शुक्रवार, 1 दिसंबर 2023

गांवों मे भी शादी व्याह , तीज त्योहार को अधुनिकता ने बदल दिया

 बसन्त कुमार

 पिछले दिन मै अपने गाव अपनी भतीजी की शादी मे गया, कई दशकों के बाद घर मे लड़की की शादी के लिए मन में बड़ा उत्साह था की इस मौके पर पूर्व की भाति सारी रश्मे होगी भाभी, बुआ, बहन सब का अपना अपना काम होगा सब का नेग जोग मुझे या पत्नी जी को करना होगा क्योकि हम ही सबसे बड़े है , पर घर पहुँचते ही सारी कल्पना हवा हवाई हो गयी, दुल्हन को सजाने बजाने के लिए शहर की ब्यूटिशियन की बुकिंग हुई जिसकी फीस 50 हजार, बाकी सब कुछ टेंट वाले, कैटरर, वेटर, सजावट वाले को दे दिया गया, विभिन्न रश्मो तिलक, गोद भराई, हल्दी, भत्त्वiन आदि के अवसर पर बजने वाले बादय यंत्रों की जगह कन्फोडू डी जे ने ले ली जिसे शोर से दिल कापने लगे और दिल के मरीज को कहीं छिपाना पड़ जाये पर अब तो सब पैसे का दिखावा रह गया है।
सबेरे सबेरे बसियौर या भात खहि होता इसमें भी बारातियों को कवर उठाने के लिए मनाना पड़ता, पूरे समारोह के दौरान महिलाओ द्वारा गाली गयी जाती और इसके लिए वर पक्ष को पैसा देना पड़ता! फिर गिने चुने बुजुर्गो द्वारा माडौ हिलाने की प्रक्रिया होती!  फिर बिदाई से पूर्व अक्षत जाता एक एक बाराती का कन्या पक्ष के लोगो से परिचय कराया जाता सभी एक दूसरे के गले मिलते और वर एवम बधू पक्ष इसका आनंद उठाते, बच्चों को सबसे अधिक आनंद विवाह मंडप मे लगे सुग्गो को लूटने मे आता बिदाई के समय मिलन 10-5 की नोटो से होता, उस शादी समारोह मे जो स्वर्गिक अनुभूति होती वह अब नदारत है और आज की पीढ़ी उस वास्तविक आनंद से वंचित हो रही है जो उस पीढ़ी के लोगो ने महशुस किया है, लोग बदल रहे है परंपरा बदल रही है और शादी समारोह का मजा अब विलुप्त होता जा रहा है।
औरते मिलकर दुल्हन को तैयार कर दिया करती थी और हर रश्म का उपयुक्त गीत स्वयम गा लिया करती थी, गाँव के सभी युवा बच्चे दिन पर शादी से संबंधित काम करने के लिए हर समय तत्पर रहते थे, हंसी ठिठोली चलती रहती थी और समारोह का कामकाज भी समय पर पूरा होता रहता था और गाँव के लोग बारातियों से पहले नही खाते थे क्योकि यह बारातियों का सम्मान होता था, गाँव की महिलाएं गीत गाती जाती थी और काम करती जाती थी उस समय सही मायने मे सामाजिक समरसता होती थी, गाँव के युवा बारातियों के खाना खिलाने की जिम्मेदारी निभाते थे, बड़े घर' की शादी हुई तो कभी लाउड स्पीकर बज जाता था! दुल्हे राजा अपने आप को अपने आप को किसी युवराज से कम नही समझते थे! दुल्हे के पास नाई तैयार रहता कभी बाल झाड़ता, कभी क्रीम पाउडर पोत देता जिससे दुल्हा सुंदर दिखे फिर फेरे के लिए पंडित जी काम शुरु होता जो देर रात तक चलता उसके बाद कोहबर होता जहाँ दुल्हे राजा जेमस् बॉण्ड की तरह बन जाते कि हम नही खायेंगे और उन्हे मनाने के लिए कन्या पक्ष के विभिन्न लोग आते! उसके पश्चात् दुल्हे का सक्षात्कiर वधू पक्ष की महिलाओ से करवाया जाता और उस दौरान उसे विभिन्न उपहार प्राप्त होते इसे दूल्हा दिखाई या अपटाउनी कहा जाता।
अब सब कुछ बदल गया है दो तीन दशक पहले गाँव मे न टेंट हाउस ही होते थे और न ही कैटरिंग होती थी बस वहा समाजिकता होती थी! जब गाँव मे शादी व्यiह होते थे तो घर घर से चारपाई, कुर्सी, दरी, जजिम्, गैस बत्ती आ जाती थी और गाँव के स्कूल के हेड मास्टर की मेहर बानी से बेंचे आ जाती थी, चिंहित घरों से हनडा, जग, सडसी, कल्छुल, कढ़ाही, बाल्टी इकट्ठा हो जाती थी! इन सब की पहचान के लिए चाक या कोयले से नाम लिख दिये जाते थे जिससे यह पता चल सके कि किस घर से कौन सा समान आया है! बचे खुचे बरतन की आपूर्ति गाँव के कुम्हार के यहाँ से प्रदत्त नाद, हंडिया एवम कुल्हड़ से हो जाती थी, गाँव की महिलाएं इकत्र होकर रोटी बना देती थी और दाल सब्जी गाँव के मर्द बना देते थे और हलवाई की जरूरत बारातियों और अन्य अतिथियों के बूंदी, लड्डू या अन्य मिठाई बनाने के लिए होती थी।
हमारे पारंपरिक तरीके से मनाये जाने वाले शादी विवाह सामाजिक मेलमिलाप के साधन होते थे उसमे जाति और धर्म आड़े नही आते थे एक की बेटी पूरे गाँव की बेटी होती थी और उसके विवाह मे अपनी अपनी हैसियत के अनुसफ सहयोग देते थे और अमीर गरीब सबकी बेटियों का कन्या दान हो जाता था और पैसे के अभाव मे किसी की शादी रुकती नही थी पर शहरी करण और आधुनिकता ने सीधे सादे गाव के लोगो से परस्पर सहयोग और आपसी सम्भiव की भावना को समाप्त कर दिया है जबकि ये सांस्कृतिक परंपराएं हमारे समाज का अभिन्न हिस्सा है और ये बनी रहनी चाहिए।
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