शनिवार, 17 मई 2014

कांग्रेस की पराजय यूं ही नहीं हुई

अवधेष कुमार

कांग्रेस का दो अंको में सिमटना इस चुनाव परिणाम का ऐसा पहलू है जो भारतीय राजनीति में आमूल बदलाव का सूचक बन रहा है। ऐसी दुर्गति की कल्पना कांग्रेस के कटटर दुष्मनों ने भी नहीं की होगी। यह ऐसा आघात है जिससे कांग्रेस को बाहर निकलने में न जाने कितना समय लगेगा। उसकी सीटों के साथ मतों में भी भारी कमी आई है। कई राज्यों से तो लोकसभा में उसके प्रतिनिधि तक नहीं पहुंच पाए। हालांकि चुनाव अभियान के साथ कुछ बातें बिल्कुल आईने की तरह साफ झलक रही थी। जैसे-जैसे चुनाव अभियान आगे बढ़ा, एक एक चरण खत्म होता गया, यह स्पश्ट होने लगा कि कांग्रेस एवं संप्रग अपनी बुरी पराजय की खाई में गिरने जा रही है। यह अकारण नहीं था कि कांग्रेस के कई नेताओं ने चुनाव लड़ने से ही स्वयं को अलग कर लिया। यह असाधारण स्थिति थी। जब पार्टी का ऐसा मनोविज्ञान हो तो फिर उसके विजय की कल्पना कौन कर सकता था। यह भी न भूलिए कि महाराश्ट्र का चुनाव संपन्न होेने के साथ ही मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने सेक्यूलरवाद के नाम पर किसी फ्रंट को समर्थन देने का विचार प्रकट कर दिया तो सलमान खुर्षीद ने भी। आज महाराश्ट्र के परिणाम ने साबित कर दिया कि चव्हाण को कांग्रेस राकांपा के सूपड़ा साफ हो जाने का अनुमान लग गया था। 

तो कुल मिलाकर कांग्रेस के अंदर पराजय की सामूहिक मानसिकता कायम थी। राहुल गांधी ने यह कहकर कि हम स्वयं सरकार बनाएंगे, केवल नेता के नाते पार्टी का आत्मबल बनाए रखने की रणनीति अपनाई, अन्यथा अगर 10 जनपथ और उनके पास सही सूचना देने वालों की टीम है तो उन्हें भी जमीनी वास्तविकता का अहसास हो गया होगा। निस्संदेह, यह प्रष्न सबके मन में उठेगा कि आखिर कांग्रेस और संप्रग की ऐसी पराजय क्यों हुई। जिस कांग्रेस के वोट में 1998 से लेकर 2009 तक 2 करोड़ 39 लाख 9 हजार 888 की वृद्धि हुई वह आखिर अचानक ऐसी दषा को क्यों प्राप्त हुई? सामान्य विष्लेशण यह है कि महंगाई रोकने में नाकामी, भ्रश्टाचार के रिकाॅर्ड खुलासे और उसके बारे में मंत्रियों और नेताओं के ऐसे रवैये जिसे लेकर संदेह घटने की बजाय पुख्ता ज्यादा हुए....., सरकार के अंदर एकरुपता के अभाव से निकलते अराजकता के संदेष.....बिगड़ती आर्थिक स्थिति, पाकिस्तान से निपटने में स्पश्ट नीति का अभाव...... आदि ने जनता के मन में उसके प्रति केवल गहरी निराषा ही नहीं, असीम विरोध का भाव पैदा किया और उसका वही विरोध प्रचंड रुप से इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मषीनों में प्रकट हुआ है। 

निस्संदेह, ये कारण थे और कांग्रेस जनता की सोच को अपने अनुकूल परिवर्तित करने में सफल नहीं रही। आखिर जिस प्रधानमंत्री का मीडिया सलाहकार रहा व्यक्ति ऐन चुनाव के बीच अपनी पुस्तक लेकर आता है, उसमें आरोप लगाता है कि डाॅ. मनमोहन सिंह सोनिया गांधी के सामने लाचार थे और महत्वपूर्ण निर्णय बगैर उनकी हरि झंडी के कर नहीं पाते थे....मतदाताओं के मन पर उस सरकार एवं पार्टी की छवि कैसी बनेगी? भले संजय बारु की पुस्तक में तथ्यात्मक दोश हों, या कुछ अतिवादी दावे भी हों, लेकिन आम नागरिक इतनी गहराई में कहां जाता है, उसने तो जो सुना, अखबारों में पढ़ा और फिर नेताओं की जो टिप्पणियां सुनीं उन सबके आधार पर ही अपना मत बनाता है। कांग्रेस के रणनीतिकारों का दिवालियापन देखिए कि इसका जवाब प्रधानमंत्री को देना चाहिए था, क्योंकि चुनाव का समय था, लेकिन जवाब दे रही है पार्टी, वह भी लेखक के इरादे पर प्रष्न उठाकर, फिर सामने आ रहे हैं वर्तमान मीडिया सलाहकार कुछ दूसरे तथ्यों के साथ। इससे भी यही संदेष निकला कि वाकई प्रधानमंत्री को पंगु बनाकर रखा गया। 

ध्यान रखिए, भाजपा की ओर से नरेन्द्र मोदी ने कांग्रेस पर सबसे बड़ा हमला यही किया कि नेहरु इंदिरा परिवार स्वयं कोई जिम्मेवारी न लेकर अपने आदेषपाल के रुप में किसी केा सरकार का नेतृृत्व थमाती है। अगल-अलग तरीकों से, अलग-अलग षब्दों से मोदी इस बात को प्रकट करते रहे। वे और भाजपा जनता के बड़े वर्ग को यह समझाने में सफल रहे कि यह परिवार जिसे प्रधानमंत्री या मंत्री बनाता है उसे वाकई अपने नौकर की तरह मानता है और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ यही व्यवहार हुआ है। आज अगर देष की दुर्दषा है तो इसी कारण, क्योंकि उस परिवार ने सरकार केा अपने अनुसार काम तक नहीं करने दिया। इसका कारगर जवाब देने में कांग्रेस विफल रही। प्रधानमंत्री के विदेष में होेने के दौरान राहुल गांधी का अध्यादेष को रद्दी की टोकड़ी में फेंकने का बयान इसका प्रमुख उदाहरण बन गया। कांग्रेस जितना बचाव करती उतना ही वह फंसती जाती। 

चुनाव में आम तौर पर किसी की हार और किसी की जीत होती है। संसदीय लोकतंत्र में आज कोई पार्टी हारती है तो कल वह जीतती है। लेकिन उसके कारण अगर गहरे हों और परिणाम भी तो उसका विष्लेशण गहराई से करने की आवष्यकता होती है। यह समान्य हार नहीं है, देष की सबसे बड़ी और पुरानी पार्टी का चुनावी पतन हो चुका है। सच यह है कि कांग्रेस की पूरी रणनीति ही गलत थी और उसमें तारतम्यता नहीं थी। कुछ बातें तो एकदम स्पश्ट थीं। मसलन, आंध्रप्रदेष में उसे पिछले आम चुनाव में सबसे ज्यादा 33 स्थान मिले थे। तेलांगना विभाजन के बाद पूरा माहौल बदल गया, उसके मुख्यमंत्री तक ने नई पार्टी बना ली। तमिलनाडु में गठबंधन के कारण 8 सीटें मिलीं थी। गठबंधन न होने की स्थिति में उसकी पुनरावृत्ति संभव नहीं थी। यही बात पष्चिम बंगाल की 6 सीटो के संदर्भ मे थी।  राजस्थान विधानसभा चुनाव के बाद ही उसके 20 स्थानों तथा दिल्ली के सातोें स्थानों की संभावना खत्म हो गई थी। इतने मात्र से उसका ग्राफ एकदम नीचे आ रहा था। इस अंकगणित के पलटने के स्पश्ट खतरे, सरकार की कलंकित छवि, मंत्रियों को बचाने में सरकार की भूमिका का खुलासा, उच्चतम न्यायालय का कोयला घोटाला षपथ पत्र से लेकर अन्य मामलों में टिप्पणियां....विपक्ष के तीखे हमलवार तेवर....मीडिया की स्वाभाविक विपरीत टिप्पणियां आदि की स्थिति में नेताओं को जितनी गंभीरता से विचार-विमर्ष कर रणनीति बनाने और सधे हुए बयान और कदम उठाने की आवष्यकता थी इनका रवैया इसके विपरीत था। आंध्र के प्रबंधन में वह विफल रही। फिर आरोप सरकार पर और निशेध प्रधानमंत्री के खुलकर बोलने पर! कांग्रेस ने पिछले वर्श जनवरी में राहुल गांधी को उपाध्यक्ष बनाकर उनकी ताजपोषी और उनके हाथों नेतृत्व थमाकर बहुआयामी संकटों का समाधान तलाषा। राहुल गांधी लोगों को अपने प्रति विष्वास दिलाने, पार्टी को पटरी पर लाने के लिए योग्य नेताओं को टीम में लाने तथा कुछ लोगों को टीम से बाहर करने का जो कठोर उपक्रम करना चाहिए था, कर नहीं पाए। थोड़े बहुत सरकार एवं टीम में चेहरों का फेरबदल हुआ, लेकिन मोटा मोटी लोग वही रहे। इनमें ऐसे चेहरे नहीं थे जिनकी ओर जनता आकर्शित हो। राहुल ने कुछ अच्छे इरादे दिखाए, लेकिन क्लासरुम की तरह नेताओं का क्लास लेने का तरीका स्वयं नेताओं को भी पसंद नहीं आता था.....। गुस्सैल युवा की छवि बनाने की उनकी सहालकारों की रणनीति भी हास्य का प्रसंग बनता गया। कम से कम राहुल ने इस चुनाव में यह साबित नहीं किया कि उनमें देष की सबसे बड़ी पार्टी और वह भी सरकार चलाने वाली पार्टी के नेतृत्व की क्षमता है। लिखित पटकथा पर काम करके कोई स्वाभाविक नेता नहीं बन सकता है यह वे और उनके रणनीतिकारों को समझना चाहिए था। 

एक ओर नरेन्द्र मोदी जैसा तीखे तेवर वाला व्यक्ति जो इस परिवार की धज्जियां उड़ा है, सरकार को हर दृश्टि से विफल साबित कर रहा है, लोगों की रिकाॅर्ड भीड़ उसकी सभाओं में जुट रही है और भीड़ उसके साथ आवाज मिला रही है तो उसका सामना करने वाला नेतृत्व भी वैसा ही चाहिए। मोदी के सामने राहुल टिक ही नहीं सके और मुख्य नेता वही थे। प्रियंका ने जब अमेठी में सघन प्रचार अभियान आरंभ किया तो उसमें आषा जगी, लेकिन जब उन्होंने मोदी पर निजी हमले आरंभ किए और यह कहा कि वे बंद कमरे में महिलाओं का फोन सुनते हैं तो इसके विरुद्ध नकारात्मक प्रतिक्रिया हुई। उसके बाद ही भाजपा दामाद श्री नामक पुस्तक और फिल्म लेकर सामने आई और इसकी हजारों प्रतियां अमेठी और चारों ओर बांटी गईं। मोदी ने स्वयं अमेठी जाने का फैसला किया। मोदी ने प्रचार के अंतिम समय सभा की और कांग्रेस को उसका जवाब देने का मौका तक नहीं मिला। यदि प्रियंका गांधी उस तरह हमला नहीं करती तो वह पुस्तक और फिल्म नहीं आती और षायद मोदी रायबरेली की तरह ही वहां नहीं जाते। इसका परिणाम अमेठी में हुए टक्कर से मिल जाता है।

कांगे्रस ने मोदी के विरुद्ध दंगा, सांप्रदायिकता, विभाजनकारी होने का वही पुराना राग अलापा जिसमें वह बार-बार असफल हो चुकी थी। और कुछ न मिला तो एक महिला की कथित फोन टेपिंग पर कैबिनेट द्वारा जांच का फैसला किया गया, और जिस ढंग की टिप्पणियां आईं उसे आम लोगों ने चरित्रहनन की श्रेणी का माना। कांग्रेस सांप्रदायिकता और निजी चरित्र पर जितना हमला करती उतना ही उसका मत गिरता जाता। मोदी और उनके समर्थकों को जवाब में प्रति हमला का मौका मिलता। सांप्रदायिक बनाम सेक्यूलर का कार्ड मोदीे के केन्द्र सरकार, कांगे्रस, परिवार पर अब तक के सबसे प्रचंड हमले और भारत को विकास के रास्ते आगे ले जाने के दावे के सामने एकदम कमजोर पड़ता गया। कांग्रेस के नेताओं कार्यकर्ताओं में भी तारतम्यता का अभाव था। जब आम कार्यकर्ता या नेता का राहुल और सोनिया से मिलना तक कठिन हो तो फिर उन्हें जमीनी वास्तविकता का अहसास होता भी कैसे। यह अकारण नहीं था कि सोनिया गांधी को एक दषक में पहली बार अमेठी में सभा करके यह कहना पड़ा कि मेरी सास में आपको अपना बेटा दिया मैंने अपना इसका ख्याल रखिए। इससे तो संदेष यह गया कि संभवतः राहुल गांधी की अमेठी सीट भी फंस गई है। अब देखना होगा कांग्रेस ईमानदार आत्ममंथन कर अपनी पराजय के क्या-क्या कारण तलाषती है। अगर कांग्रेस ने ईमानदारी से आत्ममंथन न कर नेतृत्व, विचार और नीतियों में आमूल बदलाव नहीं किया तो उसके लिए संकट से उबरना कठिन हो जाएगा।  

अवधेष कुमार, ई.ः30, गणेष नगर, पांडव नगर काॅम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208


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