गुरुवार, 15 फ़रवरी 2024

क्यों बिखर रही है कांग्रेस और इंडिया गठबंधन

बसंत कुमार

अभी महाराष्ट्र के पूर्व मुख्य मंत्री व कांग्रेस के दिग्गज नेता अशोक चवहा न को कांग्रेस से त्याग पत्र देकर भाजपा जॉइन किये कुछ ही घंटे नही बीते की कांग्रेस के सचिव और पूर्व प्रधान मन्त्री लाल बहादुर शास्त्री के पौत्र विभाकर शास्त्री कांग्रेस से इस्तीफा देकर भाजपा मे शामिल हो गए, भाजपा जॉइन करने के तुरंत बाद अशोक चवहान को महाराष्ट से राज्य सभा का टिकट भी मिलगया और हो सकता है विभाकर शास्त्री को उत्तर प्रदेश से लोकसभा का टिकट भी मिल जाये। वर्ष 2024 के आम चुनावो मे नरेंद्र मोदीजी को सत्ता से हटाने के लिए कांग्रेस ने कई दर्जन दलों के साथ मिलकर इंडिया  गठबंधन तैयार किया और उम्मीद की जा रही थी कि कांग्रेस इस महा गठ बंधन के साथ सत्ता पार्टी को मजबूत चुनौती देगी, पर ऐसा नहीं हुआ महागठबंधन के प्रधानमंत्री पद के दावेदर नितीश कुमार रातोरात पलटी मारते हुए एन डी ए मे शामिल होकर सरकार बना ली। टी एम सी सुप्रीमो ममता बनर्जी ने बंगाल में कांग्रेस और महागठबंधन के साथियों के लिए कोई भी सीट छोड़ने के बजाय अकेले ही लड़ने का फैसला किया है और ऐसा ही फैसला उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के साथ सीट बटवारे पर सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने भी कर लिया है और रही सही कसर आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने पंजाब और दिल्ली में सभी सीटो पर अपनी पार्टी के उम्मीदवार खड़ी करने की घोषणा कर के पूरी कर दी है अर्थात इंडिया गठबंधन बनने से पहले ही टूटता नजर आ रहा है। पर कांग्रेस के लिए महा गठबंधन को बचाने से पहले अपनी पार्टी को बचाना ज्यादा महत्व पूर्ण है क्योकि हर रोज उनके एक न एक कद्दावर नेता पार्टी छोड़कर भाग रहे है। 

लोक सभा चुनाव में जुटी कांग्रेस को रोजाना एक न एक झटका लग रहा है यह पता ही नहीं चल पाता कि कौन नेता कब पार्टी का साथ छोड़ दे, क्या महाराष्ट्र, क्या मध्य प्रदेश, क्या कर्नाटक सहित सभी राज्यो मे कांग्रेस नेताओ का पार्टी छोड़ने का सिल सिला जारी है 10-12 वर्ष पहले तक कांग्रेस के किसी बड़े समारोह में राहुल गाँधी के पहुँचते ही उन्हे ज्योतिरादित्य सिंधिया, मिलिंद देवडा, आर पी एन सिंह, जितिन प्रसाद समेत नेता उन्हे घेर लेते थे पर आज ये सभी नेता कांग्रेस और राहुल गाँधी दोनों का साथ छोड़ चुके हैं। अभी यह स्थिति है कि राहुल गाँधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा के दौरान महाराष्ट्र के तीन नेताओ ने पार्टी छोड़ दी है। कांग्रेस पार्टी के अंदर जो हल चल चल रही है वह नई नही है यह अंतरकलह कई सालों से चल रही है जिसको सोनिया गाँधी, राहुल गाँधी और मल्लिकारजून खड़गे तक रोकने मे असफल दिखाई दे रहे है।

सोनिया गाँधी के करीबी माने जाने वाले गुलाम नबी आजाद, कैपटन अमरिंदर सिंह, रीता बहुगुणा जोशी आदि कांग्रेस छोड़कर या तो अपनी पार्टी बना चुके है या भाजपा का दामन पकड़ चुके है। इतना ही नहीं राहुल गाँधी के करीबी माने जाने वाले उनके सिपहसलार सुश्मिता देव, प्रियंका चतुर्वेदी, जितिन प्रसाद, अशोक तंवर, हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकुर, अशोक चौधरी, हेमंत विश्व शर्मा, सुनील झाखड, अश्वनी कुमार जैसे बड़े नेता पार्टी को अलविदा कह चुके है। इससे पहले कांग्रेस के दिग्गज नेता जो चार दशको से पार्टी के थिंक टैंक का हिस्सा रहे कपिल सिब्बल  कांग्रेस छोड़कर, सपा के टिकट पर राज्य सभा सांसद बने। यदि देखा जाए तो लालू प्रसाद यादव की आर जे डी और सिब्बु सोरेन की झार खण्ड मुक्ति मोर्चा ही कांग्रेस के विष्वशनिय साथी के रूप में बचे है और इंडिया गठबंधन के अन्य साथी मौके की नजाकत के अनुसार कांग्रेस के साथ व दूर खड़े रहते है।

जहां तक भाजपा का प्रश्न है तो उनके पास नरेंद्र मोदीजी जैसा नेतृत्व है जिसने अपनी कड़ी मेहनत और दूर दर्शिता से अपने 9 वर्षो के कार्यकाल में देश को विश्व की 5वीं आर्थिक महाशक्ति के रूप में खड़ा कर दिया है और निकट भविष्य में देश के किसी भी दल मे उनके नेतृत्व को टक्कर देने वाला कोई नजर नही आ रहा और भाजपा बगैर अपना कुनबा बढ़ाये वर्ष 2024 के चुनावो मे पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आने वाली है फिर अशोक चव्हाण जैसे नेता जिन्हे आदर्श घोटाले के आरोप के चलते मुख्यमन्त्री के पद से त्याग पत्र देना पड़ा था को पार्टी मे इतनी गर्मजोशी से लेकर राज्य सभा का टिकट क्यो दे दिया गया, ऐसे विवादित लोगो को पार्टी मे लेने से भाजपा की पार्टी विथ ए डिफ्रेंस वाली छवि पर धक्का लगेगा, जो लोग विगत कुछ वर्षो मे कांग्रेस छोड़कर भाजपा की शरण मे आये है उनमे से अधिकांश कांग्रेस मे लंबे समय तक रहे है और कांग्रेस शासन में पद और प्रतिष्ठा पाते रहे है।

आज जो नेता कांग्रेस को डूबता हुआ जहाज मानकर पार्टी को छोड़कर भाग रहे है और भाजपा की शरण में आ रहे है क्या भरोषा है कि भविष्य मे दुर्भाग्य से भाजपा सत्ता से हटने लगे तो ये पुन: भाग खड़े हो क्योकि इनमे से अधिकांश चुनाव के समय भाजपा मे टिकट मिलने और सांसद बनने के लोभ मे आ रहे है और पार्टी भी दशकों से परत के लिए काम कर रहे कार्य कर रहे कर्मठ कार्यकर्ताओं को नजर अंदाज कर के इन भगोड़े अवसर वादियों को उपकृत कर रही है। इससे पार्टी के लिए काम कर रहे समर्पित कैडर कार्य कर्ताओ का वह वर्ग जो पार्टी की रीतियों और नीतियों के लिए मर मिटता है समाप्त हो जायेगा। इस तथ्य पर पार्टी नेतृत्व को सोचना होगा।

स्वतंत्र भारत के 7 दशक के राजनीतिक इतिहास में कांग्रेस एक बार नही तीन तीन बार सत्ता से बाहर हुई है और हर बार पार्टी नेतृत्व ने अपनी संगठन क्षमता के बल पर शानदार वापसी की है और कभी भी इतने बड़े पैमाने पर कांग्रेस के बड़े बड़े नेता पार्टी छोड़कर नही भागे है। इस समय कांग्रेस के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती अपने गठबंधन इंडिया और कांग्रेस को बिखरने से रोकना है, इसके लिए कांग्रेस नेताओ को आत्मावलोकन करना होगा कि क्या कारण है कि डेढ़ सौ वर्ष पुरानी पार्टी इस प्रकार बिखर रही है अगर यह रोका नही गया तो नरेंद्र मोदी जैसे कुशल और मेहनती नेता के नेतृत्व मे भाजपा को तीसरी बार सत्ता मे आने से रोकना विपक्ष के लिए असंभव होगा।

समान नागरिक संहिता प्रगतिशील और न्यायपूर्ण समाज की दिशा का बड़ा कदम है

अवधेश कुमार

उत्तराखंड सरकार द्वारा कॉमन सिविल कोड या समान नागरिक संहिता विधेयक पारित करना कायदे से ऐतिहासिक घटना मानी जानी चाहिए। गोवा में समान नागरिक संहिता की पृष्ठभूमि तथा प्रकृति अलग है। संविधान की स्वीकृति के समय से राष्ट्रीय स्तर पर जिस समान नागरिक संहिता की मांग की जा रही थी उस दिशा में कदम बढ़ाने वाला उत्तराखंड पहला राज्य बना है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके उत्तराधिकारी सत्तारूढ़ भाजपा, समान नागरिक संहिता की बात अवश्य करते थे किंतु  उसकी रूपरेखा सामने नहीं थी। पहली बार भाजपा की एक राज्य सरकार ने समान नागरिक संहिता का प

प्रारूप रख दिया है। इसके बाद अन्य भाजपा शासित राज्य और केंद्र द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर समान नागरिक संहिता पारित कर लागू करने की संभावना बलवती हुई है।

 विरोधियों की बात मानें तो यह भाजपा द्वारा अपना एजेंडा लागू करना है जिसका मूल उद्देश्य एक धर्म और उसकी मान्यताओं के अनुरूप समाज और व्यवस्था का निर्माण है। भाजपा के एजेंडा की बात समझ में आती है, पर इसे किसी रीलिजन, पंथ या मजहब को जोड़ने जैसे आरोप किसी दृष्टिकोण से सत्यापित नहीं होते। कुल 192 पृष्ठ और 392 धाराओं वाली इस संहिता में कहीं नहीं लिखा गया है कि फलां रीलिजन या पंथ के लोग ऐसा नहीं कर सकते या कर सकते हैं।  किसी भी धार्मिक, पंथिक, मजहबी, सांस्कृतिक मान्यताओं ,परंपराओं ,रीति -रिवाजों  पर इसका असर नहीं होगा। इनमें ऐसा कोई प्रावधान नहीं जिससे खान-पान, पूजा - पाठ , इबादत, वेशभूषा, रहन -  सहन पर कोई प्रभाव पड़े। इसी तरह कोई किस तरीके से शादी करे, शादी- विवाह- निकाह कौन कराए इसके प्रावधान नहीं है। कहने का तात्पर्य कि समान नागरिक संहिता को लेकर अभी तक किया गया प्रचार झूठा साबित हुआ है कि इससे हिंदुओं के अलावा दूसरे रिलिजन के लोग अपनी परंपरा, रीति - रिवाज के अनुसार शादी - विवाह या अन्य कर्मकांड नहीं कर पाएंगे।

वास्तव में यह प्रगतिशील व्यवस्था और समाज निर्माण की दिशा का बड़ा कदम है। कोई प्रगतिशील व्यवस्था किसी की धार्मिक- सांस्कृतिक मान्यताओं ,परंपराओं और रीति-रिवाजों को प्रतिबंधित करने या उन पर अंकुश लगाने जैसा विधान स्वीकार नहीं कर सकती। ऐसी कट्टरवादी संकीर्ण सोच के लिए सभ्य समाज में स्थान नहीं हो सकता। इसलिए मुस्लिम संगठनों , मजहबी नेताओं , या राजनीतिक दलों का विरोध केवल विरोध के लिए है। विरोधियों को परंपरागत दुराग्रह से बाहर आकर संहिता से वैसे प्रावधान सामने लाने चाहिए जिनसे वाकई संविधान प्रदत्त धार्मिक अधिकारों पर आघात किया गया हो। सारे विरोध और आरोप तबके हैं जब  सामने  ड्राफ्ट नहीं था। अब तो बात केवल प्रावधानों पर होनी चाहिए।

समान नागरिक संहिता जीवन के केवल पांच क्षेत्रों- विवाह, तलाक ,गुजारा भत्ता, उत्तराधिकार और गोद लेना या दत्तकग्रहण के लिए है। उत्तराखंड समान नागरिक संहिता के चार खंड हैं, विवाह और विवाह विच्छेद या तलाक, उत्तराधिकार, सहवासी संबंध या लीव इन रिलेशनशिप और विविध। इसमें विवाह के लिए लड़कियों की न्यूनतम आयु 18 व लड़के की न्यूनतम 21 वर्ष रखी गई है तो बहु विवाह व बाल विवाह का निषेध है। सगे रिश्तेदारों से संबंध निषेध तो है पर यह उन पर लागू नहीं होगा जिनकी प्रथा या रूढ़ियां ऐसे संबंधों में विवाह की अनुमति देती है। इन सबसे किसका विरोध होगा और क्यों? 

हम जन्म और मृत्यु का पंजीकरण कराते हैं तो विवाह के पंजीकरण की अनिवार्यता क्यों नहीं होनी चाहिए? इसके ज्यादातर प्रावधान आपको सभी धर्म की महिलाओं और पुरुषों के बीच समानता पर आधारित न्यायपूर्ण प्रगतिशील समाज के निर्माण का ही संदेश देते हैं। उदाहरण के लिए पुरुष और महिला दोनों को तलाक के समान अधिकार होंगे तो पति या पत्नी में से किसी के जीवित रहने पर दूसरे विवाह की अनुमति नहीं होगी और महिला के द्वारा विवाह में कोई शर्त नहीं होगी। किसी को एक से अधिक विवाह करने का उन्माद हो या पुरुषों के समान महिलाओं को तलाक के अधिकार से समस्या तो उनको समान नागरिक संहिता से समस्या होगी। 

 तलाक की याचिका लंबित रहने पर भरण पोषण और बच्चों की अभिरक्षा से संबंधित प्रावधानों पर उन्हें ही आपत्ति हो सकती है जो सामाजिक न्याय नहीं चाहते। धार्मिक मान्यताओं से परे किसी व्यक्ति को पुनर्विवाह या तलाक के मामले में स्वच्छंदता नहीं दी जा सकती।

समान नागरिक संहिता की प्रगतिशील प्रकृति का एक प्रमाण संपत्ति में पुरुषों के समान महिलाओं को समान अधिकार दिया जाना है। इससे किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि किसी भी परिवार  के जीवित बच्चे, पुत्र अथवा पुत्री संपत्ति में बराबर के अधिकारी होंगे।

 हालांकि लिव इन रिलेशनशिप संबंधित प्रावधानों से भाजपा एवं संघ परिवार के अंदर थोड़ी असहजता भी महसूस हुई है। लिव-इन रिलेशनशिप को पंजीकरण कराने और न करने पर दंड तथा उस अवधि में पैदा होने वाले बच्चों को वैध संतान की मान्यता या पुरुष द्वारा लिव इन की महिला को छोड़ने पर महिला को भरण पोषण की मांग के अधिकार से आशंका पैदा हुई है कि ऐसे संबंध विस्तारित हो सकते हैं। समाज और परिवार के मान्य बंधन कायम रहे इस दृष्टि से विवाह के समान ही  संबंधों पर लिविंग में रहने की अनुमति नहीं दी गई है। हां जहां की रुढ़ियां या प्रथाएं ऐसे संबंधों में विवाह की अनुमति देते हैं उन पर लागू नहीं होगा पर ये रूढ़ियां और प्रथाएं लोक नीति और नैतिकता के विपरीत नहीं होने चाहिए। हाल के वर्षों में देखा गया है की परिवार और रिश्तेदारी के ऐसे संबंधों में लिव इन या शादी के मामले बढ़े हैं जिनको मानता नहीं थी और इससे समस्याएं पैदा हुई है। परिवार व्यवस्था की मर्यादा को बनाए रखने के लिए यह प्रावधान आवश्यक है। वैसे लिव इन प्रावधान भी महिलाओं के पक्ष में हैं। लव जिहाद की बढ़ती घटनाओं की दृष्टि से ऐसे कानून की मांग की जा रही थी जिनकी शिकार लड़कियों और महिलाओं तथा उनसे पैदा हुए बच्चों को सुरक्षा और संरक्षण प्राप्त हो। पर इसके खतरों को भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता। 

 कुल मिलाकर समान नागरिक संहिता स्वतंत्रता के बाद समाज के सभी अंगों पुरुष स्त्री बच्चों के लिए सामाजिक न्याय सुनिश्चित करती है। यह प्रगतिशील लोकतांत्रिक और परस्पर सम्मान पर आधारित समाज के निर्माण के सपने को पूरा करने का विधान है। यह कहना भी गलत है कि इसे अचानक लाया गया है। धामी सरकार द्वारा गठित न्यायमूर्ति रंजना देसाई समिति ने इस पर विस्तार से कार्य किया है। अन्य देशों की संहिताओं, संविधान सभा में हुई बहस आदि का अध्ययन किया गया, लोगों से सुझाव मांगे और  जगह-जगह बैठकें की। राज्य स्तर पर लोगों से मिलने के बाद जिला स्तर तक गए और करीब 75 सभायें की। समिति को ढाई लाख से अधिक सुझाव‌ प्राप्त हुए। किसी भी व्यक्ति, समूह, संगठन या संस्था को समिति से मिलकर राय देने का निषेध नहीं था। इनमें राजनीतिक दल और नेता भी शामिल हैं। 

 संविधान निर्माण के समय से ही समान नागरिक संहिता पर बहस चलती रही है। इसके विरोध का कारण झूठ और दुष्प्रचार तथा मजहब के नाम पर गैर मजहबी पुरुष मनमानी व्यवस्था को बचाए रखने की मानसिकता रही है जिसका कोई उपचार नहीं। इसे संघ और भाजपा का एजेंडा बताने वाले भूल रहे हैं कि कम्युनिस्ट पार्टियों तथा समाजवादियों के घोषित एजेंडा में समान नागरिक संहिता लागू करना शामिल रहा है। डॉ राम मनोहर लोहिया इसके प्रबल पैरोकार थे। विडंबना देखिए कि आज कम्युनिस्टों और समाजवादियों की मुखर आवाज भी इसके विरुद्ध है। इससे साबित होता है कि विरोध के पीछे ईमानदारी और नैतिकता नहीं है। संविधान के भाग 4 के अनुच्छेद 44 में संपूर्ण भारत के नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता देने की क्या कदम बढ़ाने की अपेक्षा की गई है। तो उसे अपेक्षा को पूरा करने की शुरुआत हो गई है।

अवधेश कुमार, ई-30, गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली -110092 , मोबाइल -9811027208

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