अवधेश कुमार
विधानसभा चुनाव संपन्न हो गया, लेकिन शिवसेना के मुखपत्र सामना में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए लेखन में जिस तरह की भाषा का प्रयोग किया है वह राजनीति एवं पत्रकारिता दोनों की दुनिया में किसी भी दृष्टि से स्वीकार्य नहीं किया सकता। इसमें लिखा गया है कि शिवसेना न होती तो मोदी के बाप दामोदर दास मोदी भी भाजपा को बहुमत नहीं दिलवा पाते। वैसे तो इसमें और भी कई बातें आपत्तिजनक हैं , पर यह तो ऐसी पंक्ति है जिसकी हम दुःस्वप्नांे में भी कल्पना नहीं कर सकते थे। क्या अब आपसी मतभेद में राजनीतिक नेतागण एक दूसरे के मां, बाप का नाम लेकर हमला करेंगे? क्या पत्रकारिता में इस तरह की भाषा का प्रयोग करना कहीं से भी वांछनीय है? वास्तव में भारतीय राजनीति और पत्रकारिता के इतिहास की संभवतः यह पहला ही वाकया होगा जब प्रधानमंत्री ही नहीं किसी नेता के लिए लेखन में इस तरह की घिनौनी भाषा का प्रयोग किया गया है। कहा जा सकता है कि सामना ऐसी शब्दावलियों व भाषा के प्रयोग के लिए पहले से कुख्यात है। हां, है तब भी इसका संज्ञान लेकर निंदा तो करनी ही होगी, अन्यथा इससे शर्मनाक प्रवृत्ति को स्वीकृत करने का संदेश निकलेगा।
वैसे सामना ने भी पहले प्रधानमंत्री के लिए ऐसे शब्द प्रयोग किए हैं, इसके उदाहरण शायद ही हो। कभी मोदी को पितृपक्ष को कौआ कहा गया तो कभी अफजल खां जिसने शिवाजी को छल से मारने की कोशिश की गई। मजे की बात देखिए कि इसके संपादक अपने स्वभाव के अनुरुप कहते रहे कि इसमें गलत क्या है, जो कुछ हमने लिखा सही लिखा। यह हठधर्मिता के सिवा कुछ नहीं है। संसदीय लोकतंत्र में राजनीतिक पार्टियां प्रतिस्पर्धी होतीं हैं, एक दूसरे की आलोचना कर सकतीं हैं, लेकिन शब्दों की मर्यादा वहां हर हाल में कायम रहनी चाहिए। यहां तक कि पार्टी के मुखपत्रों में भी सामान्यतः इसका ध्यान रखा जाता है। कांग्रेस की केन्द्रीय स्तर की पत्रिका है, प्रदेशों के स्तर पर है, भाजपा का है, कम्युनिस्ट पार्टियों की है.........सबमें विरोधी पार्टियों की आलोचना होती है, पर इस तरह बाप को उकेड़ने का काम किसी ने नहीं किया। जाहिर है, शिवसेना के संपादक प्रेम शुक्ला ने शब्दों की मर्यादा अत्यंत ही असभ्य तरीके से तोड़ी है। फिर इसके दूसरे पक्ष भी हैं। एक महीना पहले तक तो दोनों पार्टियां 25 वर्षों की पुरानी साथी रहीं हैं। इसी सामना में नरेन्द्र मोदी की प्रशंसा में न जाने कितने लेख लिखे गए थे। आज उसकी ऐसी भाषा आखिर किन बातों के द्योतक हैं?
हालांकि उन्होंने ऐसा न लिखा होता तो चुनाव के एक दिन पूर्व इस तरह शिवसेना और वे चर्चा में नहीं आते। हमारे यहां आप जितनी नकारात्मक टिप्पणियां और कार्य करते हैं, सुर्खियां उतनी ही पाते हैं। यह एक चिंताजनक प्रवृति है जिसक लाभ इस समय शिवेसना ने उठाया है। कहा जा रहा है कि मोदी की सभाओं में भीड़ और लोगों के आकर्षण से शिवसेना को पराजय की आशंका सता रही है और उसी हताशा भाव में उसकी ओर से ऐसे शब्द प्रयोग किए गए हैं। लेकिन यह प्रश्न यहां गौण है। पार्टी की हार या जीत की संभावना हर चुनाव में रहती है। जीत हार भी होती है, पर क्या उसमें इस तरह नंगा होकर हम भाषा का प्रयोग करेंगे? इसके बाद क्या होगा? क्या हम आमने सामने सभाओं में गाली गलौज करेंगे? सामना के संपादक प्रेम शुक्ला पार्टी के नेता के साथ पत्रकार भी हैं, एक पढ़े लिखे व्यक्ति हैं, समझ भी है, अगर आलोचना करनी ही थी तो दूसरे शब्दों का प्रयोग किया जा सकता है। यह मुहल्ले के दो लोगों के बीच गाली गलौज हो गया जिसके लिए राजनीति या सार्वजनिक जीवन में जगह होनी ही नहीं चाहिए। इससे अपमानजनक संबोधन किसी के लिए क्या हो सकता है।
भाजपा ने गठबंधन टूटने के बाद भी कहा कि वह चुनाव अलग लड़़ेगी लेकिन शिवसेना की आलोचना नहीं करेगी। हम भाजपा के समर्थक हों या विरोधी यह मानना होगा कि इसका पालन भाजपा के नेताओं ने किया। हालांकि अनिल देसाई जैसे शिवसेना के नेता इस भाषा से असहमति प्रकट कर रहे हैं, पर पार्टी ने मूलतः इस पर खामोशी ही बरती है। तथ्यों पर जाने वाले यह कह सकते हैं कि भाजपा शिवसेना के गठबंधन ने लोकसभा चुनाव मेें मिलकर ही वैसी विजय हासिल की। किंतु इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि आखिर ऐसी विजय पहले क्यों नहीं मिली? लोकसभा चुनाव में तो बाला साहब ठाकरे भी नहीं थे। जाहिर है, राजनीतिक विश्लेषक एवं महाराष्ट्र में धरातल पर काम करने वाले जानते हैं कि नरेन्द्र मोदी के व्यक्तित्व ने आकर्षण का ऐसा आलोड़न पैदा कर दिया था जैसा पहले किसी नेता के समय नही हुआ। इसलिए तथ्यतः भी यह कहना सही नहीं होगा कि शिवसेना के कारण ही विजय मिली। यह सच है कि दोनों पार्टियों का गठजोड़ जमीन तक पहुंचा था, इसका असर था और विजय में शिवेसना का योगदान था। किंतु यह भी सच है कि लोकसभा चुनाव के पहले शिवसेना के सांसद तक पार्टी छोड़कर जा रहे थे। ऐसा लग रहा था कि कहीं पार्टी ही खत्म न हो जाए। मोदी के आविर्भाव ने शिवसेना पार्टी को बचाया और विजय भी दिलाई।
विधानसभा चुनाव में सीटों पर बातचीत में दोनों दलों के रवैये पर अलग-अलग मत हो सकता है। हालांकि खबरों और दोनों पक्षों के नेताओं के बयानों से कोई भी समझ सकता था कि शिवसेना अपने रुख से हटने को तैयार नहीं थी। वह बदले वातावरण में भाजपा की बढ़ी हुई शक्ति को स्वीकार नहीं कर पा रही थी। दोनों गठबंधन तोड़ना नहीं चाहते थे, पर टूट गया। टूटने के बाद पार्टियों के बीच तीखापन आता है। कांग्रेस और राकांपा के बीच भी गठबंधन खत्म होने के बाद तीखापन दिखा है। दोनों पार्टियों ने एक दूसरे की आलोनायें की, इसमें नेताओं की निजी आलोचनायें भी हुईं, पर इनमें से किसी ने इस तरह भाषा की मार्यादा नहीं लांघी। यही व्यवहार की सीमा रेखा होनी चाहिए। हम जानते हैं कि राजनीति में आज का गठजोड़ किसी सिद्धांत या आदर्श के लिए नहीं होते। उनका एकमात्र उद्देश्य सत्ता के अंकगणित में किसी तरह अपनी संख्या बल बढ़ाना होता है। यही भाजपा शिवसेना के बीच था और कांग्रेस राकांपा के बीच। इस सोच के कारण नेताओं के आपसी संबंधों में भी विश्वसनीयता या वास्तविक सम्मान की स्थापना नहीं हो पाती। पर इस गिरावट के दौर में भी हम ऐसी भाषा प्रयोग को राजनीति और पत्रकारिता दोनों के लिए शर्म का अध्याय ही कहेंगे। ऐसी अपमानजनक और गंदी भाषा का प्रयोग आगे सार्वजनिक जीवन में नहीं हो इसके लिए आवश्यक है कि इसकी पुरजोर निंदा की जाए, अन्यथा चतुर्दिक क्षरण एवं आदर्श व्यवहारों के घटते प्रेरणा के माहौल में इसके परिणाम संघातक होंगें। कोई इससे आगे बढ़कर ऐसे शब्द प्रयोग कर सकता है जिसे हम सामान्यतः सुनना भी न चाहते हों। इसलिए इसे यही रोका जाना जरुरी है।
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208