शुक्रवार, 29 सितंबर 2023

लोकतंत्र के मन्दिर में अमर्यादित शब्दों की पार होती सीमा

 

बसंत कुमार

वर्ष 2014 में जब श्री नरेंद्र मोदी जी पहली बार सांसद बन कर आये तो लोकसभा में प्रवेश करते समय सीढ़ियों पर दंडवत प्रणाम करके यह आभास दे दिया कि देश के लोकतंत्र का यह मन्दिर श्रद्धा का स्थान है और इस वजह से एक उम्मीद यह जगी थी कि लोकतंत्र के इस मंदिर में अब वाद-विवाद और परिचर्चा का स्तर पुरानी बुलंदियों को छूने लगेगा क्योंकि विगत कुछ वर्षो में संसद में परिचर्चा का स्तर काफी गिर गया था। हम सभी जानते हैं कि पं. जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में सदन में परिचर्चा का स्तर बहुत उच्च कोटि का हुआ करता था, पर सभी का भ्रम उस समय टूट गया जब देश के सूचना मंत्री अनुराग ठाकुर को एक सभा में अल्पसंख्यक समाज के विरुद्ध यह नारा लगाते हुए सुना गया "देश के इन गद्दारों को गोली मारो सालों को" अब प्रश्न यह है कि देश में यदि कोई गद्दार है तो उसके लिए पुलिस और न्यायालय है उसके लिए मंत्री को गला फाड़ने की जरूरत क्या है। देश की राजनीति में अटल जी, आडवाणी जी, डॉ. मुरली मनोहर जोशी, सुषमा स्वराज अरुण जेटली जैसे नेता थे जिन्होंने दशकों तक विपक्ष की राजनीति की पर कभी भी किसी नेता के विरुद्ध अमर्यादित टिप्पणी नहीं की।

यहां तक कि एक बार एक युवा सांसद अटल बिहारी ने प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की कटु आलोचना की पर पंडित नेहरू युवा सांसद की इस आलोचना से नाराज नहीं हुए अपितु अटल जी के पास जाकर उनकी पीठ थपथपाकर शाबासी देते हुए कहा कि तुम एक दिन इस देश के प्रधानमंत्री अवश्य बनोगे और पंडित नेहरू की भविष्यवाणी चार दशक बाद सही हुई। इसी तरह संसद में प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी और अटल जी के साथ खूब नोक-झोक होती थी पर कई बार ऐसे अवसर आये जब इंदिरा जी ने देश हित में संसद को सुचारू रूप में चलाने हेतु अटल जी से सहयोग मांगा और अटल जी ने पूरा सहयोग किया पर आजकल जब हमारी सेना दुश्मन के क्षेत्र से सर्जिकल स्ट्राइक करती है तो विपक्ष इसके सबूत मांगता है इससे देश के बाहर देश की छवि धूमिल होती है।

अभी कुछ दिन पूर्व महिला आरक्षण बिल के लिए संसद का विशेष अधिवेशन बुलाया गया और सभी दलों के समर्थन से यह बिल पारित भी हो गया पर इसी बीच लोकसभा में घटी घटना ने सभी को हदप्रद कर दिया, लोकसभा में बोलते हुए दिल्ली के सांसद रमेश बिधूड़ी ने एक मुस्लिम सांसद को मुल्ले आतंकवादी न जाने क्या क्या कह दिया, हो सकता है कि देश में कुछ मुस्लिम आतंकवादी हो सकते हैं पर एक मुस्लिम सांसद को आतंकवादी कहना पूरे मुस्लिम समुदाय का अपमान है। अगर सभी मुस्लिम आतंकवादी हैं तो कलाम साहब, बिस्मिल्ला खां, अब्दुल हमीद, इकबाल आदि को क्या कहेंगे, हमारे लोकतंत्र के मंदिर लोकसभा में वाद-विवाद, परिचर्चा की उच्च परम्परा रही है। हमारे नेताओं ने जीवन में उच्च आदर्श स्थापित किए हैं, इस कारण सुभाष चन्द्र बोस के नाम के सामने नेताजी विशेषण लगाया जाता था पर अब हम यदि किसी के नाम के आगे नेता शब्द लगाएं तो इसे कटाक्ष माना जाता है इसलिए जो लोकसभा में हुआ उस पर अफसोस किया जाना चाहिए।

जाति और सम्प्रदाय को लेकर संसद के अंदर जहर उगलने की घटना यह पहली बार नहीं हुई है, वर्ष 1987 में केन्द्र में राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार थी और उनके एक मंत्री प्रो. के. के. तिवारी ने सदन में बहस के दौरान वरिष्ठ दलित सांसद राम धन को चमार की औलाद कहा और इनके इस कथन पर कांग्रेस ने तिवारी के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की। मनबढ़ तिवारी ने तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह के विषय में आपत्तिजनक शब्द कह दिए वह बात अलग है कि ज्ञानी जैल सिंह के रुख के कारण के. के. तिवारी को मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर दिया गया। जाति और धर्म की राजनीति अपनी जड़ें इतनी गहरी जमा चुकी है कि क्षेत्रीय दल तो दूर अब राष्ट्रीय पार्टियां भी इससे अछूती नहीं रह गई हैं। इस घटना में जिस सांसद ने एक मुस्लिम सांसद के लिए आतंकवादी जैसे शब्द का उल्लेख किया उसे सजा देने के बजाय राजस्थान विधानसभा में गुर्जर समुदाय के वोटों के खातिर विशेष टास्क दिया गया है, प्रश्न यह है की दौसा क्षेत्र में सचिन पायलट जो कि एक प्रभावशाली गुर्जर नेता हैं, उनकी टक्कर का भाजपा के पास और कोई गुर्जर नेता नहीं है जो सौम्य और शालीन हो। वैसे भी भाजपा (पूर्व में जनसंघ) का इतिहास रहा है कि यह अपनी राष्ट्रवादी नीतियों और रीतियों के बल पर सत्ता में आने का प्रयास करती रही है।

वर्ष 1965-66 में उप्र की जनपद जौनपुर की संसदीय सीट पर चुनाव हो रहे थे और वहां से जनसंघ के टिकट पर जनसंघ के तत्कालीन अध्यक्ष व एकात्म वाद के प्रणेता पं. दीनदयाल उपाध्याय चुनाव लड़ रहे थे और उनके प्रतिद्वंदी के रूप में कांग्रेस के राजदेव सिंह थे। एक दिन उनके चुनाव का कार्यभार संभाल रहे राजा यादवेंद्र दत्त दुबे ने पं. दीनदयाल उपाध्याय जी को सलाह दी कि जौनपुर ब्राह्मण बाहुल्य क्षेत्र है आप एक बार ब्राह्मणों की एक सभा कर लें और जाति के नाम पर वोट मांग लें आप यह चुनाव जीत जाएंगे। इस पर पंडित जी बोले ऐसा करके मैं चुनाव तो अवश्य जीत जाऊंगा पर मेरा सिद्धांत सदैव के लिए हार जाएगा और परिणाम यह हुआ कि वे चुनाव हार गए और वे कभी लोकसभा सांसद नहीं बन पाए पर उनका सिद्धांत आज भी अमर है। यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि उन्हीं के दल के एक सांसद ने मजहब को लेकर ऐसे शब्दों का इस्तेमाल किया कि पूरा संसद सन्न रह गया। आश्चर्य की बात है कि इनके पीछे बैठे पूर्व मंत्री डॉ. हर्षवर्धन उन्हें चुप कराने के बजाय हंस रहे थे।

21वी शताब्दी में हमारी एक बड़ी उपलब्धि रही है कि हमने पुराने संसद भवन के स्थान पर एक नए संसद भवन का निर्माण कर लिया है पर हम क्या पुराने संसद भवन में वर्षों तक हुई शालीनता भरी परिचर्चा, वाद- विवाद के स्थान पर नए संसद भवन में इस प्रकार की निम्न स्तरीय परिचर्चा और वाद-विवाद की शुरुआत कर देंगे। संसद में वाद-विवाद और परिचर्चा के गिरते हुए स्तर पर सभी राजनीतिक दलों को सोचना होगा।

(लेखक भारत सरकार के पूर्व उप सचिव हैं।) M-9718335683

गुरुवार, 28 सितंबर 2023

जस्टिन ट्रूडो भारत से तनाव के जिम्मेवार

अवधेश कुमार

कनाडा भारत तनाव उस अवस्था में पहुंच गया है जहां से संबंधों का सामान्य होना आसान नहीं होगा।  कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो और उनकी सरकार की हरकतों ने भारत के पास जैसे को तैसा आक्रामक प्रत्युत्तर देने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है। ट्रूडो‌ ने हाउस ऑफ़ कॉमंस में खालिस्तानी आतंकवादी हरदीप सिंह निज्जर को कनाडा का सम्मानित नागरिक बताते हुए उसकी हत्या का आरोप भारत पर लगाया उसे कोई सभ्य और स्वाभिमानी देश सहन नहीं कर सकता। निज्जर की 18 जून को कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया के सरी शहर में गुरुद्वारे के बाहर कार सवार दो बंदूकधारियों ने हत्या कर दी थी। ट्रूडो सरकार ने भारतीय उच्चायोग के एक वरिष्ठ अधिकारी को निष्कासित करने का आदेश सुना दिया। भारत ने कुछ ही घंटे बाद कनाडा उच्चायुक्त को विदेश मंत्रालय में बुलाकर एक राजनयिक को निष्कासित करने का आदेश सुनाया। कनाडा सरकार ने अगले दिन एडवाइजरी जारी किया जिसमें कहा गया कि जम्मू कश्मीर में आतंकवादी गतिविधियों को देखते हुए सतर्क रहें और जाने से बचें। वर्तमान भारत इस तरह की उदंडता सहन नहीं कर सकता था और भारतीय नागरिकों खासकर छात्रों युवाओं के लिए एडवाइजरी जारी हुआ कि वहां भारत विरोधी और अलगाववादी हिंसक गतिविधियों को देखते हुए यात्रा करने से बचें, सतर्क रहें। यह भी कि कनाडा स्थित भारतीय उच्चायोग अपने नागरिकों की हर क्षण सहायता करने को तैयार है। कनाडा ने भारत के साथ मुक्त व्यापार वार्ता रद्द कर दिया। भारत ने कनाडा की वीजा सेवा को रद्द करने की अब तक की सबसे बड़ी कार्रवाई की जो अभूतपूर्व है। किसी कनाडाई को तत्काल भारत का वीजा नहीं मिलेगा।

कोई भी संतुलित ,विवेकशील और समझबूझ वाली सरकार इस तरह वर्तमान अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में भारत जैसे देश के साथ ऐसा व्यवहार करने का दुस्साहस नहीं कर सकता। ट्रूडो ने कहा कि निज्जर की हत्या और भारत सरकार के एजेंट के बीच संभावित संबंध के ठोस आरोपों की कनाडा की सुरक्षा एजेंसियां पूरी सक्रियता से जांच कर रही है। उन्होंने अंग्रेजी में क्रेडिबल एविडेंस यानी विश्वास योग्य साक्ष्य मिलने की बात कही। कहा कि कनाडा की धरती पर कनाडाई नागरिक की हत्या में विदेशी सरकार की किसी भी प्रकार की संलिप्तता अस्वीकार्य है और यह हमारी संप्रभुता का उल्लंघन है। भारत द्वारा इसका खंडन स्वाभाविक था। विदेश मंत्रालय ने स्पष्ट किया कि कनाडा में हिंसा की किसी घटना में भारत की संलिप्तता के आरोप बेतुका और निराधार हैं।भारत ने कितना कड़ा तेवर अपनाया इसका प्रमाण इस पंक्ति से मिलता है कि इस प्रकार के निराधार आरोप खालिस्तानी आतंकवादियों और चरमपंथियों से ध्यान हटाने की कोशिश है जिन्हें कनाडा में प्रश्रय दिया जाता है और जो भारत की क्षेत्रीय अखंडता के लिए खतरा बने हुए हैं।

 यही सच है। कनाडा में खालिस्तानी आतंकवादियों , समर्थकों और चरमपंथियों को भारत विरोधी गतिविधियों के लिए जितनी स्वतंत्रता और सहयोग प्राप्त है वैसा पाकिस्तान के अलावा कहीं नहीं। कनाडा के नेता खालिस्तानी तत्वों के प्रति खुलेआम सहानुभूति जताते हैं।  जी20 सम्मेलन के इतर ट्रूडो और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच मुलाकात हुई तो इस विषय पर चर्चा की गई। प्रधानमंत्री ने उन्हें कनाडा में खालिस्तानी गतिविधियों को अस्वीकार्य बताया तो ट्रूडो ने भी निज्जर की हत्या में भारतीय एजेंसियों की भूमिका की जांच का आग्रह किया। जस्टिन ट्रूडो भारत से आगबबूला थे इसका प्रमाण तब मिला जब कनाडा वापसी के समय उनका विमान खराब हो गया, वह होटल में रुके रहे लेकिन भारत द्वारा विमान उपलब्ध कराने का आग्रह ठुकरा दिया। आखिर वह चाहते क्या है? कह रहे हैं कि कनाडा की एजेंसियों ने पुख्ता तौर पर पता किया है कि निज्जर की हत्या के पीछे भारत सरकार का हाथ हो सकता है। कनाडा की विदेश मंत्री मैलानी जोली ने कहा कि भारतीय राजनीतिक पवन कुमार राय को इस मामले की जांच के कारण ही निष्कासित कर दिया गया। राजनयिक को निष्कासित करने के साथ नाम सार्वजनिक नहीं किया जाता। यह मान्य परंपराओं का उल्लंघन है और इससे पवन कुमार राय के जीवन पर खतरा पैदा हो गया है। 

पिछले कुछ वर्षों में विदेश में खालिस्तानी हिंसक तत्वों की गतिविधियां बढ़ती देखी गई है। इन्हीं स्थितियों में हाल में निज्जर सहित तीन घोषित खालिस्तानी आतंकवादियों की मौत हुई है। जून में ब्रिटेन में अवतार सिंह खांडा को बर्मिंघम के एक अस्पताल में रहस्यमय परिस्थितियों में मृत घोषित किया गया। वह खालिस्तान लिबरेशन फोर्स का प्रमुख था। उसके पहले पाकिस्तान के लाहौर में भी खालिस्तानी आतंकवादी परमजीत सिंह पंजवार की  सरेआम हत्या कर दी गई। इस तरह की हत्याओं ने खालिस्तानी आतंकवादियों और समर्थकों के अंदर डर और गुस्सा पैदा किया तथा वे लगातार आरोप लगा रहे हैं। ब्रिटिश सरकार ने कनाडा की तरह खांडा की हत्या का आरोप भारत पर नहीं लगाया। ट्रूडो कह रहे हैं कि उन्होंने यह बात अमेरिकी राष्ट्रपति जो बिडेन एवं ब्रिटिश प्रधानमंत्री ऋषि सुनक के समक्ष भी उठाई थी। इस मामले में ट्रूडो के साथ विश्व का कोई प्रमुख देश नहीं है। 

1990 के दशक में खालिस्तानी आतंकवाद की चरम अवस्था में पाकिस्तान के बाद सबसे ज्यादा गतिविधियां कनाडा में ही थी। 1985 में टोरंटो से लंदन जा रहा एयर इंडिया का विमान कनिष्क विस्फोट में खत्म हो गया और सवार 329 में से कोई नहीं बचा। कनाडा में दिखावटी जांच की लंबी प्रक्रिया चलाई गई लेकिन सच सामने नहीं आया। 2005 में दो सिख अलगाववादियों को रिहा भी कर दिया गया। कई को गवाही देने से डराया गया और कई की मौत हो गई या हत्या कर दी गई। एक आरोपी को बम बनाने और हत्या के मुकदमे में झूठी गवाही देने का दोषी पाया गया था। 2005 में रिहा हुए मुख्य सरगना माने जाने वाले रिपुदमन सिंह मलिक को जुलाई 2022 में गोली मार दी गई थी। पिछले दिनों सिख अलगाववादियों ने कनाडा की राजधानी टोरंटो में भारत को चिढ़ाने वाला जुलूस निकाला जिसमें पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधी की हत्या को सही ठहराते हुए हत्यारे को महिमामंडित किया गया। 2015 में जब ट्रूडो प्रधानमंत्री बने तो उनके मंत्रिमंडल में जगमीत सिंह भी था, जो खालिस्तान की रैलियां में शामिल होता है।  ट्रूडो और उनकी सरकार से  पूछा जाना चाहिए कि भारत की एकता, अखंडता और संप्रभुता का कोई मायने है या नहीं?  सरेआम भारत को तोड़ने की बात करना, हिंसा के लिए उकसाना कनाडा के कानून में अपराध है या नहीं? कोई देश भारत की एकता अखंडता को चुनौती देने वाले को सम्मानित नागरिक कहकर संरक्षण देता है तो उसे प्रत्युत्तर देने में हम सक्षम हैं। भारत की नीति साफ है, जो देश को तोड़ने के लिए काम करेगा, हिंसा करेगा, हिंसा कराने की कोशिश करेगा उससे दुश्मन और आतंकवादी की तरह ही निपटा जाएगा। क्या कनाडा सरकार को पता नहीं था कि निज्जर पर 10 लाख रुपए का इनाम था?  उसी के संगठन ने 31 अगस्त,1995 को पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या की थी। कनाडा की आबादी में 9 लाख 42 हजार 170 यानी 2.7 प्रतिशत सिख समुदाय के लोग हैं। उनमें मुट्ठी भर ही खालिस्तान समर्थक होंगे।  इस समय भारत कनाडा का व्यापार 8 अरब डॉलर के आसपास है और इसमें कनाडा का भारत को निर्यात करीब 4.3 अरब डॉलर है। तो व्यापार वार्ता रोकने से क्षति उसे भी होगी। कनाडा की करीब 600 कंपनियां भारत में कार्यरत हैं। हजारों छात्र वहां पढ़ने जाते हैं। कनाडा को इससे करोड़ों का लाभ है। करीब 4 करोड़ की आबादी वाले देश को 140 करोड़ आबादी के देश से ज्यादा क्षति होगी। भारत ट्रूडो के उत्तेजक व्यवहार की तरह इन कंपनियों के विरुद्ध कार्रवाई नहीं कर सकता। भारत का पक्ष बिल्कुल स्पष्ट है, कनाडा को भारत विरोधी खालिस्तानी गतिविधियों को प्रश्रय देना बंद करना होगा, भारत विरोधी गतिविधियों को रोकना पड़ेगा। उन्होंने जो आरोप लगाया है उसके बारे में वह जानें और साबित करें। 



बुधवार, 27 सितंबर 2023

स्त्री-चेतना: स्वानुभूति बनाम सहानुभूति

 मीना शर्मा

सत्य क्या है? चेतना क्या है? सत्य स्त्रीलिंग है अथवा पुलिंग या उभयलिंग? चेतना स्त्री की है? चेतना पुरुष की है? अथवा चेतना मनुष्य मात्र की (मानवीय) है? सत्य भक्ति का होता है? सत्य रचयिता का होता है? सत्य पाठक का होता है? सत्य सार्वभौम होता है अथवा सत्य विशिष्ट होता है? या सत्य इनमें से कोई भी नहीं होता है? या सत्य समन्वित निर्मिति है। ऐसे अनगिनत प्रश्नों की वर्षा होने लगती है जब हम सत्य को खंगालना शुरू करते हैं और सत्य को खंगालाना भी जरूरी है, क्योंकि इसी से जुड़ा है अनुभूति का सत्य। अपनी अनुभूति (स्वानुभूति) सत्य है अथवा अनुभूति - सामर्थ्य के सहारे दूसरे की अनुभूति तक पहुंचकर सत्य का साक्षात्कार करना यानी सह- अनुभूति, समान अनुभूति के सत्य को उपलब्ध करना सत्य है। दूसरे शब्दों में क्या सह अनुभूति (सहानुभूति) सत्य है? ये इतने सारे सवाल क्यों? तो उत्तर यह है कि सत्य की उपलब्धि का दावा सभी करते हैं और प्रत्येक दावा करने वाला अपने सत्य को परम सत्य और अन्तिम सत्य मानने लगता है, परम ब्रह्म की तरह और फिर इस परमब्रह्म का परमज्ञानी दूसरे के सत्य को अंतिम सत्य भी नहीं मानता तो फिर निर्णय कैसे हो? झगड़ा और विवाद की जड़ यही है कि मेरा सत्य और तेरा सत्य, मेरी अनुभूति और तेरी अनुभूति, स्वानुभूति और सहानुभूति, रचनाकार और भोक्ता का सत्य, स्त्री लेखक का सत्य और लेखक का सत्य।
इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि सत्य क्या है, वह महत्त्वपूर्ण नहीं है, सत्य को कौन देख रहा है यह महत्त्वपूर्ण है किस चश्मे से सत्य को देखा जा रहा है, वह चश्मा सत्य को निर्धारित करता है। आदमी की निगाह में औरत का सत्य बनाम औरत की निगाह में औरत का सत्य, दोनों सत्य में से किसका सत्य मान्य और किसका सत्य अमान्य हो, यह कौन तय करेगा, आदमी या औरत ? पुरुष लेखक होकर भी पहले पुरुष है तो वहीं स्त्री लेखक होकर भी पहले वह स्त्री है, तो क्या अपने-अपने पूर्वाग्रह के साथ इस सत्योपलब्धि की प्रक्रिया में अनायास अथवा सायास चले आते हैं और इस कारण सामने वाले के सत्य को लिंग भेद, स्थिति भेद, अनुभूति भेद, अनुभव भेद के आधार पर हम स्वीकार नहीं करते हैं अथवा महजीह नहीं देते हैं। दोनों एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने लगते हैं, एक दूसरे के सत्य को स्वीकार अथवा अस्वीकार करने के तर्क रखते हैं, उसका लॉजिकल फार्मूला स्त्री के अलग प्रजाति होने के आधार पर देते है-
'हर स्त्री मनुष्य है-
किन्तु हर मनुष्य स्त्री नहीं।'
इस तर्क को थोड़ा और बारीक करते हैं कि हर मनुष्य तो क्या, कोई भी स्त्री मनुष्य नहीं होती। अगर स्त्री मनुष्य होती तो उसकी मानव सत्ता अक्षुण्ण रहती, उसकी जैविक सत्ता के साथ-साथ। किन्तु स्त्री की मानव सत्ता की सर्वस्वीकार्यता कारिता होती तो फिर उसे उपनिवेश की श्रेणी में क्यों रखतो उसे परजीवी क्यों मानते, उसका दोयम दर्जा क्यों मानते? उसे वस्तु 'अन्या' आदि की श्रेणी में क्यों रखते? निम्नलिखित कथन को पढ़कर तो इसी तथ्य की पुष्टि होती है- "दरअसल भारतीय समाज में औरत और दलित दोनों ही परजीवी हैं। दोनों अपने जन्म के कारण ही भेदभावपूर्ण व्यवहार के शिकार होते हैं। दलितों के साथ जन्म-परक भेदभाव, एक वर्गीय व्यवस्था, ऊँची-नीच मालिक-गुलाम, विजेता-विजित आदि एक राजनीतिक साजिश का परिणाम है जो मनु की आचार संहिता पर आधारित सामन्ती/वर्ण-व्यवस्था के कारण घटित हुआ है। यह केवल भारत में ही है। औरत के साथ यह भेदभाव उसके स्त्री होने के कारण होता है, चाहे वह ऊंचे वर्ग की हो या निम्न- सर्वहारा वर्ग की, यानी गरीब हो या अमीर, गोरी या पीली अथवा काली या किसी भी रंग की हो, चपटी नाकवाली हो या चपटे माथे वाली या तीखी रोमन नाक वाली हिंदू हो या मुसलमान, ईसाई हो या यहूदी, पूरब की हो या पश्चिमी की स्त्री जाति में जन्म लेने वाली यानी स्त्री प्रजाति की होने के कारण ही उसे विश्व भर में दोयम दर्जा ही दिया जाता रहा है।

औरत, औरत होने के कारण यदि कमतर है तो एक बात है, ऊपर से यदि यह दलित जाति से ताल्लुक रखती है, उससे भी बड़ी बात, साथ ही यदि वह गरीब भी हो तो फिर तो वह उपनिवेश -द-उपनिवेश के चक्रव्यूह फंसी स्त्री हुई। यानी लिंग, जाति, वर्ग जैसी भिन्न स्थितियों में जाने वाली स्त्रियों को क्या पितृसत्ता एक ही प्रकार की प्रकटित करेगी? ऊपर से यदि वह स्त्री पिछड़ी जाति की निरक्षर, बेसहारा स्त्री हुई तब क्या होगा? शायद गांव का काई दबंग डायन, चुड़ैल बताकर निर्वस्त्र करके गांव में घुमाए अथवा बलात्कार आदि घटना को अंजाम देकर, काटकर नदी में बहा दे, तो क्या उस स्त्री की स्वानुभूति को उसी लिंग की कोई महानगरीय संभांत उच्च जाति की महिला 2000 किमी दूर वातानुकूलित कक्ष में बैठकर अपनी अनुभूति को उस पीड़ित महिला की अनुभूति के साथ समरूप कर सकती है? या फिर सिर्फ अपनी तरफ से सहानुभूति ही व्यक्त कर सकती है यानी एक महिला एक का ही सत्य (स्वानुभूति) दूसरी महिला का सत्य (सहानुभूति) नहीं बन पाता, तो ऐसी स्थिति मतें फिर कोई पुरुष उस पीड़ित महिला के दर्द की अनुभूति बयान करें तो वह अकेला 'हाऊटसाइडर कैसे? यह पुरुष भी तो उस पीड़ित महिला के साथ सहानुभूति ही तो व्यक्त करता है दूसरी स्त्री महिला लेखक के समान क्या सिर्फ लिंग एक होने से अनुभूति भी एक हो जाती है? सत्य भी एक हो जाता है? एक की स्वानुभूति दूसरे की स्वानुभूति हो पाती है क्यों?
अतएव जब स्त्री विमर्श की बात आती है तो पुरुष लेखक बाहरी कैसे? और स्त्री लेखक ही हमेशा हर स्थिति में अन्तरंग कैसे? फिर एक स्त्री भी पुरुष के चश्मे से स्त्री के सत्य को देख सकती/देखती है। यही बात दलित विमर्श के सन्दर्भ में भी उठता है स्वानुभूति और सहानुभूति का मसला वहां भी है, किन्तु दलितों में एलीट' वहां भी है, जो उससे अपनी वर्गीय हैसियत के कारण उतना ही दूसरी बनाकर रखता है जैसे वर्णव्यवस्था में एक सवर्ण व्यक्ति किसी अवर्ण व्यक्ति के साथ रखता था। वह 'एलीट उस गरीब के साथ खान-पान, उठ-बैठ, विवाह-रिश्ते, आना-जाना आदि मामलों में उसकी तरफ हिकारत भरी नजरों से देखता है। साथ ही दलितों के भीतर भी जाति-व्यवस्था उतनी ही कठोर (क्रूर नहीं क्योंकि यहाँ जान लेने वाला मसला नहीं है।) नियम का पालन कर अपनी विशिष्टता, पृथकता को बनाए रखना चाहता है। तो फिर क्या यह एलीट दलित व्यक्ति उस गरीब व्यक्ति के अन्तःकरण का साक्षात्कार उस स्वानुभूति की तीव्रता और गहराई के साथ कर पाएगा जैसा कि वह गरीब दलित व्यक्ति करता है। तो फिर यह एलीट व्यक्ति यदि लेखक बनकर उस पर लिखने की पात्रता रखने वाला इन 'साइडर' है अथवा 'आउट साइडर ? स्वानुभूति बनाम आत्मानुभूति का सवाल तो वहाँ भी उठना चाहिए। सिर्फ यह कहना कि सभी दलित एक हैं, दलित-दलित एक हैं. सभी दलित की स्थिति, सत्य, वेदना, अनुभूति एक है, स्वानुभूति एक है (?) कहकर इस सवाल से कन्नी नहीं काटा जा सकता । यानी जब भिन्न अभिव्यक्ति में पूर्ण सक्षम अथवा समरूप जीवनानुभव न रखने के कारण, सौ फीसदी उपयुक्त लेखकीय पात्र नहीं है, वह भी (एलीट) उसके (गरीब दलित) लिए उतना ही हाउट साइडर बाहरी व्यक्ति है, जितना कि सवर्ण लेखक उस गरीब दलित के लिए होगा। भिन्न स्थिति में रहने के कारण एवं जाति विशेष होने के कारण ही किसी भी सहानुभूति स्वानुभूति नहीं बन सकती। स्वानुभूति और सहानुभूति के झगड़े में सत्य से ज्यादा राजनीति ज्यादा काम करती है।
वास्तव में स्त्री विषय हो या दलित विषय, दोनों की विमर्श में जाति, पितृसत्ता, वर्ण-व्यवस्था के प्रश्नों से काटकर, उनकी भिन्न स्थिति, सन्दर्भ में विच्छिन्न कर देखना सत्य का औसतीकरण होगा क्योंकि "स्त्रीवाद की मुख्य चिता, आज की पितृसत्ता ही है। लेकिन क्या पितृसत्ता प्रत्येक देश और प्रत्येक काल में एक जैसी है ?... वह एक जैसी नहीं होती। एक ही समय और एक ही समाज में भी वह एक जैसी नहीं होती। उदाहरण के लिए हम आज के अपने भारतीय समाज में देखें, तो क्या उच्च या उच्च मध्यवर्गीय, शिक्षित और कामकाजी स्त्रियों की स्थिति निम्न या निम्न मध्यवर्गीय, अशिक्षित और घरेलू स्त्रियों से भिन्न नहीं है? शहरी और देहाती स्त्रियों की धनी और निर्धन परिवारों की, ऊँची जातियों और नीची जातियों की स्थिति भिन्न नहीं है? क्या ऐसी तमाम स्थिति भिन्न नहीं है? क्या ऐसी तमाम भिन्न स्थितियों में जीने वाली स्त्रियों को पितृसत्ता एक ही प्रकार से प्रभावित करती है? यदि वह सब स्त्रियों को एक ही प्रकार से प्रभावित नहीं करती, तो क्या आज के स्त्रीवाद के पितृसत्ता विरोधी संघर्ष तक ही सीमित रहना चाहिए? क्या उसे वर्ण और जाति के प्रश्नों से नहीं जोड़ना चाहिए?"
अतएव वर्ण और जाति की असमानताओं से सत्य निरपेक्ष नहीं है। स्त्री की चेतना इनके सापेक्ष में ही मूल्य अर्थ और दिशा पाती है। वर्ण-व्यवस्था भी असमानता का एक ढाँचा है किन्तु वह वर्ग और जाति के सत्य से मुक्त नहीं है। वर्ग और जाति की असमानता का एक ढाँचा है, किन्तु वह वर्ग और जाति के सत्य से मुक्त नहीं है। वर्ग और जाति की असमानताओं को भूलकर उनकी आंतरिक विसंगति को छोड़कर अगर हम यह सोचें कि केवल वर्ण-व्यवस्था का विरोध करके या उखाड़ फेंकने से हम सब तरह की असमानताओं से या दलितों के साथ होने वाले अत्याचार भेदभाव से हम मुक्त हो जाएंगी, या स्त्री वर्ग, जाति की असमानताओं को भूलकर पितृसत्तात्मक व्यवस्था को उखाड़ फेंगेगी, तो यह एक भ्रामक धारणा होगी। एक समतामूलक मानवीय समाज के निर्माण में सभी विघ्न-बाधाओं तत्वों की पहचान करके ही इस लड़ाई को निर्णायक मोड़ एवं दिशा दी जा सकती है। अन्यथा इतिहास गवाह है कि इन तथ्यों को भुलाकर आंतरिक विसंगतियों को भुलाकर जल्दबाजी मतें कई देशों में की गई क्रांतियां कालांतर में ऐसा अभिशाप बन जाती हैं कि उसे मिटाने के लिए एक और क्रांति करनी पड़ती है, फिर एक और, और यह क्रम निरंतर चलता रहता है। वहां के समाजों में आंतरिक अशांति, उपद्रव, गृह क्लेश, आपातकाल जैसी स्थितियाँ और घटनाएं अक्सर देखे जा सकते हैं। शायद इन्हीं आंतरिक विसंगतियों और अन्विति के अभाव में ही इतिहास को फिर से अपना इतिहास दोहराना पड़ता है इतिहास दोहराने का भी इतिहास रहा है।
वास्तविकता यह यहै कि केवल पितृसत्ता के कारण ही स्त्रियों का दमन और उत्पीड़न नहीं होता बल्कि वर्ग ओर जाति के आधार पर भी स्त्रियाँ उसका शिकार होती हैं इस तरह की खबरें अक्सर देखने-सुनने को मिलती हैं। है एक दिलचस्प उदाहरण मार्क्सवाद का ही है जो समतामूलक मानवीय व्यवस्था के दर्शन के साथ संपूर्ण विश्व में निकला था, इस धारणा के साथ कि समाज में वर्ग-भेद एक बार मिटा तो जाति-भेद और स्त्री-पुरुष भेद स्वतः चला जाएगा। किन्तु तमाम क्रांतियों के बाद भी पूरे विश्व में पितृसत्ता बनी रही। जहाँ साम्यवादी शासन था वहाँ की स्त्रियाँ यह कहते हुए सुनी जा सकती थीं कि "मेरा पति, जो बाहर कॉमरेड है घर में मुझे क्यों पीटता है ?"
स्त्री चेतना को स्वानुभूति या सहानुभूति के सन्दर्भ में एक बार महिला का विषय की भी है यह यह कि जब टी.एस. इलियट (TS. Eliot) कहते हैं कि रचनाकार और भोक्ता में अन्तर होता है, जितना बड़ा अन्तर होगा, उतना बड़ा बदलाव होगा और इसका सीधा अर्थ यही होता है कि रचनागत सत्य / काव्यगत सत्य और व्यक्तिगत सत्य दो अलग सत्य हैं। रचना प्रक्रिया में जब तक रचने वाला निर्धेयक्ति नहीं हो पाता, तब तक वह कलाकार नहीं बन पाता। स्वानुभूति के आधार पर व्यक्तिगत या आत्मगत सत्य और तथ्य को सीधे एवं सपाट ढंग से प्रस्तुत करने पर साहित्य, साहित्य न रहकर रिपोर्टिंग रह जाएगा। साहित्य सूचना, तथ्य या समाचार बन जाएगा और सूचना अथवा समाचार साहित्य नहीं होता। इस कसौटी पर महान साहित्य का मूल्यांकन करना भी संभव नहीं होगा, मसलन स्वानुभूति के आधार पर कामायनी में जयशंकर प्रसाद का जीवन खोजना, रामायण में तुलसीदास अथवा वाल्मीकि का कहाँ है? या साकेत के अनदर मैथिली शरण गुप्त का स्वानुभूत सत्य या व्यक्तिगत सत्य कहाँ और कितना है? गोदान में प्रेमचन्द का जीवन कितना है, गोदान में होरी का सत्य क्या प्रेमचंद का सत्य है या प्रेमचंद का सत्य क्या होरी का सत्य है? दोनों में किसी स्वानुभूति और किसकी सहानुभूति है? पछाड़ खाकर गिरते होरी की त्रासदी सिर्फ होरी की त्रासदी है या भारत के आम किसान की त्रासदी है या प्रेमचंद की त्रासदी है?
अतएव स्वानुभूति और सहानुभूति की कसौटी पर साहित्य के मूल्यांकन में अत्यधिक सचेत होने की आवश्यकता है। फार्मूलाबद्ध तरीके से न तो साहित्य का सृजन हो सकता है, न मूल्यांकन और न ही पाठन सृजन-प्रक्रिया, आलोचना-प्रक्रिया और पाठकीय प्रक्रिया में अनुभूति कई स्तरों पर संक्रमित होती है, अनुभूति के पैटर्न में बदलाव दिखाई पड़ता है। यदि गोदान में पछाड़ खाकर गिरते होती की त्रासदी प्रेमचन्द का सहानुभूति-सत्य है, तब भी वह महान रचनागत सत्य है जो मानवीय संवेदना को झंकृत करता है। साहित्य की परकाया प्रवेश की भूमिका वहाँ देखी जा सकती है।

गुरुवार, 21 सितंबर 2023

संघ की दृष्टि में सनातन एक आध्यात्मिक लोकतंत्र

लोग देश की उन्नति के लिए एक काम करें इसका चलेगा अभियान 

अवधेश कुमार

पुणे में आयोजित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार के संगठनों की अखिल भारतीय समन्वय बैठक पर स्वाभाविक ही पूरे देश की दृष्टि थी। वर्ष में एक बार आयोजित इस बैठक में संघ से जुड़े सारे संगठन के नेता उपस्थित होकर वर्ष भर के अपने कार्य वृत्त के साथ भविष्य की योजनाओं की रूपरेखा रखते हैं। एक वर्ष की दृष्टि से कुछ सामूहिक निश्चित कार्य योजनाएं निर्धारित होती हैं। इस नाते यह बैठक अत्यंत महत्वपूर्ण थी। विरोधी वैसे भी अपने आरोपों औरक् विरोधों सेशन को चर्चा में बने ही रखते हैं। भारत सहित विश्व भर में घटी घटनाओं पर संघ का मत जानने की  उत्सुकता एक बड़े वर्ग में रहती है। बैठक के पूर्व कुछ ऐसी घटनाएं घटीं जिस कारण वहां से आने वाले समाचारों को गहरी दिलचस्पी से देखा गया।

•संघ की पूरी वैचारिक आधारभूमि हिंदुत्व और सनातन है। तमिलनाडु सरकार में मंत्री और मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के बेटे उदय निधि स्टालिन ने सनातन को बीमारी की संज्ञा देते हुए इसके उन्मूलन का बयान दिया और विवाद उभरने पर कहा कि हम अपने बयान पर कायम है। भाजपा की प्रतिक्रिया लोग पहले दिन से सुन रहे हैं लेकिन संघ ने‌ स्पार्क कोई औपचारिक बयान नहीं दिया।

• संघ प्रमुख मोहन भागवत ने अपील की थी कि देश का नाम भारत है और इसका ही प्रयोग किया जाए। उसके कुछ दिनों बाद जी 20 नेताओं के सम्मान में आयोजित भोज के निमंत्रण पत्र में प्रेसिडेंट ऑफ भारत लिखा गया। कांग्रेस ने आरोप लगाया के संघ प्रमुख के कहने के कारण ही देश का नाम बदल जा रहा है।  जी 20 सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने लकड़ी की पट्टिका पर भी भारत लिखा था। भारत और इंडिया के विवाद मैं संघ क्या बोलता है यह जानने में भी लोगों की रुचि थी।

•आईएनडीआईए गठबंधन लगातार संघ की विचारधारा के विरुद्ध राजनीति करने की बात कर रहा है। राहुल गांधी ने विदेशों में संघ का नाम लेकर इसके हिंदुत्व को अल्पसंख्यकों के साथ दलित और पिछड़ा विरोधी बताया था।

  संघ सामान्यत: आरोपी और विरोधों पर अन्य संगठनों की तरह प्रतिक्रिया नहीं देता। उसका चरित्र इन सबसे आप प्रभावित रहते हुए शांतिपूर्वक अपना काम करने का है। संघ को निकट से देखने वाले जानते हैं कि जो बैठक जिस उद्देश्य से आयोजित है उसी पर फोकस किया जाता है। समन्वय में बैठक के बाद पत्रकार वार्ता में जानकारी देते हुए संघ के सह सरकार्यवाह डॉक्टर मनमोहन वैद्य ने भी अपनी ओर से इन पर कुछ नहीं कहा।

सनातन संस्कृति को लेकर पूछे गए प्रश्न का उत्तर उन्होंने अवश्य दिया। 

उन्होंने तीन बातें कहीं। 

•एक, सनातन का अर्थ रिलिजन नहीं है। यानी या किसी मजहब की तरह मजहब का पर्याय नहीं है। तो फिर? 

•दो,  संघ की दृष्टि में सनातन सभ्यता एक आध्यात्मिक लोकतंत्र (स्पिरिचुअल डेमोक्रसी) है। वास्तव में इसे मान्य परिभाषा सनातन की कुछ हो नहीं सकती। •तीसरे,उन्होंने इतना ही कहा कि जो लोग सनातन को लेकर वक्तव्य देते हैं, उन्हें पहले इस शब्द का अर्थ समझ लेना चाहिए। 

•इंडिया और भारत पर भी एक सामान्य प्रतिक्रिया थी।  उदाहरण के लिए देश का नाम भारत है, वह भारत ही रहना चाहिए। प्राचीन काल से यही प्रचलित नाम है।भारत नाम सभ्यता का मूल है।

साफ है कि इसमें सनातन का विरोध या उन्मूलन करने की बात करने वालों करने  पर कोई प्रतिक्रिया नहीं। सरसंघचालक ने अपने एक भाषण में कहा था कि हमको विरोधियों का भी विरोधी नहीं होना है।

भारत के संदर्भ में भी संघ प्रमुख के भाषण के कारण ऐसा हुआ इसकी श्रेय लेने की कोई कोशिश नहीं।

आप चाहे संघ के विरोधी हो या समर्थन उनके कार्य और व्यवहार के इस तरीके से बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है।

हमारी घटनाओं पर राजनीति के वर्चस्व के कारण ऐसी सभी बैठकों को राजनीतिक दृष्टि से देखा जाता है। चूंकि समन्वय बैठक में भाजपा की ओर से अध्यक्ष जगत प्रसाद  नड्डा और संगठन महासचिव बीएल संतोष उपस्थित थे इसलिए भी उसकी राजनीतिक रंग देना आसान है।  पर किसी संगठन को उसके अनुसार विश्लेषित करने से ही सच्चाई के निकट पहुंचा जा सकता है। संघ के कार्य व्यवहार पर निकट से अध्ययन करने वाले देखने वाले जानते हैं कि हम जितनी चर्चा करते हैं उस तरह राजनीति पर उनकी बैठकों में बातचीत नहीं होती। समन्वय बैठक का मूल उद्देश्य ही होता है कि सारे संगठन एक दूसरे के क्रियाकलापों से अवगत रहे तथा जहां एक दूसरे का सहयोग कर सकते हैं करें। सब अपने -अपने क्षेत्र में स्वायत्ततापूर्वक कम करते हैं लेकिन इनके बीच सुसंगति बनाने की भूमिका संघ की है। संघ मातृ संगठन के रूप में सभी की सोच को ध्यान में रखते हुए भविष्य की दृष्टि से योजनाएं रखता है। इस बैठक में भी यही हुआ। 

•समन्वय बैठक की समाप्ति के बाद संघ के सारे कार्यवाही डॉक्टर मनमोहन वैद्य ने पत्रकार वार्ता में जो कुछ कहा उसमें राजनीति का लेश मात्र भी नहीं था। 

•बैठक में 36 विभिन्न संगठनों के कुल 246 प्रतिनिधि उपस्थित थे। भाजपा उन 36 संगठनों में ही एक है। तीन दिनों के कार्यक्रम में सभी को वर्ष भर और भविष्य की योजनाओं का वृत देना था। इसमें एक भाजपा और  चुनाव पर तो बात नहीं हो सकती।

संघ अपने 97 वर्ष की आयु पूरी कर शताब्दी वर्ष की ओर बढ़ रहा है।

इसमें  संघ का आगामी फोकस हर क्षेत्र में महिलाओं की सहभागिता बढ़ाने पर होगा। हालांकि विरोधियों की महिलाओं को महत्व न देने के आरोप के विपरीत संघ यह कार्य कुटुंब प्रबोधन और परिवार परंपरा को सशक्त करने के कार्यक्रम में पहले से कर रहा है।

• डॉ. वैद्य ने कहा कि भारत के चिंतन में परिवार सबसे छोटी इकाई होती है। परिवार में महिलाओं की भूमिका सबसे प्रमुख होती है। संघ की शताब्दी योजना के अंतर्गत महिलाओं की सहभागिता बढ़ाने पर बैठक में चर्चा की गई।‌ 

•महिलाओं में आपसी संपर्क बढ़ाने के साथ देशभर में 411 सम्मेलन आयोजित करने की योजना बताता है कि इसे लेकर कितनी गंभीरता है। अभी तक 12 प्रांतों में इस तरह के 73 सम्मेलन आयोजित किए जा चुके हैं। इनमें 1 लाख 23 हजार से अधिक महिलाएं शामिल हुई। गैर राजनीतिक स्तर पर महिलाओं का सम्मेलन बुलाना आसान नहीं होता।

 संघ के 97 वर्ष की यात्रा के मुख्य चार पड़ाव रहे हैं।  संगठन, विस्तार, संपर्क व गतिविधि ये तीन पड़ावों पर लंबे समय तक फोकस रहा। सन् 2006 में संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी की जन्मशती के के साथ हर स्वयंसेवक द्वारा राष्ट्र की उन्नति के लिये कुछ न कुछ कार्य करने का प्रण लेने की बात आई और तीन  के साथ यह चौथा तब से आगे बढ़ रहा है। स्वयंसेवक चाहे जिस संगठन में हो, वो भारत की उन्नति के लिए एक कार्य अपने हाथ में ले इसके लिए लगातार कोशिश हो रही है। जरा सोचिए , भारत में ऐसे कितने संगठन हैं जो अपने सदस्यों को देश की उन्नति के लिए कोई एक काम करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं? आप देखेंगे कि संपूर्ण देश में स्वयंसेवकों द्वारा ऐसे कार्य किया जा रहे हैं जिनकी अनजान लोगों को उम्मीद भी नहीं होती। कोई ऐसा क्षेत्र नहीं जहां संघ के लोग काम नहीं कर रहे हैं। कई बार आप उस कम की सराहना करते हैं यहां तक कि उसमें सहयोग भी करते हैं किंतु आपको पता भी नहीं चलता कि वह संघ के स्वयंसेवकों के द्वारा किया जा रहा है। संघ के हर बैठक में समाज में अच्छे लोगों जिन्हें संघ सज्जन शक्ति कहता है वो सामाजिक कार्यों में सक्रिय हो इसके प्रयास पर हमेशा चर्चा होती है। समन्वय बैठक का भी एक प्रमुख बिंदु यही था। यानी शाखा और संगठन विस्तार के अलावा समाज के अच्छे लोगों के पास जाकर उन्हें पेश की उन्नति के लिए कोई एक काम करने के लिए प्रेरित करने का अभियान संघ लगातार चलाएगा। ऐसे अभियानों से भी संघ के संगठन शक्ति बढ़ती है। इसके संगठन संबंधी कुछ आंकड़े देखिए।

 •संघ की शाखाओं की संख्या लगातार बढ़ रही है। कोरोना से पूर्व  सन् 2020 में देश में 38 हजार 913 स्थानों पर शाखाएं थीं, 2023 में यह बढ़कर 42 हजार 613 हो गया है।  यानी 9.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।

• संघ की दैनिक शाखाओं की संख्या 62 हजार 491 से बढ़कर 68 हजार 651 हो गई है। इनमें 60 प्रतिशत विद्यार्थी शाखाएं हैं।

 • संघ की आधिकारिक वेबसाइट पर जॉइन आरएसएस के माध्यम से प्रति वर्ष एक से सवा लाख नए लोग जुड़ने की इच्छा जता रहे हैं। उनमें से अधिकतर 20 से 35 वर्ष तक की आयु के हैं।

विरोधी महिलाओं पर फोकस करने या फिर लोगों से देश की उन्नति के लिए एक काम करने के अभियान को भी संघ का छद्म व्यवहार कहेंगे, पर समाज वही धारणा बनाएगा जो प्रत्यक्ष देखता है। संघ और उसके अनुषांगिक संगठनों का अगर लगातार विस्तार हो रहा है तो इसी कारण कि राजनीतिक और वैचारिक विरोध के विपरीत आम समाज इसके प्रति अच्छी धारणा रखता है। विरोधी शांत मन से इस पर विचार करें तो वह भी काफी कुछ सीख सकते हैं।



गुरुवार, 14 सितंबर 2023

जीएमएफ और अरिहंत हॉस्पिटल, देहरादून द्वारा सभी समुदायों और सभी धर्मों के लिए पैन इंडिया हेल्थकेयर लंगर सेवा

संवाददाता

नई दिल्ली। ग्लोबल मिडास फाउंडेशन (जीएमएफ), दिल्ली स्थित एक सामाजिक संगठन, पिछले 3 वर्षों से "सरबत दा भला" और "चरदी कला" के सिखी मूल्यों और विचारधारा के आधार पर पंथ और संगत सेवा कर रहा है। यह हेल्थकेयर लंगर के हिस्से के रूप में है सेवा ने धार्मिक और आध्यात्मिक संगठनों, निवासी कल्याण संघों, बाजार कल्याण संघों, शैक्षणिक संस्थानों और दिल्ली पुलिस के सहयोग से पिछले 3 वर्षों के संचालन में दिल्ली और पंजाब भर में कई मुफ्त स्वास्थ्य जांच शिविर, नेत्र जांच शिविर आयोजित किए हैं। इसके अलावा उन्होंने ग्लोबल मिडास फाउंडेशन (जीएमएफ) द्वारा अनुशंसित लोगों को रियायती दरों और समय पर परामर्श, परीक्षण, निदान, जांच, उपचार और सर्जरी प्रदान करने के लिए विभिन्न प्रयोगशाला परीक्षण सुविधाओं, डायग्नोस्टिक केंद्रों, नर्सिंग होम और अस्पतालों के साथ समझौता किया है।

अब, उन्होंने अरिहंत अस्पताल, देहरादून से गठजोड़ किया है और उन्हें समर्थन मिला है, जो एक मल्टी स्पेशियलिटी अस्पताल है, जो नवीनतम अद्यतन अस्पताल सुविधाओं और सर्वोत्तम विशेषज्ञ, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अनुभवी डॉक्टरों और प्रबंधन टीम के साथ बहुत प्रतिष्ठित है। जीएमएफ के संस्थापक सरदार इंदरप्रीत सिंह कहा कि उन्होंने अब जीएमएफ और अरिहंत अस्पताल द्वारा संयुक्त रूप से मुफ्त हेल्थकेयर कार्ड पेश किया है, जो पूरे भारत में सभी समुदायों और सभी धर्मों के लोगों और एनआरआई के लिए हेल्थकेयर लंगर सेवा लाभ प्रदान करता है। जीएमएफ फेसबुक पेज, साड्डा खिडदा पंजाब यूट्यूब चैनल और हेल्पलाइन नंबर पर जाकर हेल्थ कार्ड बनवाया जा सकता है। +91 8368018195, 9289334641, 9289351596 और www.arihanthospitals.com/
 
किडनी प्रत्यारोपण और डायलिसिस के लिए उपचार और सर्जरी के लिए 20% रियायती छूट और समय की प्राथमिकता प्रदान की जाएगी। यह अखिल भारतीय स्तर पर सभी समुदायों, सभी धर्मों और भारत में अंतरराष्ट्रीय चिकित्सा पर्यटन पहल के हिस्से के रूप में आने वाले विदेशियों / एनआरआई के लिए लागू है। स्वास्थ्य सेवाओं में समाज के आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों से आने वाले सिख संगत और आम जनता को परीक्षण, उपचार, सर्जरी आदि और ऐसी अन्य महत्वपूर्ण स्वास्थ्य सुविधाओं पर 30% तक रियायती छूट और प्राथमिकता । भारत भर में गुरुद्वारा समिति के सेवादारों, कथा वाचकों, ग्रंथी साहिबानों और बोर्ड पर सेवा करने वाले पदाधिकारियों और कर्मचारियों को परीक्षण, उपचार, सर्जरी आदि और ऐसी अन्य महत्वपूर्ण स्वास्थ्य सुविधाओं पर 50% तक रियायती छूट और प्राथमिकता । ये सभी लाभ देहरादून और चमोली, उत्तराखंड में मौजूदा स्वास्थ्य सुविधाओं और भविष्य में आने वाली अन्य सुविधाओं में प्रदान किए जाएंगे और ग्लोबल मिडास फाउंडेशन द्वारा पेश किए गए पूरी तरह से मुफ्त स्वास्थ्य कार्ड बनाकर आज ही इसका लाभ उठाया जा सकता है।

बुधवार, 13 सितंबर 2023

भारत ने जी 20 को दिया नया कलेवर

अवधेश कुमार


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जी-20 अध्यक्ष के नाते जब स्वस्तिअस्तु विश्व: यानी संपूर्ण विश्व सुखी हो के साथ शिखर सम्मेलन के समापन की घोषणा की तो ये कोरे शब्द नहीं थे। जी 20 का नई दिल्ली शिखर सम्मेलन अनेक दृष्टियों से ऐतिहासिक और सफल माना जाएगा। यूक्रेन युद्ध के बाद  पहला सम्मेलन है जिसकी घोषणा पत्र से कोई सदस्य देश नाखुश या असंतुष्ट नहीं है। अमेरिका और पश्चिमी देश संतुष्ट हैं तथा रूस और चीन भी। इस कूटनीति को भारत ने कैसे साधा होगा इसकी कल्पना आसान नहीं है। 37 पृष्ठों के घोषणा पत्र में पृथ्वी, यहां के लोग, शांति व समृद्धि वाले खंड में चार बार यूक्रेन युद्ध की चर्चा है किंतु रुस का नाम नहीं है। इन पंक्तियों को देखिए,  सभी देशों को संयुक्त राष्ट्र चार्टर के उद्देश्यों व सिद्धांतों के अनुरूप कार्य करना चाहिए। किसी भी दूसरे देश की अखंडता व संप्रभुता का उल्लंघन धमकी या बल के उपयोग से बचना चाहिए। नाभिकीय हथियारों के इस्तेमाल या इस्तेमाल की धमकी अस्वीकार्य है। यूक्रेन युद्ध के बीच में राष्ट्रपति पुतिन ने नाभिकीय हथियार के उपयोग तक की धमकी दे दी थी। इसमें प्रधानमंत्री की वह पंक्ति भी है जो उन्होंने पुतिन को कहा था कि यह समय युद्ध का नहीं है। अगर पिछले बाली घोषणा पत्र को देखें तो वह रूस के विरुद्ध था और रूस से यूक्रेन खाली करने की आवाज उठाई गई थी। तुलना करें तो इस प्रश्न का उत्तर सामान्यतः नहीं मिलेगा कि भारत ने अमेरिका को कैसे यह प्रस्ताव स्वीकार करने के लिए तैयार किया। 

 सम्मेलन के पहले दिन दूसरे सत्र में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली घोषणा पत्र स्वीकार करने की घंटी बजाई तभी साफ हो गया कि भारत की कूटनीति सफल रही है।  सम्मेलन आरंभ होने के एक दिन पहले तक यूक्रेन से लेकर जलवायु परिवर्तन, खाद्य सुरक्षा, विकासशील और कमजोर देश को वित्तीय सहायता व सस्ते कर्ज उपलब्ध कराने ,साइबर सुरक्षा जैसे मुद्दों पर सहमति नहीं बन रही थी। घोषणा पत्र में यूक्रेन युद्ध से जुड़ा पैराग्राफ खाली छोड़ना पड़ा था। भारतीय प्रयासों ने रंग लाया और घोषणा पत्र में यूक्रेन युद्ध, जलवायु परिवर्तन, लैंगिक असमानता ,आर्थिक चुनौतियां, हरित विकास, आतंकवाद, क्रिप्टो करेंसी, महिलाओं के उत्थान समेत वो सारे मुद्दे शामिल किए गए जिन्हें भारत ने तैयार किया था।

इस एक पहलू से साफ हो जाता है कि अपनी अध्यक्षता में भारत ने किस तरह अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था, देशों के संबंध, राजनय, व्यक्ति के जीवन आदि से संबंधित भारतीय विचारों को लेकर पिछले एक वर्ष तक काम किया होगा। भारत के लगभग 60 शहरों में 220 से ज्यादा बैठकें जी 20 की हुई है। इस कारण भी यह इतिहास का सबसे विस्तारित, महत्वाकांक्षी और सफल सम्मेलन साबित हुआ क्योंकि इनमें कुल 112 परिणाम दस्तावेज व अध्यक्षीय दक्षतावेज तैयार हुए। पिछले इंडोनेशिया की राजधानी बाली के सम्मेलन में कुल 50 परिणाम व अध्यक्षीय दस्तावेज स्वीकृत हुए थे। इनमें 73 परिणाम दस्तावेज यानी आउटकम डॉक्यूमेंट हैं जो देश के विभिन्न शहरों में सदस्य देशों के मंत्रियों और अधिकारियों के ओर से बैठकों में बनी सहमति पर तैयार हुए हैं। ऐसा कोई विषय नहीं जिन पर बैठक नहीं हुई। जब भारत ने इसका नारा ही एक पृथ्वी, एक परिवार और एक भविष्य दिया तथा इसके साथ वसुधैव कुटुंबकम जोड़ दिया तो फिर इसके परे कुछ हो ही नहीं सकता था। सच कहा जाए तो भारत ने जी 20 की न केवल कुछ बदली बल्कि इसे नया कलेवर दे दिया। निश्चय ही इसके सदस्य देशों के साथ अन्य देशों को भी इन शब्दों के भारतीय अर्थ समझाए गए होंगे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने इंडिया की जगह भारत लिखा हुआ था। भारत नाम के वैश्विक स्वीकृति की ठोस नींव पड़ चुकी है। भारत शब्द के साथ विश्व यह मानने को विवश होगा कि हम लाखों वर्ष पूर्व के प्राचीनतम राष्ट्र हैं। इस नाते भी जी 20 सम्मेलन को इतिहास के अध्याय में याद किया जाएगा। 


भारत के लिए यह पहला अवसर था जब विश्व के सभी शक्तिशाली देशों के प्रतिनिधि तथा रूस, चीन और स्पेन को छोड़कर सारे राष्ट्र प्रमुख, अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के प्रमुख एवं सत्ता शीर्ष से जुड़े अधिकारी उपस्थित थे। भारत में स्वयं नौ देशों को विशेष तौर पर आमंत्रित किया था। भारत के लिए भविष्य की महाशक्ति संभावना का विश्वास दिलाने का अब तक का सबसे बड़ा अवसर था और यह मानने में कोई हिचक नहीं है कि इस उद्देश्य को कल्पना से भी श्रेष्ठ तरीके से भारत ने प्राप्त किया है। भारत मंडपम देखने से ही भारत की सांस्कृतिक ,आध्यात्मिक और ऐतिहासिक विरासत के साथ आधुनिक ज्ञान विज्ञान की उपलब्धियां ,आर्थिक व सैनिक क्षमता, विविधताओं, राष्ट्र की अवधारणा, राष्ट्र - राज्य के रूप में भविष्य के उद्देश्यों की समझ आने वाली लायक झलक मिल रही थी। स्वयं प्रधानमंत्री कोणार्क के जिस काल चक्र के सम्मुख खड़े होकर सभी नेताओं का स्वागत कर रहे थे उसके दर्शन में ही संपूर्ण सृष्टि के संचालन का ज्ञान निहित है। राष्ट्रपति के रात्रि भोज में स्वागत करने की पृष्ठभूमि नालंदा विश्वविद्यालय की तस्वीर यह बताने के लिए थी कि जब विश्व आधुनिक शिक्षा पद्धति से अनभिज्ञ था तब भी भारत में व्यवस्थित विश्वविद्यालय थे जहां हर विषयों की शिक्षा थी और अलग-अलग देशों से छात्र यहां पढ़ने आते थे। 

भारत ने इस सम्मेलन को महिमामंडित कर  जैसी भव्यता और सुव्यवस्थित आयोजन बनाया वह अगले अध्यक्ष ब्राजील के लिए एक मानक बन गया है। यह स्वीकार करना होगा कि भारत ने अपने नेतृत्व में जी 20 का एजेंडा, लक्ष्य, सदस्यों की सोच को काफी हद तक बदलने में सफलता पाई है। वसुधैव कुटुंबकम यानी संपूर्ण विश्व को एक परिवार मानकर विश्व व्यवस्था की रचना करने की दिशा में 55 सदस्यीय अफ्रीकन यूनियन को सदस्य बनाने में भारत क़ो सफलता मिली, 125 विकासशील व गरीब देशों का सम्मेलन बुलाकर ग्लोबल साउथ या वैश्विक दक्षिण के एजेंडा को इसमें रखा गया। इस तरह भारत ने संदेश दिया कि अंतरराष्ट्रीय समस्याओं का समाधान ज्यादा लोकतांत्रिक तरीके से संभव है और इसमें छोटे -बड़े, संपन्न विकासशील और गरीब सभी देशों को सहभागी बनाया जाए ताकि उन्हें आभास हो कि विश्व व्यवस्था की रचना में उनकी भूमिका है। अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में मुख्य भूमिका निभाने वाले देशों से इनका संवाद एवं मिलन ही नहीं होगा तो असंतोष और गुस्सा पैदा होगा। 

  प्रधानमंत्री ने 15 द्विपक्षीय बैठकें भी कीं।  चीन भारत की सबसे बड़ी चुनौती बना हुआ है। बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव के विरुद्ध भारत काम कर रहा है। इटली की प्रधानमंत्री ने घोषणा की कि वह इससे बाहर निकल रहा है।  भारत, पश्चिम एशिया और यूरोप के बीच संपर्क गलियारे को जल्द लॉन्च करने की घोषणा हुई। भारत, संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब, फ्रांस, इटली, जर्मनी व यूरोपीय संघ के अन्य देशों तथा अमेरिका को शामिल करते हुए इस संपर्क गलियारे और बुनियादी ढांचे पर सहयोग की आधारभूमि बन गई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पेरिस जलवायु सम्मेलन में अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन की शुरुआत की। इस बार वैश्विक जैव ईंधन गठबंधन की शुरुआत हुई। वैश्विक स्तर पर पेट्रोल के साथ एथेनॉल मिश्रण को बढ़ाकर 20% तक करने की अपील के साथ इसके सदस्य बनने की अपील की गई। बहुपक्षीय विकास बैंक से लेकर डिजिटल सार्वजनिक आधारभूत संरचना आदि अनेक ऐसे बिंदु हैं जिनको उपलब्धियां के रूप में उल्लेखित किया जा सकता है। 

कुल मिलाकर विश्व के नेताओं ने एक वर्ष के सम्मेलनों और दिल्ली समापन के साथ भारत की प्राचीन सभ्यता - संस्कृति ,धर्म ,विरासत, राष्ट्र - राज्य की अवधारणा, वर्तमान ताकत, एकता, अखंडता के इसके सूत्र, वैश्विक सोच, आधुनिक प्रगति और भविष्य में विश्व का शीर्ष देश बनने के संकल्प को साक्षात्कार देखा और समझा। इस मनोविज्ञान का असर आने वाले समय में दिखाई देगा और भारत ज्यादा मुखर होकर अपनी सोच के अनुरूप भावी विश्व व्यवस्था को दिशा देने में सफल भूमिकाएं निभाएगा।  जी 20 को इसके अनुकूल एक सशक्त आधार भारत के नेतृत्व में दे दिया गया है। उम्मीद की विश्व आर्थिक और तकनीकी विकास से लेकर संपूर्ण विश्व में खाद्यान्न व स्वास्थ्य संबंधी सुविधाएं उपलब्ध कराने आदि की दृष्टि से समावेशी होगा तथा सहयोग और सहकार की भूमिका निभाते हुए तनाव दूर करने में भी सफल होगा।



गुरुवार, 7 सितंबर 2023

उदयनिधि के सनातन धर्म विरोधी वक्तव्य के निहितार्थ

 अवधेश कुमार

उदयनिधि स्टालिन तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के बेटे और युवा मामलों के मंत्री भी हैं। ऐसे शीर्ष पद पर बैठे व्यक्ति से अपेक्षा की जाती है कि वो ऐसा वक्तय न दें जिससे करोड़ लोगों की धार्मिक भावनाएं आहत हों। उदयनिधि ने सनातन धर्म की तुलना डेंगू, मलेरिया और कोरोना से करते हुए कहा कि ये कुछ ऐसी चीजें हैं, जिनका केवल विरोध नहीं किया जा सकता, बल्कि उन्हें खत्म करना जरूरी होता है। इस बयान के विरुद्ध संपूर्ण विश्व के हिंदू समाज के भीतर आक्रोश पैदा होना स्वाभाविक है।  लेकिन तमिलनाडु की द्रविड़ राजनीति और उदयनिधि की पार्टी द्रमुक की विचारधारा तथा अतीत एवं वर्तमान को देखने पर यह निष्कर्ष सही नहीं लगेगा। उन्होंने जो कुछ बोला है वह उनकी राजनीतिक धारा की सोच है।  उनके विरुद्ध मुकदमा दर्ज होने के बाद उनकी प्रतिक्रिया देखिए।  उन्होंने कहा कि हम पेरियार और अन्ना के फॉलोवर हैं। मैं आज, कल और हमेशा यही कहूंगा कि द्रविड़ भूमि से सनातन धर्म को रोकने का हमारा संकल्प बिल्कुल भी कम नहीं होगा। 

इसके बाद आप यह नहीं कह सकते कि वह उत्तेजना या भावावेश में बोल गए। वे जिस कार्यक्रम में बोल रहे थे उसका नाम ही था, सनातन उन्मूलन कार्यक्रम।  उन्होंने इस नाम की भी प्रशंसा की और कहा- सनातन क्या है? यह समानता और सामाजिक न्याय के खिलाफ है। सनातन का अर्थ होता है- स्थायी यानी ऐसी चीज जिसे बदला नहीं जा सकता। सनातन उन्मूलन सम्मेलन में उदयनिधि स्टालिन के अलावा कई मंत्री और द्रमुक नेता शामिल हुए। सनातन के उन्मूलन नामक शीर्षक से कार्यक्रम का आयोजन ही बताता है कि तमिलनाडु में किस तरह की विचारधारा और राजनीति को प्रश्रय दिया जा रहा है। निश्चित रूप से इसकी निंदा की जाएगी और विरोध भी होगा। द्रमुक आईएनडीआईए गठबंधन का एक मुख्य घटक है इसलिए अन्य घटक दलों से पूछा जाएगा कि आपका इस पर क्या मत है? कांग्रेस सहित अन्य पार्टियों ने इस बयान से तो अपने को अलग किया लेकिन जितना प्रखर विरोध इसका होना चाहिए नहीं किया। यह राजनीतिक विवशता दुर्भाग्यपूर्ण है। 

हालांकि उदयनिधि के बयान पर आश्चर्य का कोई कारण नहीं है। उदयनिधि के दादा करुणानिधि के ऐसे बयान आते रहते थे। अयोध्या में श्रीराम मंदिर के विरोध में उन्होंने कहा था कि राम का जन्म प्रमाण पत्र कहां है? राम सेतु के बारे में उन्होंने कहा कि उसको किस सिविल इंजीनियर ने बनाया था? भाजपा उसका नाम बताए। द्रमुक के नेताओं के ऐसे बयान आते हैं। 1960 दशक में द्रमुक नेता रामास्वामी नायककर ने तब मद्रास शहर में ट्रकों पर श्रीराम, सीता जी और अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियों की झाड़ू और जूतों से पिटाई करने वाली झांकियां निकाली थी। इसके पीछे लक्ष्य था कि ब्राह्मणों व‌ सनातनियों को भड़काओ और उनके विरुद्ध दूसरी जातियों को लामबंद करो। ब्राह्मण और शुद्र नाम लेकर द्रमुक बहुसंख्यक दलितों का समर्थन पाता है। 

दरअसल, द्रमुक निकला ही हिन्दू धर्म विरोधी विचारधारा से। 1916 में टीएम नायर और पी त्यागराज चेट्टी ने द्रविड़ राजनीति की शुरुआत इस आधार पर की कि हम उत्तर भारतीय आर्यों से अलग हैं। उन्होंने जस्टिस पार्टी की स्थापना की जिसमें आई रामास्वामी पेरियार भी शामिल हुए। अंग्रेजों ने भारत में फूट डालो राज करो की नीति के तहत लोगों की सोच बदलने के लिए इतिहास, धर्म, संस्कृति ,समाजशास्त्र की पुस्तकें अपने अनुसार लिखवाईं जिसमें कहा गया कि आर्य बाहर से आए और उनका द्रविड़ों के साथ संघर्ष हुआ जो जारी है। आर्यों ने द्रविड़ों पर अपनी धर्म व्यवस्था लादने की कोशिश की। अंग्रेजों ने ही जस्टिस पार्टी की स्थापना के लिए प्रेरित किया और उसे  मदद देते रहे। अन्नादुरई भी पेरियार के साथ आए लेकिन बाद में अलग होकर उन्होंने द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम या द्रमुक की स्थापना की। पूरा आंदोलन हिंदू धर्म की मान्यताओं पर चोट कर ऐसी सोच स्थापित करने वाला था जिसके कारण तमिलनाडु के निवासियों को लगे कि वे‌ भारत और यहां की संस्कृति या धर्म के अंग है ही नहीं। इसी कारण तमिलनाडु में अलग देश का भी आंदोलन चला। हिंदी विरोध का सबसे तगड़ा आंदोलन तमिलनाडु में ही चला। यह बात अलग है कि तमिलनाडु के ही विवेकशील नेताओं ने इन सबका विरोध किया। उदाहरण के लिए सी राजगोपालाचारी ने भारत की राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी की वकालत की। उन्होंने गीता और उपनिषदों पर टीकायें लिखकर बताया कि आर्य द्रविड़ के नाम पर झूठ फैलाया जा रहा है। रामचरितमानस और रामायण के बारे में गलत बातें फैलाये जाने की काट के लिए उन्होंने गद्य में चक्रवर्ति तिरुमगन लिखा जो रामायण कथा है। उन्होंने स्वयं और उनकी प्रेरणा से काफी लोग ऐसे लेख लिखते रहे जिससे साबित होता था कि आर्य द्रविड़ भेद भारत में या हिंदू धर्म में  नहीं है और तमिल भी सनातनी हिंदू हैं।

बाद के कालखंड में कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी कमजोर हुई और द्रविड़ राजनीति आगे बढ़ने लगी। हिंदी के विरुद्ध 60 और 70 के दशक के आंदोलन की उग्रता और उत्तेजना के कारण तमिलनाडु की सोच में व्यापक अंतर आया और द्रविड़ दल सशक्त हुये। 1977 से आज तक द्रमुक और अन्नाद्रमुक दो पार्टियों के इर्द-गिर्द तमिलनाडु की राजनीति चल रही है।  भाजपा पहले वहां शक्तिशाली नहीं है लेकिन उसका समर्थन बढा है।दूसरे दलों को लगता है कि हिंदू धर्म पर जितना चोट करेंगे, उनकी राजनीति की धारा वहां सशक्त होगी। अन्नाद्रमुक के भाजपा के साथ होने कारण भी वे अपने इस हिंदू धर्म विरोधी, हिंदी विरोधी तेवर को आक्रामक बनाए रखती है।

जो कुछ उदयनिधि या दूसरे नेता अपनी राजनीति के लिए बोलते हैं वह सच नहीं है और उनकी अज्ञानता का भी द्योतक है। सनातन का अर्थ ठहराव या जड़ता नहीं है। नित्य नूतन सनातन: यानी जो नित्य नूतन है वही सनातन है। जैसे सूर्य सनातन है। सुबह सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक को क्या आप जड़ ,स्थिर या ठहरा हुआ कहेंगे ? यही तो सनातन है। दूसरे, तमिलनाडु हिंदू धर्म, सभ्यता- संस्कृति और अध्यात्म का महत्वपूर्ण केंद्र है। पूरे तमिल संगम साहित्य को उठा लीजिए हिंदू इतिहास, विचारों और कथाओं से भरे पड़े हैं। विविधता में एकता हमारी संस्कृति है लेकिन विरोधी इस एकता की बजाय विविधता को उठाकर तमिल संस्कृति को भारतीय संस्कृति से अलग साबित करते रहे हैं। तमिल संस्कृति भारतीय संस्कृति ही थी। संत तिरुवल्लुवर की रचना तिरुक्कुरल का अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। यह ग्रंथ लोगों को ईश्वर में आस्था की ही बात करता है और बताता है कि पूजा पाठ के लिए संन्यासी होने की आवश्यकता नहीं, गृहस्थ होकर भी आप ऐसा कर सकते हैं। यह तो हिन्दू धर्म की ही धारा है। हिंदू धर्म की दो प्रमुख शाखाएं शैव और वैष्णव तमिलनाडु में न केवल मजबूत रहे बल्कि वहां के संतो ने अपने मार्ग का प्रसार भारत के दूसरे क्षेत्रों में भी किया। नयनमार या नयनार संतों की लंबी परंपरा है जो भगवान शिव के भक्त थे। ऐसे 63 संतों के नाम हमारे ग्रंथो में उपलब्ध हैं। झूठ है कि सारे ब्राह्मण थे। ये समाज के सभी जातियों से आते थे। इनके रचित भजन व मंत्र संपूर्ण देश में गाये व पढ़े जाते हैं।   विष्णु या नारायण की उपासना करने वाले 12 संतों, जिन्हें आलवार कहते हैं, सर्वत्र सम्मान है और इनमें  निम्न जाति के भी थे।  वैष्णव संप्रदाय के पंथ विशिष्टाद्वैतवाद , अद्वैतवाद, द्वैतवाद सबका स्रोत तमिलनाडु और आसपास ही है। विशिष्टाद्वैतवाद के संस्थापक संत रामानुजाचार्य के मानने वाले पूरे भारत में है। द्वैतवाद के संत माधवाचार्य ने जिन 37 ग्रंथों की रचना की वह संपूर्ण भारत में प्रचलित हैं। इसलिए आर्य और द्रविड़ भेद या तमिल संस्कृति भारतीय संस्कृति से अलग आदि विचार तथ्यों से बिल्कुल पड़े हैं।

 कोई पार्टी इतनी हैसियत नहीं रखता कि हिंदू धर्म को खत्म कर दे। उदयनिधि की बातें इसलिए डराती हैं कि यह हिंदू समाज की एकता की कोशिशों के साथ भारत की एकता अखंडता पर वैचारिक चोट करने वाले हैं। लेकिन गुस्सैल प्रतिक्रिया देने की बजाय तथ्यात्मक प्रतिवाद करें। आईएनडीआईए के दलों को भी विचार करना पड़ेगा कि समाज और देश की एकता से बड़ी कोई राजनीति नहीं हो सकती। 

पता– अवधेश कुमार, ई-30,गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली -110092, मोबाइल -98110 27208



शनिवार, 2 सितंबर 2023

चीन द्वारा अरुणाचल प्रदेश के 11 स्थानों के नए नाम रखने के संदर्भ में भारत और चीन के संबंधों का 1949 से लेकर आज तक का ब्यौरा

कर्नल शिवदान सिंह
अभी कुछ दिन पहले चीन ने अरुणाचल प्रदेश के 11 स्थानों के नाम बदलकर उन्हें दक्षिणी तिब्बत का हिस्सा बताया है ! जिसे भारत सरकार ने कठोर शब्दों में नकार दिया है ! इन स्थानों में 2 आबादी वाले शहर, दो भूभाग, पांच पहाड़ी चोटिया और दो नदियां हैं और यह उसने तब किया है जब अभी कुछ दिन में ही चीन के रक्षा मंत्री जनरल ली संगफू भारत में होने वाली शंघाई सहयोग संघ की बैठक में हिस्सा लेने के लिए आने वाले हैं। इसके अलावा वहां के विदेश मंत्री कुयङ्ग्गंग भी भारत का दौरा मई में करने वाले हैं! इससे सिद्ध होता है कि चीन भारत को अरुणाचल के लिए आंखें दिखाने की कोशिश कर रहा है! अपने पड़ोसी देशों की भूमियों पर कब्जा करने की प्रक्रिया चीन में 1949 मैं उस समय प्रारंभ हुई जब चीन में कम्युनिस्ट पार्टी का शासन लागू हुआ तथा माओ चीन के प्रमुख बने।  माओ ने चीनी जनता को अपना शक्तिशाली रूप दिखाने के लिए विस्तार वादी नीति अपनाई जिसके द्वारा उसने धीरे-धीरे 14 पड़ोसी देशों जिनमें भूटान नेपाल वर्मा और सोवियत संघ के बहुत से देश शामिल थे। इसके लिए उसने अपने झूठे इतिहास का सहारा लिया और कमजोर पड़ौसी देशों की भूमियों पर कब्जा कर लिया। इसी प्रक्रिया के अनुसार जब चीन ने 1950 में तिब्बत पर कब्जा किया तब वहां की मोहिनबा जाति के लोगों ने पलायन करके भारत के अंदर अरुणाचल में शरण ली ये बोद्ध धर्म के अनुयाई हैं और दलाई लामा को अपना शासक मानते हैं। इसको देखते हुए चीन ने जिस भी क्षेत्र में मोइनबा जाति के लोगों ने शरण ली उन्हीं को चीन ने दक्षिणी तिब्बत का हिस्सा बताना शुरू कर दिया। ऐसा ही पाकिस्तान ने 1947 में जम्मू कश्मीर में किया थाऔर दावा किया की कश्मीर घाटी में मुस्लिम बहुल आबादी पाकिस्तान में मिलना चाहती है। जबकि जम्मू कश्मीर की तरह अरुणाचल प्रदेश भी भारत का हिस्सा वैधानिक पद्धति से घोषित किया गया था भारत तिब्बत और चीन की सीमाओं के निर्धारण के लिए भारत के अंग्रेजी शासकों ने 1914 में शिमला में भारत तिब्बत और चीन के बीच में एक लंबी बैठक का आयोजन किया जो पूरे 2 महीने चली इस बैठक में तिब्बत के प्रतिनिधि ने तिब्बत- भारत सीमा पर मैक मोहन रेखा को मान्यता प्रदान की। परंतु चीन ने भारत चीन सीमा के लद्दाख क्षेत्र के लिए इस रेखा को मान्यता प्रदान नहीं की। यह प्रसिद्ध मैकमोहन रेखा है जिसका निर्धारण काफी सोच-समझकर किया गया था यह उसी प्रकार था, जिस प्रकार जम्मू-कश्मीर के विलय के लिए निर्धारित नियमों के अनुसार इस राज्य का विलय भारत में हुआ था। जम्मू-कश्मीर के विलय के लिए वहां के शासक महाराजा हरि सिंह ने अपनी स्वीकृति प्रदान की थी इसी प्रकार तिब्बत भारत सीमा के लिए तिब्बत के मान्यता प्राप्त प्रतिदिन सहमति दी थी उस समय तिब्बत स्वतंत्रता और उनके प्रतिनिधि को सीमा के बारे में सारे अधिकार प्राप्त है। परंतु 1949 में जैसे ही माओ सत्ता में आए उन्होंने पड़ोसी देशों से चीन और तिब्बत द्वारा की गई सारी संधियों को नकार दिया और कहां कि अब चीन इतिहास के आधार पर अपनी सीमाएं पड़ोसी देशों के साथ निर्धारित करेगा।
1950 में चीन द्वारा तिब्बत पर कब्जे के लिए उसकी आलोचना पूरे विश्व के गैर कम्युनिस्ट देशों ने की परंतु इस समय भारत के प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इस विषय पर चुप्पी साध ली और एक प्रकार से चीन के तिब्बत पर कब्जे को स्वीकृति प्रदान कर दी। पंडित नेहरू माओ से संबंध बढ़ाकर विश्व में अपनी लोकप्रियता बढ़ाना चाहते थे। इसके लिए भारत ने चीन के साथ अपने संबंधों को और प्रगाढ़ करने के लिए 1954 में पंचशील समझौते पर हस्ताक्षर किए जिसमें मुख्य सिद्धांत थे... दोनों देश एक दूसरे की सीमाओं को मान्यता प्रदान करेंगे, एक दूसरे के आंतरिक मामलों में दखल नहीं देंगे और दोनों एक दूसरे को बराबर का समझेंगे। इसके साथ साथ सीमा पर शांति बनाई जाएगी। पंचशील समझौते के बाद पूरे देश में हिंदी चीनी भाई-भाई के नारे लगाए जाने लगे और पूरे देश में यह संदेश देने की कोशिश की गई कि भारत और चीन अब भाइयों की तरह है। परंतु चीन ने इस नारे की भावना के अनुसार कभी भी भारत को भाई नहीं समझा और हर हर समय वह भारत को धोखा देने की योजनाएं बनाता रहा। इसी संधि के साथ-साथ भारत ने चीन के साथ 4 महीने की गहन मंत्रणा के बादआपसी व्यापार के लिए एक और संधि पर पंडित नेहरू और चीन के प्रधानमंत्री चाउ एन लाई ने हस्ताक्षर किए, जिसका नाम था तिब्बत (चीन का क्षेत्र) और भारत के बीच व्यापार और आदान-प्रदान की संधि। यह महत्वपूर्ण संधि थी क्योंकि पुराने समय में दक्षिणी तिब्बत और भारत के बीच व्यापार का मार्ग यहीं से जाता था। इस प्रकार इस संधि के द्वारा भारत ने चीन के तिब्बत पर कब्जे को और भी ज्यादा मान्यता प्रदान कर दी और विश्व को दिखा दिया कि भारत चीन के साथ है।
चीन के द्वारा तिब्बत पर कब्जे को वहां की जनता ने स्वीकार नहीं किया और तिब्बत में लासा और इसके चारों तरफ विद्रोह की लपटें फैल गई 1959 मैं जब दलाई लामा को जब लगा की चीन उन्हें गिरफ्तार कर सकता है। तब सिक्किम के रास्ते पैदल चलकर भारत में शरण ली ! यहां पर भारत सरकार ने उन्हें आदर पूर्वक राजनीतिक शरण प्रदान की और हिमाचल के धर्मशाला में उन्हें बसा दिया। हालांकि भारत सरकार चीन के साथ अपने संबंध और भी मजबूत करना चाहती थी परंतु चीन हमेशा भारत के प्रति द्वेष की भावना रखता रहा और सोचता था कि तिब्बत मैं विद्रोहियों को अमेरिका भारत के रास्ते ही मदद दे रहा है। दलाई लामा ने तिब्बत के शासक होने की पोजीशन भारत में प्रवेश करने के केवल 2 दिन बाद ही तिब्बत पर चीन के कब्जे के विरोध में संयुक्त राष्ट्र संघ में प्रस्ताव पेश कर दिया। राष्ट्र संघ में इस प्रस्ताव पर काफी बहस हुई और दलाई लामा के प्रस्ताव को बहुमत से पारित कर दिया गया परंतु इस कार्यवाही में भारत ने उदासीन रुख ही अपनाया। नेहरू ने देश की लोकसभा में बयान दिया की इस विषय पर भारत दलाई लामा के साथ नहीं है। इस प्रकार भारत ने दलाई लामा के विरुद्ध चीन को अपना सहयोग अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दिया। पंडित नेहरू अपनी इस कार्रवाई के बाद यह सोचने लगे थे किचीन अब कभी भी भारत पर हमला नहीं करेगा और भारत चीन सीमा सुरक्षित रहेंगी। मगर शुरू से ही चीन इस सीमा पर आक्रमक कार्रवाई करता रहा और लद्दाख सेअरुणाचल तक फैले अक्साई चीन के 38000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर दावा ठोकता रहा। चीन की सैन्य तैयारियां और संसाधनों को देखकर तत्कालीन भारतीय सेना प्रमुख जनरल थिमैया ने बार-बार प्रधानमंत्री और रक्षा मंत्री कृष्णा मेनॉन को सेना के लिए संसाधन जुटाने के लिए आग्रह किया परंतु नेहरू, कृष्णा मेनन और बी के मौलिक की तिकड़ी ने कभी भी जनरल थिमैया के सुझावों पर कोई ध्यान नहीं दिया। इससे निराश होकर जन थिममैया ने 1959 मैं अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। मौलिक इंटेलिजेंस ब्यूरो के प्रमुख थे और नेहरू के करीबी थे जिसके कारण पूरे रक्षा मंत्रालय में उनका बोलबाला था। इसी कारण मलिक ने सेना के जमीनी स्तर के अधिकारियों को सीधे आदेश देने शुरू कर दिए। मौलिक की मुख्य जिम्मेदारी सरकार के लिए बाहरी देशों की इंटेलिजेंस एकत्रित करना था, और चीन अपने आक्रमक रुख के कारण मौलिक का मुख्य केंद्र था। इसलिए मौलिक उत्तर पूर्वी सीमा पर अग्रिम पोजीशन के रूप में भारत और चीन के बीच में नो मैंस लैंड कहे जाने वाले स्थानों पर सेना की छोटी-छोटी चौकियां स्थापित कर दी, जिसका सेना ने भारी विरोध किया परंतु उनके विरोध को दरकिनार करके यह चौकियां स्थापित की गई। इन चौकियों के द्वारा चीन ने सोचा शायद भारत आक्रमक रुख अख्तियार कर रहा है। इसलिए इससे पहले कि भारत चीन पर हमला करें उसने अचानक अक्टूबर 1962 में भारत पर हमला कर दिया। जिसमें मेजर शैतान सिंह ने लद्दाख के रेजांगला मेंअपने केवल 100 सैनिकों से चीन के 1200 सैनिकों को मार कर चीन को आगे बढ़ने से रोका। इसी प्रकार की वीरता भारतीय सेना ने चीन के विरुद्ध हर मोर्चे पर दिखाइ परंतु संसाधनों की कमी और पुरानेहथियारों और तोपखाने तथा वायु सेना की मदद उपलब्ध ना होने के कारण भारतीय सेना को बहुत बुरी हार का सामना करना पड़ा और इस हमले के द्वारा चीन ने 38000 वर्ग किलोमीटर में फैले अक्साई चिन क्षेत्र पर कब्जा कर लिया। जिस पर वह आज तक जमा हुआ है। इसके बाद 1967 में चीन ने सिक्किम पर कब्जा करने के लिए नाथूला पर हमला किया। मगर यहां पर 17 डिवीजन के जीओसी जनरल सगत सिंह ने चीन को करारा जवाब देते हुए पीछे धकेल दिया। हालांकि रक्षा मंत्रालय और सेना के वरिष्ठ अधिकारी चीन को कड़ा जवाब देने के पक्ष में नहीं थे फिर भी जगत सिंह ने इसकी परवाह न करते हुए अपनी जिम्मेदारी को पूरा करते हुए सिक्किम की रक्षा की। जिसके कारण पश्चिम बंगाल के सिलिगुड़ी कॉरिडोर या चिकननेक कहे जाने वाले क्षेत्र की रक्षा की अन्यथा चीन का इरादा सिलीगुड़ी सिलीगुड़ी कॉरिडोर पर कब्जा करके पूरे पूर्वी राज्यों असम नागालैंड अरुणाचल मणिपाल इत्यादि को भारत से अलग अलग करना था। इसके बाद भी यदा-कदा चीन के आक्रामक रुख के कारण सीमा पर दोनों देशों के बीच में झड़पें चलती वही अरुणाचल का सपना पूरा करने के लिए 1986 में चीन ने सोम द्रोङ्ग छु नामक घाटी में हेलीपैड बनाने की कोशिश की जिसको भारतीय सेना ने जनरल सुंदर जी की कमांड में चीन के इस इरादे को नाकाम कर दिया और चीन को एक संदेश दिया की वह भविष्य में इस तरह की हरकत ना करें।
1962 के युद्ध मिली हार के बाद पूरे देश में इस युद्ध में उन कारणों का पता लगाने की मांगे उठी जिनके कारण भारत को इस हार को देखना पड़ा तथा उसका इतना बड़ा भूभाग चीन के कब्जे में चला गया। इसके लिए रक्षा मंत्रालय ने सेना के दो वरिष्ठ अधिकारी जनरल हेंडरसन और ब्रिगेडियर भगत को उन कारणों को पता लगाने के लिए एक जांच आयोग के रूप में नियुक्त किया। इन दोनों अधिकारियों ने लगन और ईमानदारी के साथ देशवासियों को सच्चाई बताने के लिए सीमाओं पर जाकर के इसकी जांच की और उन्होंने पाया कि इस युद्ध में रक्षा मंत्रालय और राजनीतिक हस्तक्षेप भी था जिसके कारण ना तो सेना युद्ध के लिए तैयार थी और ना ही चीन सीमा पर संचार के साधन जैसे सड़क पुल सुरंगे इत्यादि हीं थे। इसके अलावा वायु सेना के विमानों के उतरने के लिए वहां पर कोई लैंडिंग ग्राउंड भी नहीं थे। रिपोर्ट के इन संवेदनशील तथ्यों को देखते हुए तत्कालीन सरकार ने इस रिपोर्ट को गोपनीय घोषित करके इसे सार्वजनिक करने से मना कर दिया। देश की पार्लियामेंट में भारतीय जनता पार्टी के अरुण जेटली ने इस रिपोर्ट की मांग उठाई थी जिसे सरकार ने नहीं माना। विडंबना देखिए कि जब भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आई तब उन्हीं अरुण जेटली ने इस रिपोर्ट को गोपनीयता के नाम पर सार्वजनिक करने से मना कर दिया था। अभी तक रिपोर्ट रक्षा मंत्रालय में गोपनीयता के कारण पड़ी हुई है और देशवासियों को इतनी बड़ी हार के कारणों का पता नहीं लग पाया है।
इसके बाद भारत-चीन के बीच में तनाव कम करने के लिए उच्च स्तरीय प्रतिनिधि मंडलों के बीच में बातचीत ओं का दौर शुरू हुआ जिससे सीमाओं पर तनाव कम किया जा सके। इसी बातचीत के चलते 1996 में एक दूसरे के प्रति विश्वास बहाने बढ़ाने के लिए एक संधि पर हस्ताक्षर किए गए जिसमें भारत के प्रधानमंत्री पी वी नरसिंह राव और चीन के प्रधानमंत्री ने स्वयं हस्ताक्षर किए थे और इस समझौते के अनुसार सीमा पर दोनों देशों की सेनाएं अग्रिम क्षेत्रों में बगैर हथियारों के साथ गस्त करेंगी। इसी समझौते का नतीजा था कि गलवान में भारतीय सैनिक बगैर हथियारों के गए परंतु चीनी सैनिक अपनी धोखा देने की आदत के अनुसार कटीले तार लगे हुए डंडों के साथ आए। परंतु फिर भी भारतीय सैनिकों ने चीनी सैनिकों से ही लाठी-डंडे छीन कर उनका मुकाबला किया और उन्हें मौत के घाट उतारा। तवांग में भारतीय सैनिकों ने पहले से ही अपने आप को चीन की इस चाल का जवाब देने के लिए तैयार किया हुआ था। जिसके कारण तवांग में भारतीय सेना ने चीनी सैनिकों की बुरी तरह से पिटाई की जिसमें बहुत से चीनी सैनिक मारे गए। इस प्रकार अब चीन को कड़ा संदेश चला गया है कि यह भारत अब 1962 वाला भारत नहीं है और भारत 20 वीं सदी का आर्थिक और सैनिक दृष्टि से सशक्त भारत है। इसी कारण अब सेना को आधुनिकतम हथियार सीमाओं पर चौकसी रखने के लिए इलेक्ट्रॉनिक संसाधन और संचार के माध्यमों को उपलब्ध करा कर चीन को संदेश दे दिया गया है।
तथ्यों के विश्लेषण से यह साफ हो जाता है की 50 और 60 के दशक में भारत सरकार ने चीन की हरकतों को पहचानने में बहुत बड़ी भूल की जिसके कारण चीन ने आराम से तिब्बत और अक्साई चिन के बड़े क्षेत्रफल कब्जा कर लिया ! विपक्षी दलों के द्वारा भारतीय सेना की कार्यशैली पर टिप्पणियां सैनिकों के मनोबल को प्रभावित करती हैं। जैसे कांग्रेस पार्टी पाकिस्तान के विरुद्ध सर्जिकल स्ट्राइक को ही झूठा मानती है। इसके साथ साथ गलवान और तवांग की मुठभेड़ों पर भी शक कर रही है। भारतीय सीमा पर कुछ क्षेत्रों में चीनी हरकत को कुछ राजनीतिज्ञ यह मान रहे हैं कि चीन ने भारत के क्षेत्र को अपने कब्जे में ले लिया है। परंतु यह सत्य नहीं है, भारतीय सेना मजबूती से चीन की हर चाल का जवाब देने में सक्षम है और चीन अब भारत की । इंच भूमि पर भी कब्जा नहीं कर सकता है।
आक्रमक स्वरूप का ध्यान करना चाहिए जिसके कारण चीन भारत के 38000 वर्ग किलोमीटर पर कब्जा किए हुए हैं और तत्कालीन सरकार ने तिब्बत के ऊपर चीन को स्वीकृति देकर एक प्रकार से चीन को तिब्बत का असली शासक के रूप में मान्यता प्रदान की थी।

शुक्रवार, 1 सितंबर 2023

पावरग्रिड उत्तरी क्षेत्र ने कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व के अन्तर्गत ईएसआईसी मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल फरीदाबाद के साथ समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए

फरीदाबाद। पावर ग्रिड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (पावरग्रिड), उत्तरी क्षेत्र, फरीदाबाद ने उन्नत रोबोटिक सर्जरी प्रणाली स्थापित करने की दिशा में वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिए दिनांक 01 सितंबर 2023 को ईएसआईसी मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल, फरीदाबाद के साथ एक समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किये। इस परियोजना की अनुमानित लागत लगभग 25 करोड़ रुपये है। फरीदाबाद प्रमुख जिलों में से एक है और दिल्ली एनसीआर क्षेत्र से निकटता के कारण, चिकित्सा के क्षेत्र में रोगियों के लिए कम खर्च में उन्नत ईलाज की आवश्यकता रहती है। ईएसआईसी श्रमिकों के विभिन्न प्रकार के चिकित्सकीय लाभों से संबंधित कल्याणकारी संस्थान है और इस प्रकार उन्नत रोबोटिक सर्जरी प्रणाली के माध्यम से रोगियों को शीघ्र चिकित्सकीय लाभ मिलेगा, जिससे श्रमिक अल्प समयावधि में कार्य पर लौट सकने में सक्षम होंगे। एक जिम्मेदार कॉर्पोरेट संस्थान के रूप में पावरग्रिड द्वारा कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व के अन्तर्गत स्वास्थ्यगत क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण पहल कर रहा है, यह परियोजना देश में स्वास्थ्य और चिकित्सा के बुनियादी ढांचे में व्यापक सुधार कर पावरग्रिड के मिशन में एक और मील का पत्थर सिद्ध होगा। उक्त समझौते पर पावरग्रिड, उत्तरी क्षेत्र। फरीदाबाद के श्री ए. के मिश्रा, कार्यपालक निदेशक एवं ईएसआईसी मुख्यालय से श्री रत्नेश गौतम, बीमा आयुक्त और डॉ. असीम दास (डीन) की गरिमामय उपस्थिति में श्री अशोक कुमार मिश्रा, महाप्रबंधक (मानव संसाधन एवं सीएसआर) एवं ईएसआईसी मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल, फरीदाबाद के श्री अनिल कुमार पांडे, चिकित्सा अधीक्षक ने हस्ताक्षर किए।

साथ ही इस अवसर पर ईएसआईसी मेडिकल कॉलेज और अस्पताल से डॉ. निशांत घुरनानी, रोबोटिक सर्जन, डॉ. मिथिलेश कुमार और पावरग्रिड से श्री संजय कुमार वर्मा महाप्रबंधक (मानव संसाधन प्रभारी), श्री राजेश कुमार गुप्ता, मुख्य प्रबन्धक (सीएसआर), श्री यू सी त्रिवेदी, सलाहकार श्री दीपक धमेजा, मुख्य प्रबन्धक भी उपस्थित रहे।


http://mohdriyaz9540.blogspot.com/

http://nilimapalm.blogspot.com/

musarrat-times.blogspot.com

http://naipeedhi-naisoch.blogspot.com/

http://azadsochfoundationtrust.blogspot.com/