शुक्रवार, 29 दिसंबर 2017

लालू की सजा को राजनीकि रंग देना दुर्भाग्यपूर्ण

 

अवधेश कुमार

लालू प्रसाद यादव को कुख्यात चारा घोटाले मामले में दोषी माना जाना कोई सामान्य फैसला नहीं है। हमारे देश में प्रभावी राजनेताओं पर मुकदमे अगर होते भी थे तो उनको सजा नहीं मिलती थी। अभी कुछ ही दिनों पहले झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा को सजा हुई है। हालांकि पहले के एक मामले में 3 अक्टूबर 2013 को लालू यादव को छः वर्ष की सजा सुनाई जा चुकी है। चाइबासा कोषागार से फर्जी तरीके से 37.70 करोड़ निष्काषन के मामले में सजा हुई थी। वर्तमान मामला देवघर कोषागार से 1992 से 1994 के बीच फर्जी आवंटन पत्र और चालान पर 89 लाख 27 हजार निकाले जाने से संबंधित है। उनको दोषी ठहराए जाने के साथ ही जिस तरह उनकी पार्टी की ओर से बयान आ रहे हैं वे चिंतित करने वाले हैं। सारे बयान न्यायालय को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं। राजद नेताओं के बयानों से ऐसा लगता है जैसे न्यायालय ने जानबूझकर लालू यादव के साथ अन्याय किया है। कुछ नेता तो यह भी कह रहे हैं कि भाजपा ने उनके राजनीतिक जीवन को बरबाद करने के लिए सजा दिलवाई है। कोई कह रहा है कि वे पिछड़ी जाति से हैं इसलिए उन्हें सजा मिली है। तोे न्यायालय की निष्पक्षता एवं स्वतंत्रता को कठघरे में खड़ा किया जा रहा है। इस तरह के बयान देने वालों में ऐसे नेता भी शामिल हैं जो केन्द्र में मंत्री तक रह चुके हैं।

निस्संदेह, यह दुर्भाग्यपूर्ण है। राजद के नेताओं और लालू यादव के समर्थकों को आघात लगना स्वाभाविक है। राजद के जन्म से लेकर आज तक उसका पूरा अस्तित्व लालू यादव पर निर्भर रहा है। जाहिर है, यदि लालू यादव को उपरी न्यायालयों से भी राहत नहीं मिली तो फिर राजद के भविष्य पर प्रश्न चिन्ह खड़ा हो जाएगा। पिछली सजा के बाद उच्च न्यायालय से उनको जमानत मिल गई एवं वे चुनाव लड़ने से वंचित होकर भी सक्रिय रहे हैं। हालांकि उन्होंने पिछले विधानसभा चुनाव में अपने दोनों बेटों को विधायक के रुप में निर्वाचित कराया तथा उन्हें मंत्री भी बनवा दिया। इनमें तेजस्वी यादव का नेतृत्व लगभग पार्टी स्वीकार भी कर चुकी है। किंतु यह तब की स्थिति है जब लालू यादव सामने हैं। यदि उनको वाकई जेल काटनी पड़ती है तब भी यही स्थिति रहेगी ऐसा मानना कठिन है। तो लालू यादव की सजा के साथ राजद के भविष्य पर प्रश्न चिन्ह खड़ा हो गया है। इस समय तो पार्टी में टूट नहीं होगी, किंतु अगले चुनाव तक यदि लालू यादव बाहर नहीं रहे तो बहुत सारे नेता बाहर का रास्ता देख सकते हैं। यह खतरा राजद पर आसन्न है।

किंतु इसका यह अर्थ नहीं कि हम अपने राजनीतिक भविष्य की चिंता में न्यायालय को ही निशाना बनाएं। यह किसी के हित मेें नहीं है। आखिर लालू यादव भी अंततः सीबीआई के विशेष न्यायालय के फैसले के खिलाफ फिर से अपील करने कहां जाएंगे? उच्च न्यायालय में ही न। कल यदि वही न्यायालय उनको राहत दे दे तो वे क्या कहंेगे? हमारे देश में न्यायलयों की निष्पक्षता एवं स्वतंत्रता अभी तक प्रश्नों से बाहर है। न्यायालय तथ्यों एवं सबूतों के आधार पर फैसले देती है। यदि उसमें कहीं कोई त्रुटि है तो सुधार के लिए उपर के न्यायालयों का दरवाजा खुला हुआ है। उच्च न्यायालयों एवं उच्चतम न्यायालय ने कई बार अपने ही फैसले की समीक्षा कर दूसरे फैसले दिए हैं। न्यायालय को जातिवाद की दुर्गंध में खींचने वाले नेता यह न भूलें कि अभी-अभी 2 जी मामले में ऐसे ही एक न्यायालय ने दलित ए राजा को बरी किया है। इस मामले में भी जिन छः लोगों को बरी किया गया उनमंे भी पिछड़ी जाति के लोग शामिल है। इसलिए बेहतर हो राजद नेता न्यायालय को आरोपित करना बंद करें। कानून की लड़ाई कानून के अनुसार लड़े और वहीं तक सीमित रहें। जब 2013 में लालू यादव को पहली सजा हुई थी तब भी ऐसा ही वातावरण बनाया गया था। उम्मीद थी कि इससे लालू को जनता की सहानुभूति प्राप्त होगी जिसका राजनीतिक लाभ पार्टी को मिलेगा। लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी बुरी तरह पराजित हो गई।

जाहिर है, राजद के नेताओं को उससे सबक लेना चाहिए। ये न भूलें कि अभी लालू यादव पर चार मामले और है। उन पर कुछ छः मामले हैं जिनमें पांच झारखंड तथा एक बिहार में हैं। इनमें दो का फैसला आ गया। हो सकता है आगे के मामले में भी उनको सजा हो जाए या हो सकता है सजा नहीं भी हो। जिस मामले में सजा हुई है उसमें लालू यादव पर आरोप है कि मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने अपने पद का दुरुपयोग कर जांच की फाइल को 5 जुलाई 1994 से 1 फरबरी 1996 तक रोके रखा। न्यायालय ने साफ कहा है कि लालू को भ्रष्टाचार का पता था लेकिन उन्होंने इसे रोका नहीं। क्यों नहीं रोका? जाहिर है, कुछ अपना स्वार्थ भी इसके पीछे रहा होगा। वैसे भी इस मामले में आरंभ में 38 आरोपी थे जिनमें 11 मर चुके हैं, 3 सीबीआई के गवाह बन गए एवं 2 ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया। इन दोनों को 11 वर्ष पूर्व ही सजा हो चुकी है। यानी वाकई गबन किया गया यह पहले से प्रमाणित है। बिहार का चारा और पशुपालन घोटाला ऐसा जघन्य कांड था जिसके दोषियों को जितनी सजा दी जाए कम है। पशुओं और गरीबों का हक मारकर खजाने से धन लूटा गया। ज्यादातर मामले 1990 से 1994 तक के हैं। करीब 950 करोड़ रुपया का यह पूरा घोटाला बना। इसका लंबा इतिहास है जिसकी विस्तृत चर्चा यहां संभव नहीं। सोचिए न पशुपालक कौन लोग होते हैं? साधारण आदमी। लालू यादव सामाजिक न्याय के पुरोधा कहलाते थे और उनके शासनकाल मंे साधारण लोगों के हक का धन इस तरह लूटा गया। इस मामले में कुल 54 मुकदमे दर्ज हुए जिनमें से 47 का फैसला सुनाया जा चुका है। इसमें 1404 लोग दोषी करार दिए जा चुके हैं जिनमें पशुपालन विभाग के अधिकारी, वरिष्ठ नौकरशाह, आपूर्तिकर्ता, नेता सब शामिल हैं।

कहने का तात्पर्य यह कि चारा घोटाला हुआ इसे अब नए सिरे से प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं। इतने लोगों को सजा मिलना ही यह बताता है कि किस ढंग से अंधेर नगरी और चौपट राजा की तरह लूट मची थी। लालू यादव और जगन्नाथ मिश्र जैसे नेताओं का मामला इसलिए लंबा खींचा, क्योंकि इनके पास मुकदमा लड़ने के हर साधन मौजूद हैं, अन्यथा इनका फैसला भी पहले हो चुका होता। इस मामले में किसी तरह की राजनीतिक साजिश की बात तथ्यों से मेल नहीं खाती। जब जनवरी 1996 में प्राथमिकी दर्ज हुई तो केन्द्र मंें कांग्रेस की सरकार थी एवं प्रदेश में स्वयं लालू यादव मुख्यमंत्री थे। जब मार्च 1996 में सीबीआई ने प्राथमिकी दर्ज की तब भी केन्द्र मंें कांग्रेस की सरकार थी। जब अक्टूबर 1997 में सीबीआई ने अंतरिम आरोप पत्र दायर किया उस समय केन्द्र में संयुक्त मोर्चा की सरकार थी जिसके प्रधानमंत्री इंदर कुमार गुजराल लालू यादव की उस समय की पार्टी जनता दल से ही आते थे। उनकी गिरफ्तारी हुई तब भी केन्द्र एवं प्रदेश में उनकी ही सरकार थी। ध्यान रखिए राजद की पैदाइश की चारा घोटाले के गर्भ से हुआ। जब लालू गिरफ्तार हुए तो मांग की गई कि वो पद छोड़ें। उन्होंने ऐसा करने की जगह पार्टी तोड़कर राजद बना लिया एवं अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाया। फिर जब इसके कई वर्ष बाद मई 2005 में आरोप गठन हुआ तो केन्द्र की सरकार में लालू यादव स्वयं मंत्री थे। तो इसमें राजनीतिक साजिश कहां से आ गई? इसलिए ऐसे आरोपों का कोई अर्थ नहीं है।

वास्तव में न्यायालय ने यह साबित कर दिया कि लालू यादव भ्रष्टाचार में संलिप्त थे। यह भारतीय राजनीति के लिए सामान्य त्रासदी नहीं है। एक व्यक्ति जोे जयप्रकाश आंदोलन से उभरा हो, जिसका मुख्य नारा ही भ्रष्टाचार, अधिकनायकवाद एवं वंशवाद से राजनीति की मुक्ति हो, वह स्वयं भ्रष्टाचार के कीचड़ मंें धंस जाए तो इससे बड़ी त्रासदी और क्या हो सकती है। जो व्यक्ति सामाजिक न्याय का मसीहा कहलता हो वह उन्हीं के हक का धन लूटने में संलिप्त हो जाए जिसके कल्याण का दायित्व उसने अपने सिर लिया है इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है। जब तक लालू यादव को उपर का न्यायालय बरी नहीं करता तब तक उनको भ्रष्टाचारी माना ही जाएगा। हालांकि कल वे मुक्त हो जाएं तभी यह नहीं माना जाएगा कि पशुपालन घोटाला हुआ ही नहीं था। घोटाला तो साबित हो चुका है और यह लालू यादव के कार्यकाल मेें ही हुआ।

अवधेश कुमार, ई.ः30,गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 9811027208

 

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