रविवार, 10 नवंबर 2019

इससे बेहतर फैसला हो ही नहीं सकता

 

अवधेश कुमार

30 सितंबर 2010 और 9 अक्टूबर 2019 के फैसले में मौलिक अंतर यही है कि तब इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने पंचायती कर दी थी। उस समय रामलला विराजमान एवं निर्मोही अखाड़ा को एक-एक हिस्सा तथा सुन्नी वक्फ बोर्ड को एक हिस्सा जमीन दे दिया था। इससे मामला सुलझने की बजाय उलझ गया। उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने बिल्कुल साफ फैसला दिया है। इस तरह के लंबे समय से लटके आस्था के प्रश्न पर तथ्यों के आधार पर ही सही दो टूक फैसला आना चाहिए। हालांकि संविधान पीठ ने उच्च न्यायालय पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि वह एक पारदर्शी फैसला था लेकिन उसने जमीन का विभाजन कर सही नहीं किया। न्यायालय ने केवल रामलला विराजमान को न्यायिक व्यक्तित्व माना एवं सुन्नी वक्फ बोर्ड को पार्टी स्वीकार किया। उच्चतम न्यायालय ने निर्मोही अखाड़ा के पूजा अर्चना यानी शेवियत के दावे को ही खारिज कर दिया। इसका मतलब हुआ कि कोई भी तथ्य इस बात का नहीं था कि निर्माेही अखाड़ा वाकई राम जन्मभूमि की देखभाल व पूजा अर्चना करता था। यह इस मायने में अच्छा हुआ कि आगे मंदिर निर्माण से लेकर पूजा-अर्चना के एकाधिकार को लेकर निर्मोही अखाड़ा लगातार समस्या पैदा कर सकता था। इसी तरह उच्चतम न्यायालय ने शिया वक्फ बोर्ड के दावे को भी खारिज किया। हालांकि न्यायालय ने सरकार से कहा है कि निर्माण का जो भी बोर्ड बने उसमें निर्मोही अखाड़ा को प्रतिनिधित्व दिया जाए। इस तरह यह फैसला केवल सुस्पष्ट ही नहीं भविष्य में होेने वाले किसी तरह के विवाद को रोकने का पूर्वापाय भी इसमें है।

उच्च्तम न्यायालय से इसी तरह के ऐतिहासिक फैसले की उम्मीद थी। हालांकि अब फैसला आ गया है तो हिन्दू समाज को इसे युद्ध में विजय की तरह लेने की आवश्यकता नहीं है। न ही ऐसा व्यवहार किया जाना चाहिए जिससे दूसरे पक्ष को महसूस हो कि हमें पराजित कर दिया गया है। उच्चतम न्यायालय ने इसी भाव को दूर करने का ध्यान रखते हुए मस्जिद के लिए पांच एकड़ वैकल्पिक जमीन देेने का आदेश दिया है। हालांकि हिन्दू पक्ष की ओर से यह प्रस्ताव कई बार दिया जा चुका था कि विवादित जगह पर मंदिर बनने दिया जाए तथा मुस्लिम समाज कहीं अलग मस्जिद बनाए जिसमें हम भी मदद करेंगे। सुन्नी वक्फ बोर्ड, बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी तथा मुस्लिम पर्सनल लौ बोर्ड इसे मानने के लिए कभी तैयार नहीं हुए। देश के विवेकशील लोगों का मानना रहा है कि अयोध्या विवाद का समाधान दोनों पक्षों के बीच समझौते से हो जाए। इसकी कोशिशें भी हुईं लेकिन सफल नहीं रहीं। अब फैसला आ जाने के बाद अतीत को कुरेदना शायद उचित नही होगा लेकिन उच्चतम न्यायालय ने ऐसी बातें कहीं हैं जिनसे दूसरे पक्ष को अभी तक के अपने रुख पर पुनर्विचार करने आवश्यकता महसूस होनी चाहिए।

फैसले के कुछ विन्दुओं पर ध्यान देना जरुरी है। एक, साफ कहा गया है कि मीर बाकी ने मंस्जिद बनाई थी। दो, 15 वीं 16वीं सदी के पूर्व वहां मस्जिद के कोई प्रमाण नहीं है। तीन, अयोध्या में विवादित स्थल के नीचे बनी संरचना इस्लामिक नहीं थी।चार, पुरातात्विक साक्ष्यों को सिर्फ एक राय बताना भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के प्रति बहुत ही अन्याय होगा। उसकी खुदाई से निकले सबूतों की अनदेखी नहीं कर सकते हैं। पांच, बाबरी मस्जिद खाली जमीन पर नहीं बनी थी। मस्जिद के नीचे विशाल रचना थी। छः, जो कलाकृतियां मिली थीं, वह इस्लामिक नहीं थीं। विवादित ढांचे में पुरानी संरचना की चीजें इस्तेमाल की गईं। सात, हिन्दू विवादित भूमि को भगवान राम का जन्म स्थान मानते हैं और मुस्लिम भी इस स्थान के बारे में यही कहते हैं। हिन्दुओं की यह आस्था अविवादित है कि भगवान राम का जन्म स्थल ध्वस्त संरचना है। सीता रसोई, राम चबूतरा और भंडार गृह की उपस्थिति इस स्थान के धार्मिक होने के तथ्यों की गवाही देती है। आठ, 1856-57 तक विवादित स्थल पर नमाज पढ़ने के सबूत नहीं है। मुस्लिम पक्ष ने कहा था कि वहां लगातार नमाज अदा की जा रही थी। न्यायालय ने कहा कि 1856 से पहले अंदरूनी हिस्से में हिंदू भी पूजा करते थे। रोकने पर बाहर चबूतरे पर पूजा करने लगे। अंग्रेजों ने दोनों हिस्से अलग रखने के लिए रेलिंग बनाई थी। फिर भी हिंदू मुख्य गुंबद के नीचे ही गर्भगृह मानते थे। नौ, मुस्लिमों ने इस बात के सबूत पेश नहीं किए कि 1857 से पहले स्थल पर उनका ऐक्सक्लुसिव कब्जा था। न्यायालय ने यह भी कह दिया है कि गवाहों के क्रॉस एग्जामिनेशन से हिंदू दावा गलत साबित नहीं हुआ। हिंदू मुख्य गुंबद को ही राम जन्म का सही स्थान मनाते हैं। हिंदू परिक्रमा भी किया करते थे। चबूतरा, सीता रसोई, भंडारे से भी दावे की पुष्टि होती है।

मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ के सभी सदस्य न्यायमूर्ति एस ए बोबडे, न्यायमूर्ति धनन्जय वाई चन्द्रचूड़,न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति एस अब्दुल नजीर ने अगर सर्वसम्मति से ये सारी बातें कहीं तो इसके मायने साफ हैं। यानी हिन्दू समाज जो दावा करता था वह सही था। विवादित स्थान रामजन्मभूमि मंदिर ही था। अगर 1528 ईसवी में उसे तोड़कर मस्जिद बनाई गई तो इसका मतलब है कि यह लड़ाई 491 वर्ष की है। समय-समय पर इसको वापस लेने के प्रयास हुए, लोगों ने बलिदान दिया यह भी सच है। 1855 के बाद कानूनी लड़ाई संघन हुई। इसे जमीनी मिल्कियत का चरित्र 1961 में सुन्नी वक्फ बोर्ड की अपील से मिला। इस फैसले के मायने यही हैं कि एक पक्ष की अनैतिक जिद से मामला इतना लंबा खींचा। अगर वे जिद नहीं करते तो सांप्रदायिकता की खाई इतनी चौड़ी नहीं होती। यह बात ठीक है कि 1949 में मूर्ति रखी गई। यह तो अदना व्यक्ति भी समझ सकता है कि मूर्ति अपने-आप प्रकट नहीं हुई होगी। किंतु यह रामजन्मभूमि मंदिर की लड़ाई की रणनीति का ही एक अंग था। इससे केवल यह पता चलता है कि कि इस संघर्ष में अनेक तरह की रणनीतियां अपनाईं गई। हिन्दू अपने उपासना स्थल को साबित करने के लिए ऐसी कई कोशिशें करते रहे। 

ये सब बातें बहस के दौरान सामने आईं। वास्तव में अयोध्या विवाद पर जिस तरह की गंभीर बहस उच्चतम न्यायालय में हुई वह अपने-आपने में एक नजीर है। कोई पक्ष नहीं कह सकता कि उसे अपनी बात रखने या दूसरे से जिरह करने का पर्याप्त अवसर नहीं मिला। जैसे-जैसे ऐतिहासिक, पुरातात्विक, धार्मिक, विदेशी यात्रियों के विवरणों को प्रस्तुत किया गया उससे पता चलता था कि कानूनी संघर्ष की पूरी तैयारी की गई थी। इससे न्यायालय को भी सच तक पहुंचने में आसानी हुई। यह अच्छी बात है कि न्यायालय के फैसले के बाद देश में शांति-व्यवस्था पर कहीं कोई चोट नहीं पहुंची है। उत्तर प्रदेश सरकार के साथ केन्द्र की एडवायजरी पर अन्य राज्यों ने भी सुरक्षा के पूर्वापाय किए थे। इसका असर साफ दिखा है। वास्तव में ऐसे संवेदनशील मसले सरकारी स्तर से सुरक्षा सख्ती तथा जनता के द्वारा संयम और संतुलन ही देश की एकता-अखंडता को कायम रख सकता है। उच्चतम न्यायालय ने साबित किया है कि हमारी न्यायापालिका संविधान और कानून की गरिमा को बनाए रखने के प्रति सचेष्ट है ही समाजिक-सांप्रदायिक एकता के संदर्भ में भी सतर्क है। पूरे फैसले में एक भी टिप्पणी आपको नहीं मिलेगी जो किसी पक्ष को कष्ट पहुचाने वाला है। मुस्लिमों को बिना मांगे मस्जिद के लिए जगह देने का आदेश सांप्रदायिक संद्भावना कायम रखने का कदम ही तो है। इससे भारतीय न्यायपालिका की क्षमता का संदेश पूरी दुनिया में गया है। सच कहें तो इस फैसले ने ही ऐसा आधार दिया है जिससे राजनेता सबसे संयम बरतने की अपील कर रहे हैं और उसका पालन भी हो रहा है। अगर फैसला कुछ और होता तो ऐसी अपीलें भले होतीं उनका ज्यादा असर नहीं होता। आज प्रधानमंत्री अगर लोगों से देशभक्ति की बात कर रहे हैं तो इस फैसले के आधार पर ही। इस समय एकमात्र भूमिका हर भारतीय की ऐसी ही होनी चाहिए। ठीक है जिन लोगों ने या जिनके पूर्वजों ने संघर्ष किया उनके अंदर विजय का भाव हो सकता है। लेकिन यह किसी युद्ध में विजय नहीं है कि विजयोत्सव मनाया जाए। कोई भी ऐसा कदम नहीं उठना चाहिए जिससे सांप्रदायिक सद्भाव को चोट पहुुचे तथा देश की एकता-अखंडता पर जोखिम पैदा हो। यह दुर्भाग्य है कि बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के संयोजक जफरयाब जिलानी पुनर्विचार याचिका दायर करने का बयान दे रहे हैं। कानून के तहत यह उनका अधिकार है, लेकिन इस मसले पर अब पूर्ण विराम लगा दिया जाता तो बेहतर होता। असदुद्दीन ओवैसी ने जिस तरह की विरोधी टिप्पणियां कीं वह सबसे ज्यादा आपत्तिजनक है। पहले वे उच्चतम न्यायालय का फैसला मानने के लिए जोर-जोर से आवाज लगाते थे। अब कह रहे हैं कि उच्चतम न्यायालय ऐसा नहीं है जिससे गलतियां न हों।

 

 

 

 

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