शनिवार, 21 दिसंबर 2019

नागरिकता कानून के विरोध में हिंसा की लपटें, आग से खेल रहे हैं नेतागण

 

अवधेश कुमार

देश को सिर पर उठाने की कोशिश हो रही है। इस कोशिश में हिंसा तो है ही, घृणा है, सांप्रदायिकता है, राजनीति सर्वोपरि है। सवाल वोट बैंक का है। 15 दिसंबर को दिल्ली के जामिया इलाके से आरंभ हिंसक विरोध प्रदर्शन ने यह संकेत दे दिया था कि इसके पीछे गहरे षडयंत्र हैं लेकिन नरेन्द्र मोदी एवं अमित शाह के विरोध में हमारे नेता अंधे हो गए हैं कि अभी तक एक शब्द भी हिंसा के विरुद्ध नहीं बोला है। किसी नेता का एक ट्विट हिंसा रोकने या न करने की अपील का नहीं है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने तो 16 दिसंबर को स्वयं मोर्चा संभालते हुए कोलकाता में विरोध प्रदर्शन किया। जब मुख्यमंत्री सड़क पर उतर जाए तो फिर कैसी स्थिति पैदा हो सकती थी। 19 तारीख को नागरिकता कानून के खिलाफ वामदलों की ओर से भारत बंद का ऐलान किया गया था। भारत बंद को राजद, सपा, कांग्रेस समेत कई विपक्षी पार्टियों ने अपना समर्थन दिया था। इसके अलावा अलग-अलग संगठनों ने अपने-अपने राज्यों में बंद या विरोध प्रदर्शन का आह्वान किया थ। कर्नाटक में वाम और मुस्लिम संगठन तो कुछ छात्र संगठनों ने बिहार बंद का आह्वान किया था। उत्तर प्रदेश में भी राज्यव्यापी बंद का आह्वान किया गया था।

किसी को राज्य या भारत बंद करने में सफलता तो नहीं मिली लेकिन जिस तरह का उत्पात उस दिन और उसके बाद मचाया गया उससे इसकी पुष्टि हो गई कि 15 दिसंबर को की गई हिंसा अचानक प्रस्फुटित नहीं हुई थी। जामिया, ओखला, न्यू फ्रंेड्स कौलोनी, सीलमपुर, जाफराबाद आदि इलाकों में सख्त सुरक्षा व्यवस्था के कारण 15 दिसंबर दोहराया नहीं जा सका। लेकिन अगले दिन जुम्मे की नमाज के बाद जामा मस्जिद से निकला जुलूस अंततः हिंसक हो ही गया। उत्तर प्रदेश प्रशासन ने जगह-जगह धारा 144 लागू किया। ऐसे ही पूर्वोपाय अन्य राज्यों ने भी किया। बावजूद एक समुदाय के लोगों को सड़कोें पर उतारने में सफलतांएं मिलीं। अनेक प्रकार का उत्पात मचाया गया। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में जिस ढंग की हिंसा हुई वह जनता के सामान्य आक्रोश का प्रकटीकरण नहीं हो सकता। पुलिस चौकियों को जलाना तथा भारी संख्यों में वाहनों को फूंक दिया जाना साफ कर रहा था कि हिंसा की पूरी योजना पहले से बनाई गई थी। संभल में बस के साथ कई गाड़िया फूंकी गई।फिर 20 दिसंबर को मेरठ से लेकर बिजनौर, बुलंदशहर, मुजफ्फरनगर आदि में हिंसा की वही प्रणाली। केरल से लेकर कर्नाटक, उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, दिल्ली ...सब जगह विरोध का असर दिखा। 15 दिसंबर को दिल्ली में हुई भयानक हिंसा ने इसका संकेत दे दिया था कि कहने के लिए विरोध नागरिकता कानून का है लेकिन इरादा कुछ और है। बड़े-बड़े पत्थर, आग लगाने की सामग्रियां, तोड़-फोड़ और हमले के लिए बड़े-बड़े डंडे, पेट्रोल बम, ट्यूब लाइटें.... आदि विरोध प्रदर्शन के दौरान कुछ मिनट में नहीं आ सकता। जाहिर है, सभी राज्यों में पहले से आगजनी और हिंसा की तैयारी की गई थी। दिल्ली में 20-25 मिनट में छः बसों का फूंक दिया जाना अभ्यस्त अपराधियों का ही कार्य हो सकता है। दो दिनों बाद सीलमपुर एवं जाफराबाद में की हिंसा भी पूर्व तैयारी की ही परिणति थी। बच्चों से भरी बस को रोककर तोड़फोड़ का दृश्य देश ने देखा है। कई राज्यों में पुलिस वालों को पीटते हुए वीडियो भी सामने है। आप विरोधों पर नजर गड़ा लीजिए अहसास हो जाएगा कि इसे प्रायोजित किया गया है। स्वतः स्फूर्त विरोध उत्तर पूर्व में अवश्य हुआ था। हालांकि वहां भी जिन लोगों ने विरोध का आह्वान किया था उन्हें भी समझ  नहीं आया कि हिंसा और आगजनी किसने की।

 लोकतांत्रिक व्यवस्था में विरोध प्रदर्शन स्वाभाविक है। लेकिन विरोध में कुछ भी करने यानी पुलिस पर पत्थरों की, ट्यूबलाइटों जैसे घायल करने वाले शीशे की सामग्रियां और यहां तक कि पेट्रोल बम फेंकने का अधिकार नहीं है। इससे अपराध और सत्याग्रह में अंतर मिट जाएगा?  आप हिंसा करें तो सही और पुलिस अपनी जिम्मेवारी के तहत कार्रवाई करे तो वह बर्बर! जामिया मिलिया इस्लामिया में वह वीडियो सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध है जिसमेें पुलिस लाउडस्पीकर से अपील कर रही है कि बच्चों आपलोग पत्थर, शीशा आदि हम पर न फेंके, हम आपकी सुरक्षा के लिए है। बावजूद यदि पत्थरों, शीशों से हमला होता रहे तो पुलिस फूल का माला पहनाने नहीं जाएगी। वह भी उस स्थिति में जब बाहर कुछ ही दूरी पर बसें जल रहीं हो, गाड़ियां तोड़ी गईं हों.....।

जामिया की उप कुलपति नजमा अख्तर का कहना है कि पुलिस बिना अनुमति अंदर नहीं प्रवेश करती। हम भी मानते हैं कि विश्वविद्यालय परिसरों में पुलिस को सामान्यतः प्रवेश नहीं करना चाहिए। किंतु ऐसा कोई कानून नहीं है जो पुलिस के प्रवेश का निषेध करता हो। वह भी उस स्थिति में जब भयानक हिंसा और आगजनी करने वालों के विश्वविद्यालय परिसर में छिपे होने की आशंका हो। हालांकि जितने छात्र हिरासत में लिए गए थे वो सब बाद में रिहा भी कर दिए गए। पुलिस की ओर से एक भी गोली नहीं चली, जबकि गोली चलाने की परिस्थितियां पैदा हो गईं थी। काफी पुलिस वाले और अग्निशमन विभाग के कर्मी घायल हुए। लखनउ के नदवा कौलेज के छात्र किस तरह अंदर से पुलिस पर पत्थरों से हमला कर रहे थे वह दृश्य किसने नहीं देखा होगा। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के डरावने दृश्य को कौन भूल सकता है। वहां पांच दर्जन से ज्यादा लोग घायल हुए जिसमेें पुलिस वाले भी थे। जाधवपुर विश्वविद्यसालय में तो सरकारी संरक्षण में ही हंगामा मचा हुआ था।

 इस दुर्भाग्यपूर्ण सच को नजरअंदाज किया जा सकता है कि विरोध के किसी नेता ने एक बार भी हिंसा न करने की अपील की है और न उसकी निंदा ही? सोनिया गांधी के नेतृत्व में 18 दिसंबर को विपक्ष के नेता राष्ट्रपति से मिले और बाहर आने पर बयान भी दिया। पर उपद्रवियों और जेहादी तत्वोें की हिंसा के विरुद्ध एक शब्द नहीं। 20 दिसंबर को वीडियो संदेश जारी किया उसमें भी हिंसा न करने की अपील नहीं की, बल्कि उनके साथ खड़ा होने की घोषणा की। प्रियंका बाड्रा इंडिया गेट पर जामिया में पुलिस कार्रवाई के विरोध में धरने पर बैठ गईं। जिस समय न्यू फ्रेंड्स कौलोनी में हिंसा हुई वो वहां के अपने घर में थीं। वहां से निकलते समय पत्रकारों ने प्रतिक्रिया लेनी चाही पर वो कार का शीशा तक खोलने को तैयार नहीं हुईं। आप अगर अपराधियों, उपद्रवियों, जेहादियों की हिंसा की निंदा नहीं करते तो परोक्ष रुप से उनको प्रोत्साहित करते हैं। यह क्यों न माना जाए कि ये नेतागण चाहते हैं कि नागरिकता कानून के विरोध के नाम पर स्थिति सरकार के नियंत्रण से बाहर जाए और उनके लिए राजनीतिक करने का आधार बने?  विरोध पर उतरे लोगों को देखकर साफ हो जाता है कि उनके अंदर गलत बातें फैलाकर डर तथा सरकार के विरोध में गुस्सा पैदा किया गया है। जैसे कोई कहता है कि इस कानून से मुसलमानों की नागरिकता छीन ली जाएगी तो कोई यह कि हमको देश से निकाल दिया जाएगा। यह दुष्प्रचार नहीं तो और क्या है। विरोधियों से पूछिए कि नागरिकता कानून में क्या है जिसका वो विरोध कर रहे हैं तो वे एनआरसी पर बात करने लगते हैं। एनआरसी की प्रक्रिया शुरु भी नहीं हुई है। जाहिर है, कुत्सित राजनीति के हथियार के तौर पर विरोध के अधिकार का खतरनाक इस्तेमाल किया जा रहा है। किसी समुदाय को भड़का देने का परिणाम देश के लिए अच्छा नहीं हो सकता।

 पहले दिन से ही नरेन्द्र मोदी सरकार को मुस्लिम विरोधी छवि देने की कोशिश होती रही है। असहिष्णुता, पुरस्कार वापसी, मौब लिंचिंग जैसे अभियान याद रखना होगा। अब इस मानवीयता और स्वाभाविक जिम्मेवारी वाले कानून को मुसलमान विरोधी बताकर पूरे देश में सांप्रदायिक माहौल बनाने का खेल चल रहा है। एक साथ तीन तलाक के विरुद्ध कानून को शरियत विरोधी बताकर भड़काया गया लेकिन कुछ नहीं हुआ।  अनुच्छेद 370 हटाने को भी मुलसमानों के खिलाफ बताया गया। लोग सड़कों पर नहीं आए। अयोध्या का फैसला हो गया। भड़काने की पूरी कोशिश हुई। बावजूद शांति कायम रही। नागरिकता कानून और इसके बाद एनआरसी लाने की घोषणा ने इनको अवसर दे दिया कि लोगों के अंदर नागरिकता छीनने और ट्रांजिट कैम्प में रखने या बाहर निकाले जाने का भय पैदा करके कोहराम मचा दो। हिंसा में जो लोग पकड़े जा रहे हैं उनके ऐसे लोग शामिल है जिनका आपराधिक रिकॉर्ड है। इसीलिए कहना पड़ता है कि हमारे नेतागण अपना राजनीतिक वनवास खत्म करने के लिए आग से खेल रहे हैं। एक बार आग लगा देने के बाद बुझाना कठिन हो जाता है।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, मोबाइलः9811027208

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