शनिवार, 7 मार्च 2020

जेएनयू देशद्रोह मामले में राजनीति

 

अवधेश कुमार

दिल्ली की अरविंद केजरीवाल सरकार द्वारा देशद्रोह के चार साल पुराने मामले में मुकदमा चलाने के लिए दिल्ली पुलिस को मंजूरी दिए जाने के साथ जो विवाद पैदा हुआ है उसे बिल्कुल स्वाभाविक माना जाना चाहिए। जेएनयू में देशद्रोही नारे के साथ हुई कानूनी कार्रवाई के बाद राजनीतिक दलों ने जैसा हंगामा किया था, जेएनयू में इन नारा लगाने वाले छात्रों के समर्थन में जैसी सभाएं हुईं उसे याद करिए तो वर्तमान विवाद कुछ नहीं है। जब गैर भाजपा दलों के ज्यादातर नेताओं ने नारा लगाने वालों के पक्ष में एकजुटता दिखाई, सरकार को फासीवादी से लेकर आपातकाल लगाने और न जाने क्या क्या कहा तो वे इन पर मुकदमा चलाने की अनुमति का समर्थन कैसे कर सकते हैं? पूर्व गृहमंत्री पी चिदंबरम की प्रतिक्रिया सबसे पहले आई। उन्होंने ट्वीट कर कहा कि दिल्ली सरकार की समझ भी राजद्रोह कानून को लेकर केंद्र सरकार से कम नहीं है। कन्हैया कुमार और अन्य के खिलाफ भारतीय दंड सहिंता (आईपीसी) की धारा 124ए और 120बी के तहत राजद्रोह का केस चलाने की मंजूरी देने का कड़ा विरोध करता हूं। दूसरी पार्टियां कह रहीं हैं कि भाजपा और आप एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जब तक केजरीवाल सरकार फाइल पर पंजा डाले चुपचाप बैठी थी तब तक वो सही थी लेकिन जैसे ही उसने अनुमति दी वह खलनायक हो गई। क्या मुकदमा चलाने की अनुमति मांगने वाली फाइल पर कोई निर्णय होना ही नहीं चाहिए था?

चिदंबरम लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की घोषणा पत्र समिति के अध्यक्ष थे जिसमें देशद्रोह कानून खत्म करने का वायदा किया गया था। अगर आप एक वर्ष में न्यायिक कार्रवाई को देखें तो न्यायालय ने बार-बार पूछा कि अनुमति क्यों नहीं मिल रही है? न्यायालय ने कई बार टिप्पणियां की कि सरकार स्थायी रुप से फाइल को दबाकर नहीं रख सकती। जिन लोगों को न्यायालय पर विश्वास है उनको तो मांग करनी चाहिए थी कि दिल्ली सरकार मुकदमा चलाने वाली फाइल को क्लियर करे। आखिर न्यायालय बिना तथ्यों के किसी को सजा तो दे नहीं सकता। नियमों के मुताबिक जांच एजेंसियों को राजद्रोह के मामलों में आरोपपत्र दाखिल करने के लिए राज्य सरकार की मंजूरी लेनी होती है। दिल्ली सरकार के रवैये को देखते हुए दिल्ली पुलिस ने 14 जनवरी 2019 को पटियाला हाउस की विशेष अदालत में आरोप पत्र दाखिल कर दिया। आरोप पत्र दाखिल होने के बाद अगली तारीख पर न्यायालय ने दस दिनों में मंजूरी लाने का समय दिया था। कायदे से 24 जनवरी को इसकी अनुमति मिल जानी चाहिए थी। 20 जनवरी 2019 को न्यायालय ने दिल्ली के विधि विभाग से बिना अनुमति लिए बगैर आरोप पत्र दाखिल करने दिल्ली पुलिस से सवाल भी किए थे। पुलिस ने अदालत से कहा था कि वह 10 दिनों में विधि विभाग व अन्य संबंधित विभागों से मंजूरी ले लेगा। 6 फरबरी 2019 को न्यायालय ने नाराजगी जताते हुए कहा कि वे अनिश्चितकाल तक फाइल को लेकर बैठ नहीं सकते। इसके बाद यह बताने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए कि किस तरह दिल्ली सरकार ने एक औपचारिकता पूरी करने के नाम पर न्यायिक प्रक्रिया को बाधित रखा। 

 14 जनवरी  2019 को दिल्ली पुलिस ने जेएनयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार समेत 10 लोगों के खिलाफ जो आरोपपत्र दाखिल किया था उस पर नजर डालना आवश्यक है। जेएनयू परिसर में 9 फरवरी 2016 को जिस तरह के नारे लगे उसे देश हजारों बार सुन चुका है। यह कार्यक्रम संसद हमले के मास्टरमाइंड अफजल गुरु को फांसी दिए जाने की बरसी पर आयोजित किया गया था। 1200 पृष्ठों के आरोप पत्र में कन्हैया कुमार, उमर खालिद, अनिर्बान भट्टाचार्य, शेहला रशीद, अकीब हुसैन, मुजीब हुसैन, मुनीब हुसैन, उमर गुल, रेयेया रसूल, बशीर भट और बसरत के नाम शामिल हैं। 36 अन्य के नाम आरोपपत्र की कॉलम संख्या-12 में हैं जिनके खिलाफ सबूतों केा अपर्याप्त बताया गया है। आरोपियों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए (राजद्रोह), 323 (किसी को चोट पहुंचाने के लिए सजा), 465 (जालसाजी के लिए सजा), 471 (फर्जी दस्तावेज या इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड को वास्तविक के तौर पर इस्तेमाल करना), 143 (गैरकानूनी तरीके से एकत्र समूह का सदस्य होने के लिए सजा), 149 (गैरकानूनी तरीके से एकत्र समूह का सदस्य होना), 147 (दंगा फैलाने के लिए सजा) और 120बी (आपराधिक षड्यंत्र) के तहत आरोप लगाए गए हैं। इन धाराओं को लेकर यकीनन दो मत हो सकते हैं। किंतु पुलिस ने इसमें काफी प्रमाण और तथ्य पेश किए हैं। आरोपपत्र में सीसीटीवी फुटेज, मोबाइल फोन के फुटेज,फोरेंसिक और फेसबुक डेटा के साथ दस्तावेजी प्रमाण हैं। वीडियो व फोन की लोकेशन भी सबूत के तौर है। 50 पृष्ठों में साक्ष्य व दस्तावेजों की सूची है। घटनास्थल पर मौजूद लोगों की पहचान फेसबुक डेटा का विश्लेषण और इलेक्ट्रॉनिक सर्विलांस के जरिए की गई। आरोपियों के फेसबुक प्रोफाइल में कई सबूत हाथ लगे। एक आरोपी ने नारेबाजी की वीडियो अपने फेसबुक पर डाल रखी थी। इन आरोपियों ने पूछताछ में बताया कि उन्हें ज्यादा से ज्यादा छात्रों को लेकर आने के लिए कहा गया था। जो वीडियो मिले, उन सबकी फोरेंसिक जांच कराई गई और सही साबित होने के बाद आरोप पत्र में शामिल किया गया। 90 गवाहों के नाम है। भीड़ द्वारा भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशाअल्लाह, इंशाअल्लाह.... नारेबाजी के विडियो पर फरेंसिक साक्ष्य भी पेश किए हैं। 

पुलिस के साक्ष्य एवं गवाह कहां तक ठहरते हैं इस बारे में कोई टिप्पणी करना उचित नहीं है। आरोप पत्र में कहा गया है कि 9 फरवरी 2016 की गतिविधि के लिए अनुमति की प्रक्रिया भी पूरी नहीं की गई थी। प्रदर्शनकारियों को रोका गया और बताया गया कि कार्यक्रम के लिए अनुमति नहीं है। कन्हैया कुमार आगे आए और सुरक्षा अधिकारी के साथ बहस करने लगे और भीड़ में मौजूद लोगों ने नारेबाजी शुरू कर दी। हालांकि कन्हैया कुमार ने स्वयं नारे लगाए या नहीं या जिन लोगों ने नारे लगाए उनको इनका समर्थन था या नहीं इनको साबित करना आसान नहीं होगा। इस तरह मामले की न्यायिक परिणति के बारे में कुछ भी कहना कठिन है। फैसला जो भी हो, लेकिन जो नारे लगे उसे देश विरोधी मानने में किसी को संकोच नहीं हो सकता। नारों पर ध्यान दीजिए- ‘तुम कितने अफजल मारोगे, हर घर से अफजल निकलेगा’, ‘ तुम कितने मकबूल मारोगे हर घर से मकबूल निकलेगा’, ‘अफजल के अरमानों को हम मंजिल तक पहुंचाएंगे’, ‘पाकिस्तान जिन्दाबाद’, ‘ हम क्या चाहें आजादी, हक हमारा आजादी’, ‘कहकर लेंगे आजादी,कश्मीर मांगे आजादी’, ‘कश्मीर की आजादी तक, जंग रहेगी जंग रहेगी, भारत की बर्बादी तक, जंग रहेगी जंग रहेगी’.........। इन नारों से पूरे देश का खून खौल गया था। अफजल को 9 फरवरी, 2013 और मकबूल भट को 11 फरवरी, 1984 को फांसी दी गई थी। जेएनयू में ‘द कंट्री विदाउट ए पोस्ट ऑफिस’ के नाम से कार्यक्रम आयोजित किया गया था। इसके पोस्टर पर छोटे अक्षरों में लिखा था- , ‘लोकतांत्रिक अधिकार- आत्मनिर्णय के समर्थन के लिए कश्मीरी लोगों के संघर्ष के साथ एकजुटता में।.....अफजल और मकबूल की ज्यूडिशियल किलिंग यानी न्यायिक हत्या के खिलाफ। पोस्टर की ये पंक्तियां भी देश विरोधी थीं। 

न्यायालय इन्हें देशद्रोह का मामला मानेगा या नहीं यह कानूनी पेचीदगियों का मामला हो सकता है, पर ये विचार भारत विरोधी हैं इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती। कोई भारत की बर्बादी का नारा लगाए, भारत को तोड़ने का नारा लगाए, जिन्हें हमारे उच्चतम न्यायालय ने फांसी की सजा दी और राष्ट्रपति ने उस पर अपनी मुहर लगाई हो उसे न्यायिक हत्या कहे, पाकिस्तान जिन्दाबाद बोले....... उसे भारत विरोधी नहीं तो और क्या कहा जा सकता है? अफजल और मकबूल के अरमानों को पूरा करने के संकल्प का अर्थ क्या है? क्या ये उसी तरह बनना चाहते हैं? यह तो देश का दुर्भाग्य है कि ऐसा मामला भी राजनीतिक विकृति का शिकार हो गया, अन्यथा इसके दोषियों को चिन्हित कर अब तक सजा मिल जानी चाहिए थी तथा पूरे देश का एक स्वर में इसका समर्थन मिलना चाहिए था। वैसे उमर खालिद ने 10 जुलाई 2016 को अपने फेसबुक पोस्ट पर हिजबुल आतंकवादी बुरहान मुजफ्फर वानी की तुलना अर्जेंटीना के मार्क्सवादी क्रांतिकारी चे ग्वेरा से कर डाली। उसने लिखा वानी आजाद जिया आजाद मरा...-  ‘चे ग्वेरा ने कहा था कि अगर मैं मारा भी जाऊं तो मुझे तब तक फर्क नहीं पड़ता, जब तक कोई और मेरी बंदूक उठाकर गोलियां चलाता रहेगा। शायद यही शब्द बुरहान वानी के भी रहे होंगे। - उमर ने लिखा, कश्मीर पर कब्जे का खात्मा हो। भारत, तुम उन लोगों को कैसे हराओगे जिन्होंने अपने डर को हरा दिया है। हमेशा ताकतवर रहो बुरहान। एक आतंकवादी का इस तरह महिमामंडित कर उसका समर्थन करना देश विरोधी गतिविधि ही तो मारना जाएगा। ऐसे लोगों के खिलाफ मुकदमा चलाने की औपचारिकता में इतनी देरी दिल दहलाने वाली है। 

अवधेश कुमार, ई-30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर-01122483408, 09811027208  


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