उच्च्तम न्यायालय द्वारा 30 अक्टूबर को यह कहने के बाद कि अल्पमत सरकारें पहले भी बनी है, कुछ मिनट के लिए ऐसा लगा था मानों उप राज्यपाल नजीब जंग दिल्ली को चुनाव में पुनः ले जाने की बजाय संभवतः सरकार गठन की सोच से पार्टियों से बातें करें। हालांकि यहां पर राज्यपाल की भूमिका को लेकर संविधान मौन है। पर लोकतांत्रिक मूल्यों का एक तकाजा यह भी है कि अगर चुनाव हो चुका है, कोई एक सरकार मात्र 49 दिनों में त्यागपत्र देकर चली गई है तो पहले जितना संभव हो दूसरी सरकार गठन की पारदर्शी कोशिशें हों। चुनाव इस स्थिति में अंतिम विकल्प होना चाहिए। आम आदमी पार्टी त्यागपत्र देकर गई थी, कांग्रेस के पास केवल 8 विधायक थे। तो बचती थी भाजपा जिसके पास 29 विधायक बचे थे। जाहिर है, वह 70 सदस्यीय विधानसभा में बहुमत से 7 की संख्या दूर थी। दो विधायकों का उसे समर्थन था। अगर वह तीनों उपचुनाव में विजीत हो जाती तो भी वह बहुमत की संख्या तक नहीं पहुंच सकती थी। ऐसे में उसने अपने हाथ खड़े कर दिए। लेकिन यहां कुछ प्रश्न अवश्य उठते हैं। मसलन, जब चुनाव में ही जाना था फिर इतनी देरी क्यों? क्या दिल्ली के उप राज्यपाल इसके लिए दोषी माने जाएंगे जैसा आप आरोप लगाती रही है? क्या केन्द्र सरकार ने जानबूझकर इतना समय खींचा? या फिर इसके परे कुछ बातें हैं? और सबसे बड़ा प्रश्न कि आखिर इस स्थिति का मुख्य दोष किसके सिर आएगा?
इनका उत्तर देने के पहले यह समझना ज्यादा जरुरी है कि अगर भाजपा ने सरकार बना लिया होता तो उसे बहुमत भी मिल जाता। कारण, ज्यादातर विधायक चुनाव नहीं चाहते थे। दिल्ली की राजनीति पर नजर रखने वाले जानते थे कि ऐसी कोशिशें हुईं और उसमें भाजपा को सफलता भी मिल गई थी। चार विधायक कांग्रेस के एवं 10 से ज्यादा विधायक आप के सरकार का समर्थन करने को तैयार थे। मंत्री पद पर बात नहीे बनी। आप विधायकों के सामने सरेआम दल बदल कानून की तलवार लटक रही थी। इसका रास्ता यह निकाला गया कि वे त्यागपत्र दे देंगे एवं भाजपा उन्हें दोबारा लड़ाकर वापस ले आए। पर कुल मिलाकर भाजपा के नेताओं को यही लगा कि इससे उसकी छवि पर असर पड़ सकता है, इसलिए अंततः नरेन्द्र मोदी एवं अमित शाह ने सरकार बनाने के विकल्प को खारिज कर दिया। मान लेते हैं कि भाजपा ने सरकार बनाएं या न बनाएं के उहापोह में समय खंीचा, पर यह इसका एक पहलू है।
वस्तुतः इस पूरी स्थिति को आप गहराई से विश्लेषित करेंगे तो आपको चुनाव के लिए आप की उत्कंठा का कारण समझ में आ जाएगा। आप की सबसे बड़ी चिंता अपने विधायकों को एक रखना था। अरविन्द केजरीवाल द्वारा निरर्थक त्यागपत्र को हीरोनमा इवेंट में बदलने की कोशिशों के आरंभिक कुछ दिनों तक तो सब कुछ ठीक रहा। आप ने अपनी इवेंट प्रबंधन कला से ऐसा माहौल बना दिया था मानो देश स्तर पर नरेन्द्र मोदी के मुकाबले वहीं खड़े हैं। पर समय के साथ पार्टी के अंदर नेतृत्व के ऐसे व्यवहार को लेकर विरोध, असंतोष एवं निराशा बढ़ने लगी। इसका परिणाम लोकसभा चुनाव के दौरान हुए कई उम्मीदवारों एवं नेताओं के विद्रोहों के रुप में सामने आया। लोकसभा चुनाव में पंजाब छोड़कर पूरे देश में मिली असफलताओं ने तो पार्टी की अंदर से चूलें हिला दीं।
इनमें यहां विस्तार से जाने की आवश्यकता नहीं, पर अनावश्यक रुप से सरकार छोड़कर जाने वाली पार्टी की सोच और रणनीति के अनुसार तो सब कुछ नहीं हो सकता। उप राज्यपाल का पद संवैधानिक गरिमा का पद है। अगर राज्यपाल जानबूझकर किसी प्रकार का राजनैतिक पक्षपात कर रहे हों तो उनकी आलोचना हो सकती है, पर आप जिस तरह पहले उनको कांग्रेस का एजेंट, फिर भाजपा का एजेंट करार देती रही वह दुर्भाग्यपूर्ण था। उप राज्यपाल ने वही किया जो संविधान कहता है। अगर सरकार गिरी तो तत्काल 17 फरबरी को राष्ट्रपति शासन लगाना स्वाभाविक कदम था। यह न भूलें कि तब केन्द्र में कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार थी। कम से कम 16 मई के चुनाव परिणाम तक तो वह फैसला कर ही सकती थी। पर उसने नहीं किया। सारी पार्टियां लोकसभा चुनाव में लग गई। स्वयं आम आदमी पार्टी तर्क देती थी कि वह संसद में जाना चाहती है ताकि जनलोकपाल के लिए वातावरण बनाए, विधायी प्रक्रिया में इस तरह परिवर्तन लायंे ताकि यह कानून बन सके और जो लोकपाल कानून बना है वह खत्म हो। उस समय केजरीवाल एवं उनके साथियों की दिल्ली चिंता कहां थी? केजरीवाल गुजरात में मोदी का मुकाबला करने चले गए, बिना समय लिए मुख्यमंत्री निवास तक अपने समूह के साथ पहुंचे और मीडिया की सुर्खियां बटोरते रहे। जब लोकसभा परिणाम ने उनकी अतिवादी उम्मीदों को ध्वस्त कर दिया तो फिर वे दिल्ली पर आ गए। यहां तक कि हरियाणा एवं महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में भी पार्टी ने शिरकत नहीं कि यह कहते हुए कि पूरा फोकस दिल्ली पर करना है। तब से वे चुनाव राग अलापते रहे।
यह भी न भूलिए कि एक ओर उच्चतम न्यायालय मंें उनकी पार्टी की ओर से प्रशांत भूषण चुनाव कराने के लिए आदेश देने की याचिका पर बहस करते रहे और केजरीवाल एवं मनीष सिसोदिया ने अपना रुख पलटकर उप राज्यपाल को यह पत्र दे आए कि अगर आप विधानसभा भंग करने पर विचार कर रहे हैं तो कृपया एक सप्ताह के लिए इसे रोक दें, क्योंकि हम जनता से इस पर राय ले रहे हैं कि क्या हमें फिर सरकार बनानी चाहिए। यह पत्र उप राज्यपाल के यहां से सार्वजनिक हो गया, अन्यथा दोनों ने बयान दिया था कि उनकी तो बस शिष्टाचार मुलाकात थी। आप सोचिए यह जुलाई महीने की बात थी। उसके बाद वे जनता के बीच गए भी। आज वे कह रहे हैं कि हम तो त्यागपत्र देने के दिन से ही विधानसभा भंग करने की मांग कर रहे हैं।
यहां यह ध्यान रखना जरुरी है कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) कानून की धारा 9 (2) के तहत गोपनीय मतदान से मुख्यमंत्री चुना जा सकता है। इसमें पार्टियां व्हिप जारी नहीं कर सकतीं। यदि एलजी ने इस धारा के तहत काम किया होता तो गोपनीय मतदान में भाजपा की सरकार को बहुमत मिलना तय था। इसलिए आरोप लगाने वाले पहले इस तथ्य का अवश्य ध्यान रखें। भाजपा द्वारा पर्दे के पीछे सरकार बनाने का प्रयास एक बात है लेकिन उसमें उप राज्यपाल को लपेटे में लेना उचित नहीं। एक दिन उच्चतम न्यायालय ने उप राज्यपाल एवं केन्द्र सरकार के विरुद्ध टिप्पणी की और उसके बाद जब यह तथ्य रखा गया कि दिल्ली में एक वर्ष तक राष्ट्रपति शासन लागू रह सकता है, सरकार बनाने की संभावना तलाशने की प्रक्रिया चल रही है तो उसी उच्चतम न्यायायल ने उप राज्यपाल की प्रशंसा कर दी और प्रयास करने को समर्थन किया। उप राज्यपाल ने 4 सितंबर को राष्ट्रपति से सरकार गठन की संभावना तलाशने की अनुमति मांगी। राष्ट्रपति की ओर से उन्हें जैसे ही अनुमति मिली उनने प्रक्रिया आरंभ कर दी। सभी पार्टियों को पत्र लिखा और जवाब आने के बाद साफ कर दिया।
लेकिन जरा सोचिए, अगर आप के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने अपनी झनक में त्यागपत्र नहीं दिया होता तो क्या दिल्ली के सामने ऐसी नौबत आती? न तो कांग्रेस ने समर्थन वापस लिया था, न ही भाजपा न ऐसी स्थिति पैदा कर दी थी जिससे सरकार चलाना मुश्किल हो गया था। एक प्रक्रिया के तहत कोई भी विधेयक दिल्ली में उप राज्यपाल की अनुमति से पेश हो सकती है। इसका पालन करने को वे तैयार नहीं थे। सीधे जनलोकपाल विधेयक प्रस्तुत करना चाहते थे जो कि असंवैधानिक होता, इसका विरोध कांग्रेस भाजपा दोनों ने किया। इसका यह अर्थ नहीं था कि दोनांे पाटियां मिल गईं थीं। आज भी वह प्रश्न कायम है। केजरीवाल कह रहे हैं कि अब हम कभी त्यागपत्र देकर नहीं भागेंगे। त्यागपत्र के लिए उनने क्षमा भी मांगी है। पर प्रश्न तो वही है। क्या वे जनलोकपाल की जिद छोड़ देंगे? अगर नही ंतो फिर उसी घटना की पुनरावत्ति होगी। जन लोकपाल केन्द्र द्वारा बनाए गए लोकपाल कानून के साथ सुसंगत नहीं है, उसे प्रस्तुत करने की अनुमति मिल नहीं सकती, वे अगर सीधे पेश करना चाहेंगे तो फिर वही हालात पैदा होंगे। इसलिए आम आदमी पार्टी एवं अरविन्द केजरीवाल जब तक इस पर अपनी स्थिति साफ नहीं करते तब तक यही माना जाएगा कि अगर वे सरकार मेें आए तो फिर उसी स्थिति की पुनरावृत्ति होगी। हां, यह स्थिति तब आयेगी जब उन्हें बहुमत मिलेगा। लोकसभा चुनाव परिणाम इसके संकेत नहीं दे रहे। फिर भी वे बहुमत के लिए मैदान में उतर रहे हैं तो उन्हें स्पष्टीकरण देना चाहिए।
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208
शनिवार, 8 नवंबर 2014
दिल्ली की इस हालत के लिए कौन जिम्मेवार
अवधेश कुमार
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