शुक्रवार, 19 अप्रैल 2024

चुनावों में धर्म और जाति का उपयोग गलत परंपरा

बसंत कुमार

अभी हाल ही में चल रहे लोकसभा चुनावों के समय गुजरात के एक वरिष्ठ नेता पुरुषोत्तम रुपाला ने ब्रिटिश काल में राजपूतों की नीति और स्थिति के बारे में एक विवादित बयान दे दिया, जिसके कारण उन्हें देश के क्षत्रिय समाज का विरोध झेलना पड़ रहा है, हो सकता है कि उन परिस्थितियों में मजबूरी के कारण कुछ क्षत्रियों को ऐसा करना पड़ा हो पर पूरे क्षत्रिय समाज के लिए ऐसी धारणा बनाना सरासर गलत था। यहां तक इतिहास जानता है कि मुगलों और उसके पूर्व के अक्रांताओं के विरुद्ध मेवाड के राजपूतानाओं ने जिस साहस का परिचय दिया वह हिंदुत्व की रक्षा के लिए ऐतिहासिक त्याग व बलिदान माना जाएगा। 7वीं सदी में बप्पा रावल से लेकर 17वीं सदी तक महाराणा प्रताप और उनके बेटे अमर सिंह तक यह संघर्ष कायम रहा।

यही नहीं मेवाड के पर्वतीय वन प्रदेशों में बसने वाले भील, जो धनुष विद्या में प्रवीण और अचूक निशाने बाज होते थे तथा पहाड़ों और जंगलों के बीहड़ रास्तों के जानकर होते थे, ने मुस्लिम आक्रमणकारियों के विरुद्ध लडाई में अपने राजपूत राजाओं के साथ संघर्ष किया और बलिदान दिया। संक्षिप्त रूप में यह कहा जा सकता है कि अपनी सनातनी संस्कृति की रक्षा के लिए सभी हिंदुओं ने राजपूत राजाओं के नेतृत्व में कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष किया। यही कारण है कि लगातार 9 सदियों तक मुस्लिम आक्रांताओं के अत्याचार और लूटमार के बावजूद हिंदू सनातनी संस्कृति विनष्ट होने से बची रही।

मगर वर्तमान समय में क्षत्रीय परिवारों में जन्म लेने वाले कुछ युवा जिन्हें राजपूताना संघर्ष के बारे में कुछ नहीं पता वे राजपूताना संघर्ष को सभी हिंदुओं का संघर्ष मानने के बजाय सिर्फ क्षत्रियों का संघर्ष मानते हैं और निम्न जातियों में पैदा होने वालों को सनातनी संघर्ष का हिस्सा नहीं मानते और कभी कभी तो शुद्रों और भीलों को हिंदू धर्म का हिस्सा भी नहीं मानते और अपने वर्ग को अन्य जातियों से श्रेष्ठ समझते हैं। उनकी यही सोच हिंदू समाज और सनातनी संस्कृति को तार-तार कर रही है। उन लोगों को यही बड़बोलापन राष्ट्रवाद और हिंदुत्व में आस्था रखने वाले रुपाला जैसे नेता को भी स्वाभिमानी राजपूत समाज के लिए अवांछित टिप्पणी करने के लिए उकसाया, जिसका परिणाम यह है कि पूरे राजपूत समाज द्वारा जगह-जगह पर रुपाला का विरोध हो रहा है और जो राजपूत समाज भाजपा का कैडर वोट माना जाता रहा है वह अपनी ही पार्टी के विरोध में खड़ा हो गया है।

इसी कड़ी में उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ सपा नेता जो तीन बार सांसद रह चुके हैं और वर्तमान में विधायक तूफानी सरोज ने यह कहकर विवाद पैदा कर दिया कि हमारी जीत में सवर्ण, ब्राह्मण, ठाकुरों का कोई योगदान नहीं है अब यह प्रश्न उठता है कि भारत जैसे लोकतंत्र में चुनाव के दौरान धर्म और जाति का उपयोग कितना जायज है जबकि चुनाव जाति व धर्म के बजाय शिक्षा, स्वास्थ, रोजगार और आर्थिक विकास के मुद्दों पर लड़े जाने चाहिए परंतु इस समय चुनाव पूर्ण रूप से धर्म और जाति के आधार पर लड़े और जीते जाते है।

सनातन संस्कृति वाले इस देश में भगवान राम त्रेता युग से पूजे जाते रहे हैं और लगभग 9 शताब्दियों तक देश बाहरी मुस्लिम आक्रांताओं के कब्जे में रहा फिर भी देश में न सनातन खत्म हुआ और न ही लोगों के मन में भगवान राम के प्रति श्रद्धा ही कम हुई और युगों से लोगों के दिल में भगवान राम का वास रहता है पर कुछ स्वयंभू सनातन के ठेकेदार अयोध्या में भगवान राम की जन्म भूमि पर बन रहे भव्य मन्दिर के निर्माण का श्रेय स्वयं लेने का प्रयास कर रहे है और इसके लिए हमारे साधु-संतों और महान नेताओं की कुर्बानियों को नजरअंदाज कर रहे हैं और चुनावी फायदे के लिए भगवान राम का उपयोग कर रहे हैं जो अनैतिक भी है और सनातनी मान्यताओं के विरुद्ध भी है। 

धर्म को चुनाव में इस्तेमाल करने के मामले में 1995 में सर्वोच्च न्यायालय की बेंच जिसकी अध्यक्षता जस्टिस जीएस वर्मा कर रहे थे। उन्होंने निर्णय दिया कि हिंदुत्व धर्म नहीं है अपितु यह जीवन शैली है और यह कहा हिंदुत्व को एक धर्म तक सीमित नहीं रखा जाना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय की इस गहन व्याख्या ने यह तो स्थापित कर दिया कि हिंदुत्व भारत में जीवन के सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक पहलुओं को शामिल करता है पर उन्होंने कहीं भी चुनाव में धर्म के इस्तेमाल को जायज नहीं ठहराया। नतीजन हिंदू और हिंदुत्व के उपयोग को भले ही असंवैधानिक न करार दिया जाए पर चुनाव में इसका उपयोग अनैतिक है और सनातनी मान्यताओं के खिलाफ है। यह फैसला दूसरी ओर धार्मिक अपीलों और सामाजिक व सांस्कृतिक मान्यताओं से जुड़ी अभिव्यक्ति के बीच अंतर को स्पष्ट कर दिया था और चुनावी प्रक्रिया की अखंडता बनाये रखने के लिए जाति और धर्म से संबंधित संवेदनशील मुद्दों को संबोधित करते समय राजनेताओं को सावधानी बरतनी चाहिए।

शीर्ष अदालत का यह फैसला अभिवयक्ति की स्वतंत्रता और चुनाव के दौरान भ्रष्ट आचरण को रोकने के लिए आवश्यकताओं के बीच नाजुक संतुलन को दर्शाता है। यह रचनात्मक राजनीतिक बहस के महत्व पर जोर देते हुए देश में जाति और धर्म के आधार पर होने वाले सामाजिक विघटन को रोकने का मार्ग प्रशस्त करता है पर दुर्भाग्यवश देश में राजनीतिक पार्टियां धर्म और जाति के नाम पर सत्ता प्राप्त करना चाहती है। 

सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में परोक्ष रूप से स्वीकार कर लिया कि राजनीतिक फायदे के लिए विशेषकर चुनाव के लिए धर्म के इस्तेमाल को बिलकुल ही सही माना और फैसला दे दिया कि हिंदुत्व धर्म नहीं एक जीवन शैली है अर्थात इस फैसले ने यह साफ कर दिया कि जाति और धर्म के नाम पर मतदाताओं को बर्गलाना पूरी तरह से लोकतंiत्रिक मर्यादाओं के के विरुद्ध है पर देश के राजनीतिक दल इसे अनदेखा करके धर्म और जाति के नाम पर अशिक्षित मतदाताओं को लामबंद कर रहे है जो एक स्वस्थ लोकतंत्र के प्रतिकूल है। इस विषय में चुनाव आयोग और न्यायालय को कड़े कदम उठाने की अवश्यकता है।

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