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तहसीन मुनव्वर |
सन 90 के दशक में हम कश्मीर में दूरदर्शन से समाचार पढ़ने गए थे। वहां जब भी किसी काम के न होने की बात करते तो सरकारी बाबू का एक ही राग होता कि सर क्या करें हालात ख़राब हैं। हम सोचते कि क्या किसी को सड़क बनाने, सड़कें नालियां साफ़ करने, अस्पताल में डॉक्टर को काम करने से कोई रोकेगा? जो मानव जीवन से जुड़े मामले हैं उन पर हालात का रोना रोने का मतलब यही है कि आप को अपनी कमियां छुपाने के लिए यह एक बड़ा बहाना मिल गया है। बिल्कुल यही मामला दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी सरकार के साथ भी था। वह अपनी हर कमज़ोरी का ठीकरा केंद्र सरकार पर फोड़ते रहे। उनकी सारी ऊर्जा केंद्र सरकार से लड़ने में खर्च होती रही। यहां तक के उनके जो सरकारी अफ़सर भी थे वह भी इसी बहाने का सहारा लेकर काम टालने में लगे रहे।
काम न कर पाने का एक ही रोना - अगर हम आम आदमी पार्टी की सरकार का कार्यकाल देखें तो जिस किसी को भी इस से कोई काम पड़ा हो और अगर वह काम न होना रहा हो तो उस ने यह बहाना ज़रूर सुना होगा। क्या करें जी मोदी जी काम ही नहीं करने देते। जनता के प्रतिनिधियों को काम निकालना आना चाहिए। वह पहले काम कर देते हैं फिर उसको सही ठहराने के रास्ते निकालते हैं। सरकार और सत्ता का अर्थ ही यही है कि आप काम करने आए हैं लड़ने के लिए नहीं। यही कारण है कि अरविंद केजरीवाल की छवि जनता में एक ऐसे इंसान की बनती चली गई जो जनता के काम करवाने में सक्षम नहीं है और जिस के बस में कुछ नहीं है।
शराब ने डुबाया - हमारे ज्योतिष में कहते हैं कि जिस का शनि खराब चल रहा हो या शनि की ढैया या साढ़े सती हो तो उसे मास मदिरा का सेवन नहीं करना चाहिए। अब हम ने अरविंद केजरीवाल की कुंडली तो नहीं देखी है लेकिन शराब की मौहल्ला शॉप्स खोलने के बाद जिस तरह वह और उनकी पार्टी घेरे में आई उसे देखते हुए हम कह सकते हैं कि उनका शनि उसी समय से उनसे रूठ गया था जिस की हानि उन्हें उठानी पड़ी है।
दरअसल जिस प्रकार थोक के भाव शराब की दुकानें बिना सोचे समझे पूरी दिल्ली में अलॉट की गईं उस ने भी उनका विश्वास कमज़ोर किया। जिस के कारण केंद्र सरकार को उन्हें घेरने का अवसर मिला और उन्हें और उनके साथियों को जेल की हवा भी खाना पड़ी। दंगों से नाराज़ मुस्लिम समाज को शराब का यह व्यापार खुश नहीं कर सका और कहीं न कहीं उनकी संवेदनाओं में चिपक के बैठ गया। जिन महिलाओं के लिए वह लुभावने काम कर रहे थे उन्हें भी शराब की दुकानें खुलना रास नहीं आया।
मुफ़्त ने सुस्त किया - महिलाओं को डीटीसी बसों में मुफ्त यात्रा करवाने की योजना ने उन से बहुत बड़ा समर्थक ऑटो रिक्शा वाला छीन लिया। इस से पहले आप किसी ऑटो वाले से बात करो तो वह अरविंद केजरीवाल को भगत सिंह बनाने पर तुला रहता था लेकिन अब उन से बात करने पर पता चलता था कि अब पहले जैसा अरविंद केजरीवाल का जादू नहीं बचा है। मेट्रो चल जाने से अब लंबी दूरी की ऑटो में यात्रा कोई नहीं करता है। अब कुछ दूरी के लिए ही ऑटो लिया जाता है और महिलाएं अधिकतर ऑटो का उपयोग करती हैं। डीटीसी में यात्रा मुफ़्त होने से वह ऑटो वाला ख़ाली बैठ गया और उसे सवारी को तरसना पड़ा। जिस की हानि आम आदमी पार्टी को उठाना पड़ी।
बिछड़े सभी बारी बारी - अरविंद केजरीवाल अधिक दिन तक अपने साथियों को रोक पाने में असफल रहे हैं। कपिल शर्मा के शो में सलमान ख़ान के पिताजी सलीम ख़ान साहब ने एक बात कही थी कि "अच्छा आदमी वो है जिसका दोस्त और नौकर पुराना हो"। अरविंद केजरीवाल सब कुछ अपने हाथ में रखने के चक्कर में मिल जुल के बनाई एक पार्टी पर क़ब्ज़ा करते चले गए और उनके साथी एक एक कर के उनसे दूर होते चले गए। उनकी सांसद और दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष रहीं स्वाति मालीवाल मामले में जो कुछ हुआ उस ने उनकी छवि को ज़रूर धूमिल किया।
कुर्सी से चिपके रहना - जब अरविंद केजरीवाल पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा तो वह कुर्सी से चिपके रहे। जिस प्रकार की स्वस्छ राजनीति का दावा करते हुए वह सत्ता पर बैठे थे उसका उन्होंने बिल्कुल भी प्रदर्शन नहीं किया और कई शर्तों पर जेल से बाहर आने के बाद ही मजबूरी में उन्हों ने आतिशी को मुख्य मंत्री बनाया। एक महिला को मुख्य मंत्री बनाने का लाभ भी वह लेना चाहते थे मगर साथ ही वह और आम आदमी पार्टी के बड़े नेता यह भी कह रहे थे कि चुनाव के बाद अरविंद केजरीवाल ही मुख्य मंत्री होंगे। यह एक प्रकार से तत्कालीन मुख्य मंत्री के व्यक्तिव को कम करने जैसा था। अगर भाजपा ने कालकाजी से कोई और उम्मीदवार दे दिया होता तो आतिशी भी हार जातीं क्योंकि कालकाजी के लोग तुगलकाबाद क्षेत्र की भीड़ भाड़ से परेशान रहते हैं और वहां रमेश विधूड़ी की अधिक प्रभावी छवि नहीं है। फिर महिलाओं को लेकर उनके बयानों ने भी उनकी जीत को रोकने का काम किया लगता है। वैसे भी आम आदमी पार्टी में आतिशी किसी भी प्रकार के आरोप से मुक्त काम करने वाली नेता रही हैं और शायद इसी छवि ने भी उनकी जीत में आसानियां कर दीं।
कांग्रेस का हरियाणा का बदला - आम आदमी पार्टी की दिल्ली में हार को लेकर हम कह सकते हैं कांग्रेस का कहीं न कहीं बड़ा योगदान रहा है। हालांकि कांग्रेस को कोई सीट नहीं मिली है लेकिन वह आम आदमी पार्टी के कई धुरंधरों को धूल चटाने में सहायक ज़रूर बनी है। कांग्रेस शुरू में मज़बूती से मैदान में उतरी थी लेकिन फिर उसे लगा कि इसका लाभ भाजपा को अधिक हो जाएगा इस लिए पीछे क़दम खींच लिए। लेकिन तब तक वह आम आदमी पार्टी को अच्छा ख़ासा नुक़सान पहुंचाने में सफ़ल हो चुकी थी। बाद में जब हम एक एक सीट का आंकलन करेंगे तो उस से साफ़ होगा कि कांग्रेस के उम्मीदवारों के कुछ हज़ार वोट आम आदमी पार्टी को कितने भारी पड़े हैं। अब कांग्रेसी खुल कर कह रहे हैं कि हम ने हरियाणा की हार का बदला ले लिया है।
ओवैसी ने भी की ऐसी की तैसी - दिल्ली चुनाव में हैदराबाद के शेर कहे जाने वाले असद्दुदीन ओवैसी की एंट्री ने भी आम आदमी पार्टी की राह आसान कर दी। जिस प्रकार के धार्मिक नारे ओवैसी की रैली में लगाए गए उस से हमें मान कर चलना चाहिए कि हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण ज़रूर हुआ होगा। दंगों का आरोप झेल रहे दोनों उम्मीदवारों का जेल से बाहर आकर प्रचार करना भी कहीं न कहीं भाजपा के कट्टर हिंदू वोटों को एकजुट करने का काम कर गया। यह तो मुसलमान भी मानते हैं कि असद्दुदीन ओवैसी को भले ही मुस्लिम वोट न दें लेकिन उनका व्यक्तित्व, हाव भाव और उनका भाषण कट्टर हिंदू वोटों को बिखरने से रोक देता है। वह लड़ते तो कुछ एक सीट पर हैं लेकिन भाजपा को कई सीटों पर जिताने का काम ज़रूर कर देते हैं।
मुसलमानों का अरविंद केजरीवाल से मोहभंग - दिल्ली उर्दू अकादमी को लेकर जिस प्रकार का रवैया आम आदमी पार्टी का रहा है उस से उर्दू वाले कभी खुश नहीं रहे। उन्हों ने यहां तक किया कि एक उर्दू से अंजान व्यक्ति को उर्दू अकादमी की ज़िम्मेदारी सौंप दी। उनकी अवधि समाप्त हो जाने के बाद महीनों गवर्निंग कौंसिल नहीं बनाई और चुनाव से कुछ महीने पहले ही इसे बनाया। आम आदमी पार्टी का यह सोचना कि गली मुहल्ले में मुशायरे करवा कर हम अपने वोट बढ़ा लेंगे उस ने इस साहित्यिक मंच को बहुत हानि पहुंचाई जिस ने शीला दीक्षित के ज़माने में काफ़ी बड़े काम किए थे।
उर्दू वाले नाराज़ तो थे ही वहीं दिल्ली दंगों में जिस प्रकार अरविंद केजरीवाल ने मुसलमानों से मुंह फेरा और गांधी समाधि पर जा बैठे उस ने भी उनकी साहसी नेता की छवि को धूमिल कर दिया। उनके जो मुस्लिम नेता जीते भी हैं वह आम आदमी पार्टी की वजह से नहीं बल्कि अपनी मेहनत और क्षेत्र में अपने प्रभाव के कारण ही जीत पाए हैं।
भेड़िया आया भेड़िया आया - मुसलमानों को अब भाजपा का डर दिखा कर वोट पाने का दौर बीत चुका है। मुसलमानों ने नरेंद्र मोदी की केंद्र में सरकार देख ली है। शेष जगहों पर भी देख रहे हैं। उनकी समझ में भी आ रहा है कि हमारी हर दिन की ज़रूरतें एक जैसी हैं और अब सब के साथ ही चलना होगा। राजनीतिक दल उन्हें भाजपा से दूर कर के अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं जिस का नुक्सान उन्हें ही उठाना पड़ता है। वैसे भी जो भाजपा के मुद्दे हैं उस से रोज़ी रोटी की भागदौड़ में लगा आम मुसलमान इतना प्रभावित नहीं होता जितना वह मठाधीश होते हैं जिन से अधिकतर मुस्लिम भी तंग आ चुके हैं लेकिन उनके दबाव के कारण बोल नहीं पाते हैं। उन्हें लगता है कि अगर हम भाजपा को वोट देने लगें तो शायद भाजपा की सोच में बदलाव आए और दोनों तरफ़ का शक दूर हो जाए। यह अभी शुरुआती दौर का मामला है लेकिन दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी की भारी हार केवल एक वर्ग के भाजपा को वोट मिलने से नहीं हुई है बल्कि यह सभी विशेषज्ञों का मानना है कि इस जीत में कहीं न कहीं मुस्लिम वोट भी भाजपा की झोली में भर भर कर गिरा है। अगर यह सच है तो फिर बिहार चुनाव में भाजपा को इसका लाभ होना तय है।
जो वादा किया वह निभाना पड़ेगा - हम कह सकते हैं आगे भी जो अरविंद केजरीवाल जैसी राजनीति करने की सोच रहे हों उनको यह ज़रूर समझना चाहिए कि आप बड़े बड़े दावे और वादे कर के सत्ता तो हासिल कर सकते हैं लेकिन सरकार चलाना अलग काम है। वह केवल दूरदृष्टि, कार्यक्षमता, रणनीति, सिस्टम की समझ और एक सकारात्मक कार्यशैली से ही संभव है जिस में जनता का हित सर्वप्रथम होना चाहित। अरविंद केजरीवाल केंद्र से टकराव के चलते यह समझने में चूक गए लगते हैं जिस के कारण वह खुद तो हारे ही उनकी पार्टी की लुटिया भी डूब गई है। अब उनके सामने सब से बड़ा चैलेंज आम आदमी पार्टी को एक रखना और पार्टी पर अपना वर्चस्व बरक़रार रखना होगा। देखना है वह इस में कितना सफ़ल हो पाते हैं। आम आदमी पार्टी का हार के बाद सब से बड़ा इम्तिहान पंजाब में होगा जहां उनकी सत्ता बची हुई है और अब सब की नज़र पंजाब सरकार पर टिक गई हैं।
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