शुक्रवार, 29 नवंबर 2019

पुनर्विचार याचिका का फैसला दुर्भाग्यपूर्ण

 

अवधेश कुमार

सुन्नी वक्फ बोर्ड द्वारा अयोध्या मामले पर आगे न बढ़ने के निर्णय के बावजूद औल इंडिया मुस्लिम पर्सनल बोर्ड पुनर्विचार याचिका डलवाएगा। जमीयत उलेमा हिंद का एक गुट भी न्यायालय जा रहा है। वस्तुतजः अयोध्या मामले पर उच्चतम न्यायालय के फैसले से देश के बहुमत ने यह सोचते हुए राहत की सांस ली कि 491 वर्ष के विवाद का बेहतरीन हल निकल आया है। किंतु कुछ ही मिनट बाद बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के संयोजक जफरयाब जिलानी यह कहते हुए सामने आ गए कि हम फैसले से संतुष्ट नहीं हैं, यह विरोधाभासी है....और इसके विरुद्ध पुनर्विचार याचिका दायर करेंगे। इसके  बाद असदुद्दीन ओवैसी यह कहते हुए सामने आए कि हमारे साथ इंसाफ नहीं हुआ है। सुप्रीम कोर्ट सुप्रीम है लेकिन इनफौलिबल नहीं है यानी ऐसा नहीं है जो गलती नहीं कर सके। उसके बाद उन्होंने उच्चतम न्यायालय पर जिस तरह की टिप्पणियां कीं और अभी भी कर रहे हैं वो सब देश के सामने है। ये वो लोग हैं जो फैसले के पहले तेज आवाज मंे यह कहते थे कि हम तो उच्चतम न्यायालय का फैसला मानेंगे लेकिन दूसरे पक्ष मानेंगे कि नहीं उनसे पूछिए। वास्तव में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने पुनर्विचार याचिका डालने का जो फैसला किया वह दुर्भाग्यपूर्ण, दुखदायी और क्षोभ पैदा करने वाला तो है लेकिन इसमें आश्चर्य का कोई पहलू नहीं है। फैसले के साथ ही यह साफ दिखने लगा था कि कुछ मुस्लिम चेहरे जिनका वजूद ही अयोध्या विवाद पर टिका है और जो देश मंे स्वयं को एकमात्र मुसलमानों का नेता बनने का ख्वाब पाल रहे हैं वे इस मुद्दे को यूं ही हाथ से जाने नहीं देंगे।

वास्तव में फैसले के बाद आम मुसलमानों की प्रतिक्रिया यही थी कि अब इस मामले को यही समाप्त किया जाए। लेकिन इसके विरूद्ध ये लोग सक्रिए हो गए। जब याचिकाकर्ता कहने लगे कि हम अपील नहीं करेंगे तो उन पर प्रत्यक्ष-परोक्ष दबाव बनाने की पूरी कोशिश हुई और आज अगर मुस्लिम पर्सनल लौ बोर्ड के चार पक्षकार अपील के लिए तैयार हैं तो इसके पीछे निहित स्वार्थी तत्वों का दबाव ही है। जिलानी ने तो यहां तक कह दिया था कि अगर याचिकाकर्ताओं में से कोई नहीं जाएगा तब भी मुस्लिम समाज से कोई याचिका डाल सकता है क्योंकि यह पूरे समुदाय का मसला है। तो जो इस सीमा तक तैयार हैं वे पुनर्विचार याचिका नहीं डालेंगे ऐसा मानने का कोई कारण नहीं हैंं। जरा सोचिए अगर बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी अस्तित्व में नहीं आता तो जफरयाब जिलानी को कौन जानता? यही बात अनेक के साथ लागू होता है। पुनर्विचार याचिका में जाना हर वादी-प्रतिवादी का हक है। किंतु यह आम या दो-चार व्यक्तियांे के बीच का मामला नहीं है। इससे भारत के अंदर और बाहर रहने वाले करोड़ों हिन्दुओं की भावनायें जुड़ी हैं, जबकि बाबरी का महत्व इस्लाम मंे कुछ भी नहीं है। फिर ये जिन तर्को के साथ पुनर्विचार के लिए जा रहे हैं उन सबका उच्चतम न्यायालय पहले ही जवाब दे चुका है।

इन्होंने दस तर्क दिए हैं। एक, उच्चतम न्यायालय ने माना है कि बाबर के सेनापति मीरबाकी की ओर से मस्जिद का निर्माण कराया गया था। दो, 1857 से 1949 तक बाबरी मस्जिद की तीन गुंबदों वाली इमारत और अंदरुनी हिस्सा मुस्लिमों के कब्जे में माना गया है। तीन, न्यायालय ने माना है कि बाबरी मस्जिद में आखिरी नमाज 16 दिसंबर, 1949 को पढ़ी गई थी यानी वह मस्जिद के रूप में थी। चार, न्यायालय ने माना है कि 22-23 दिसंबर, 1949 की रात को चोरी से या फिर जबरदस्ती मूर्तियां रखी गई थीं। पांच, गुंबद के नीचे कथित रामजन्मभूमि पर पूजा की बात नहीं कही गई है। ऐसे में यह जमीन फिर रामलला विराजमान के पक्ष में क्यों दी गई? छः, न्यायालय ने खुद अपने फैसले में कहा है कि रामजन्मभूमि को पक्षकार नहीं माना जा सकता। फिर उसके आधार पर ही फैसला क्यों दिया गया? सात, न्यायालय ने माना है कि 6 दिसंबर, 1992 में मस्जिद को गिराया जाना गलत था तो मंदिर के लिए फैसला क्यों दिया गया। आठ, न्यायालय ने कहा कि हिंदू सैकड़ों साल से पूजा करते रहे हैं, इसलिए जमीन रामलला को दी जाती है, जबकि मुस्लिम भी तो वहां इबादत करते रहे हैं। नौ, जमीन हिंदुओं को दी गई है इसलिए 5 एकड़ जमीन दूसरे पक्ष को दी जाती है। न्यायालय ने संविधान के 142 का इस्तेमाल कर यह बात कही। इसमें वक्फ ऐक्ट का ध्यान नहीं रखा गया, उसके मुताबिक मस्जिद की जमीन कभी बदली नहीं जा सकती है। एवं दस, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के आधार पर ही न्यायालय ने यह माना कि किसी मंदिर को तोड़कर मस्जिद का निर्माण नहीं हुआ था।

सच यह है कि इन दसों प्रश्न पर उच्चतम न्यायालय के 40 दिनों की बहस में दोनों पक्षों ने अपने-अपने तर्क और तथ्य दिए थे। फैसले में इन सबका जवाब दिया गया है। सबसे अंतिम तर्क मस्जिद के लिए जमीन के प्रश्न को लीजिए। न्यायालय ने इसे क्षतिपूर्ति नहीं कहा है। केवल इतना कहा है कि न्यायालय अगर मुस्लिमों के हक को नजरअंदाज करती है तो न्याय नहीं होगा। संविधान हर धर्म को बराबरी का हक देता है और सहिष्णुता तथा परस्पर शांतिपूर्ण सह अस्तित्व हमारे देश और यहां के लोगों की सेक्यूलर प्रतिबद्धता को मजबूत करते हैं। इसने कहा कि आवंटित भूमि का क्षेत्र तय करते हुए यह आवश्यक है कि मुस्लिम समुदाय को भूमि दी जाए। न्यायालय ने माना ही नहीं है कि वहां मूल रुप से मस्जिद था।ं पीठ ने कहा है कि अधिसंभाव्यता की प्रबलता के आधार पर अंदर पाई गई संरचना की प्रकृति इसके हिंदू धार्मिक मूल का होने का संकेत देती है जो 12 वीं सदी की है। निस्संदेह, संविधान पीठ ने कहा है कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण यह नहीं बता पाया कि मंदिर गिराकर मस्जिद बनाई गई थी। लेकिन न्यायालय ने सुन्नी वक्फ बोर्ड और अन्य मुस्लिम पक्षकारों द्वारा सर्वेक्षण की रिपोर्ट खारिज किए जाने के सारे तर्क अमान्य करार दिए। कहा कि पुरातात्विक प्रमाणों को महज एक ओपिनियन करार दे देना भारतीय पुरातत्व सवेक्षण का अपमान होगा। पुरातत्व सर्वेक्षण की खुदाई से पता चला कि विवादित मस्जिद पहले से मौजूद किसी संरचना पर बनी है। ढहाए गए ढांचे के नीचे एक मंदिर था, इस तथ्य की पुष्टि पुरातत्व सर्वेक्षण करती है। खुदाई ने पहले से मौजूद 12वीं सदी की संरचना की मौजूदगी की पुष्टि की है। संरचना विशाल है और उसके 17 कतारांे में बने 85 खंभों से इसकी पुष्टि भी होती है। नीचे बनी हुई वह संरचना जिसने मस्जिद के लिए नींव मुहैया करायी, स्पष्ट है कि वह हिन्दू धार्मिक मूल का ढांचा था।

इसमें यह कहना कि जब उसने तोड़कर बनाने के प्रमाण दिए ही नहीं उसके आधार पर फैसला कैसे दे दिया गया बिल्कुल हास्यास्पद है। मौजूदा न्याय प्रणाली को जिस तरह के प्रत्यक्ष साक्ष्य की आवश्यकता होती है उसकी बात न्यायालय ने कही है। कोई स्वर्ग से उतरकर बताने तो आएगा नहीं कि मेरे सामने मंदिर तोड़ी जा रही थी। आगे बढ़िए तो न्यायालय ने साफ कहा है कि सुन्नी वक्फ बोर्ड यह साबित नहीं कर पाया कि विवादित जगह पर उसका बिना किसी बाधा के लंबे समय तक कब्जा रहा। व्यवधान के बावजूद साक्ष्य यह बताते हैं कि प्रार्थना पूरी तरह से कभी बंद नहीं हुई। मुस्लिमों ने ऐसा कोई साक्ष्य पेश नहीं किया, जो यह दर्शाता हो कि वे 1857 से पहले मस्जिद पर पूरा अधिकार रखते थे। इस बात के पूरे सबूत हैं कि राम चबूतरा और सीता रसोई पर हिंदू 1857 से पहले भी पूजा करते थे। मीर बाकी ने बाबरी मस्जिद का निर्माण 1528 में कराया था लेकिन यह स्थल दशकों से निरंतर संघर्ष का केन्द्र रहा। पीठ ने कहा कि 1856-57 में सांप्रदायिक दंगा भड़कने से पहले हिंदुओं को परिसर में पूजा करने से नहीं रोका गया। 1856-57 के दंगों के बाद पूजा स्थल पर रेलिंग लगाकर इसे बांट दिया गया ताकि दोनों समुदायों के लोग पूजा कर सकें। 1934 में हुए दंगे इशारा करते हैं कि बाद में अंदर के आंगन का मसला गंभीर तकरार का मुद्दा बन गया। इसके स्पष्ट साक्ष्य हैं कि हिंदू विवादित ढांचे के बाहरी हिस्से में पूजा करते थे। कानून-व्यवस्था और शांति बनाए रखने के लिए, ब्रिटिश सरकार ने परिसर को भीतरी और बाहरी बरामदे में विभाजित करते हुए छह से सात फुट ऊंची ग्रिल-ईंट की दीवार खड़ी की। भीतरी बरामदे का इस्तेमाल मुसलमान नमाज पढ़ने के लिए और बाहरी बरामदे का इस्तेमाल हिंदू पूजा के लिए करने लगे।

इसे देखने के बाद बोर्ड का कौन सा प्रश्न अनुत्तरित है जिसके लिए ये पुनर्विचार याचिका लेकर जा रहे है? न्यायालय ने हर उस पहलू की जांच की है जो इससे जुड़े हैं। श्रीरामलला विराजमान के बारे में न्यायालय ने कहा कि 1989 में भगवान श्रीराम लला विराजमान की ओर से दायर याचिका बेवक्त नहीं थी। अयोध्या में विवादित मस्जिद की मौजूदगी के बावजूद उनकी पूजा-सेवा जारी रही। फैसले में रामजन्मभूमि के पक्ष में ऐसे-ऐसे साक्ष्य और तर्क हैं जिनको किसी सूरत में खारिज नहीं किया जा सकता। इन सबको यहां प्रस्तुत करना संभव नहीं। जानबूझकर ये खत्म हो चुके विवाद को बनाए रखना चाहते हैं। प्रश्न है क्यों? इससे तो सांप्रदायिक तनाव बढ़ेगा। आवश्यक है कि विवेकशील मुस्लिम निहित स्वार्थी नेताओं की मुखालफत करें। मुस्लिम समाज की ओर से मुखर विरोध ही इनका बेहतर जवाब हो सकता है।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

 

पुनर्विचार याचिका का फैसला दुर्भाग्यपूर्ण

अवधेश कुमार

सुन्नी वक्फ बोर्ड द्वारा अयोध्या मामले पर आगे न बढ़ने के निर्णय के बावजूद औल इंडिया मुस्लिम पर्सनल बोर्ड पुनर्विचार याचिका डलवाएगा। जमीयत उलेमा हिंद का एक गुट भी न्यायालय जा रहा है। वस्तुतजः अयोध्या मामले पर उच्चतम न्यायालय के फैसले से देश के बहुमत ने यह सोचते हुए राहत की सांस ली कि 491 वर्ष के विवाद का बेहतरीन हल निकल आया है। किंतु कुछ ही मिनट बाद बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के संयोजक जफरयाब जिलानी यह कहते हुए सामने आ गए कि हम फैसले से संतुष्ट नहीं हैं, यह विरोधाभासी है....और इसके विरुद्ध पुनर्विचार याचिका दायर करेंगे। इसके  बाद असदुद्दीन ओवैसी यह कहते हुए सामने आए कि हमारे साथ इंसाफ नहीं हुआ है। सुप्रीम कोर्ट सुप्रीम है लेकिन इनफौलिबल नहीं है यानी ऐसा नहीं है जो गलती नहीं कर सके। उसके बाद उन्होंने उच्चतम न्यायालय पर जिस तरह की टिप्पणियां कीं और अभी भी कर रहे हैं वो सब देश के सामने है। ये वो लोग हैं जो फैसले के पहले तेज आवाज मंे यह कहते थे कि हम तो उच्चतम न्यायालय का फैसला मानेंगे लेकिन दूसरे पक्ष मानेंगे कि नहीं उनसे पूछिए। वास्तव में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने पुनर्विचार याचिका डालने का जो फैसला किया वह दुर्भाग्यपूर्ण, दुखदायी और क्षोभ पैदा करने वाला तो है लेकिन इसमें आश्चर्य का कोई पहलू नहीं है। फैसले के साथ ही यह साफ दिखने लगा था कि कुछ मुस्लिम चेहरे जिनका वजूद ही अयोध्या विवाद पर टिका है और जो देश मंे स्वयं को एकमात्र मुसलमानों का नेता बनने का ख्वाब पाल रहे हैं वे इस मुद्दे को यूं ही हाथ से जाने नहीं देंगे।

वास्तव में फैसले के बाद आम मुसलमानों की प्रतिक्रिया यही थी कि अब इस मामले को यही समाप्त किया जाए। लेकिन इसके विरूद्ध ये लोग सक्रिए हो गए। जब याचिकाकर्ता कहने लगे कि हम अपील नहीं करेंगे तो उन पर प्रत्यक्ष-परोक्ष दबाव बनाने की पूरी कोशिश हुई और आज अगर मुस्लिम पर्सनल लौ बोर्ड के चार पक्षकार अपील के लिए तैयार हैं तो इसके पीछे निहित स्वार्थी तत्वों का दबाव ही है। जिलानी ने तो यहां तक कह दिया था कि अगर याचिकाकर्ताओं में से कोई नहीं जाएगा तब भी मुस्लिम समाज से कोई याचिका डाल सकता है क्योंकि यह पूरे समुदाय का मसला है। तो जो इस सीमा तक तैयार हैं वे पुनर्विचार याचिका नहीं डालेंगे ऐसा मानने का कोई कारण नहीं हैंं। जरा सोचिए अगर बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी अस्तित्व में नहीं आता तो जफरयाब जिलानी को कौन जानता? यही बात अनेक के साथ लागू होता है। पुनर्विचार याचिका में जाना हर वादी-प्रतिवादी का हक है। किंतु यह आम या दो-चार व्यक्तियांे के बीच का मामला नहीं है। इससे भारत के अंदर और बाहर रहने वाले करोड़ों हिन्दुओं की भावनायें जुड़ी हैं, जबकि बाबरी का महत्व इस्लाम मंे कुछ भी नहीं है। फिर ये जिन तर्को के साथ पुनर्विचार के लिए जा रहे हैं उन सबका उच्चतम न्यायालय पहले ही जवाब दे चुका है।

इन्होंने दस तर्क दिए हैं। एक, उच्चतम न्यायालय ने माना है कि बाबर के सेनापति मीरबाकी की ओर से मस्जिद का निर्माण कराया गया था। दो, 1857 से 1949 तक बाबरी मस्जिद की तीन गुंबदों वाली इमारत और अंदरुनी हिस्सा मुस्लिमों के कब्जे में माना गया है। तीन, न्यायालय ने माना है कि बाबरी मस्जिद में आखिरी नमाज 16 दिसंबर, 1949 को पढ़ी गई थी यानी वह मस्जिद के रूप में थी। चार, न्यायालय ने माना है कि 22-23 दिसंबर, 1949 की रात को चोरी से या फिर जबरदस्ती मूर्तियां रखी गई थीं। पांच, गुंबद के नीचे कथित रामजन्मभूमि पर पूजा की बात नहीं कही गई है। ऐसे में यह जमीन फिर रामलला विराजमान के पक्ष में क्यों दी गई? छः, न्यायालय ने खुद अपने फैसले में कहा है कि रामजन्मभूमि को पक्षकार नहीं माना जा सकता। फिर उसके आधार पर ही फैसला क्यों दिया गया? सात, न्यायालय ने माना है कि 6 दिसंबर, 1992 में मस्जिद को गिराया जाना गलत था तो मंदिर के लिए फैसला क्यों दिया गया। आठ, न्यायालय ने कहा कि हिंदू सैकड़ों साल से पूजा करते रहे हैं, इसलिए जमीन रामलला को दी जाती है, जबकि मुस्लिम भी तो वहां इबादत करते रहे हैं। नौ, जमीन हिंदुओं को दी गई है इसलिए 5 एकड़ जमीन दूसरे पक्ष को दी जाती है। न्यायालय ने संविधान के 142 का इस्तेमाल कर यह बात कही। इसमें वक्फ ऐक्ट का ध्यान नहीं रखा गया, उसके मुताबिक मस्जिद की जमीन कभी बदली नहीं जा सकती है। एवं दस, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के आधार पर ही न्यायालय ने यह माना कि किसी मंदिर को तोड़कर मस्जिद का निर्माण नहीं हुआ था।

सच यह है कि इन दसों प्रश्न पर उच्चतम न्यायालय के 40 दिनों की बहस में दोनों पक्षों ने अपने-अपने तर्क और तथ्य दिए थे। फैसले में इन सबका जवाब दिया गया है। सबसे अंतिम तर्क मस्जिद के लिए जमीन के प्रश्न को लीजिए। न्यायालय ने इसे क्षतिपूर्ति नहीं कहा है। केवल इतना कहा है कि न्यायालय अगर मुस्लिमों के हक को नजरअंदाज करती है तो न्याय नहीं होगा। संविधान हर धर्म को बराबरी का हक देता है और सहिष्णुता तथा परस्पर शांतिपूर्ण सह अस्तित्व हमारे देश और यहां के लोगों की सेक्यूलर प्रतिबद्धता को मजबूत करते हैं। इसने कहा कि आवंटित भूमि का क्षेत्र तय करते हुए यह आवश्यक है कि मुस्लिम समुदाय को भूमि दी जाए। न्यायालय ने माना ही नहीं है कि वहां मूल रुप से मस्जिद था।ं पीठ ने कहा है कि अधिसंभाव्यता की प्रबलता के आधार पर अंदर पाई गई संरचना की प्रकृति इसके हिंदू धार्मिक मूल का होने का संकेत देती है जो 12 वीं सदी की है। निस्संदेह, संविधान पीठ ने कहा है कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण यह नहीं बता पाया कि मंदिर गिराकर मस्जिद बनाई गई थी। लेकिन न्यायालय ने सुन्नी वक्फ बोर्ड और अन्य मुस्लिम पक्षकारों द्वारा सर्वेक्षण की रिपोर्ट खारिज किए जाने के सारे तर्क अमान्य करार दिए। कहा कि पुरातात्विक प्रमाणों को महज एक ओपिनियन करार दे देना भारतीय पुरातत्व सवेक्षण का अपमान होगा। पुरातत्व सर्वेक्षण की खुदाई से पता चला कि विवादित मस्जिद पहले से मौजूद किसी संरचना पर बनी है। ढहाए गए ढांचे के नीचे एक मंदिर था, इस तथ्य की पुष्टि पुरातत्व सर्वेक्षण करती है। खुदाई ने पहले से मौजूद 12वीं सदी की संरचना की मौजूदगी की पुष्टि की है। संरचना विशाल है और उसके 17 कतारांे में बने 85 खंभों से इसकी पुष्टि भी होती है। नीचे बनी हुई वह संरचना जिसने मस्जिद के लिए नींव मुहैया करायी, स्पष्ट है कि वह हिन्दू धार्मिक मूल का ढांचा था।

इसमें यह कहना कि जब उसने तोड़कर बनाने के प्रमाण दिए ही नहीं उसके आधार पर फैसला कैसे दे दिया गया बिल्कुल हास्यास्पद है। मौजूदा न्याय प्रणाली को जिस तरह के प्रत्यक्ष साक्ष्य की आवश्यकता होती है उसकी बात न्यायालय ने कही है। कोई स्वर्ग से उतरकर बताने तो आएगा नहीं कि मेरे सामने मंदिर तोड़ी जा रही थी। आगे बढ़िए तो न्यायालय ने साफ कहा है कि सुन्नी वक्फ बोर्ड यह साबित नहीं कर पाया कि विवादित जगह पर उसका बिना किसी बाधा के लंबे समय तक कब्जा रहा। व्यवधान के बावजूद साक्ष्य यह बताते हैं कि प्रार्थना पूरी तरह से कभी बंद नहीं हुई। मुस्लिमों ने ऐसा कोई साक्ष्य पेश नहीं किया, जो यह दर्शाता हो कि वे 1857 से पहले मस्जिद पर पूरा अधिकार रखते थे। इस बात के पूरे सबूत हैं कि राम चबूतरा और सीता रसोई पर हिंदू 1857 से पहले भी पूजा करते थे। मीर बाकी ने बाबरी मस्जिद का निर्माण 1528 में कराया था लेकिन यह स्थल दशकों से निरंतर संघर्ष का केन्द्र रहा। पीठ ने कहा कि 1856-57 में सांप्रदायिक दंगा भड़कने से पहले हिंदुओं को परिसर में पूजा करने से नहीं रोका गया। 1856-57 के दंगों के बाद पूजा स्थल पर रेलिंग लगाकर इसे बांट दिया गया ताकि दोनों समुदायों के लोग पूजा कर सकें। 1934 में हुए दंगे इशारा करते हैं कि बाद में अंदर के आंगन का मसला गंभीर तकरार का मुद्दा बन गया। इसके स्पष्ट साक्ष्य हैं कि हिंदू विवादित ढांचे के बाहरी हिस्से में पूजा करते थे। कानून-व्यवस्था और शांति बनाए रखने के लिए, ब्रिटिश सरकार ने परिसर को भीतरी और बाहरी बरामदे में विभाजित करते हुए छह से सात फुट ऊंची ग्रिल-ईंट की दीवार खड़ी की। भीतरी बरामदे का इस्तेमाल मुसलमान नमाज पढ़ने के लिए और बाहरी बरामदे का इस्तेमाल हिंदू पूजा के लिए करने लगे।

इसे देखने के बाद बोर्ड का कौन सा प्रश्न अनुत्तरित है जिसके लिए ये पुनर्विचार याचिका लेकर जा रहे है? न्यायालय ने हर उस पहलू की जांच की है जो इससे जुड़े हैं। श्रीरामलला विराजमान के बारे में न्यायालय ने कहा कि 1989 में भगवान श्रीराम लला विराजमान की ओर से दायर याचिका बेवक्त नहीं थी। अयोध्या में विवादित मस्जिद की मौजूदगी के बावजूद उनकी पूजा-सेवा जारी रही। फैसले में रामजन्मभूमि के पक्ष में ऐसे-ऐसे साक्ष्य और तर्क हैं जिनको किसी सूरत में खारिज नहीं किया जा सकता। इन सबको यहां प्रस्तुत करना संभव नहीं। जानबूझकर ये खत्म हो चुके विवाद को बनाए रखना चाहते हैं। प्रश्न है क्यों? इससे तो सांप्रदायिक तनाव बढ़ेगा। आवश्यक है कि विवेकशील मुस्लिम निहित स्वार्थी नेताओं की मुखालफत करें। मुस्लिम समाज की ओर से मुखर विरोध ही इनका बेहतर जवाब हो सकता है।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

 

गुरुवार, 14 नवंबर 2019

दोषी राज्यपाल नहीं राजनीतिक पार्टियां हैं

 

अवधेश कुमार

विरोधियों का यह तर्क मान लेने में कोई हर्ज नहीं है कि अगर राज्यपाल दो दिन और प्रतीक्षा कर लेते तो आसमान नहीं टूट पड़ता। हालांकि राष्ट्रपति शासन के अंदर सरकार गठन के लिए बातचीत और गठबंधन की प्रक्रिया पर कोई रोक नहीं है। विधानसभा निलंबित है भंग नहीं। जब भी कोई दल या नेता बहुमत विधायकों की संख्या लेकर आएगा पूरी स्थिति बदल जाएगी। राष्ट्रपति शासन खत्म और विधानसभा अस्तित्व में। फिर विधायकांे का शपथग्रहण और सरकार का गठन। इसलिए इस पर इतना हाय तौबा की आवश्यकता नहीं है। ऐसी हर स्थिति में राज्यपाल को खलनायक बना देना हमारे देश के नेताओं और मीडिया के एक वर्ग के लिए फैशन बन गया है। तर्क ऐसे दिए जाते हैं मानो पार्टियां और नेता तो अपना काम कर रहे थे राज्यपाल ने ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया का गला घोंट दिया। निस्संदेह, भारत में अनेक राज्यपालों ने संविधान की भावनाओं को अपमान कर लोकतंत्र का गला घोंटने की भूमिकाएं निभाईं हैं। पर इसके लिए जमीन हमेशा नेताओं और दलों ने ही तैयार किया है। जरा सोचिए, महाराष्ट्र में भाजपा शिवसेना को जनता ने शासन चलाने का बहुमत दिया था। जनादेश के अनुसार अभी तक सरकार गठन हो जाना चाहिए था। अगर ऐसा हो जाता तो राज्यपाल के पास राष्ट्रपति सिफारिश का विकल्प ही नहीं मिलता। शिवसेना की जिद ने पूरी स्थिति पलट दिया। न वह भाजपा के साथ जाने को तैयार है न बहुमत का दूसरा कोई गठबंधन बन पाया। इसमें राज्यपाल के पास एक ही चारा था कि वे क्रमानुसार पहले सबसे बड़ी पार्टी भाजपा को बुलाकर पूछें कि आप सरकार बनाने की स्थिति में हैं या नहीं? भाजपा के नकारने के बाद उन्होंने शिवसेना से पूछा कि क्या आप सरकार बनाने के इच्छुक हैं और अगर हैं तो आप सक्षम हैं या नहीं? शिवसेना ने इच्छा तो जताई लेकिन उसके पास किसी दूसरे दल के समर्थन का पत्र नहीं था। फिर बारी आई राकांपा की। उसने भी समय नहीं मांगा। राज्यपाल ने उसे 12 नवंबर की रात साढ़े आठ बजे तक का समय दिया। राकांपा ने उसके पूर्व 11.30 बजे ही राज्यपाल से दो दिनों के समय के लिए पत्र लिख दिया। उसके बाद राज्यपाल के सामने साफ था कि सरकार बनने की अभी स्थिति नहीं हैं। उन्होंने करीब 2 बजे केन्द्र सरकार को अपनी रिपोर्ट दी। मंत्रिमंडल की तत्काल बैठक हुई। तीन बजे फैसला हुआ। राष्ट्रपति पांच बजे पंजाब से वापस आए और फिर उनके हस्ताक्षर से राष्ट्रपति शासन लागू हो गया।

यह है पूरा क्रम। संविधान में अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन के प्रावधान को लेकर उच्चतम न्यायालय के कई फैसले आ गए हैं। संविधान सभा की बहस में भी इस पर इतना कुछ कहा गया है कि इसके लिए आधार तलाश करने की आवश्यकता नहीं। सामान्य तौर पर राष्ट्रपति शासन को अंतिम विकल्प माना गया है। समय के साथ कुछ परंपराएं भी सुदृढ़ हुए हैं। यदि चुनाव के बाद कोई सरकार बनने की तत्काल संभावना नहीं हो तो फिर कार्यकारी सरकार के लिए राष्ट्रपति शासन लगाना अपरिहार्य हो जाता है। महाराष्ट्र अभी कार्यवाहक मुख्यमंत्री के अधीन था जो नीतिगत निर्णय नहीं कर सकते थे। इसमें राज्यपाल की कोई जिम्मेवारी बनती है या नहीं? आप चाहे जितनी आलोचना कर दीजिए लेकिन राष्ट्रपति शासन लागू होने के अगले दो दिनों में सरकार बनने की बिल्कुल संभावना नहीं थी। राकांपा ने अपनी बैठक के बाद बयान दे दिया था कि उसने कांग्रेस के साथ चुनाव लड़ा है और उसके साथ ही कोई कदम बढ़ाएगा। कांग्रेस दो बैठकों के बावजूद किसी निष्कर्ष पर नहीं पहंुंची थी। उसने बयान जारी किया कि अभी और विचार-विमर्श की जरुरत है। शिवेसना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने पहली बार औपचारिक रुप से शरद पवार से होटल में भेंट की तथा सोनिया गांधी को फोन किया। इसका सीधा अर्थ है कि अभी तक शिवसेना की ओर से संजय राउत केवल 175 विधायकों के समर्थन का बयान दे रहे थे राकांपा, कांग्रेस एवं निर्दलीय विधायको का समर्थन पाने की दिशा में कोई कदम उठा ही नहीं था। इस स्थिति को कब तक बनाए रखा जा सकता था?

12 नवंबर को तो आरंभ में कांग्रेस एवं राकांपा में ही आरोप-प्रत्यारोप हो गया। कांग्रेस ने शरद पवार पर स्थिति स्पष्ट न करने का बयान दिया। कांग्रेस के तीन नेता जब राकांपा से बातचीत करने विशेष विमान से मुंबई आए तो लगा कि अब कोई बात बन जाएगी। लेकिन पत्रकार वार्ता में कांग्रेस की ओर से अहमद पटेल ने साफ कहा कि अभी सरकार को लेकर कोई निर्णय नहीं हुआ है। उन्होंने राज्यपाल की राष्ट्रपति शासन लागू करने से पहले कांग्रेस को नहीं बुलाने की तीखी आलोचना की। राकांपा कांग्रेस दोनों साथ चुनाव लड़े थे। इसमें राकांपा बड़ी पार्टी है। राज्यपाल ने उसे बुलाया और उसने बहुमत का कोई आश्वासन नहीं दिया। राज्यपाल बुला सकते थे लेकिन कांग्रेस से बात करने से परिवर्तन क्या आ जाता? कुछ नहीं। वैसे काग्रेस के पास क्षमता थी या वे सरकार बनाने के इच्छुक थे तो राज्यपाल से स्वयं भी मिलने जा सकते थे। अगर राज्यपाल समय नहीं देते तो उनको दोष दिया जा सकता था। वैसे भी कांग्रेस एवं राकांपा दोनों ने पहले दिन से घोषणा किया था कि उन्हें विपक्ष में बैठने का जनादेश मिला है। पत्रकार वार्ता में शरद पवार ने भी कहा कि अभी सरकार बनाने को लेकर कोई निर्णय नहीं हुआ। हमारी शर्तें क्या होंगी, किन मुद्दांे और कार्यक्रमों पर सरकार बनेगी, इन सब पर कोई बातचीत हुई नहीं है। जब अहमद पटेल से पूछा गया कि क्या आप शिवेसना के मुख्यमंत्री का समर्थन करेंगे उन्होंने कहा कि अभी मैंने ऐसा नहीं कहा है। तो आपने निर्णय किया नहीं। आपका कुछ तय ही नहीं है और दोष राज्यपाल को दे रह हैं? राज्यपाल ने आपको आपस में बात करने से नहीं रोका। उन्होंने गठबंधन करने से नहीं रोका। आपको एक निश्चित समय दिया गया। यह राज्यपाल के विवेक पर निर्भर है कि वह कितना समय देते हैं। यह भी आरोप लगाया गया है कि भाजपा को 48 घंटे का समय दिया गया और हमें 24 घंटे का जो भेदभाव है। वैसे भाजपा को शनिवार को कहा गया था और रविवार छुट्टी थी। उसने सोमवार को बता दिया कि शिवसेना साथ रहने को तैयार नहीं इसलिए हम सरकार नहीं बना रहे हैं। कोई भी निष्पक्ष व्यक्ति स्वीकार करेगा कि 24,48 या 72घंटे में किसी तरह का परिवर्तन नहीं होने वाला।

कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह कि राज्यपाल को चाहे आप खलनायक बना दें अगले कुछ दिनों तक सरकार बनने की संभावना नहीं है। यहां 1994 के बोम्मई मामला भी लागू नही होता कि बहुमत का फैसल विधानसभा में होना चाहिए। विधानसभा के गठन की स्थिति तो तभी बनेगी जब कोई पक्ष संख्याबल के साथ सरकार बनाने का दावा लेकर आए। सच यही है कि अगर महाराष्ट्र आज चुनाव मंे किसी गठबंधन को बहुमत देने के बावजूद बिना सरकार के है तो इसमें केवल राजनीतिक दलों का दोष है। सिद्धांतहीन और अवसरवादी राजनीति इसका मुख्य खलनायक है। शिवसेना ने जो रंग बदला उसे क्या कहेंगे? शरद पवार ने उसे जिस तरह प्रोत्साहित किया उसे क्या महाराष्ट्र के जनादेश का सम्मान कहा जाएगा? अब कांग्रेस जो कर रही है वह किस नैतिकता के दायरे में आता है? शरद पवार ने शिवेसना को राजग से अलग करवा दिया लेकिन कांग्रेस से बात तक नहीं की हमंें मिलकर सरकार बनाना है। वे कांग्रेस को तैयार कर सकते थे। आपने एक सरकार नहीं बनने दी तो विकल्प तैयार करते। आपने कुछ किया ही नहीं। भले शरद पवार इसे अपनी सफलता मानें यह बिल्कुल अनैतिक एवं गैर जिम्मेवार राजनीति है। मजे की बात यह भी कि रात साढ़े आठ बजे तक का समय था और उन्होंने कांग्रेस नेताओं से बातचीत करने के पहले 11.30 में ही पत्र लिख दिया। क्यों? इस प्रश्न का कोई समाधानपरक जवाब राकांपा के पास नहीं हो सकता। कांग्रेस की चिंता यह है कि एक कट्टर हिन्दूवादी पार्टी शिवसेना के साथ जाकर वह कहीं पाने से ज्यादा खो तो नहीं देगी। इस कारण वह उहापोह में है। राकांपा को ऐसी कोई समस्या नहीं। इसलिए राकांपा एवं कांग्रेस के बीच बात बनने में समय लग रहा है। किंतु किसी दृष्टि से राज्यपाल सरकार गठन में न पहले बाधा थे और न आगे होंगे।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

रविवार, 10 नवंबर 2019

इससे बेहतर फैसला हो ही नहीं सकता

 

अवधेश कुमार

30 सितंबर 2010 और 9 अक्टूबर 2019 के फैसले में मौलिक अंतर यही है कि तब इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने पंचायती कर दी थी। उस समय रामलला विराजमान एवं निर्मोही अखाड़ा को एक-एक हिस्सा तथा सुन्नी वक्फ बोर्ड को एक हिस्सा जमीन दे दिया था। इससे मामला सुलझने की बजाय उलझ गया। उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने बिल्कुल साफ फैसला दिया है। इस तरह के लंबे समय से लटके आस्था के प्रश्न पर तथ्यों के आधार पर ही सही दो टूक फैसला आना चाहिए। हालांकि संविधान पीठ ने उच्च न्यायालय पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि वह एक पारदर्शी फैसला था लेकिन उसने जमीन का विभाजन कर सही नहीं किया। न्यायालय ने केवल रामलला विराजमान को न्यायिक व्यक्तित्व माना एवं सुन्नी वक्फ बोर्ड को पार्टी स्वीकार किया। उच्चतम न्यायालय ने निर्मोही अखाड़ा के पूजा अर्चना यानी शेवियत के दावे को ही खारिज कर दिया। इसका मतलब हुआ कि कोई भी तथ्य इस बात का नहीं था कि निर्माेही अखाड़ा वाकई राम जन्मभूमि की देखभाल व पूजा अर्चना करता था। यह इस मायने में अच्छा हुआ कि आगे मंदिर निर्माण से लेकर पूजा-अर्चना के एकाधिकार को लेकर निर्मोही अखाड़ा लगातार समस्या पैदा कर सकता था। इसी तरह उच्चतम न्यायालय ने शिया वक्फ बोर्ड के दावे को भी खारिज किया। हालांकि न्यायालय ने सरकार से कहा है कि निर्माण का जो भी बोर्ड बने उसमें निर्मोही अखाड़ा को प्रतिनिधित्व दिया जाए। इस तरह यह फैसला केवल सुस्पष्ट ही नहीं भविष्य में होेने वाले किसी तरह के विवाद को रोकने का पूर्वापाय भी इसमें है।

उच्च्तम न्यायालय से इसी तरह के ऐतिहासिक फैसले की उम्मीद थी। हालांकि अब फैसला आ गया है तो हिन्दू समाज को इसे युद्ध में विजय की तरह लेने की आवश्यकता नहीं है। न ही ऐसा व्यवहार किया जाना चाहिए जिससे दूसरे पक्ष को महसूस हो कि हमें पराजित कर दिया गया है। उच्चतम न्यायालय ने इसी भाव को दूर करने का ध्यान रखते हुए मस्जिद के लिए पांच एकड़ वैकल्पिक जमीन देेने का आदेश दिया है। हालांकि हिन्दू पक्ष की ओर से यह प्रस्ताव कई बार दिया जा चुका था कि विवादित जगह पर मंदिर बनने दिया जाए तथा मुस्लिम समाज कहीं अलग मस्जिद बनाए जिसमें हम भी मदद करेंगे। सुन्नी वक्फ बोर्ड, बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी तथा मुस्लिम पर्सनल लौ बोर्ड इसे मानने के लिए कभी तैयार नहीं हुए। देश के विवेकशील लोगों का मानना रहा है कि अयोध्या विवाद का समाधान दोनों पक्षों के बीच समझौते से हो जाए। इसकी कोशिशें भी हुईं लेकिन सफल नहीं रहीं। अब फैसला आ जाने के बाद अतीत को कुरेदना शायद उचित नही होगा लेकिन उच्चतम न्यायालय ने ऐसी बातें कहीं हैं जिनसे दूसरे पक्ष को अभी तक के अपने रुख पर पुनर्विचार करने आवश्यकता महसूस होनी चाहिए।

फैसले के कुछ विन्दुओं पर ध्यान देना जरुरी है। एक, साफ कहा गया है कि मीर बाकी ने मंस्जिद बनाई थी। दो, 15 वीं 16वीं सदी के पूर्व वहां मस्जिद के कोई प्रमाण नहीं है। तीन, अयोध्या में विवादित स्थल के नीचे बनी संरचना इस्लामिक नहीं थी।चार, पुरातात्विक साक्ष्यों को सिर्फ एक राय बताना भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के प्रति बहुत ही अन्याय होगा। उसकी खुदाई से निकले सबूतों की अनदेखी नहीं कर सकते हैं। पांच, बाबरी मस्जिद खाली जमीन पर नहीं बनी थी। मस्जिद के नीचे विशाल रचना थी। छः, जो कलाकृतियां मिली थीं, वह इस्लामिक नहीं थीं। विवादित ढांचे में पुरानी संरचना की चीजें इस्तेमाल की गईं। सात, हिन्दू विवादित भूमि को भगवान राम का जन्म स्थान मानते हैं और मुस्लिम भी इस स्थान के बारे में यही कहते हैं। हिन्दुओं की यह आस्था अविवादित है कि भगवान राम का जन्म स्थल ध्वस्त संरचना है। सीता रसोई, राम चबूतरा और भंडार गृह की उपस्थिति इस स्थान के धार्मिक होने के तथ्यों की गवाही देती है। आठ, 1856-57 तक विवादित स्थल पर नमाज पढ़ने के सबूत नहीं है। मुस्लिम पक्ष ने कहा था कि वहां लगातार नमाज अदा की जा रही थी। न्यायालय ने कहा कि 1856 से पहले अंदरूनी हिस्से में हिंदू भी पूजा करते थे। रोकने पर बाहर चबूतरे पर पूजा करने लगे। अंग्रेजों ने दोनों हिस्से अलग रखने के लिए रेलिंग बनाई थी। फिर भी हिंदू मुख्य गुंबद के नीचे ही गर्भगृह मानते थे। नौ, मुस्लिमों ने इस बात के सबूत पेश नहीं किए कि 1857 से पहले स्थल पर उनका ऐक्सक्लुसिव कब्जा था। न्यायालय ने यह भी कह दिया है कि गवाहों के क्रॉस एग्जामिनेशन से हिंदू दावा गलत साबित नहीं हुआ। हिंदू मुख्य गुंबद को ही राम जन्म का सही स्थान मनाते हैं। हिंदू परिक्रमा भी किया करते थे। चबूतरा, सीता रसोई, भंडारे से भी दावे की पुष्टि होती है।

मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ के सभी सदस्य न्यायमूर्ति एस ए बोबडे, न्यायमूर्ति धनन्जय वाई चन्द्रचूड़,न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति एस अब्दुल नजीर ने अगर सर्वसम्मति से ये सारी बातें कहीं तो इसके मायने साफ हैं। यानी हिन्दू समाज जो दावा करता था वह सही था। विवादित स्थान रामजन्मभूमि मंदिर ही था। अगर 1528 ईसवी में उसे तोड़कर मस्जिद बनाई गई तो इसका मतलब है कि यह लड़ाई 491 वर्ष की है। समय-समय पर इसको वापस लेने के प्रयास हुए, लोगों ने बलिदान दिया यह भी सच है। 1855 के बाद कानूनी लड़ाई संघन हुई। इसे जमीनी मिल्कियत का चरित्र 1961 में सुन्नी वक्फ बोर्ड की अपील से मिला। इस फैसले के मायने यही हैं कि एक पक्ष की अनैतिक जिद से मामला इतना लंबा खींचा। अगर वे जिद नहीं करते तो सांप्रदायिकता की खाई इतनी चौड़ी नहीं होती। यह बात ठीक है कि 1949 में मूर्ति रखी गई। यह तो अदना व्यक्ति भी समझ सकता है कि मूर्ति अपने-आप प्रकट नहीं हुई होगी। किंतु यह रामजन्मभूमि मंदिर की लड़ाई की रणनीति का ही एक अंग था। इससे केवल यह पता चलता है कि कि इस संघर्ष में अनेक तरह की रणनीतियां अपनाईं गई। हिन्दू अपने उपासना स्थल को साबित करने के लिए ऐसी कई कोशिशें करते रहे। 

ये सब बातें बहस के दौरान सामने आईं। वास्तव में अयोध्या विवाद पर जिस तरह की गंभीर बहस उच्चतम न्यायालय में हुई वह अपने-आपने में एक नजीर है। कोई पक्ष नहीं कह सकता कि उसे अपनी बात रखने या दूसरे से जिरह करने का पर्याप्त अवसर नहीं मिला। जैसे-जैसे ऐतिहासिक, पुरातात्विक, धार्मिक, विदेशी यात्रियों के विवरणों को प्रस्तुत किया गया उससे पता चलता था कि कानूनी संघर्ष की पूरी तैयारी की गई थी। इससे न्यायालय को भी सच तक पहुंचने में आसानी हुई। यह अच्छी बात है कि न्यायालय के फैसले के बाद देश में शांति-व्यवस्था पर कहीं कोई चोट नहीं पहुंची है। उत्तर प्रदेश सरकार के साथ केन्द्र की एडवायजरी पर अन्य राज्यों ने भी सुरक्षा के पूर्वापाय किए थे। इसका असर साफ दिखा है। वास्तव में ऐसे संवेदनशील मसले सरकारी स्तर से सुरक्षा सख्ती तथा जनता के द्वारा संयम और संतुलन ही देश की एकता-अखंडता को कायम रख सकता है। उच्चतम न्यायालय ने साबित किया है कि हमारी न्यायापालिका संविधान और कानून की गरिमा को बनाए रखने के प्रति सचेष्ट है ही समाजिक-सांप्रदायिक एकता के संदर्भ में भी सतर्क है। पूरे फैसले में एक भी टिप्पणी आपको नहीं मिलेगी जो किसी पक्ष को कष्ट पहुचाने वाला है। मुस्लिमों को बिना मांगे मस्जिद के लिए जगह देने का आदेश सांप्रदायिक संद्भावना कायम रखने का कदम ही तो है। इससे भारतीय न्यायपालिका की क्षमता का संदेश पूरी दुनिया में गया है। सच कहें तो इस फैसले ने ही ऐसा आधार दिया है जिससे राजनेता सबसे संयम बरतने की अपील कर रहे हैं और उसका पालन भी हो रहा है। अगर फैसला कुछ और होता तो ऐसी अपीलें भले होतीं उनका ज्यादा असर नहीं होता। आज प्रधानमंत्री अगर लोगों से देशभक्ति की बात कर रहे हैं तो इस फैसले के आधार पर ही। इस समय एकमात्र भूमिका हर भारतीय की ऐसी ही होनी चाहिए। ठीक है जिन लोगों ने या जिनके पूर्वजों ने संघर्ष किया उनके अंदर विजय का भाव हो सकता है। लेकिन यह किसी युद्ध में विजय नहीं है कि विजयोत्सव मनाया जाए। कोई भी ऐसा कदम नहीं उठना चाहिए जिससे सांप्रदायिक सद्भाव को चोट पहुुचे तथा देश की एकता-अखंडता पर जोखिम पैदा हो। यह दुर्भाग्य है कि बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के संयोजक जफरयाब जिलानी पुनर्विचार याचिका दायर करने का बयान दे रहे हैं। कानून के तहत यह उनका अधिकार है, लेकिन इस मसले पर अब पूर्ण विराम लगा दिया जाता तो बेहतर होता। असदुद्दीन ओवैसी ने जिस तरह की विरोधी टिप्पणियां कीं वह सबसे ज्यादा आपत्तिजनक है। पहले वे उच्चतम न्यायालय का फैसला मानने के लिए जोर-जोर से आवाज लगाते थे। अब कह रहे हैं कि उच्चतम न्यायालय ऐसा नहीं है जिससे गलतियां न हों।

 

 

 

 

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