जन्माष्टमी पर विशेष
शिव शंकर द्विवेदी
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।। श्रीमद्भगवद्गीता,अध्याय -4श्लोक-13।।
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते।। श्रीमद्भगवद्गीता,अध्याय -4श्लोक-14।।
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।। श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय -3, श्लोक- 27।।
यहां प्रश्न है कि वह अर्थात् परमात्मा अकर्ता हैं तो स्वयं को कर्ता भी कैसे समझा रहे हैं।वह स्वयं को गुण कर्म के विभाग से बनी वर्ण व्यवस्था के कर्ता घोषित भी कर रह रहे हैं - तस्य कर्तारमपि मां विद्धि ......।
उक्त श्लोक ही उक्त प्रश्न का समुचित उत्तर देने में सक्षम है। उक्त श्लोक यह समझाने में सक्षम है कि जो गुणों के आधीन हैं या जो लोग प्रकृति के आधीन हैं वे प्रकृति के निर्देश पर काम करते हैं अर्थात् उनके द्वारा जो कुछ किया जाता है उसे उनके स्वभाव या उनकी प्रकृति नियन्त्रित करती है इस कारण उनका अज्ञान है कि वे स्वयं को कर्ता समझते हैं क्योंकि उन्हें तो आदेश उनका स्वभाव दे रहा है। इसके विपरीत परमात्मा के वश में उनका स्वभाव या उनकी प्रकृति है। ऐसे में उनकी प्रकृति जो कुछ कर रही होती है वह परमात्मा के निर्देश में कर रही होती है।यही कारण है कि परमात्मा ने स्वयं को वर्ण व्यवस्था का कर्ता घोषित किया था क्योंकि वर्ण व्यवस्था उनके द्वारा सोची समझी गयी व्यवस्था है। वर्ण-व्यवस्था को उनके स्वभाव ने नहीं सोचा है अपितु परमात्मा ने सोचा है इस कारण उसे मूर्त रूप देने वाले परमात्मा ही इसके कर्ता हैं।
श्रीकृष्ण की संवीक्षा है कि व्यक्ति जब गुणों के आधीन होता है तब वही काम करता है अथवा उसी के विषय में सोचता है जिस गुण की प्रधानता के वशीभूत होता है। जैसे कि जब वह सत्वगुण की प्रधानता में रहता है तब उससे बुरे या समाज विरोधी कार्यों के करपाने की आशा नहीं व्यक्त करना चाहिए क्योंकि वह बुरे या समाज विरोधी कार्यों को कर ही नहीं सकता है। इसी तरह से तमोगुण प्रधान वाले व्यक्ति से अच्छे अथवा समाजोपयोगी कार्यों की अपेक्षा करनी ही नहीं चाहिए क्योंकि तमोगुण प्रधान वाले लोग अच्छे या समाजोपयोगी कार्यों को कर ही नहीं सकते हैं। इस प्रकार श्रीकृष्ण का अभिमत है कि गुणों के वशवर्ती लोग वही कर पाते हैं जिस गुण की प्रधानता में वे रहते हैं।ऐसे में जबकि वे गुणों के वशवर्ती होने के कारण स्वेच्छा से कोई काम कर ही नहीं पाते हैं तो इसके बाद भी वे स्वयं को कर्ता समझ रहे होते हैं तो इसका अर्थ है कि वे अहंकार के वशीभूत भी होते हैं।अहंकार उन्हें इस तथ्य से अवगत होने ही नहीं देता है कि वे गुणों के वशवर्ती हैं। अत एव वे वही कर रहे होते हैं या कर सकते हैं जो प्रधान गुण उनसे कराना चाहते हैं।गुण प्रकृति अर्थात् स्वभाव के द्योतक हैं। अत एव यह समझना ही तथ्य को समझना है कि जो लोग स्वभाव के वशवर्ती होते हैं वे वास्तविक रूप से कर्ता नहीं हैं क्योंकि वास्तविक कर्ता तो उनका स्वभाव है, उनकी प्रकृति है जिसके वशवर्ती वे लोग होते हैं। इसके बावजूद भी स्वयं को कर्ता समझना उनकी मूढ़ता है।यही है -अहंकार विमूढात्मा का अर्थ।
जब श्रीकृष्ण स्वयं को कर्ता समझाते हैं तो उसका अर्थ होता है कि,वह स्वभाव के वशवर्ती नहीं हैं अपितु स्वभाव ही उनके वशर्ती हैं। हमें इस त्रुटिपूर्ण सोच से बचना चाहिए कि परमात्मा स्वभाव शून्य हैं। वास्तविकता तो यह है कि परमात्मा स्वभाव शून्य नहीं हैं अपितु स्वभाव उनके वश में है।हम मानव, स्वभाव के वश में हैं और परमात्मा के वश में उनका स्वभाव है,उनकी प्रकृति है-
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया।। श्रीमद्भगवद्गीता,अध्याय -4श्लोक -6।
आगे वह संसार की रचना करते हुए की स्थिति पर प्रकाश डालते हुए बताते हैं कि वह
अपनी प्रकृति को अपने वश में करके संसार की रचना करते हैं -
प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः।
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्।।
श्रीमद्भगवद्गीता,अध्याय- 9,श्लोक-8।।
उक्त दोनों श्लोक यह समझने के लिए पर्याप्त हैं कि परमात्मा की प्रकृति या परमात्मा का स्वभाव उनके वश में है न कि वह अपने स्वभाव या अपनी प्रकृति के वश में हैं।
परमात्मा के वश में उनकी प्रकृति है इसी कारण उन्होंने स्वयं को कर्ता कहा है और मनीषी लोग भी उन्हें कर्ता ही समझते और समझाते हैं।
परमात्मा ने स्वयं को अकर्ता समझा है और यह भी कहा कि मनीषी लोग उन्हें अकर्ता समझते हैं क्योंकि वह स्वयं कुछ नहीं करते हैं वास्तविकता तो यह है कि वह अपनी प्रकृति या स्वभाव से कर्म करवाते हैं। वह लोगों से कर्म करवाते हैं।लोग उनके लिए निमित्त बनकर उनके निर्देशों का पालन करते हैं। यही कारण रहा है कि श्रीकृष्ण ने अर्जुन से सम्मुख उपस्थित युद्ध में निमित्त कर्ता बनने का अनुरोध किया था-
तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लाभस्व
जित्वा शत्रुन् भुङ्क्षव राज्यं समृद्धम्।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव
निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्।।
श्रीमद्भगवद्गीता,अध्याय- 11, श्लोक-33।
उक्त से सुस्पष्ट है कि जब श्रीकृष्ण अकर्ता होते हुए भी स्वयं को कर्ता भी घोषित करते हैं तो इसका कारण यह है कि वह लोगों के लिए कर्म नियत या निर्धारित करते हैं। व्यवस्था हेतु लोगों के लिए नियतकर्म निर्धारित करते समय वह कर्ता होते हैं।
इसका अर्थ है कि वास्तविक कर्ता वह है जो त्रिगुतीत होकर अथवा अपनी प्रकृति को अपने वश में करके कर्तव्य बोध से युक्त होकर वह करे, जो उसके लिए नियत हो।
व्यवस्था के लिए लोगों के गुण और कर्म के विभाग से आधार पर उनके करने योग्य कर्मों का निर्धारण करना परमात्मा ने अपने लिए कर्म नियत कर रखा है इतना ही नहीं, व्यवस्था पर संकट की स्थिति में व्यवस्था को सुचारू रूप संचालित करने के लिए बार-बार अवतरित होना भी परमात्मा ने अपने लिए नियत कर्म के रूप में निर्धारित कर रखा है-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ श्रीमद्भगवद्गीता,अध्याय -4, श्लोक-7॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसं स्थापनार्थाय संभावनामि युगे युगे ॥ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय -4, श्लोक-8॥
मद्भाव का अर्थ बोध
जब श्रीकृष्ण कहते हैं कि,उनकी कृपा से लोग मद्भाव को प्राप्त करते हैं तो उसका यही अर्थ होता है कि उनकी कृपा से लोग अपने स्वभाव को अपने वश में उसी तरह करने में सक्षम होते हैं जिस तरह से परमात्मा अपने स्वभाव को अपने वश में करने में सक्षम हैं।
परमात्मा ही वह हैं जिनका स्वभाव उनके वश में हैं और वह नियतकर्म करने में सक्षम हैं। लोगों के लिए नियतकर्म निर्धारित करते समय भी परमात्मा निस्पृह होकर नियतकर्म निर्धारित करते हैं। अपने हित के आधार पर वह लोकहित को नहीं देखते हैं।ऐसे में लोकहित में व्यवस्था को सुचारू रूप से संचालित करने के उद्देश्य से लोगों के लिए नियतकर्म निर्धारित करते समय वह केवल और केवल लोकहित को ही ध्यान में रखते हैं। ऐसे में वास्तविक रूप में कर्ता वे हैं जिसके वश में उसके स्वभाव हैं। स्वभाव को अपने वश में रखने वाला ही ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त हुआ होता है। ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त हुआ व्यक्ति ही मद्भाव को प्राप्त हुआ व्यक्ति है।ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त हुआ व्यक्ति ही नियतकर्म करता है क्योंकि इस स्थिति में पहुंचने वाले लोगों के पास काम्य कर्म बचता ही नहीं है।वे इस स्थिति में आने के उपरान्त निजी कामनाओं के वशीभूत होकर कुछ नहीं करते हैं इस दृष्टि से वे भी कर्ता होते हैं। इस प्रकार जो कर्ता होते हैं उन्हें उनके द्वारा किये गये कर्मों के परिणाम बाधित नहीं करते हैं क्योंकि वे किसी परिणाम की प्रत्याशा में कोई कर्म नहीं करते हैं अपितु इस लिए करते हैं कि वे उनके लिए निर्धारित हैं।
कर्ता और अकर्ता का अर्थ बोध
उक्त से सुस्पष्ट है कि गुणों,प्रकृति या स्वभाव के वश में न रहने वाले परमात्मा स्वाभाविक रूप से अकर्ता हैं क्योंकि लोकहित में निर्धारित कर्मों को लोगों से करवाते हैं किन्तु जब वे लोकहित में नियतकर्म करते तब वे कर्ता होते हैं क्योंकि नियतकर्म वे किसी गुण के अधीन होकर नहीं करते हैं अपितु कर्तव्य बुद्धि से करते हैं।इस प्रकार समझ सकते हैं कि कर्तव्य बुद्धि से युक्त होकर कार्य करने वाले ही वास्तविक रूप से कर्ता हैं।इसी लिए परमात्मा ने स्वयं को कर्ता घोषित किया है। वह अकर्ता होते हुए भी नियतकर्म करते हैं इस कारण वह कर्ता भी हैं।
(लेखक अ-मोक्ष साधना केंद्र राजनिकेतन वृन्दावन योजना लखनऊ हैं।)