शुक्रवार, 10 जनवरी 2014

दिल्ली के बाद अब देश पर नजर

अवधेश कुमार
आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में अपनी पार्टी कार्यकारिणी की दो दिवसीय बैठक तब की जब सरकार गठन और मंत्रियों की कार्य शैली के कारण वह लगातार सुर्खियों में है। ऐसे समय उसको सुख्र्रियां प्राप्त होना ही था। आप के नेता वैसे भी प्रचार पाने और उससे जन मानस पर असर डालने की कला में निष्णात साबित हो चुके है। इसलिए लोहा गरम हो तभी चोट की कहावत चरितार्थ करते हुए कार्यकारिणी ने अगले लोकसभा चुनाव में ज्यादा से ज्यादा स्थानों पर उम्मीदवार खड़ी करने का ऐलान कर दिया। पार्टी सदस्यता अभियान चलाएगी और वह मुफ्त होगा। उम्मीदवारों के चयन की प्रक्रिया चलेगी, घोषणा पत्र तैयार होगा.....और आगामी मार्च या उससे पूर्व ही लोकसभा चुनाव की सारी कवायद पूरी हो चुकी होगी। इन निर्णयों को इस रुप में पेश किया गया और मीडिया ने इसे ऐसे दिखाया जैसे ये भी भारतीय राजनीति के लिए नई और विशिष्ट हों। यानी आम आदमी पार्टी जो कर रही है वह भारतीय राजनीति में ऐसे नए अध्याय का श्रीगणेश है जिससे पूरा परिदृश्य बदल रहा है। पता नहीं हमें यह याद है या नहीं कि भाजपा ने 19 जुलाई 2013 को ही चुनाव के अलग-अलग कार्यों के लिए 20 समितियां गठित कीं और वे कार्य कर रहीं हैं। कांग्रेस ने नवंबर 2012 में ही राहुल गांधी के नेतृत्व में तीन उपसमितियां बनाई जिनमें लोकसभा चुनाव संबंधी सारे कार्य शामिल थे। सपा ने काफी पहले उत्तर प्रदेश के लिए ज्यादातर उम्मीदवार निश्चित कर दिए। बसपा भी ऐसा कर रही है।
इसकी सूची लंबी है। इन सारी पार्टियों की औकात अभी आप से ज्यादा है। किंतु इन्हें इतनी सुर्खियां नहीं मिलतीं जितनी आप को मिल रही है। इनमें हम पत्रकारों को उतना सार तत्व नहीं दिखता जितना आम आदमी पार्टी में दिखता है। दिल्ली विधानसभा चुनाव के संकल्प पत्र में अल्पज्ञता एवं अतिक्रांतिकारी दिखाने के लिए जो है नहीं उसकी तुलना करते हुए हम ऐसा नहीं करंेगे के ऐलानों को जानने के बावजूद यदि उसे विशिष्ट दिखाया जा रहा है तो निश्चय ही इसके पीछे ऐसे कुछ कारण हैं जो सतह पर हमें आपको नजर नहीं आ रहा। जब आप के नेता कहते हैं कि दिल्ली के बाद अब देश, लोकसभा चुनाव केवल राहुल और नरेन्द्र मोदी तक सीमित नहीं होगा तो उसके पीछे अंदाज यह होता है कि तीसरी शक्ति के रुप में उनका उदय हो चुका है और पूरे देश में उनकी विजय पताका फहराने वाली है। यानी राहुल मोदी के समानांतर ही नहीं, उसके आगे अरविन्द केजरीवाल होंगे। हां, अरविन्द केजरीवाल कहते हैं कि वे लोकसभा चुनाव नहीं लड़ेगे। जब आम आदमी पार्टी का गठन हुआ था तो भी उन्होंने साफ ऐलान किया था,‘ मैं कभी चुनाव नहीं लड़ूंगा, कोई मंत्रिपद नहीं लूंगा।’ यह बयान कई बार रिकाॅर्ड पर है। बाद में उन्होंने ही घोषणा की कि मैं मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के खिलाफ चुनाव लड़ूंगा। तर्क यह है कि अगर साथियों ने तय किया तो मैं क्या कर सकता हूं। ऐसा ही आगे साथी तय कर देंगे और वे निस्पृह जीव की तरह लड़ जाएंगे।
कहने का अर्थ यह नहीं कि चुनाव लड़कर उनने अनैतिक काम किया या पार्टी द्वारा विधायक दल का नेता चुने जाने के बाद मुख्यमंत्री बनकर उनने अपनी अनैतिकता का पैमाना और बड़ा कर दिया। अगर आप राजनीति में हैं तो आपको चुनाव लड़ना चाहिए, मंत्री बनना चाहिए। उसके माध्यम से अपनी कल्पना की नीतियां बनाकर साकार करें और जन सेवा का लक्ष्य पूरा करें। किंतु आप जब स्वयं चुनाव न लड़ने की बात करते हैं और लड़ते हैं तो आपके चरित्र पर प्रश्न उठेगा। मान लीजए कोई आपको चरित्र प्रमाण पत्र दे दे तो भी इससे अपरिपक्वता, अतिभावुकता या स्वयं को महात्यागी, महानिःस्वार्थी ...साबित करने में वाणी से नियंत्रण समाप्त हो जाने का प्रमाण तो माना ही जाएगा। आप देख लीजिए, ये जब देश भर मंे किला फतह करने का ऐलान कर रहे हैं उसकी पृष्ठभूमि में ऐसी कितनी घोषणाएं हैं जो इसी अपरिपक्तवा, अतिभावुकता या वाणी पर नियंत्रण न रख पाने की श्रेणी में आतीं है। सरकारी बंगला न लेंगे, फिर लेंगे, बड़ा हो गया तो उसके पक्ष का तर्क और दबाव पड़ने पर फिर उसके बदले छोटा फ्लैट लेने का निर्णय......सरकारी गाड़ियों का उपयोग न करने का संकल्प और फिर यह कहना कि हमने केवल लालबत्ती का उपयोग न करने के बारे में कहा था...। हमारे मंत्री सरकारी गाड़ियों का उपयोग करें, वे सरकारी आवास लेें और वह आम नागरिकों के लिए भी खुला रहे, जैसे पहले और आज भी अनेक नेताओं के घर आम आगंतुकों के लिए रैन बसेरा की तरह होते हैं.. इनसे किसी को क्यों समस्या होगी? आपको अपनी जिम्मेवारी निभाने के लिए जतनी अपरिहार्य सुविधाएं चाहिएं लें.......लेकिन आप स्वयं जब इनके परित्याग कर संन्यस्त भाव का प्रचार करते हैं और फिर वैसा नहीं कर पाते तो फिर आपकी समझ, आपकी निष्ठा पर प्रश्न उठेगा और आलोचक इसे नाटक नौटंकी कहेंगे।
आम आदमी पार्टी का भाग्य देखिए, कुछ क्षण आलोचना के बाद प्रचार-प्रसार में फिर वही क्रांतिकारिता की छवि सामने आने लगती है। क्यों? जरा सोचिए, आम आदमी पार्टी ने अगर दिल्ली की जगह किसी अन्य छोटे राज्य में बहुमत से कम सीटें जीतीं होतीं तो क्या उसे इतना महत्व मिलता? अगर वह कांग्रेस या दूसरी पार्टी के समर्थन से सरकार बनाती तो क्या मीडिया उसे देश के लिए इतनी ही महत्वपूर्ण परिघटना बताता? यही बात यह साबित करती है कि आम आदमी के नेता किस तरह रणनीति और प्रबंधन के माहिर हैं। उनकी रणनीति साफ थी कि अगर हमने दिल्ली मंें केन्द्रित होकर जन समर्थन बढ़ाने का अभियान चलाया, चुनाव में अच्छी उपस्थिति दर्ज करा ली तो संदेश देश भर में जाएगा। यहां मीडिया का हम इस्तेमाल कर देश और उसके बाहर भी संदेश दे सकते हैं। अगर वर्तमान परिणतियों को आधार बनाएं तो वे अपनी रणनीति में सफल हैं। चुनाव के बाद रायशुमारी के नाम से आयोजित मुहल्लों की सभाओं को जितना लाइव कवरेज टीवी चैनलों ने दिया, उतना किसी प्रदेश में संभव नहीं हो सकता था। रामलीला मैदान में शपथग्रहण समारोह हो या फिर विधानसभा में विश्वास मत ...सबका लाइव प्रसारण और उनका अरविन्द केजरीवाल तथा उनके साथियों ने व्यापक उपयोग किया। आज भी वे इसमें सफल हैं। वे लोकसभा चुनाव में परिणाम के पूर्व ही स्वयं को तीसरी शक्ति बता रहे हैं। उनकी कार्यकारिणी का ऐसे प्रसारण हुआ मानो देश की किसी शक्तिशाली पार्टी की बैठक हो। इसका मनोवैज्ञानिक असर देश में होता ही है। चैनलों पर लाइव देखकर न जाने कितनी संख्या में लोगांे को यह विश्वास गहरा हुआ होगा कि यह पार्टी वाकई लोकसभा चुनाव जीतने वाली है। यही तो इन्हंे चाहिए।  निस्स्ंादेह, इस समय भाजपा एवं कांग्रेस इस मायने में उनसे पीछे हैं।
यह मीडिया का इस्तेमाल कर अपने पक्ष में माहौल बनाने की रणनीति की सफलता है पार्टी के पास देश भर से लोग सदस्यता ग्रहण करने के लिए आ रहे हैं। इनमें कुछ टैक्नोक्रैट, पूर्व अधिकारी....भी हैं। जो आंकड़ें हमारे पास आए हैं उनके अनुसार औसत 17 लाख रुपया से ज्यादा उनको प्रतिदिन चंदे के रुप में आ रहा है। तभी तो इन्हें सदस्यता शुल्क की आवश्यकता न रही। देश भर में उनने करीब 325 कार्यालय खोल दिए हैं। ऐसा माहौल किसी पार्टी, उसके नेता एवं कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ाने के लिए पर्याप्त हैं। इसलिए अगर वे कह रहे हैं कि पहले दिल्ली और अब देश तो हम उनको एकबारगी टाल नहीं सकते। लेकिन ...? विविधताओं का भारत केवल दिल्ली नहीं है। अभी तक सारी पार्टियों को गालियां देते हुए वे स्वयं को क्रांतिकारी बदलाव का औजार साबित करते थे.....। कांग्रेस ने समर्थन देकर उन्हें सत्ता सौंप दिया, लेकिन देश ने एक भी क्रांतिकारी कदम देखा नहीं है। हालांकि ये ऐसे ही खामोशी से नहीं रहने वाले। वे भी जानते हैं कि दिल्ली जैसे एक मेट्रोपोलिटन शहर वाले राज्य में पूरे संसाधनों को केन्द्रित कर हल्लाबोल जैसा माहौल बनाकर आम नागरिकों पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालना जितना आसान है उतना देश के अन्य क्षेत्रों और पूरे देश में कतई नहीं। इसलिए यकीन मानिए वे कुछ ऐसे कदम उठाएंगे, हल्लाबोल शैली में ये ऐसा करेंगे जिन पर ये योजनाबद्ध तरीके से शाबासी लेने के साथ अपने समर्थन का माहौल बना पाए। दरअसल, दिल्ली तो अगले चुनाव प्रचार का आधार है उनके लिए। अगले चुनाव के पूर्व ज्यादा से ज्यादा लोग उनके पास किस तरह आएं, चुनाव में उनके पक्ष में वातारण बने, इस उद्देश्य से वे दिल्ली की सरकार का पूरा उपयोग करेंगे। पर प्रचार और हल्लाबोल शैली से कोई भी पार्टी लंबी दूरी तय नहीं कर सकती। कांग्रेस, भाजपा या अन्य कई क्षेत्रीय पार्टियों से लोग असंतुष्ट हैं, किंतु अब इनकी गहरी समीक्षा अवश्य करेंगे और कम से कम आज वे खरे उतरने की स्थिति में नहीं हैं। तीसरी शक्ति केन्द्र में जब भी सत्ता में आई तो लंगड़ी -लूली और उसका क्या हस्र हुआ देश जानता है। उसे दोहराना कौन चाहेगा?  
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर काॅम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर: 01122483408, 09811027208

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