शुक्रवार, 20 मार्च 2015

विपक्ष की एकजुटता की राजनीतिक प्रतिध्वनि

अवधेश कुमार

नरेन्द्र मोदी सरकार के विरुद्ध यह पहली विपक्षी एकजुटता का प्रदर्शन था। पहली बार कई विपक्षी दल सरकार के खिलाफ एकजुट होकर संसद से राष्ट्रपति भवन के मार्च में शामिल हुए। हालांकि जिन 14 दलों के शामिल होने का दावा कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने मार्च के बाद पत्रकारों से बातचीत करते हुए दी उनमें से कई ऐसे हैं जिनका संसद में प्रतिनिधित्व ही नहीं। विपक्षी दलों के राष्ट्रपति के यहां जाने का क्या असर होगा यह समझना मुश्किल है। जब बहस राज्यसभा में चल रही थी, आपने उसका विरोध किया तो इसमें राष्ट्रपति क्या करेंगे? संसद को एजेंडा तो राष्ट्रपति निर्धारित नहीं कर सकते। हां, अगर तत्काल राज्यसभा में पारित नहीं हुआ तो 5 अप्रैल को यह अध्यादेश खत्म हो जाएगा। या तो पुनः अध्यादेश के लिए सरकार को राष्ट्रपति से हस्ताक्षर करानी होगी या उसे पारित कराना होगा। पारित कराने का रास्ता एक ही है, कुछ पार्टियां सरकार को साथ दें या फिर संसद का संयुक्त अधिवेशन बुलाकर सरकार पारित कराये। छः महीना पहले अधिसूचना पर हस्ताक्षर करने के पहले भी उन्होंने सरकार से पूछा था। उसके बाद हस्ताक्षर किया।

इस समय कुछ भी अनुमान लगाना कठिन है। पर इसके राजनीतिक पहलुओं का कुछ अनुमान लगाया जा सकता है। आखिर एक साथ विपक्षी दल किसी एक मामले पर साथ आते हैं तो ऐसा नहीं हो सकता कि वे वहीं तक सीमित रहें। यह भी नहीं हो सकता कि यह राजनीतिक प्रभावों से अछूता रहे। जब कदम ही राजनीतिक हो तो फिर उसका राजनीतिक प्रभाव एकदम स्वाभाविक है। हालांकि खनिज विधेयक पर विपक्षी एकता टिकी नहीं रही। राज्यसभा में बहुमत न होने के बावजूद सरकार ने इसे पारित कराने में सफलता पा ली। कई घोर भाजपा विरोधी दलों ने इसमें सरकार का साथ दिया। ऐसा कुछ दूसरे विधेयकों के मामले में हो सकता है। जहां तक भूमि अधिग्रहण विधेयक का प्रश्न है तो यह मामला अब राजनीतिक ज्यादा हो गया है। इसमें क्या सही है क्या गलत, सरकार कहां तक आगे बढ़े या पीछे हटे.....इन सारे प्रश्नों पर एकमत कठिन है। सरकार ने ग्रामीण औद्योगिक गलियारा में सरकर निजी साझेदारी वाली परियोजना की दूरी 2 से घटाकर 1 किलोमीटर कर दिया है, पांच वर्ष तक शुरु न होने वाली परियोजनाओं में जमीन किसानों की वापसी के प्रावधान को कुछ मामले मंें छोड़कर फिर से लागू कर दिया है......। लेकिन मुख्य जिद 80 प्रतिशत और 70 प्रतिशत सहमति तथा सामाजिक प्रभावों के अध्ययन पर है। देखना है क्या होता है। हालांकि सच यही है कि जिस तरह कांग्रेस के अपने मुख्यमंत्रियों सहित 32 राज्यों व केन्द्र शासित प्रदेशों ने कानून में ंसंशोधन की मांग की थी, केन्द्रीय मंत्रियों तक ने प्रधानमंत्री से इसमें बदलाव की सिफारिश की थी उसके आलोक में यह स्वीकारने में कोई समस्या नहीं है कि अगर संप्रग सरकार सत्ता में वापस आती तो वह भी इसे संशोधित करती।

पर इस विषय को यहीं छोड़कर जरा मार्च के राजनीतिक पहलू पर विचार करिए। वास्तव में मामला भूमि अधिग्रहण का अवश्य है, पर इसके बहाने विपक्ष की एकजुटता की राजनीतिक प्रतिध्वनि काफी महत्वपूर्ण है। कांग्रेस ने अपने तमाम लुंजपुंज आचरणों के बावजूद उसने अपने साथ कुछ दलों को एकत्रित कर राष्ष्ट्रपति भवन तक मार्च निकाल लिया यह उसकी राजनीति के लिए संतोष का विषय हो सकता है। उसे लगता है कि भूमि अधिग्रहण विधेयक को किसान विरोधी बताकर वह संसद के अंदर और बाहर अपनी जड़ और हताश राजनीति में जान ला जा सकती है। राष्ट्रपति से मिलने के बाद कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने ही पत्रकारों से बातचीत की। इसका संदेश यही था कि इस मार्च का नेतृत्व सोनिया गांधी ही कर रही थी। तो लोकसभा चुनाव में बूरी पराजय एवं नीति, नेतृत्व, रणनीति सभी स्तरों पर किंकर्तव्यविमूढ़ पार्टी ने आखिर तत्काल इस सरकार विरोधी मुहिम का नेतृत्व अपने हाथों में लिया। यह उसके आत्मविश्वास को थोड़ बढ़ा रहा होगा।

ध्यान रखिए 1999 में तब तक की सबसे बुरी पराजय के बाद सोनिया गाध्ंाी को संसद के अंदर विपक्ष की एकजुटता का लाभ मिला। वामदल तब थोड़ी ताकत में थे। उनको भाजपा से परहेज था। समाजवादी पार्टी भाजपा के खिलाफ थी। लालू यादव की पार्टी खिलाफ थी। और भाजपा विरोधी छोटी-छोटी पार्टियां एक थीं। भाजपा विरोध के नाम पर यह एकजुटता सुदृढ़ हुई। इसी का परिणाम था कि 2004 के चुनाव में कांग्रेस का कई पार्टियों से गठजोड़ हुआ। परिणाम के बाद यद्यपि उसे केवल 145 लोकसभा स्थान आये, पर संयुक्त प्र्रतिशील गठबंधन बन गया, जिसे वामदलों ने बाहर से समर्थन देकर सरकार तक पहुंचा दिया। सपा ने, बसपा ने बाहर से समर्थन दे दिया। तब से 10 वर्ष तक कांग्रेस का शासन रहा। इस समय देख लीजिए, कांग्रेस, राजद, जद यू, द्रमुक, वाम दल.....सबके सामने अस्तित्व का संकट है। उनके लिए देश, विकास, सही गलत से ज्यादा अपनी राजनीति महत्वपूर्ण है।

केवल कांग्रेस को ही राजनीति में अपनी शक्तिशाली पुनर्वापसी की आवश्यकता नहीं, वामदलों को है, द्रमुक को है, राजद को है, जद यू को है, सपा को है........। तो अपने राजनीति हित के लिए ये सरकार के विरुद्ध आगे भी कुछ मामलों पर संसद के अंदर एवं बाहर एकजुट होंगे। वैसे भी भाजपा के साथ इनमें से जद यू और द्रमुक को छोड़ दें पुश्तैनी दुश्मनी जैसी है। इसलिए काम सही हो या गलत, देश के विकास के लिए हो या और कुछ ये जहां भी संभव होगा सरकार को संयुक्त रुप से कठघरे में खड़ा करके उसे जनता के बीच ले जाने की कोशिश करेंगे। भूमि अधिग्रहण विधेयक को ये जितना किसान विरोधी बता रहे हैं उतना नहीं है यह कोई भी विवेकशील व्यक्ति देख सकता है। लेकिन यह भाजपा को किसान विरोधी, उद्योगपति समर्थक, कारोबारी समर्थक साबित करने का अच्छा मुद्दा है। भाजपा न भूले कि राजनीतिक हितों के गठजोड़ से इस देश की सत्ता और अनेक राज्यों की सत्ता कई बार बदल चुकी है। चुनाव में इनकी एकजुटता भाजपा विरोधी हो सकती है और इसका असर हो सकता है।

इस प्रकार राष्ट्रपति भवन तक मार्च का महत्व यही है कि निराश विपक्ष के बीच एक मनोवैज्ञानिक उम्मीद भाजपा को कमजोर करने की कायम होगी। भले राज्य सभा में यह अभी पूर्ण एकता में नहीं बदली है, पर कांग्रेस एवं वामदल इसकी पूरी कोशिश कर रहे हैं। चूंकि इसका नेतृत्व कांग्रेस के हाथों आया तो सोनिया इसको और सुदृढ़ करने की कोशिश करेंगी। भाजपा की समस्या यह है कि वह संसद में तो जवाब दे रही है, लेकिन बाहर मीडिया एवं जनता के बीच इस मामले में कमजोर पड़ रही है। टीवी चैनलों पर उसके प्रवक्ता विपक्ष से झगड़ते तो हैं, पर उस तरह तथ्य और तर्क प्रस्तुत नहीं कर रहे जिससे आरोपों का प्रभावी खंडन हो सके। सरकार की रक्षा का दायित्व वैसे प्रवक्ताओं और सरकारी मंत्रियों पर है जिनको खेती, किसानी का अनुभव ही नहीं। उनकी भाषा कुछ विशेष पढ़े लिखे लोग तो समझ सकते हैं, किंतु आम किसान और जनता नहीं। भाजपा निकट भविष्य में आम जनता और अपने समर्थकों को समझा पाने की अवस्था में आ पाएगी इस समय ऐसी निश्चयात्मक भविष्यवाणी कठिन है।

सबसे निकट बिहार विधानसभा चुनाव है। वहां इसकी राजनीतिक प्रतिध्वनि सुनाई पड़ सकती है। वहां पूरे विपक्ष के लिए अस्तित्व की लड़ाई है। कांग्रेस को थोड़ी सफलता चाहिए, जद यू को, राजद को, वामदलों को अपने खाते में दिखाने के लिए किसी तरह की सफलता चाहिए। वे यह बताना चाहते हैं कि हमने नरेन्द्र मोदी के प्रभाव को कम करने में सफलता पा ली है। यदि वहां विपक्ष ने भाजपा को मजबूत टक्कर दे दिया और परिणाम थोड़ा भी अपने अनुकूल करने में सफलतायें पा ली तो दिल्ली के बाद भाजपा पर, इसके समर्थकों पर कैसा असर होगा इसकी आप जरा कल्पना करिए। भाजपा इस संभावना को नजरअंदाज न करे।
ठीक है कि विपक्ष जिस तरह जिद पर है उसमें कठिनाई है, पर यह कुछ हद तक भाजपा की रणनीतिक विफलता मानी जाएगी कि उसने विपक्ष को एकबार एकजुट होकर सड़कों पर आने का अवसर दे दिया। कुछ पार्टियां हैं जिनके नेताओं से अलग से बातकर वह साथ ला सकती थी, पर वह ऐसा नहीं कर पाई। पता नहीं नरेन्द्र मोदी के रणनीतिकार क्या सोचते हैं और क्या करते हैं। अगर वे यह समझ रहे हैं कि राष्ट्रपति के यहां जाने से वह बिल्कुल अप्रभावित रहेगी तो भाजपा भविष्य में पड़ने वाले इसके प्रभावों का कमतर आकलन कर रही है। इस घटना के बाद उसे कमर कसने तथा अपने राजनीतिक एवं संसदीय रणनीति में बदलाव की जरुरत महसूस होनी चाहिए।
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208



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