मंगलवार, 16 जुलाई 2024

मुस्लिम महिलाओं को गुजारा भत्ता अधिकार पर न्यायालय का फैसला ऐतिहासिक

अवधेश कुमार

उच्चतम न्यायालय द्वारा मुस्लिम महिलाओं के गुजारे भत्ते के संदर्भ में दिए फैसले पर ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड सहित कई मुस्लिम संस्थाओं और व्यक्तियों की प्रतिक्रिया ठीक वैसी ही है जैसे एक साथ तीन तलाक संबंधी फैसला पर थी। तलाकशुदा मुस्लिम महिलाएं दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत पति से गुजारा भत्ता मांग सकती हैं। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 तथा अब भारतीय न्याय संहिता धारा 144 में गुजारा भत्ता प्राप्त करने का प्रावधान है जो सभी विवाहित महिलाओं पर लागू होती है।  निश्चित रूप से इस फैसले ने 1985 में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए शाहबानो मामले के फैसले की स्मृतियां ताजा कर दी है जब इसी तरह के फैसले के विरुद्ध देश भर में  मुस्लिम संस्थाओं और संगठनों ने सड़कों पर विरोध प्रदर्शन शुरू किया था। सबका एक ही स्वर था कि न्यायालय हमारे मजहबी मामले में हस्तक्षेप नहीं कर सकता। हमारे परिवार , शादी विवाह ,तलाक, संपत्ति आदि मामले शरिया कानून के अनुसार चलेंगे और उसमें न्यायालय का हस्तक्षेप हमें स्वीकार नहीं है। उच्चतम न्यायालय ने तब शाहबानो के पति मोहम्मद अहमद खान को धारा 125 के अंतर्गत गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया था। उसके बाद राजीव गांधी सरकार ने सन् 1986 में मुस्लिम महिला तलाक पर (अधिकारों का संरक्षण )कानून पारित कर इस फैसले को पलट दिया। उसमें इद्दत की  अवधि, जो 90 दिन की होती है,  के अलावा पतियों को गुजारा भत्ता देने की कानूनी अनिवार्यता से मुक्त कर दिया गया था। अब इन संगठनों और संस्थाओं की आक्रामकता में काफी कमी है,भाव लगभग वही है। क्या यह मान लिया जाए कि ये जो प्रतिक्रिया दे रहे हैं वही सही है? बिल्कुल नहीं।

 वर्तमान फैसला 1986 के उसे कानून को भी कटघरे में खड़ा करने वाला है। वैसे वर्तमान फैसले में न्यायालय ने उसे कानून की भी व्याख्या की है।  इस फैसले में 2019 में नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा एक साथ तीन तलाक रोकने के लिए बनाए कानून मुस्लिम महिला विवाह अधिकार संरक्षण अधिनियम के तहत दिए गए गैर कानूनी तलाक की पीड़िता के गुजारा भत्ते के बारे में भी व्यवस्था दी गई है। वास्तव में इस कानून के पीछे भी धारणा यही थी कि मुस्लिम महिलाएं मजहब की आड़ में शोषित और पीड़ित न हों। न्यायालय की यह टिप्पणी ध्यान देने योग्य है कि गुजारा भत्ता खैरात नहीं है बल्कि महिलाओं का अधिकार है। वास्तव में इस फैसले से मुस्लिम विवाहित महिला विशेष कर तलाकशुदा मुस्लिम महिला के गुजारा भत्ता प्राप्त करने के कानूनी अधिकार पर इस फैसले से स्थिति स्पष्ट हो गई है।

 हालांकि न्यायालय ने इस संबंध में कोई पहला फैसला नहीं दिया है। मुस्लिम महिला को भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 में गुजारा भत्ता प्राप्त करने के अधिकार पर पहले भी मुहर लगाई थी। इस फैसले में धारा 125 के तहत गुजारा भत्ता प्राप्त करने और शाहबानो फैसले के बाद आए 1986 के कानून पर तुलनात्मक विचार किया गया है जो पहले नहीं हुआ था। तो इसका कानूनी दृष्टि से महत्व यह है कि तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के धारा 125 में गुजारा भत्ता प्राप्त करने को लेकर मौजूद कानूनी भ्रम खत्म हो गया है। मुस्लिम पुरुष इसी धारा की आड़ लेकर अपना बचाव करते थे। वर्तमान मामले में तेलंगाना के मोहम्मद अब्दुल समद ने भी इसी धारा की आड़ लेकर अपनी तलाकशुदा पत्नी को गुजारा भत्ता देने से बचने की कानूनी रणनीति अपनाई थी। वैसे 2001 में डेनियल लतीफी बनाम भारत संघ मामले में भी उच्चतम न्यायालय ने 1986 के कानून की व्याख्या करते हुए कहा था कि महिलाओं के अधिकार इद्दत की अवधि के आगे भी रहते हैं। उस फैसले के बाद ही अधिनियम में लागू की गई रोक एक तरह से अप्रभावी हो गई। ध्यान रखिए डेनियल लतीफी ने ही उच्चतम न्यायालय में शाहबानो के पक्ष में वकालत किया था। उच्चतम न्यायालय ने शाहबानो मामले में 1985 के फैसले में कहा था कि धारा 125 में मुस्लिम महिला भी पति से भरण पोषण पाने की हकदार है। जब 2017 के सायराबानो मामलों में उच्चतम न्यायालय ने एक साथ तीन तलाक को  असंवैधानिक और अवैध करार दे दिया था तो अब महिलाओं के विरुद्ध फैसला आने का कोई प्रश्न नहीं था। 2009 में भी उच्चतम न्यायालय ने मौलाना अब्दुल कादिर मदनी मामले में कहा था कि रीलिजन का पालन करने के अधिकार में दूसरों के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करने का अधिकार शामिल नहीं है। लैंगिक समानता के परिप्रेक्ष्य में उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया था कि पर्सनल लॉ संवैधानिक अधिकारों के अनुरूप होना चाहिए। 2014 के शमीम बानो बनाम अशरफ खान मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि मुस्लिम महिला तलाक के बाद भी अपने पति से गुजारा भत्ता पाने की हकदार है और मजिस्ट्रेट के न्यायालय के समक्ष इसके लिए आवेदन कर सकती है। 

अब किसी महिला को तलाक के बाद मुस्लिम पति से गुजारा भत्ता लेने के लिए न्यायालय के समक्ष न इतने चक्कर काटने पड़ेंगे और न उन्हें इस तरह शरिया कानून से लेकर कानूनों की लंबी चौड़ी व्याख्या करनी होगी। 1986 के कानून के रहते हुए भी मुस्लिम महिला को अब समस्या नहीं आएगी। 2019 के तीन तलाक विरोधी कानून तथा वर्तमान फैसला आगे से ऐसे सभी मामलों में न्यायिक फैसले का आधार बनेगा।यह मामला तेलंगाना से जुड़ा हुआ था। उच्च न्यायालय  ने 13 दिसंबर , 2023 को मुस्लिम महिला को धारा 125 के तहत गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया था। मोहम्मद अब्दुल समद ने उसे फैसले के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर की थी। हालांकि अभी अब्दुल समद के पास बड़ी पीठ में जाने का रास्ता बचा हुआ है किंतु वहां भी अलग कुछ होगा यह मानने का कोई कारण नहीं है। न्यायालय ने इसमें पहले के कई कानून और फैसलों की नए सिरे से व्याख्या कर दी है। न्यायालय ने स्पष्ट कहा है कि 2019 का मुस्लिम महिला विवाह अधिकार संरक्षण की धारा 5 के अंतर्गत मुस्लिम महिलाओं को गुजारा भत्ता पाने का अधिकार है या फिर वह महिला पूर्व की दंड प्रक्रिया धारा 125 तथा वर्तमान भारतीय न्याय संगीता 144 के तहत भी गुजारा भत्ता की मांग कर सकती है। अगर गुजारा भत्ता की अर्जी लंबित रहने के दौरान ही महिला को तीन तलाक दे दिया गया है तो वह धारा 125 में या फिर अधिनियम 2019 के अंतर्गत राहत मांग सकती है। इस तरह शीर्ष न्यायालय ने 2019 के कानून और धारा 125 के प्रावधानों को भी स्पष्ट कर दिया है और कहा है कि 2019 का कानून धारा 125 में उपलब्ध राहत के अलावा है।  धारा 125 और मुस्लिम महिला तलाक पर अधिकारों का संरक्षण अधिनियम 1986 दोनों के प्रावधान एक साथ लागू हो सकते हैं। न्यायालय का मानना है कि 1986 के कानून से धारा 125 में दिए गए अधिकार समाप्त नहीं होते हैं। पर्सनल लॉ के मुताबिक शादी करने वाली मुस्लिम महिला के पास दोनों कानून में गुजारा भत्ता प्राप्त करने का विकल्प व अधिकार है। यानी वह दोनों कानून में राहत मांग सकती है या दोनों में से किसी एक कानून में राहत ले सकती है। 

 इस तरह देखें तो न्यायालय ने खंड में व्याख्या करने की जगह अब तक के सभी फैसलों और संबंधित कानूनों को एक साथ मिलाकर निहितार्थ बिल्कुल स्पष्ट कर दिया है। वस्तुत मुस्लिम संस्थाएं और संगठन एक साथ तीन तलाक और महिलाओं के अधिकार व गुजारा भत्ते पर अभी तक मजहब की झूठी आड़ लेकर मनमाना रवैया अपना रहे थे। अनेक  मुस्लिम विद्वानों ने ही स्पष्ट किया तथा न्यायालय में साफ हो गया कि ऐसी कोई व्यवस्था शरिया में नहीं थी। भारतीय राजनीतिक व्यवस्था एवं सत्ता तंत्र की मानसिकता ऐसी थी कि मुसलमान से संबंधित सामाजिक सुधार के विषय को छूने से समस्याएं बढ़ जाएगी। सबसे ज्यादा भय मुस्लिम वोट खिसक जाने का था। राजीव गांधी को उनके लोगों ने यही समझाया तथा मुला मौलवियों से मिलाया था।  तब राजीव सरकार में मंत्री रहे आरिफ मोहम्मद खान ने इसके विरुद्ध आवाज उठाई और मंत्री पद तक त्याग दिया। तब मुस्लिम समाज के अंदर उनकी सुनने वाले बहुत कम लोग थे। बाद के न्यायालयों के फैसलों ने साफ कर दिया की आरिफ मोहम्मद खान जैसे लोग ही सही थे और वही अपने समाज को सही दिशा देना चाहते थे तथा महिलाओं के गरिमा और सम्मान की रक्षा के साथ खड़े थे जो कहीं से भी इस्लाम विरोधी नहीं था दुर्भाग्य से आज भी भाजपा को छोड़ दें तो किसी राजनीतिक पार्टी ने उच्चतम न्यायालय के इस फैसले का खुलकर स्वागत नहीं किया है। सेक्यूलरवाद एवं अल्पसंख्यक संरक्षण के नाम पर झंडा उठाए हुए पत्रकारों की भी चुप्पी शर्मनाक है। कल्पना कीजिए अगर आज केंद्र की सत्ता भाजपा के हाथों नहीं होती तो सरकार कितने बड़े दबाव में होती। अब समय बदल गया है। चक्र को मोड़ कर 1985 के शाहबानो मामलों तक नहीं ले जाया जा सकता। जब तीन तलाक को ही नरेंद्र मोदी सरकार ने संसद द्वारा गैर कानूनी करार देने का प्रस्ताव पारित कर दिया तो वहां से फिर पहले की अवस्था में सरकार लौटने की सोच भी नहीं सकती। आज उच्चतम न्यायालय का फैसला संसद द्वारा नहीं पलटा जाएगा। यही बदला हुआ भारत है जिसको हर स्तर पर समझने और महसूस करने की आवश्यकता है।



वंचित समूहों को कब मिलेगी घुटन से मुक्ति

 राम पुनियानी

अमरीका के मिनियापोलिस शहर में जॉर्ज फ्लॉयड नामक एक अश्वेत नागरिक की श्वेत पुलिसकर्मी डेरेक चौविन ने हत्या कर दी. चौविन ने अपना घुटना फ्लॉयड की गर्दन पर रख दिया जिससे उसका दम घुट गया. यह तकनीक इस्राइली पुलिस द्वारा खोजी गई है. श्वेत पुलिसकर्मी नौ मिनट तक अपना घुटना फ्लॉयड की गर्दन का रखे रहा. इस बीच फ्लॉयड लगातार चिल्लाता रहा. ‘मैं साँस नहीं ले पा रहा हूँ’.

इस क्रूर हत्या के विरोध में अमरीका में जबरदस्त प्रदर्शन हुए. प्रदर्शनकारियों का नारा था ‘ब्लैक लाइव्ज़  मैटर’. इन प्रदर्शनों में अश्वेतों के अलावा बड़ी संख्या में श्वेत भी शामिल हुए. मिनियापोलिस के पुलिस प्रमुख ने फ्लॉयड के परिवार से माफ़ी मांगीं. बड़ी संख्या में अमरीकी पुलिसकर्मियों ने सार्वजनिक स्थानों पर घुटने के बल बैठ कर अपने साथी की हरकत पर प्रतीकात्मक पछतावा व्यक्त किया. फ्लॉयड के साथ हुए व्यवहार पर पूरी दुनिया में लोगों ने अपने रोष, शर्मिंदगी और दुःख को विभिन्न तरीकों से अभिव्यक्त किया.  

इस घटना के मूल में है श्वेतों के मन में अश्वेतों के प्रति नस्लीय नफरत. अश्वेतों के बारे में गलत धारणाओं के चलते उनके खिलाफ हिंसा होती है. इस घटनाक्रम से यह भी साफ़ हो गया कि अमरीका में प्रजातंत्र की जड़ें कितनी गहरी हैं. वहां के कई राज्यों की पुलिस ने इस घटना के लिए क्षमायाचना की और श्वेत और अश्वेत दोनों इसके खिलाफ एक साथ उठ खड़े हुए.

अमरीका दुनिया का ऐसा इकलौता देश नहीं है जहाँ समाज के हाशियाकृत समुदायों के साथ क्रूरता और हिंसा होती हो. भारत में दलितों, अल्पसंख्यकों और आदिवासियों को इसी तरह की हिंसा का सामना लम्बे समय से करना पड़ रहा है. परन्तु यहाँ ऐसी घटनाओं पर अलग तरह की प्रतिक्रिया होती है.

तबरेज़ अंसारी को एक खम्बे से बाँध कर एक भीड़ ने बेरहमी से पीटा. उसे पुलिस स्टेशन ले जाया गया परन्तु पुलिस ने उसे अस्पताल पहुँचाने में इतनी देर लगा दी कि उसकी मौत हो गई. पुणे में एक आईटी कर्मचारी की हिन्दू राष्ट्र सेना के कार्यकर्ताओं के समूह ने हत्या कर दी. यह घटना सन 2014 के मई माह में ठीक उसी दिन हुई जिस दिन मोदी सत्ता में आये. अफराजुल को जान से मारते हुए शम्भूलाल रेगर ने अपना वीडियो बनाया और उसे सोशल मीडिया पर डाल दिया. रेगर का मानना था कि मुसलमान लव जिहाद कर रहे हैं और उनके साथ यही होना चाहिए. मोहम्मद अखलाक की इस संदेह में हत्या कर दी गई कि उसके घर में गाय का मांस है. इस तरह की घटनाओं की एक लम्बी सूची है. 

हाल में, उत्तरप्रदेश में एक दलित युवा को इसलिए अपनी जान से हाथ धोना पड़ा क्योंकि उसने एक मंदिर में घुसने की हिमाकत की थी. ऊना में चार दलितों को कमर तक नंगा कर हंटरों से मारा गया. इस घटना पर टिप्पणी करते हुए केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान ने कहा कि यह एक मामूली घटना है. दलितों के विरुद्ध अत्याचार की घटनाओं की सूची भी बहुत लम्बी है. परन्तु सामान्यतः ऐसी घटनाओं पर वही प्रतिक्रिया होती है जो पासवान की थी. फ्लॉयड के साथ अमरीका में जो कुछ हुआ उससे कहीं अधिक क्रूरता और अत्याचार दलितों, मुसलमानों और आदिवासियों को झेलने पड़ते हैं.

अमरीका में एक अश्वेत की जान जाने की घटना ने देश और दुनिया को हिला कर रख दिया. भारत में इस तरह की घटनाओं पर कोई प्रतिक्रिया नहीं होती. हां, कभी-कभी एक लम्बी चुप्पी के बाद प्रधानमंत्री हमें इस तथ्य से वाकिफ कराते हैं कि मां भारती ने अपना एक पुत्र खो दिया है! अधिकांश मामलों में पीड़ित को ही दोषी ठहराया जाता है. कुछ संगठन अलग-अलग मंचों से इसके विरोध में बोलते हैं परन्तु उनकी आवाज़ नक्कारखाने में तूती की आवाज़ साबित होती है.

भारत को दुनिया का सबसे बड़ा प्रजातंत्र कहा जाता है. प्रजातन्त्र में कानून का शासन होना ही चाहिए. इसी कानून के आधार पर अन्यायों को चुनौती दी जाती है. अमरीका के वर्तमान राष्ट्रपति भले ही एक असंवेदनशील व्यक्ति हों परन्तु उस देश की प्रजातान्त्रिक प्रक्रियाएं और संस्थाएं बहुत मज़बूत हैं. इन संस्थाओं की जडें गहरी हैं. यद्यपि कुछ पुलिस अधिकारी पूर्वाग्रहग्रस्त हो सकते हैं, जैसा कि फ्लॉयड के हत्या के मामले में हुआ, परन्तु वहां ऐसे पुलिस अधिकारी भी हैं जो अपने राष्ट्रपति से सार्वजनिक तौर पर यह कह सकते हैं कि अगर उनके पास बोलने के लिए कोई काम की बात नहीं है तो उन्हें अपनी जुबान बंद रखनी चाहिए. समाज में अश्वेतों के बारे में गलत धारणाएं आम हो सकती हैं परन्तु अमरीकियों का एक बड़ा तबका मानता है कि ‘ब्लैक लाइव्ज़ मैटर’ और जब भी देश में प्रजातंत्र और मानवता के मूल सिद्धांतों का उल्लंघन होता है तब यह तबका खुलकर उसका विरोध करता है.

इसके विपरीत भारत में कई कारणों से तबरेज अंसारी, मोहम्मद अखलाक और ऊना के दलितों और उनके जैसे अन्यों के जान की कोई कीमत ही नहीं है. यद्यपि हम यह दावा करते हैं कि हम एक प्रजातंत्र हैं तथापि अन्याय के प्रति हमारी असंवेदनशीलता बढ़ती जा रही है.

पिछले कुछ दशकों में हाशियाकृत समुदायों के विरुद्ध दुष्प्रचार इस हद तक बढ़ गया है कि उनके विरुद्ध हिंसा सामान्य मानी जाने लगी है. आम लोग इन समुदायों के सदस्यों के साथ हो रहे अत्याचारों से विक्षुब्ध तो होते हैं परन्तु वे इन वर्गों के खिलाफ पूर्वाग्रहों से भी भरे होते हैं. सांप्रदायिक ताकतों का पारम्परिक और सोशल दोनों मीडिया में जबरदस्त दबदबा हैं और वे इन वंचित समूहों के बारे में इस हद तक गलत धारणाएं प्रचारित करती हैं कि आमजन उससे प्रभावित हो जाते हैं.

वैसे भी, हमारे देश में प्रजातंत्र के जड़ पकड़ने की गति बहुत धीमी रही है. प्रजातंत्र एक गतिशील व्यवस्था है. यह कोई स्थिर चीज़ नहीं. दशकों पहले श्रमिक और दलित अपने अधिकारों के लिए बिना किसी समस्या के लडाई लड़ते थे परन्तु आज यदि किसान विरोध प्रदर्शन करते हैं तो उसे ‘ट्रैफिक में बाधा डालना’ बताया जाता है. प्रजातंत्र की जडें इस हद तक कमज़ोर हो गयीं हैं कि सरकार की नीतियों का विरोध करने वालों पर राष्ट्रविरोधी का लेबल चस्पा कर दिया जाता है. 

हमारी प्रजातान्त्रिक संस्थाएं धीरे-धीरे कमज़ोर हो गई हैं और अब तो कोई यह सोच भी नहीं सकता कि वे हाशियाकृत समुदायों की रक्षा में आगे आएंगीं. विघटनकारी और सांप्रदायिक विचारधारा - जो अल्पसंख्यकों, दलितों और आदिवासियों को नीची निगाहों से देखती है - का प्रभाव बहुत तेज़ी से बढ़ा है. 

भारत में प्रजातन्त्र खोखला होता जा रहा है. कानून के राज को एक विचारधारा के राज में बदल दिया गया है. यह वह विचारधारा है जिसकी भारतीय संविधान में आस्था नहीं है, जो इस देश के बहुवादी और विविधवर्णी चरित्र को पसंद नहीं करती और जिसकी रूचि ऊंची जातियों और संपन्न वर्गों के विशेषाधिकारों की रक्षा में है. हमारे देश में प्रजातंत्र को मज़बूत होना चाहिए था. परन्तु सन 1980 के दशक के बाद से, भावनात्मक मुद्दों को उछालने के कारण, यह कमज़ोर हुआ है. यहाँ किसी फ्लॉयड की हत्या पर शोर नहीं मचता. जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या पर वहां जिस तरह का विरोध का ज्वार उठा, उसकी हम भारत में कल्पना तक नहीं का सकते. हमें अमरीकी प्रजातंत्र से कुछ सीखना चाहिए. (हिंदी रूपांतरणः अमरीश हरदेनिया) (लेखक आईआईटी, मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)

 

संपादक महोदय,    

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-एल एस हरदेनिया
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