गुरुवार, 1 जून 2023

नई संसद भवन के साथ इतिहास का निर्माण

अवधेश कुमार

नए संसद भवन के उद्घाटन के समय लगभग राजनीतिक परिदृश्य वही था जो हमने इसके शिलान्यास- भूमि पूजन और योजना के संदर्भ में देखी। विपक्षी दलों का बड़ा समूह इसका बहिष्कार कर रहा है।  नरेंद्र मोदी और भाजपा का हर हाल में विरोध करना ही है यह व्यवहार अनुचित है। क्या करीब 100 वर्ष पहले अंग्रेजों द्वारा अपने शासन की मानसिकता से बनाया गया संसद भवन और उसके आसपास की पूरी रचना अनंतकाल तक रहनी चाहिए थी? यह बताने के लिए कि हमने भारत में भी संसदीय प्रणाली अपना लिया है अंग्रेजों ने संसद भवन का निर्माण किया। आजादी के समय न हमारे पास इतना समय था और न संसाधन कि उसका परित्याग कर नए भवन में संविधान सभा चले या निर्वाचित सांसद संसदीय गतिविधियों में हिस्सा ले सकें।   कहा जा रहा है कि इसी भवन में हमारी आजादी की घोषणा हुई , संविधान सभा वहीं बैठी आदि आदि।  क्या इसके आधार पर उसी संसद भवन को बनाए रखा जाएगा?

इसमें लगातार फेरबदल और निर्माण होते भी रहे हैं।1956 में और मंजिलें जोड़ीं गईं थो 1975 में संसद एनेक्सी का निर्माण हुआ। 2002 में अपग्रेडेशन हुआ, पुस्तकालय भवन बना जिसमें कमिटी कक्ष के अलावा सम्मेलन कक्ष और एक सभागार तैयार करना पड़ा। यह भी कम पड़ा तो 2016 में संसद एनेक्सी का और विस्तार किया गया। संसद भवन परिसर की केवल मुख्य संरचना ही एक हद तक पुरानी है, शेष बहुत कुछ लगातार निर्मित हुआ है।

संसद भवन में अब वर्तमान एवं भविष्य के आवश्यकताओं को देखते हुए बहुत ज्यादा परिवर्तन की गुंजाइश नहीं रह गई थी। कई पीठासीन अधिकारियों ने सांसद भवन के अंदर की समस्याओं पर चिंता व्यक्त करते हुए इसके समाधान करने की बात की। 2012 में तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार ने संसद भवन को रोते हुए तक कह दिया। तब वर्तमान संसद भवन परिसर के विकल्प या नए संसद भवन के लिए एक अधिकार प्राप्त समिति के गठन को स्वीकृति मिली।  2015 में तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने  संसद भवन के निर्माण का प्रस्ताव दिया, जो  आधुनिक तकनीकों से लैस होने के साथ सांसदों की संख्या बढ़ने पर उन्हें समायोजित करने वाला हो।  सन् 2026 में परिसीमन के बाद सांसदों की संख्या बढ़ने की संभावना है। नये संसद भवन के बारे में जितनी जानकारी है उसके अनुसार अनेक सॉलियाथू और सुविधाओं से युक्त हर तरह की आवश्यकता को पूरी करने वाली है। न केवल सांसदों की बढ़ी हुई संख्या अगले 100 वर्षों तक इसमें समायोजित हो सकेंगी बल्कि आधुनिक तकनीकों में भी अद्यतन है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के इतने वर्षों बाद अंग्रेजों का भवन ही हमारे लोकतंत्र की शीर्ष इकाई का स्थान हो यह समझ नहीं आता। अंग्रेजों ने संसद से लेकर आसपास के इलाकों को, जिसे सेंट्रल विस्टा कहा जाता है ,अपने अनुसार विकसित किया। उनमें पिछले 75 वर्षों में हुए परिवर्तन भी नाकाफी हैं। आवश्यक हो गया था कि कोई सरकार साहस कर भविष्य की चुनौतियों और आवश्यकताओं का आकलन करते हुए पूरे क्षेत्र का पुनर्निर्माण करे। विरोधी पार्टियां भले राष्ट्रपति से उद्घाटन न कराए जाने को मुद्दा बनाएं, सच यही है कि वे पूरी परियोजना के विरुद्ध थे। न्यायालय से लेकर हर स्तर पर इसे बाधित करने की कोशिश हुई।  राष्ट्रपति उद्घाटन करें इसमें समस्या नहीं है पर प्रधानमंत्री करें इसमें भी समस्या नहीं होनी चाहिए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विरोध करना है तो अवश्य करिये, किंतु यह पूरे देश के लिए आत्मसंतोष का विषय होना चाहिए कि हम इस स्थिति में है कि विश्व के श्रेष्ठ संसद भवन निर्मित करा सकते हैं और उसके अनुरूप आसपास के सरकारी भवनों और स्थलों को भी उत्कृष्ट ढांचे में नए सिरे से खड़ा कर सकते हैं।

हालांकि विरोध करने वाली पार्टियों का 540 लोकसभा में 143 तथा 238 की राज्यसभा में 91 सदस्य हैं। इस तरह लोकसभा में 26.38% एवं राज्यसभा में 38.23% पार्टियां विरोध में है। जो पार्टियां  भाग ले रही हैं लोकसभा में उनकी सदस्य संख्या 338 यानी 60.82% और राज्यसभा में 102 यानी 42.86% है। सत्तापक्ष की ताकत हमेशा ज्यादा होती है क्योंकि उसे बहुमत प्राप्त होता है। इसलिए इस आधार पर मूल्यांकन करना उचित नहीं होगा कि कितनी संख्या साथ है कितनी दूर। मुख्य बात यह है कि क्या विरोध करने वाली पार्टियों का देश, लोकतंत्र और उससे संबंधित ढांचे आदि को लेकर कोई विशेष विजन यानी कल्पना है या नहीं? नरेंद्र मोदी से सहमत हों,  असहमत हों,  एक विजन के तहत उन्होंने समस्त परिवर्तन किए हैं। 1967 से इंडिया गेट के पास मूर्ति की खाली जगह पर सुभाषचंद्र बोस की मूर्ति लगी। जॉर्ज पंचम की मूर्ति हटाने के बाद किसी को शायद आज तक समझ नहीं आया कि वहां किसकी मूर्ति लगानी चाहिए। यह भी प्रश्न है कि 1947 के बाद 20 वर्षों तक वहां जॉर्ज पंचम की मूर्ति क्यों थी? उसके साथ वहां युद्ध स्मारक बनाया गया। इंडिया गेट तक का राजपथ कर्तव्य पथ बना। तो इन सबके पीछे निश्चित रूप से देश के संदर्भ में यह सोच है कि इन स्थानों से क्या संदेश जाए और लोगों के अंदर कैसी मानसिकता पैदा हो।

सुभाषचंद्र बोस स्वतंत्रता और राष्ट्र के लिए लोगों के अंदर दासतां से मुक्ति के लिए सैन्य- वीरत्व- आत्मोसर्ग भाव की प्रेरणा हैं। आधुनिक भारत में उनसे बड़ी प्रेरणा का स्रोत कोई नहीं हो सकता। इसके पहले प्रधानमंत्री मोदी ने 2018 में लालकिले से 22 अक्टूबर को तिरंगा फहराया जो, सुभाष बाबू द्वारा संपूर्ण स्वराज्य की घोषणा का 75वां वार्षिक दिवस था। भारत के पास कभी अपना युद्ध स्मारक नहीं रहा जबकि हमें अनेक युद्ध लड़े, जिनमें हमारे जवानों ने अद्भुत वीरता का प्रदर्शन किया और अनेक वीरगति को प्राप्त हुए। इन सबको मिलाकर संसद और आसपास की सेंट्रल विस्टा परियोजना को देखना होगा। जीवन में स्थलों और प्रतीकों का व्यापक महत्व होता है क्योंकि वहां से आपकी मानसिकता बनती है और संदेश निकलता है। अनेक स्थलों का मोदी काल में इसी तरह या तो पुनर्निर्माण हुआ है , जीर्णोद्धार हुआ है या उन स्थानों पर मूर्तियां लगी हैं।

 वीर सावरकर यानी विधायक दामोदर सावरकर के जन्मदिवस पर संसद भवन के उद्घाटन से भी निःसंदेह विपक्ष को समस्या हो सकती है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश ने अपने ट्वीट में इसे राष्ट्र निर्माताओं का अपमान तक बता दिया है। मोदी एकाएक वीर सावरकर तक नहीं पहुंचे हैं। वे महात्मा गांधी से आरंभ करते हुए सरदार बल्लभ भाई पटेल, बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ,लोकनायक जयप्रकाश नारायण, डॉ राम मनोहर लोहिया, बिरसा मुंडा, ज्योतिबा फूले, सुभाष चंद्र बोस जैसे महापुरुषों को महत्व देते यहां तक आए हैं । संत रामानुजम से लेकर आदि शंकराचार्य की मूर्तियों का भी उन्होंने अनावरण किया है। तो यह देश के तस्वीर की दृष्टि है जिसमें व्यापकता है। भारत यदि विश्व के प्रमुख देशों की कतार में खड़ा है तो उसके अनुसार उसके सरकारी भवनों में भी भव्यता होनी चाहिए। दिल्ली आने वाले या रहने वाले लोगों को संसद के आसपास पूरे सेंट्रल विस्टा में निर्मित या निर्माणाधीन स्थलों को देखकर भव्यता का अहसास होता है। आज भारत जैसे देश के लिए स्वयं को हर स्तर पर एक बड़े ब्रांड के रूप में पेश करने पर किया गया यह खर्च किसी दृष्टि से अनावश्यक नहीं कहा जाएगा। यह दृष्टि का ही अभाव था कि 14 अगस्त, 1947 को प्राप्त सेंगोल यानी राजदंड को पंडित नेहरू ने वह स्थान नहीं दिया जो उसे मिलना चाहिए था। इसे 1960 से पहले आनंद भवन और 1978 से इलाहाबाद संग्रहालय में रखा गया। जब भारत के सत्ता हस्तांतरण में तमिल विद्वान पंडितों के मंत्रों द्वारा सिद्ध किया गया राजदंड पंडित  जवाहरलाल नेहरू ने प्राप्त किया तो उसे संसद भवन के केंद्र में होना चाहिए था।  भारतीय संस्कृति में इनका केवल प्रतीकात्मक नहीं सूक्ष्म प्रभावकारी महत्त्व  है। देश में किसे याद था कि अंग्रेजों से सत्ता हस्तांतरण के समय भारतीय परंपरा के अनुसार राजदंड स्वयं नेहरु जी ने ग्रहण किया जिसे बाद में शायद विचारधारा के अनुकूल न मानते हुए दिल्ली से बाहर भेज दिया गया। क्या राजदंड आनंद भवन और संग्रहालय के लिए दिया गया था? मोदी सरकार राजदंड को लोकसभा स्पीकर की कुर्सी के बगल में स्थापित कर रही है।  संयोग देखिए कि 14 अगस्त , 1947-राजदंड प्रदानगी समारोह में शामिल पंडितों में से एक आज भी जीवित हैं और वह उन 20 पंडितों में शामिल होंगे जो राजदंड प्रधानमंत्री मोदी को सौंपेंगे। मोदी सरकार नहीं होती तो उस राजदंड को पुनर्स्थापित करने का कार्यक्रम तो छोड़िए कल्पना भी कोई नहीं करता।

स्पष्ट है कि विरोधी इस महत्वपूर्ण अवसर का महत्व नहीं समझ रहे। वे यह भी नहीं सोच रहे कि बरसों बाद जब संसद के उद्घाटन की तस्वीरें देखी जाएंगी या फिर कौन - कौन शामिल थे इसका उल्लेख होगा तो उनमें इस समय के बहिष्कार करने वाले विपक्षी नेता और सांसद नहीं दिखेंगे। इतिहास के अध्याय से स्वयं को वंचित रख ये नेता क्या पाना चाहते हैं? कार्यक्रम में शामिल होकर भी आगे अपना विरोध कायम रख सकते हैं।  इतिहास किसी की प्रतीक्षा नहीं करता। जो अध्याय लिखे जाने हैं वे लिखे जाते हैं और नया संसद भवन, सेंट्रल विस्टा और सिंगोल के साथ स्वतंत्र भारत में इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय लिखा गया है।

अवधेश कुमार, ई-30,गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली- 110092, मोबाइल- 98910 27208

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