शुक्रवार, 22 नवंबर 2013

अन्ना बनाम अरविन्द परिदृश्य अनुचित

अवधेश कुमार
आम आदमी पार्टी के खिलाफ हुए स्टिंग ऑपरेशन पर अभी कोई टिप्पणी जल्दबाजी होगी, लेकिन जिस तरह चंदे का मामला अन्ना हजारे द्वारा उठाया गया वह काफी महत्वपूर्ण है। यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि पूरा परिदृश्य अरविंद केजरीवाल बनाम अन्ना हजारे का बना हुआ है और विरोधी इसे हवा दे रहे हैं। यह पहली बार नहीं है कि जब आप पार्टी के संयोजक के नाते अरविन्द और उनके साथियों के खिलाफ नारेबाजी या अन्ना को आधार बनाकर उन्हें लांछित करने की कोशिश हुई है। एक युवक ने पत्रकार वार्ता में अरविन्द पर काली स्याही भी फेंकी। पता नहीं उस युवक का उद्देश्य क्या था, लेकिन ऐसी अशोाभनीय घटनाएं केवल और केवल निंदा किए जाने के ही लायक हैं। अन्ना कह रहे हैं कि वे उस युवक को नहीं जानते और युवक अन्ना का नाम ले रहा है। इसे भी स्वीकार करने में समस्या नहीं है कि अन्ना ऐसा नहीं करवा सकते। हालांकि अरविन्द के इस आरोप से भी सहमत नहीं हुआ जा सकता कि स्वयं को भाजपा का कार्यकर्ता बताने वाले उस युवक को भाजपा के नेताओं ने ऐसा करने के लिए भेजा होगा, पर इसके पीछे कुछ न कुछ तो था। आखिर कुछ ही दिनों पहले अन्ना हजारे ने अरविन्द केजरीवाल को कुछ प्रश्न उठाते हुए पत्र लिखा, जिसका जवाब देने के लिए पत्रकार वार्ता आयोजित की गई थी। महाराष्ट्र के अहमदनगर के उस युवक को सब कुछ पता था तो जाहिर है, वह निकट से सारी गतिविधियों पर नजर रख रहा था।
साफ है कि अगर अन्ना हजारे का पत्र न आया होता तो यह घटना न घटती और न ऐन चुनाव के बीच इस तरह अन्ना बनाम केजरीवाल का परिदृश्य बनता। किसी को भले यह सामान्य घटना लग रही हो, पर यह अत्यंत ही गंभीर प्रसंग है। हम आप पार्टी के विचारों से सहमत हों या असहमत, लेकिन कुछ महीने पहले गठित एक पार्टी, जो एक अभियान के क्रम से उत्पन्न हुई, जोे राजनीति में नए मापदंड स्थापित करने का वायदा करते हुए पहली बार चुनाव में उतरी है, उसके सामने इस तरह का पत्र आने का क्या अर्थ हो सकता है? अन्ना हजारे के निजी चरित्र पर संदेह करने का कोई कारण नहीं है, पर इसी समय आंदोलन के चंदे की बात उठाना, हिंसाब मांगना, अपने नाम के इस्तेमाल करने का आरोप लगाना... आदि बातें उनके दिमाग में कैसे आई होगी?  रालेगण सिद्धि में अन्ना ने पत्रकारों से बातचीत करते हुए जो कुछ कहा उस पर ध्यान दीजिए- ‘ मुझे दो बातों पर ऐतराज है। सिम कार्ड से मेरा कोई ताल्लुक नहीं फिर भी मुझे आरोपी बनाया गया। दूसरी बात, अरविंद 29 दिसंबर को लोकपाल लाने की बात करते हैं वे लोकपाल को दिल्ली में कैसे लागू कर सकते हैं। ...मुझे संदेह है कि मेरे नाम का दुरुपयोग हो रहा है। मेरे नाम का इस्तेमाल करना ठीक नहीं। ....मैंने अरविंद पर भरोसा किया। अरविंद ने अपना दफ्तर चलाने के लिए 20 लोगों को रखा था। इन्हें 30-35 हजार रुपये महीना दिया जाता था। यह जनता के पैसे का दुरुपयोग है। हालांकि मैंने उनसे इस बारे में कुछ नहीं कहा। लेकिन जनता के पैसे से ज्यादा खर्च करना ठीक नहीं है।’
अरविन्द केजरीवाल और उनके साथी कह रहे हैं कि जो सिम बनवाया गया था, वह अन्ना के अलग होते ही रोक दिया गया। उनका यह भी कहना है कि आंदोलन के लिए जो चंदा आया था वह पहले ही खर्च हो गया। उसमें से कुछ बचा ही नहीं है और अन्ना कभी भी हिंसाब ले सकते हैं। तो फिर समस्या क्या है कि इस तरह पत्र लिखे जा रहे हैं और उनको सार्वजनिक भी किया जा रहा है? अन्ना कह रहे हैं कि अरविंद अगर मुझसे बात करना चाहते हैं तो मैं तैयार हूं। अरविंद से मेरी कोई दुश्मनी नहीं है। मुझे अरविंद के चरित्र पर भी कोई संदेह नहीं है। केजरीवाल कह रहे हैं कि अन्ना के करीबी उन्हें उनसे नहीं मिलते देते। इससे इतना तो पता चलता है कि दोनों एक दूसरे पर संदेह नहीं कर रहे, लेकिन इनके बीच संवाद नहीं है और ऐसे में दूरियां बढ़ना स्वाभाविक है। अन्ना कह रहे हैं कि उनके नाम का इस्तेमाल न हो। उस अभियान को अन्ना आंदोलन का नाम मिला और ये सारे उसके स्तंभ थे। व्यक्ति के रुप में अन्ना हजारे का नाम लेना एक बात है और अन्ना आंदोलन कहना अलग। अन्ना को भी यह समझना चाहिए। हालांकि अन्ना का नाम लेने से आप को बहुत ज्यादा जन समर्थन मिल जाएगा ऐसा है नहीं, पर उनके निकट पहुंचे लोग उनके मन में यह गलतफहमी पैदा करते रहते हैं। दिल्ली विधानसभा चुनाव में इससे कांग्रेस और भाजपा को मुंहमांगा मुद्दा मिल गया है। इसका असर चुनाव पर पड़ना निश्चित है। आम आदमी पार्टी की चुनाव में जमीनी हकीकत उतनी अच्छी नहीं है जितनी कुछ सर्वेक्षणों में दिखाईं गईं, पर जो भी है उस पर ऐसे विवादों का असर तो पड़ना ही है। विरोधियों के लिए यह सवाल उठाना लाजिमी है कि अन्ना को लेकर आगे बढ़ने वाले लोगों ने अगर उन्हें ही धोखा दिया तो वे हमको आपको कैसे धोखा नहीं देंगे।
वास्तव में यह सामान्य त्रासदी का विषय नहीं है कि जिस अन्ना अनशन अभियान को हाल के दिनों में सबसे ज्यादा प्रचार मिला, जिससे  जनता के एक वर्ग में ही सही यह उम्मीद पैदा हुई कि अब कुछ बेहतर बदलाव हो सकता है, भ्रष्टाचार से निजात का रास्ता इससे निकलने की अपेक्षाएं भी उत्पन्न हुंई, आज उसे टीम के दोनों हीरो ही एक दूसरे के आमने-सामने दिख रहे हैं। हम यदि तटस्थ होकर विचार करेंगे तो यह भले दुखद हो, पर अस्वाभाविक स्थिति नहीं है। वस्तुतः अन्ना के अनशन अभियान को लेकर स्वयं अन्ना हजारे और अरविन्द केजरीवाल, मनीष सिसोदिया... आदि हमेशा गलतफहमी में रहे। मीडिया के अभूतपूर्व समर्थन से जो माहौल बना उन सबने इसे अपना स्थायी और व्यापक जन समर्थन मान लिया। यह सच नहीं था। उसमें गैर कांग्रेसी दलांे व संगठनों की व्यापक भागीदारी थी। सच यह भी है कि अन्ना हजारे तब तक एक क्षेत्र विशेष के सामाजिक कार्यकर्ता और संघर्षशील व्यक्तित्व के रुप मंे सीमित थे। अरविन्द एवं उनके साथियों के प्रबंध कौशल ने ही उन्हें राष्ट्रीय व्यक्तित्व में परिणत किया। यह भारत देश है। यहां ऐसे साथ को तोड़ने की कोशिशें होतीं रहतीं हैं। पहले स्वामी रामदेव से अरविन्द, उनके साथी एवं अन्ना हजारे को अलग करने की कोशिशें सफल हुईं और उसके बाद फिर इनको....।
हालांकि जिन लोगों ने अन्ना अभियान से लेकर आप के गठन तक के घटनाक्रम पर ध्यान रखा है वे बता सकते हैं कि जब 29 जुलाई,2012 को अरविन्द एवं मनीष को अनशन तोड़ने के लिए मनाया गया और उसमें राजनीतिक दल बनाने पर सहमति बनी तो अन्ना ने जंतर मंतर पर भाषण देते हुए कहा कि वे भी इससे सहमत हैं। यह बात अलग है कि बाद में उन्होंने राजनीतिक दल बनाने से असहमति प्रकट कर दी। क्यों? इसका कारण अन्ना ने आज तक स्पष्ट नहीं किया है। दोनों ओर गलतफहमियां तो थी हीं। अन्ना हजारे मानने लगे थे कि उनका व्यक्तित्व जयप्रकाश नारायण और गांधी जी की तरह विराट हो चुका है तो अरविन्द और उनके साथी यह सोचते थे कि सब कुछ तो किया हमने और उनका चेहरा आगे रखा। यानी यदि हम न करते तो अन्ना को कौन राष्ट्रीय क्षितीज पर लाता। यह भी सच है कि अरविन्द एवं मनीष दोनों ने स्वयं दो बार लंबा अनशन करके दिखाया कि ऐसा केवल अन्ना नहीं कर सकते, उनमंे भी इसकी क्षमता और अंतर्संकल्प है। सच कहें तो ऐसा करके उनने अन्ना से अलग अपना वजूद स्थापित करने की कोशिश की। दोनों प्रकार की सोच गलत थी। लेकिन तब तक ऐसे लोग इनके बीच में आ चुके थे जो पहले नहीं थे। आज दोनों को समझना चाहिए कि उनके इरादे में दोष नहीं था, वे देश की भलाई चाहते थे और हैं, पर जितना समर्थन उनको था वह भ्रष्टाचार के विरुद्ध था, न उसमें जन लोकपाल का समर्थन था और न इनके व्यक्तित्व को। अन्ना भी जहां जा रहे हैंं वहां पहले की तरह भीड़ नहीं जुटती और आम आदमी पार्टी को भी एक-एक व्यक्ति को जोड़ने के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ रही है। साफ है कि अगर अरविन्द एवं उनके साथी तुरत पार्टी गठन के सुझाव को स्वीकार करने की जगह पहले अभियान को देशव्यापी करते हुए संगठन बनाते और दलीय राजनीति में बाद में आते तो उनकी स्थिति बेहतर होती।
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

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