शनिवार, 23 मई 2015

यह उस मुखर भारत की विदेश नीति है जिसकी हमें कब से प्रतीक्षा थी

 

अवधेश कुमार

विदेश नीति के विशेषज्ञों की समस्या यह है कि जो परिभाषायें और शब्दावलियां द्वितीय विश्वयुद्ध फिर शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद अंतरराष्ट्रीय संबंधों की दे दी गईं उसके खांचे से वे बाहर निकलने को तैयार नहीं होते। इसमें मोदी की विदेश नीति का मूल्यांकन संभव नहीं। भारत में दुर्भाग्यपूर्ण राजनैतिक विभाजन इतना तो है ही कि विदेश नीति में भी देश हित को छोड़कर राजनीति तरीके से प्रतिक्रियायें दी जातीं हैं। मोदी की विदेश नीति के मूल्यांकन में ये दोनों कारक हाबी हैं, अन्यथा भारत के प्रधानमंत्री के रुप में वे जहां भी जा रहे हैं, लक्ष्य पाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं, उसमें सफलतायें भीमिल रहीं हैं और भारत, भारतवासी तथा इसके नेतृत्व की क्षमता व समझ के परिप्रेक्ष्य में दुनिया की सोच सकारात्मक हो रहीं हैं। निस्संदेह, एक स्थापित आधार और देशों से संबंध हमारे पहले से थे, पर मोदी ने विदेश नीति का आयाम या तो अपनी शैली से बदल दिया है या फिर जो पहले से स्थापित थें उनके काल, देश और परिस्थिति के सापेक्ष बेहतर व प्रखर बनाने की कोशिश की है।

आप 26 मई 2014 के शपथ ग्रहण समारोह में दक्षिण एशियाई नेताओं को आमंत्रित करने से लेकर 19 मई 2015 को समाप्त हुई दक्षिण कोरिया यात्रा तक देख लीजिए उनमें कुछ निरंतरतायें साफ दिखाई दंेगी। मोदी की विदेश नीति कों संक्षेप में हम मूल आठ आयामो मे देख सकते हैं। एक, जिस देश में जाना वहां की संस्कृति, धर्म, अध्यात्म, इतिहास, लोगों के बसने का सूत्र आदि की जानकारी हासिल कर उनको इन सभी आधारों पर भारत से बिल्कुल भावनात्मक संबंधों की स्थापना का सूत्र देना। मोदी की विदेश नीति में सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और धार्मिक तत्व काफी प्रखरता से जुड़े हैं। दो, वह देश हमें क्या दे सकता है, हम क्या दे सकते हैं, द्विपक्षीय संबंधों को ठोस बनाने का मुख्य आधार क्या होगा, अंतरराष्ट्रीय पटल पर साथ कहां-कहां किन मामलों पर हो सकता है आदि का पूरा अध्ययन कर निष्कर्ष निकालना और उसके अनुसार ही बातचीत एवं समझौते करना। तीसरा, भारत, उसके नेता एवं यहां के निवासियों की ऐसी छवि बनाना ताकि विदेशी उद्योगपति, कारोबारी एवं सरकारें यहां अधिक धन लगाने को प्रेरित हों। उनकी कूटनीति में आर्थिक और व्यापारिक तत्व भी प्रबल है। चौथा, भारतवंशियों को भारत के साथ जोड़ने के लिए प्रभावी आयोजन करना। पांचवें, देश के अंदर और बाहर के भारतवंशियों को अपने प्रति गौरवबोध कराना। किसी भारतीय का विश्व मंें कहीं कोई योगदान है जिसे भुला दिया गया है तो उसे श्रद्धांजलि देकर पुनः स्मृति में ले आना। छठा, भारत की विश्व के अग्रणी देश और विश्व में इसकी प्रमुख भूमिका के रुप में पहचान स्थापित करना। सातवां, संपन्न देश हों या असंपन्न नेताओं से निकटतम संबंध बनाना तथा उनको अपने अनुसार बातचीत करने या घूमने के लिए तैयार करना जिससे विश्व में मनमाफिक संदेश जा सके। और आठवां, पड़ोसी देशों यानी दक्षिण एशिया के संबंधों को नये धरातल पर खड़ा करना। ये आठों आयाम मोदी के विदेशी दौरों में पूरी उत्तुगंता से प्रतिध्वनित होतीं हैं।

भारत की विदेश नीति के बारे में हमारे मनीषियों ने बिल्कुल अलग कल्पना की थी। गांधी जी से लेकर महर्षि अरविन्द, विवेकानंद, टैगोर ही नहीं सुभाष बाबू को भी आप पढ़ेंगे तो सबने भारतीय संस्कृति, धर्म और अध्यात्म में वो तत्व देखे थे जो भौतिकता, तनाव और अशांति के इस दावानल को ठंढा कर विश्व को रास्ता दिखा सकता है। सबकी मान्यता थी कि भारत की विदेश नीति के ये मूल तत्व होेने चाहिएं, क्योंकि हमें विश्व का मार्ग दर्शक बनना है। मोदी ने बिना घोषणा किए इसकी नींव डाली है। वे जिस देश में गए वहां मंदिर, गुरुद्वारा, बौद्ध विहारों में अवश्य गये, वहां रुके और यात्रा के अन्य कार्यक्रमों की तरह इसे महत्व दिया। इससे जो माहौल बन रहा है वह अद्भुत है। भारतीय संस्कृति और सभ्यता की शाखा और इसे आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, धार्मिक सहोदर मानने का भाव पैदा होना शुरु हो गया है। यह भारत की दुष्टि से ऐतिहासिक मोड़ है जिसके परिणाम आने वाले समय में दिखाई दंेगे। कोई कल्पना कर सकता था कि मंगोलिया जैसा चीन एवं रुस की सीमा पर बसा और उनके दबाव एवं प्रभाव से दूर रहने वाला देश मोदी के दौरे से उस तरह गदगद होगा और हमारी मदद को एकदम अपनत्व से स्वीकार करेगा। सिचिल्स में भी तो यही हुआ है।

आप एक भी दौरा ऐसा नहीं देखेंगे जहां किसी भारतीय ने यदि कुछ इतिहास के कालखंड में वहां जाकर किया है, उसे वे याद नहीं करते, उनके इतिहास को भारत से नहीं जोड़ते। आज के वैश्विक ढांचे के तहत शुष्क बातचीत और समझौता ही विदेश नीति है! वो भी है, पर उससे हम अन्य सभी देशों की कतार में ही खड़े होते हैं। मूल बात है भारत को विश्व में एक विशिष्ट देश के रुप मेें पहचान देना। यह मोदी की विदेश नीति से संभव हो रहा है। यह मोदी की विदेश नीति का प्रभाव है कि योग को संयुक्त राष्ट्रसंघ ने मान्यता दे दी।

मोदी जहां भी गए और उनमें जहां आवश्यक था, भारतवंशियों की सभा पूरी तैयारी और बड़े इवेंट के रुप में रखवाई। उनके प्रभाव भी विद्युत सरीखे हो रहे हैं। भारतवंशियों के एक होने, जहां हैं वहीं दूत बनकर भूमिका निभाने तथा भारत के लिए कुछ करने की चेतना जागृत करने की कोशिश मोदी कर रहे है। पहले भी विदेशी दौरों में प्रधानमंत्री भारतवंशियों की सभायंे करते थे, पर विदेश नीति के मूल अपरिहार्य तत्व के रुप में उसे ऐसी व्यापक तैयारियों, भव्यताओं का स्वरुप देकर और प्रचार माध्यमों के भरपूर प्रयोग के सुनियोजन से नहीं होता था। आज मोदी की विदेश नीति का यह प्रमुख आयाम है। यही मौलिक अंतर है। उन सभाओं का असर वहां के नेताओं, कारोबारियों, बौद्धिक वर्ग तथा प्रशासन पर भी होता है। अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा कहते हैं कि मोदी का जिस तरह न्यूयॉर्क के मेडिसन स्क्वायर में रौक स्टार की तरह स्वागत हुआ उससे वे और उनका प्रशासन प्रभावित हुआ। यही बात ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री टौनी एबॉट ने कही। वे उन देशों में किन्हीं कारणों से शहीद हुए भारतीयों को श्रद्धांजलि देने जाते हैं तो एक अलग किस्म का संवेदनशील माहौल बनता है। वे जब विदेशी स्वयं भारत माता की जय के नारे लगवाते हैं तो एक स्फुरण सा आम भारतीयों के अंदर पैदा होता है। फ्रांस और कोरिया आदि में हमने इसे देखा।

मोदी विश्व के वर्तमान ढांचे में मानते हैं कि भारत की आर्थिक और व्यापारिक ताकत जितनी बढ़ेगी उनकी विदेश नीति के मूल आयाम जो शुद्ध भारतीय हैं उनकी प्रभाविता का भी उतना ही विस्तार होगा। यानी सांस्कृतिक आध्यात्मिक के साथ आर्थिक सशक्ता का संतुलन। इसलिए वे हमारे देश के संबंधित अधिकारियों को उस देश के अधिकारियों से बातचीत कर कहां कहां व्यापार व निवेश संभव है उन पर विस्तृत काम कराते हैं, कारोबारियों को वहां के कारोबारियो ंसे मिलान कराते हैं, कंपनियों के प्रमुखों के साथ बड़ा आयोजन रखते हैं- जहां वे बाजार अर्थव्यवस्था में भारत की ऐसी छवि पेश करते हैं जिनसे वे यहां आकर अपना उद्योग, निर्माण कारखाना लगाएं, कारोबार का केन्द्र भारत को भी बनाएं। इनमें सफलतायें मिलनी आरंभ हो गईं हैं। मोदी ने मेक इन इंडिया की अपनी आर्थिक कूटनीति से संदेश दे दिया है कि भारत की रुचि अब केवल उत्पाद का बाजार बने रहने में नहीं उत्पाद का केन्द्र बनने में है। एक मोटामोटी आकलन करें तो इन बैठकों से मोदी सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर 300 अरब डॉलर के करीब निवेश का करार कर चुके है। इससे कई गुणा ज्यादा पर बातचीत हो रही है।

जहां तक विश्व पटल पर भारत के कद का प्रश्न है तो मोदी विश्व की एकल महाशक्ति अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा से एकदम समान दोस्त की तरह टहलते हुए कैमरों के सामने गुफ्तगु करते हैं, बराक कहकर संबोधित करते हैं तो उसका संदेश दुनिया मंें जाता है। कई देशों के प्रमुखों को वो इसी तरह संबोधित करते हैं। यह पहले नहीं हुआ। ओबामा मोदी के साथ रेडियो पर मन की बात करते है। इन सबसे दुनिया में यह संदेश जाता है कि अमेरिका का नेता जब भारत के साथ समान व्यवहार कर रहा है तो फिर उसमें कुछ जान तो है। यह भारत की अघोषित ब्रांडिंग की रणनीति है। दक्षिण एशिया में नेपाल को छोड़कर जहां भारत को लेकर आशंकायें ज्यादा थीं वहां मोदी ने रिश्तेदारों की तरह नए संबंध गढ़े हैं।  इन देशों के नेता मोदी से सलाह और सहयोग उस तरह मांग रहे हैं जैसे अपने विश्वसनीय दोस्त से मांगा जाता था। यह इसीलिए हुआ कि मोदी ने संस्कृति, इतिहास, और धर्म के धरातल पर इनको लाया, आगे बढ़कर विश्वास पैदा किया तथा सतत संपर्क में रहने लगे।

तो मोदी ने विदेश नीति में ऐसे आयाम खड़े करने की नींव डाली है, उसके कुछ स्तंभ खडे किए हैं जिन पर जो भव्य भवन खड़ा होगा उसमेें भारत के साथ दुनिया के ऐसे देशों का समूह होगा जिनकी आवाज एक होगी, वो विश्व कल्याण की होगी, अन्याय के विरोध की होगी, दूसरे देश भी विवश होकर भारत को विश्व का प्रमुख नीति निर्धारक मानने को विवश होंगे तथा भारत मंें इतना धन आएगा कि यहां की बनी हुई सामग्रिंया और सेवायें दुनिया के बाजारों में उपलब्ध होंगी।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरः01122483408, 09811027208

 

 

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