथा सरकार के अगले एजेंडे पर पत्रकारों के समक्ष बयान दिया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा तीसरी बार नेतृत्व से अलग होने की घोषणा के बाद राहुल गांधी स्वतः ही उस स्थान पर आ गए हैं।
जाहिर है, प्रियंका की सक्रियता को हमें पूरे बदले हुए परिप्रेक्ष्य में देखना होगा। न केवल राहुल की भूमिका और जिम्मेवारी बढ़ रही है, बल्कि सोनिया गांधी की अस्वस्थता उनकी पहले की तरह सक्रियता के रास्ते बाधा बन रही है। इसमें परिवार से अगर कोई आगे आने की स्थिति में है तो वह प्रियंका हीं हैं। साफ है कि प्रियंका सक्रिय भूमिका में आतीं हैं तो यकीनन नेताओं-कार्यकर्ताओं और समर्थकों का उत्साह बढ़ेगा। कांग्रेस समर्थक व नेता प्रियंका में इंदिरा गांधी की छवि देखने की बात कहते रहे हैं। वे किस रुप में आतीं हैं और कितना आगे तक जातीं हैं यह देखना होगा। अगर वे विचार-विमर्श और प्रबंधन तक सीमित रहतीं हैं तो इनसे राहुल का बोझ हल्का होगा, पर जनता के बीच इसका कोई असर नहीं होगा। अगर वे स्टार प्रचारक के तौर पर उतरतीं हैं तो इसका कुछ असर होगा। हां, कितना होगा इसका आकलन अभी कठिन है। वैसे वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों में इससे लोकसभा चुनाव के अंकगणित में बहुत बड़ा परिवर्तन आएगा ऐसा लगता नहीं। कांग्रेस के विरुद्ध व्यापक असंतोष का माहौल साफ दिख रहा है एवं मुकाबले के लिए एक ओर राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के नरेन्द्र मोदी जैसा आक्रामक एवं सभी वर्गों में लोकप्रिय व्यक्तित्व है तो दूसरी ओर एक कौतूहल दिल्ली में कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाने वाली आम आदमी पार्टी के नेता अरविन्द केजरीवाल को लेकर भी पैदा हुआ है। मोदी भी वंशवाद पर हमला करते हैं और आम आदमी पार्टी के नेता भी। ऐसे बदले हुए माहौल प्रतिकूल पस्थितियों को पार्टी के पक्ष में मोड़ देना संभव नहीं लगता। बावजूद इसके प्रियंका के आने से कांग्रेस भविष्य को लेकर आशान्वित हो सकती है।
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208