बुधवार, 31 जनवरी 2024

नीतीश जी लें सम्मानजनक विदाई

अवधेश कुमार 

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जब राजभवन में अपना त्यागपत्र सौंपने जा रहे थे तो वहां किसी तरह की कोई हलचल नहीं थी। आम जनता की तो छोड़िए यहां उनकी पार्टी जनता दल - यू का भी कोई कार्यकर्ता झंडा लेकर उनका स्वागत करने या उनके पक्ष में नारा लगाने के लिए नहीं था। जिस राष्ट्रीय जनता दल से वे गठबंधन तोड़ रहे थे उसका भी कोई वहां विरोध करने के लिए नहीं था। पत्रकारों पर आम लोगों तक समाचार पहुंचाने की जिम्मेदारी होती है इसलिए वे वहां उपस्थित थे। अगर पत्रकार वहां नहीं होते तो लगता ही नहीं कि कोई मुख्यमंत्री वाकई त्यागपत्र देने जा रहा है। यह स्पंदनहीन स्थिति ही प्रमाणित करती है कि एक समय सुशासन बाबू का विशेषण पाने वाले नीतीश कुमार ने अपनी भूमिका से स्वयं की कैसी दयनीय अवस्था बना लिया है।

इसमें सामान्य राजनीति तो यही होती कि नीतीश दूसरे दलों के साथ अपने दल में भी अकेले पड़ जाते। किंतु 2013 से वह जब चाहे गठबंधन तोड़ते हैं और दूसरा पक्ष उनका साथ लेने के लिए तैयार रहता है। वे फिर दूसरे पक्ष को छोड़ते हैं और पहला पक्ष उनके साथ आ जाता है। सन् 2005 से बिहार में सत्ता के शीर्ष केंद्र बिंदु वही है। वास्तव में वह अगर स्वयं पलटी मारते हैं तो दूसरे को पलटवाते भी हैं। पलटने और पलटवाने का यह चक्र ऐसा हो गया है जिससे समान्य व्यक्ति के अंदर नीतीश कुमार की राजनीति को लेकर एक ही भाव पैदा होता है, वह है जुगुप्सा का। बावजूद अगर वह राजनीति में आज भी स्वीकार्य हैं तो इसे उनका राजनीतिक कौशल कहें या वर्तमान विशेषकर बिहार की राजनीति की विडंबना। अब यह बताने की भी आवश्यकता नहीं कि नीतीश और आज भी हृदय से उनके साथ बने हुए नेताओं की न कोई विचारधारा है, न सिद्धांत, न उनकी राजनीति के किसी भी मान्य व्यवहारों के प्रति प्रतिबद्धता ही। वे जिसको छोड़ेंगे उसकी आलोचना करेंगे और यह भी कहेंगे कि दोबारा लौटकर उनके साथ नहीं आऊंगा। अगली बार फिर जिनके साथ जाएंगे उनकी आलोचना करेंगे और यही कहेंगे। अगस्त, 2022 में जब वह भाजपा को छोड़ राजग गठबंधन के साथ गए तो उन्होंने कहा कि मैं मर जाऊंगा लेकिन भाजपा के साथ नहीं आऊंगा। तो क्या यह मान लिया जाए कि अब उन्होंने मृत्यु को प्राप्त कर पुनर्जन्म लिया है? बिहार के दोनों मुख्य दलों भाजपा और राष्ट्रीय जनता दल उनकी आलोचना सुनकर और स्वयं घोषणा कर कि अब उनके लिए दरवाजे बंद है, फिर दरवाजे खोल देते हैं। राजनीति में रुचि रखने वाले देश के लोग यह प्रश्न उठा रहे हैं कि आखिर ऐसा कब तक चलेगा?

सच कहूं तो बिहार और संपूर्ण देश की राजनीति की तस्वीर ऐसी है जिसमें किसी न किसी कारण से पलटने और पलटवाने के चक्र को गति मिल जाती है। इस समय की स्थिति देखिए, सामने लोकसभा चुनाव है और विपक्ष भाजपा के विरुद्ध एकबद्ध होने की कवायद कर रहा है। इस समय भाजपा का मुख्य लक्ष्य स्वाभाविक ही किसी तरह विपक्ष कमजोर करना तथा लोकसभा चुनाव में बड़ी विजय प्राप्त करना है। नीतीश कुमार को अस्वीकार करने के तीन परिणाम आते।  एक, बिहार में लालू प्रसाद यादव परिवार के नेतृत्व में राजद गठबंधन की सरकार बनती। दूसरा, बिहार में राष्ट्रपति शासन लागू होता, या तीसरा, हारकर नीतीश कुमार फिर राजद गठबंधन के भाग होते। ये तीनों स्थितियां भाजपा के लिए प्रतिकूल होती।  राजद के साथ नीतीश की सरकार के बने रहने का अर्थ आईएनडीआईए गठबंधन का जीवित रहना होता। यह स्पष्ट है कि राजद ने अंतिम समय तक सरकार बनाने की कोशिश की। अगर नीतीश को भाजपा समर्थन नहीं देती तो उन्होंने जिस लचर अवस्था में अपने दल को पहुंचा दिया है उसमें उनके विधायक छोड़कर राजद के साथ जा सकते थे। चूंकि नीतीश कुमार ने ही विपक्षी एकता की शुरुआती कोशिश की और उन्हीं के प्रयासों से बिहार की राजधानी पटना में ज्यादातर विपक्षी दल एक साथ बैठे, इसलिए उनके अलग होने के बाद आम आदमी भी यही मानेगा कि आईएनडीआईए खत्म हो गया। राजनीति में इससे बढ़िया मुंहमांगा अवसर और कुछ हो ही नहीं सकता। यह स्थिति नहीं होती तो शायद भाजपा इस बार उनकी पलटी को अपने समर्थन की ताकत नहीं देती। हालांकि अयोध्या की आभा ने बिहार के वातावरण को बदला है और नीतीश सहित दूसरी पार्टियां और दल भी उससे प्रभावित हुए।

राजनीति की त्रासदी देखिए। 2005 से 2014 तक बिहार की जनता ने राष्ट्रीय जनता दल और लालूप्रसाद यादव परिवार को पांच बार पराजित कर दिया। लालू परिवार के एक-एक सदस्य चुनाव हार गए। राजद विधानसभा में 22 सीटें और 18 प्रतिशत मत तक पार्टी सीमित हो गई। विपक्ष की रिक्तता में यह संभावना बनी कि बिहार में भाजपा और जद- यू के समानांतर कोई नई राजनीतिक शक्ति खड़ी होगी। नीतीश कुमार ने अपनी तथाकथित सेक्युलर राजनीति में नरेंद्र मोदी विरोधी राष्ट्रीय चेहरा बनाने की मानसिक ग्रंथि के कारण बिहार की सकारात्मक राजनीतिक संभावना को उदित होने के पहले ही ग्रहण लगा दिया। अगर नीतीश ने नरेंद्र मोदी का विरोध करते हुए भाजपा का साथ छोड़कर राजग के साथ गठबंधन नहीं किया होता तो इस पार्टी का पूनर्उद्भव की कोई संभावना नहीं थी। परिणाम देखिए इस समय राजद विधानसभा में बिहार की सबसे बड़ी पार्टी है और नीतीश कुमार की जद-यू तीसरे नंबर की। हालांकि पहली बार भी नीतीश कुमार राजद के साथ 2 वर्ष से ज्यादा नहीं चल सके। उन्हें इस बात का अनुभव हो गया था कि लालू प्रसाद यादव परिवार के साथ मुख्यमंत्री की अथॉरिटी का पालन करते हुए सरकार चलाना असंभव है। उनकी पार्टी मंडलवादी होते हुए भी राजद के साथ असहज थी।बावजूद अगर दूसरी बार उन्होंने यही किया तो इसे भूल नहीं अपराध मानना चाहिए। उन्होंने पिछले दिनों विधानसभा में पति-पत्नी संबंधों पर दिए गए वक्तव्य को लेकर कहा कि मैं स्वयं अपनी निंदा करता हूं। इसी तरह उन्हें अपने इस राजनीतिक अपराध की सजा देने की स्वयं तैयारी करनी चाहिए । वे कह रहे हैं कि कुछ ठीक नहीं चल रहा था और इसीलिए हमने बोलना भी बंद कर दिया था। तो क्या ऐसा पहली बार हुआ? 

बिहार की जनता ने आपकी गलतियों को ठुकरा कर फिर से भाजपा जदयू को बहुमत दिया। हालांकि आपसे नाराजगी थी तभी जदयू की सीटें 43 तक सिमट गई। इस भावना को समझते हुए अगर वो सरकार चलाना जारी रखते तो बिहार की राजनीति इस तरह दयनीय तस्वीर नहीं बनती। तेजस्वी यादव ने अपने सधे हुए वक्तव्य में भी कहा है कि 2024 में ही उनकी पार्टी खत्म हो जाएगी।  इतना सच है कि नीतीश कुमार की  मानसिक अस्थिरता के कारण उनकी पार्टी ही दिल से उनके साथ नहीं थी और वैचारिक रूप से पार्टी का बहुमत उनसे अलग हो चुका था। अस्वाभाविक गठबंधन में जाने के कारण उनका मानसिक संतुलन कितना गड़बड़ हो गया था इसके प्रमाण उनके वक्तव्यों और व्यवहारों से लगातार मिलने लगा था। अनेक गंभीर विश्लेषकों ने भी कहना शुरू कर दिया था कि नीतीश कुमार को अब पद से अलग कर मानसिक उपचार के लिए तैयार किया जाना चाहिए । त्यागपत्र देने एवं नए सिरे से शपथ ग्रहण करने पर लंबे समय बाद उनके चेहरे पर हंसी दिखाई दी। उम्मीद करनी चाहिए कि अब यह हंसी बरकरार रहेगी और आगे जब तक शासन में हैं, सकारात्मक राजनीति करेंगे । भाजपा के लिए आवश्यक है कि एक ओर नीतीश कुमार को सम्मानपूर्वक विदाई का रास्ता तैयार करे तो दूसरी ओर पार्टी को अपने पैरों पर खड़ा करे। 

अयोध्या के श्रीराम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा के साथ जो वातावरण संपूर्ण देश और बिहार में बना है उसमें यह कार्य कठिन नहीं होगा। यह बदला हुआ वातावरण ही है जहां शपथग्रहण समारोह में जय श्रीराम के नारे तो लगे लेकिन नीतीश जिंदाबाद के नहीं । नीतीश के लिए भी एक ही रास्ता है कि वे सम्मान के साथ स्वयं को बिहार के नेतृत्व से आने वाले समय में अवसर तलाश कर अलग करें।

साम्यवाद: अराजकता और अशांति का पूरक

सिद्धार्थ पाराशर

साम्यवाद एक ऐसी विचारधारा है जिसे सरल शब्दों में समझे तो यह एक ऐसे समाज की परिकल्पना करती है जो वर्गविहीन हो, जिसमें निजी आधिपत्य न हो, न कोई जाति व्यवस्था हो समाज में केवल एक जाति मानवता हो, समाज मे उत्पादन सामूहिक तरीक़े से हो, व्यक्ति पर किसी भी प्रकार की कोई पाबंदी न हो, राज्य की तरफ से कोई अंकुश न हो तथा समाज राज्यविहीन। पहली नजर में तो यह विचारधारा देखने में सभी को आकर्षित करती है। अब यहाँ यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि इतनी  लोक लुभावन विचारधारा होने के बावजूद भी आज इसका अस्तित्व शून्य क्यों है? क्योंकि वास्तव में साम्यवादी सरकारों और इस विचारधारा के समर्थकों ने समाज में जितनी हिंसा और अशांति फैलाई है उतनी हिंसा शायद ही किसी अन्य तानाशाही सरकार ने की होगी। विश्व में जहाँ भी साम्यवादी सरकारें बनी उन्होंने सबसे अधिक जिस चीज पर अंकुश लगाया वो है "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता", सभी सरकारों के कार्यकाल में सबसे अधिक नरसंहार हुए और चीजों को छुपाया गया।

अक्टूबर क्रांति जिसमें असंख्य लोगों ने अपनी जान गँवायी और जारशाही का पतन हुआ फिर लेनिन ने रूस में साम्यवादी सरकार की नींव रखी। सत्ता हासिल करने के बाद लेनिन ने अपनी सत्ता को बचाने के लिए एक बड़ी सेना का गठन किया और फिर जिसने भी उसके विरुद्ध आवाज उठाई उसका दमन किया। इसमे सबसे अधिक दमन उसी सर्वहारा समाज का हुआ जिसको लेनिन ने सबसे अधिक सपने दिखाए थे, सत्ता को बचाने के इस खेल में लाखों लोगों ने अपनी जान गंवाई। 9 अगस्त 1918 को लेनिन ने सामूहिक रूप से अपने 100 विरोधियों को फाँसी दी। इसके कुछ महीने बाद ही उसने एक गुप्त सेना"चेका" बनाई, उसके सैनिकों ने एक बार में 800 किसानों की हत्या कर दी थी। इनका एक ही कार्य था लेनिन के खिलाफ उठी आवाज को खत्म करना। एक आकड़े के अनुसार 1918-1922 के बीच लेनिन के सैनिकों द्वारा 2 लाख लोगों की हत्या कर दी गयी थी ये वही लोग थे जिन्होंने सेना को अनाज नहीं दिया था।

1924 में लेनिन की मृत्यु के बाद स्टालिन ने सत्ता संभाली। स्टालिन अर्थात वह इंसान जिसका हृदय इस्पात (स्टील) का बना हो, वो अपने नाम की भाँति ही कठोर था। स्टालिन ने सत्ता हासिल करने के लिए अपनी ही पार्टी के लोगों का दमन किया। सत्ता हासिल करने के बाद अपने खिलाफ उठी हर आवाज को समाप्त करना उसकी फितरत थी। उसने मजदूर संघ, सरकार के सभी विभागों, कला और साहित्य को अपने अधीन किया ताकि कोई उसके विपरीत चीजों को प्रदर्शित न कर सके। 1932-1939 के बीच उसके गलत फैसलो के कारण अकाल पड़ा और 7 लाख से अधिक लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी।  सोवियत संघ मे कारखानों के विकास के लिए स्टालिन एक बड़ा टारगेट देता था जिसे पूरा ना करने पर देश का दुश्मन कह कर जेल में डाल देता था। आवाज उठाने पर पार्टी के सेंट्रल कमेटी के 139 में से 93 लोगों को मरवा दिया, सेना के 103 जनरल और एडमिरल में से 81 को मरवा दिया। शासनकाल में साम्यवाद का विरोध करने पर तीस लाख लोगों को ज़बरदस्ती साइबेरिया के गुलाग इलाक़े में रहने के लिए भेज दिया गया था एवं क़रीब साढ़े सात लाख लोगों को मरवा दिया गया था। उसके गलत नीतियों के कारण 50 लाख से अधिक लोगों की मौत हुई।

माओ त्सेतुंग साम्यवाद के एक महत्वपूर्ण विचारक जिसने मार्क्सवादी तथा लेनिनवादी दोनों विचारों को सैनिक नेतृत्व से जोड़कर एक नए विचार माओवाद का प्रतिपादन किया। माओ की नीतियों के कारण कई बार चीन की जनता को अपनी जान गँवानी पड़ी जिसमे सबसे महत्वपूर्ण नीति थी 1958-1962 के दौरान की ग्रेट लीप फॉरवर्ड और साँस्कृतिक क्रांति नामक राजनैतिक और सामाजिक नीति जिसके कारण देश में भयंकर अकाल पड़ा और इन कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में लाखों चीनी लोगों की मौत हुई । फोर पेस्ट कैम्पेन इसी का एक भाग था जिसमें 4 जीवों(मच्छर, मक्खी, चूहा और गौरैया) को मारना था जिसका दाव उल्टा पड़ा और पारिस्थितिकी तंत्र बिगड़ा जिसके कारण पेस्टिसाइड्स की मात्रा में भारी वृद्धि हुई और फसलों का नुकसान हुआ परिणामस्वरूप 1 करोड़ 50 लाख से अधिक लोगों को जान गंवानी पड़ी।

ऐसे ही यदि चीन के एक और घटना की चर्चा करें जिसमे साम्यवादी सरकार ने जनता की स्वतंत्रता की धज्जियाँ उड़ा दी थी, 4 जून 1989 के चीन के राजधानी बीजिंग के थियानमेन चौक पर छात्रों के शांतिपूर्ण आंदोलन का दमन। प्रदर्शन को दबाने के लिए चीन की सरकार ने पीपुल्स लिब्रेशन आर्मी (PLA) को उतार दिया था। सेना ने गोली बारूद के द्वारा इस प्रदर्शन को समाप्त किया, इस प्रकरण में 10 हज़ार से अधिक लोगों की जान गयी। आज भी सरकार ने इस प्रकरण से संबंधित किसी भी लेख, डॉक्यूमेंट्री पर प्रतिबंध लगाया हुआ है। प्रदर्शन के दौरान छात्रों ने लोकतंत्र की प्रतिमा को थियानमेन चौक पर स्थापित की थी, जिसे सरकार ने हमेशा के लिए हटा दिया। प्रेस की स्वतंत्रता की बात करें तो चीन में प्रेस सरकार के अधीन है और हाल ही में Reporters Without Borders नाम की एक संस्था ने बताया है कि चीन में प्रेस की स्वतंत्रता का परिदृश्य काफी चिंतनीय है और उसने चीन को नीचे से चौथे स्थान पर जगह दी।

सलोथ सार जिसे पॉल पॉट के नाम से जानते है ने 1975 के मध्य में कंबोडिया में एक साम्यवादी सरकार का गठन किया तथा 1976-79 के मध्य कंपूचिया का प्रधानमंत्री रहते हुए कंबोडिया को शुद्ध करने का प्रयास किया जिसके कारण 17 से 25 लाख लोगों को अपने जान से हाथ धोना पड़ा । उसने सामूहिक कृषि को बढ़ावा देने के लिए जबरन लोगों को शहरो से गाँवों की ओर धकेला और बेगार की परियोजनाओं में कार्य करने के लिए बाध्य किया।  इस दास श्रम, कुपोषण, मूलभूत सुविधाओं की कमी, खराब चिकित्सा व्यवस्था और भारी मात्रा में मृत्यु दंड के कारण कंबोडिया की लगभग 21% आबादी को अपनी जान गँवानी पड़ी थी।

इन सभी बातों का जिक्र मैंने इसलिए किया क्योंकि हर बात पर संविधान की दुहाई देने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग को पहले ये जानना होगा कि वो जो बार-बार संविधान खतरे में है, आजादी अभी अधूरी है, तानाशाही, लोकतंत्र खतरे में है जैसी तमाम बातें किस हक से बोलते है जबकि वे जिसे अपना आदर्श मानते हैं उन्होंने लोकतन्त्र और जनता के फैसलों का दमन सबसे अधिक किया है। मतलब पाखंड की भी सीमा होती है। खैर चीजों को नकारना, अस्वीकरना साम्यवाद की पुरानी आदत रही है। सभी बातों से यह अवश्य ही कहा जा सकता है कि साम्यवाद अशांति और अराजकता की जननी है।

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में परास्नातक में अध्ययनरत हैं।)


मंगलवार, 30 जनवरी 2024

दिल्ली गवर्नमेंट होम्योपैथिक मेडिकल ऑफिसर्स वेलफेयर एसोसिएशन (DGHMOWA) के जनरल बॉडी के चुनाव हुए

नई दिल्ली(संवाददाता)। दिल्ली गवर्नमेंट होम्योपैथिक मेडिकल ऑफिसर्स वेलफेयर एसोसिएशन (DGHMOWA) का वर्ष 2024-2026 के लिए आज दिनांक 28 जनवरी 2024 को जनरल बॉडी इलेक्शन हुआ।
जिसमें सर्व सहमति से डॉ बाबू लाल मीणा को अध्यक्ष, डॉ देवेंद्र सिंह सोलंकी को उपाध्यक्ष, डॉ राम कुमार को जनरल सेक्रेटरी, डॉ कोमल शर्मा को जॉइंट सेक्रेटरी एवं डॉ सईद अक्खतर को ट्रेजरार नियुक्त किया गया। इसके अतरिक्त अन्य बारह डॉ को एग्जीक्यूटिव मेंबर की शपद दिलाई गई। यह संस्था दिल्ली सरकार के अधीन कार्यरत समस्त सरकारी डॉक्टर्स के वेलफेयर के लिए कार्य करती है।
आज निवर्तमान समस्त सदस्यों का चयन एक इलेक्शन कमेटी जिसका नेतृत्व डॉ साहू, डॉ प्रशांत, डॉ रवि, डॉ अमित, डॉ शिरीन आदि कर रहे थे, की उपस्थित एवमं अन्य डॉक्टर्स की देखरेख में हुआ।

रविवार, 28 जनवरी 2024

उत्तर प्रदेश के बरेली जिले में एक ही परिवार के पांच लोगों की मौत हादसा या हत्या, परिवार ने हत्या की आशंका जताई

असलम अलवी

बरेली। उत्तर प्रदेश के बरेली जिले में स्थित एक घर के कमरे में दंपति समेत पांच लोगों के शव रविवार को संदिग्ध हालात में मिले हैं। सभी शव जले हुए थे। हैरत की बात यह है कि कमरे के बाहर ताला लगा हुआ था। परिवार के लोगों ने हत्या की आशंका जताई है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने संबंधित अधिकारियों को इस घटना की निष्पक्ष जांच के आदेश दिए हैं।

आईजी डॉ० राकेश सिंह और एसएसपी घुले सुशील चंद्रभान ने मौके पर पहुंच कर जांच पड़ताल की। एसएसपी चंद्रभान ने पत्रकारों को बताया कि हलवाई का काम करने वाला अजय कुमार गुप्ता उर्फ टिंकल (35) किराये के मकान में पत्नी अनिता (32), बेटे दिव्यांश (09) एवं दक्ष (03) और बेटी दिव्यंका (06) के साथ रहते थे। स्थानीय लोगों ने रविवार सुबह देखा कि अजय के दरवाजे पर ताला लगा हुआ है और कमरे से धुआं निकल रहा है। इस पर उन्होंने फौरन पुलिस को सूचना दी। मौके पर पहुंची पुलिस ने दरवाजा तोड़कर देखा तो कमरे में पूरा धुआं भरा हुआ था और पांच शव जले पड़े थे। इस मामले की जांच शुरू कर दी गई है।

 इधर घटना की जानकारी पर पहुंचे परिवार के लोगों ने हत्या की आशंका जाहिर की है। एसएसपी चंद्रभान ने बताया कि फिलहाल पुलिस घटनास्थल का जायजा लेकर आग लगने के कारणों का पता लगा रही है। सभी शवों को पोस्टमार्टम के लिए भेजा गया है।

शुक्रवार, 26 जनवरी 2024

क्या चुनावी वर्ष के बजट मे सार्वजनिक उपक्रमो को मिलेगी राहत

बसंत कुमार
कुछ दिन पूर्व हमारे एक मित्र का चयन भारत सरकार के एक उपक्रम मे प्रबंध निदेशक के रूप मे हो गया और सारे मित्र बहुत प्रसन्न हुए और सब ने कहा इस अवसर पर एक ग्रैंड पार्टी तो बनती हैं पर हमारी मित्र मंडली मे अर्थ शास्त्र के जानकर सदस्य ने बता कर कि यह उपक्रम घाटे मे चल रहा है और स्टाफ को कई महीनों से पूरा वेतन नही मिल रहा है, यद्यपि हमे अपनी मित्र की क्षमता और दक्षता पर पूरा भरोसा है कि वे अपनी मेहनत और दूर दर्शित से कम्पनी को इस स्थिति से निकाल लेंगे। पर इस घटना क्रम से हमे चर्चा करने का मुद्दा मिल गया कि इस प्रति स्पर्धि युग मे सरकारी उपक्रमो की प्रसंगीकता क्या है और जो सरकारी उपक्रम इस समय घाटे मे चल रहे है और देश का चुनावी वर्ष का बजट जो फरवरी 2024 मे आने वाला है तो क्या मोदी सरकार इन उपक्रमो को पटरी पर लाने के लिए विशेष सहायता राशि देकर कोई सकरात्मक कदम उठायेगी।
जैसा कि हम सभी जानते है देश मे सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमो ने अपनी स्थापना के बाद से देश के उच्च विकाश और समान समाज और आर्थिक विकास प्राप्त करने के उद्देश्य को साकार करने मे महत्व पूर्ण भूमिका निभाई है। देश के आर्थिक और आर्थिक विकास मे उनका निरंतर योगदान वैश्वीकरण की वर्तमान परिस्थितियों में और भी अधिक प्रासंगीक हो गया है, कुछ दिन पूर्व सरकार की ओर से  घाटे मे चल रही सार्वजनिक उपक्रमो का घाटा कम करने के लिए कहा गया कि यह एक निरंतर प्रक्रिया है और सरकार का प्रयास रहता है कि इन कंपनियों की स्थिति को कैसे सुधारा जाए। यद्यपि इस बात से इनकार नही किया जा सकता कि सरकार सरकारी उपक्रमो का घाटा कम करने और विनिवेश को बढ़ाने हेतु पी पी पी मॉडल के तहत उनकी हालत सुधारने का प्रयास कर रही है जैसा की पिछले कुछ वर्षो मे भारतीय रेल को पी पी पी मॉडल के सहारे लाभकारी लाभकारी संस्थान बनाने मे सफलता मिली है वही कुछ उपक्रमो को वित्तीय सहायता देकर फिर से खड़ा करने के प्रयास किये जा रहे है।
हाल में सरकार ने निर्णय किया कि सार्वजनिक क्षेत्र के उप क्रमो की संख्या कम करने और निजी क्षेत्र कर लिए अवसर खोले जाए ऐसे निर्णय ने देश मे सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमो की प्रसागिकता पर ही बहस छेड़ दी है अगर हम भारत के औद्योगिक विकाश पर नजर डाले तो पाएंगे कि सार्वजनिक उपक्रमो ने अर्थ व्यवस्था के साथ साथ उद्योगों के लिए एक मजबूत ढांचा प्रदान किया है, इसके अलावा सार्वजनिक उप क्रमो ने को सामाजिक अपेक्षा के साथ स्थापित किया गया था और उनका एक मात्र उद्देश्य लाभ कामना नही अपितु इनका दायित्व देश के लिए अर्थ व्यवस्था हेतु एक ढांचा तैयार करना था जो उन्होंने किया इसके अतिरिक्त इनकी स्थापना के और भी लाभ है।
1-सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम औपचारिक क्षेत्र मे रोजगार उत्पन्न करते है और उनके द्वारा निर्मित रोजगार स्थायी और सुरक्षित होते है वही निजी कंपनियों के द्वारा मुहैया किये गए रोजगारो की कोई गारंटी नही होती और अधिकांश रोजगार संविदा पर होते हैं और कब उन्हे हटा दिया जाए पता नही होता।
2-स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात शुरु के दशकों मे संपत्ति के निर्माण में सार्वजनिक उपक्रमो का योगदान विशेष रूप से उल्लेखनीय है, खासकर उन क्षेत्रों में जहा निजी क्षेत्रों द्वारा निवेश को उच्च जोखिम और कम रिटर्न वाला माना जाता हैं।
3- वैश्विक विस्तार के क्षेत्र मे सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमो का योगदान महत्व पूर्ण रहा है। देश के सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम काफी समय से ही मध्य पूर्व, अफ्रिका, यूरोप, एशिया, लैटिन अमेरिका और उत्तरी अमेरिका जैसे क्षेत्रों मे दुनिया भर मे मौजूद हैं और आज भी सर्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमो को वैश्विक विस्तार की जबरजस्त संभावनाये है ऐसे मे उन सरकारी उपक्रमो जो घाटे मे चल रहे हैं उन्हे वित्तीय समर्थन देकर खड़ा करने की जरूरत है। इन कंपनियों को सीधे सीधे बन्द करके निजी क्षेत्र को दे देना बिल्कुल अनुचित है, इसके लिए सरकार को अन्य वैकल्पिक उपायों पर सोचने की अवश्यकता है जिससे ये उपक्रम अपने उद्देश्यों को प्राप्त कर सके।
घाटे मे चल रहे उपक्रमो को को पटरी पर लाने के लिए निम्न विकल्पों पर विचार किया जाना चाहिए-
1- जिन उपक्रमो मे आम आदमी की जीविका और रोजगार की जरूरते पूरी होती है उन उपक्रमो को विशेष आर्थिक ग्रांट देकर पुन: खड़ा किया जाना चाहिए जैसे वर्ष 1956 मे स्थापित सेंट्रल कॉटेज इंडस्ट्रीज कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लि जो घाटे मे चल रही है की पुनर्स्थापना की स्थापना इसलिए आवश्यक है क्योकि इसके द्वारा कश्मीर, भदोही और प्रधानमन्त्री जी की लोक सभा वाराणसी के बुनकर  व गलीचा (कालीन) बनाने के काम मे लगे कारीगरों की रोजी रोटी चलती है।
2- सरकारी उपक्रमो पर घोषित नीति पर सरकार को पुन: विचार करने की अवश्यकता है, इन सरकारी उपक्रमो को एक पेसेवर बोर्ड द्वारा संचलित करके पुन: खड़ा किया जाना चाहिए यानो इन सार्वजनिक उपक्रमो को पी पी पी मॉडल के तहत संयुक्त उद्यम के रूप मे भी चलाया जा सकता है!
3- सार्वजनिक उपक्रमो के भविष्य के विकाश के लिए कुछ मानव कल्याण के प्रमुख उद्यमो को चिंहित कर तत्काल सहायता प्रदान करने की अवश्यकता है,
कहने का तात्पर्य यह है कि देश की अर्थ व्यवस्था के विकाश, मानव कल्याण, रोजगार मुहैया कराने के क्षेत्र में मे सार्वजनिक उप क्रमो ने बहुत महत्व पूर्ण भूमिका निभाई है पर आर्थिक सुधार युग के आगमन के साथ ही उदारीकरण, निजीकरण, वैश्विक रण की ओर बढ़ते विश्व मे सार्वजनिक उपक्रमो को कम किये जाने की नीति बहुत हानिकारक है, इसलिए सरकार को चाहिए कि आँख मूंद कर इन उपक्रमो को बंद करने के बजाय इन्हे पुनर्जीवित करने का प्रयास किया जाये।
कहने को तो हम विश्व की पांचवे नंबर् की आर्थिक महाशक्ति है और अपने पिछले नौ वर्षो के कार्यकाल में मोदी सरकार ने आर्थिक विकास के क्षेत्र मे और इंफ्रास्ट्रॅक्चर, विकसित करने मे आभूत पूर्व हासिल की है पर वही टेक्सटाइल सहित अनेक सेक्टरों मे कई उपक्रम घाटे मे चल रहे है और कई उपक्रमो मे कर्मचारियो को कई माह से वेतन न मिलना दुर्भाग्य पूर्ण है ऐसे में सरकार को एक वेलफेयर स्टेट की तरह अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह करते हुए चुनाव वर्ष के आखिरी बजट मे पर्याप्त फंड देकर सुचारु रूप से काम करने और मुनाफा कमाने का अवसर देना चाहिए जिससे ये संस्थान भी निजी क्षेत्र के मुकाबले कड़ी स्पर्धा पेश कर सके। माना कि अर्थ व्यवस्था के विकाश मे निजी क्षेत्र की महत्व पूर्ण है।

गुरुवार, 25 जनवरी 2024

प्राण प्रतिष्ठा के साथ घटित हो रही क्रांति

अवधेश कुमार 

अयोध्या इस समय श्री राम जन्मभूमि मंदिर में श्रीराम विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा के साथ भारत में ऐसी घटना का केंद्र बन गया है जिसकी तुलना विश्व में घटित किसी घटना से नहीं हो सकती है। जो अयोध्या में रहकर प्राण प्रतिष्ठा के पूर्व, उसके दौरान और बाद के यहां के साथ सम्पूर्ण देश के परिदृश्यों को गहराई से देखेगा उसे ही यह क्रांति समझ में आएगी। अयोध्या में रहते हुए मैं ऐसा घटित होते हुए साक्षात देख रहा हूं जिसकी कभी कल्पना नहीं की गई होगी। प्राण प्रतिष्ठा के बाद अपने भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि यह केवल प्राण प्रतिष्ठा नहीं सर्वकालिक उद्गम है। उन्होंने यहां से भारत के उत्कर्ष और उदय की बात की। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंचालक डॉक्टर मोहन भागवत ने प्रधानमंत्री की प्राण प्रतिष्ठा के पूर्व की गई तपस्या के बाद अब संपूर्ण भारत को वैसे तपस्या करने का आह्वान किया जिससे हिंदुत्व और राम के चरित्र को साकार हो। यानी हम सब एक दूसरे के लिए जियें,एक दूसरे के लिए सब कुछ दान करने ,सेवा के लिए अपने को अर्पित करने का चरित्र स्वयं में पैदा करें। यही वह भाव है जिससे अयोध्या के केंद्र से घटित होते हुए भारत की सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और धार्मिक क्रांति विश्व के क्रांतियों के इतिहास में एक अनोखा अध्याय बन रहा है।

1980 और 90 के दशक में श्री रामजन्मभूमि मंदिर निर्माण के आंदोलन को भी देश और दुनिया के राजनेता , एक्टिविस्ट, बुद्धिजीवी और पत्रकार नहीं समझ सके। इसकी व्याख्या ऐसे की गई मानो सांप्रदायिक शक्तियां भारत में मुसलमानों के विरुद्ध उन्माद पैदा कर सत्ता पर कब्जा करना चाहती है। 6 दिसंबर, 1992 के बाबरी विध्वंस को नाजीवादी और फासिस्टवादी हिंसक शक्तियों का कार्य घोषित किया गया। राजधानी दिल्ली की पत्रकारिता और बौद्धिक क्षेत्र का वातावरण ऐसा था जिसमें विवेकशील तरीके से बात करने वाले को हिंसक प्रहार तक का सामना करना पड़ता था। मैं स्वयं इसका प्रत्यक्ष गवाह हूं।‌

प्राण प्रतिष्ठा की तिथि घोषित होने के साथ अभी तक अयोध्या एवं पूरे देश की तस्वीर भारत की अंतर्निहित सामूहिक चेतना का प्रमाण दे रहा है। आपको अयोध्या में इस समय संपूर्ण भारत का दर्शन होगा। स्त्री , पुरुष, किशोर, युवा,वयस्क,‌बुढे सब भारी कष्ट उठाकर अयोध्या पहुंच रहे थे। आप अयोध्या के आसपास कई किलोमीटर तक जनसमूह को देख सकते थे। इसमें गहराई से समझने वाली बात है कि किसी के चेहरे पर परेशान या दुखी होने का भाव तक नहीं है। पैदल चलने से पैरों में दर्द होगा, सही समय पर भोजन नहीं मिलने से भूख भी लगी होगी, पर चेहरे पर आपको विलक्षण हंसी और गर्व का भाव दिखेगा। किसी से पूछिए कि क्या सोच कर आए तो उत्तर एक ही होगा, हमारे प्रभु राम 500 वर्ष के बाद मंदिर में विराजे हैं उन्हीं का दर्शन करने आया हूं। बात करने पर कइयों की आंखों से आंसू छलक पड़ते हैं।

अभी तक हमने स्थापित सत्ता के विरुद्ध हिंसक- अहिंसक विद्रोह को ही क्रांतियों की संज्ञा दी है। यह ऐसी क्रांति है जिसमें सामने कोई विरोधी नहीं, जहां किसी को उखाड़ फेंकना नहीं है , लोगों की सोच और व्यवहार से ऐसा परिवर्तन हो रहा है जिसका प्रभाव सैकड़ो वर्षों तक रहेगा। आधुनिक युग में सत्ता की व्याख्या पहले यूरोप और आज  सम्पूर्ण पश्चिम की देन है। वहां मूलत: राजनीतिक सत्ता की ही बात होती है। वहां की रीलिजन सत्ता( धर्म सत्ता नहीं ) भी राजनीतिक सत्ता के समानांतर रही है। भारतीय संस्कृति और व्यवस्था में धर्मसत्ता को सर्वोच्च स्थान मिला, उसके बाद समाज सत्ता, फिर राजसत्ता, और तब अर्थ सत्ता। तीनों का नियंता धर्म सत्ता। अयोध्या से निकल रही क्रांति भारत में धर्मसत्ता की पुनर्स्थापना है। यह ऐसी सत्ता है जिसमें  कोई आदेश- निर्देश देने वाला तंत्र नहीं , कोई आदेश -निर्देश का पालन न करे तो उसे प्रत्यक्ष सजा देने वाला नहीं। धर्म का पालन करने वाला हर व्यक्ति स्वयंमेव उसके नियमों यानी सबके प्रति करुणा, मनुष्य से लेकर चर-अचर, जीव-अजीव के प्रति संवेदनशीलता से अपने दायित्व का निर्वहन करेगा, सच्चाई , ईमानदारी और नैतिकता का पालन करते हुए उस अमूर्त सत्ता के प्रति स्वयं को समर्पित करता है। इसके लिए आधुनिक संदर्भ में राजसत्ता की तरह किसी लिखित संविधान- कानून, के पालन करने की बाध्यता नहीं, या न पालन करने पर दंडित करने वालों की आवश्यकता नहीं। स्पष्ट है कि इस तरह की धार्मिक-आध्यात्मिक -सांस्कृतिक-सामाजिक  क्रांति के ही परिणाम स्थायी होंगे। यह परिणाम राजनीति में भी परिलक्षित होता रहेगा। यह सामूहिक भाव तभी पैदा होता है जब अपने प्रति तथा धर्म -संस्कृति व राष्ट्र के प्रति गौरव का बोध हो। उस आत्मगौरव को नष्ट करने के लिए ही हमारे उन स्थलों को आक्रमणकारियों ने ध्वस्त किया जो हमें धर्मसत्ता को सर्वस्व मानकर जीवन जीने, सबके अंदर स्वयं को ही देखने तथा धर्म और राष्ट्र की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व अर्पण करने, बलिदान करने के लिए प्रेरित करती थी। स्वाभाविक ही अयोध्या की क्रांति कालचक्र को आधुनिक संदर्भ में फिर से उस स्थल पर ले जाने का द्योतक है जहां से इसके ध्वंस और  हमारे अंदर आत्महीनता पैदा करने की शुरुआत हुई। तो प्राण-प्रतिष्ठा के साथ इस क्रांति को और घनीभूत करते हुए भारत की स्थायी वृत्ति बनानी होगी ताकि फिर ऐसी स्थिति न पैदा हो जहां हमारे मान बिंदुओं को ध्वस्त कर भारत के आत्मविश्वास को खत्म किया जाए। ऐसा हुआ तो संपूर्ण विश्व फिर उसी एक दूसरे के विरुद्ध दुश्मनी, शोषण, दमन और रक्तरंजीत स्थिति को प्राप्त होगा जो हजार सालों से हो रहा है। प्रभु राम के चरित्र में अपने घोर दुश्मन के प्रति भी दुश्मनी का भाव नहीं। रावण की मृत्यु के बाद राम विभीषण को उसका विधिपूर्वक श्राद्ध करने को कहते हैं ताकि उसकी आत्मा को मुक्ति मिले। अयोध्या से निकला यही भारत आत्मसक्षम होने के साथ न केवल भारतीयों बल्कि संपूर्ण विश्व के कल्याण के लिए स्वयं को हर क्षण आगे रखने वाला होगा। इस तरह यह एक अनोखी वैश्विक क्रांति का भी घोष माना जाएगा। इसलिए इस विषय को गहराई से समझने वाले हर भारतवंशी का उत्तरदायित्व बढ़ जाता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सहित उन सारे संगठनों को भी इसे गहराई से समझते हुए नए सिरे से अपना उत्तरदायित्व और व्यवहार निर्धारित करना होगा।

विरोधी अभी भी यही राग अलाप रहे हैं कि आरएसएस और भाजपा ने 2024 के लोकसभा चुनाव का ध्यान रखते हुए प्राण प्रतिष्ठा कराई ताकि इसका चुनावी लाभ  मिले। दो राय नहीं की पूरा संघ परिवार कार्यक्रम में लगा था। यह सिद्ध भी हो गया कि इतना बड़ा कार्यक्रम करने की क्षमता संपूर्ण विश्व में किसी के पास है तो वह संघ परिवार ही है। प्राण प्रतिष्ठा ऐसा कार्यक्रम था जैसा पहले न कभी हुआ, न आगे कभी होगा। ऐसे कार्यक्रम को इतनी व्यवस्थित तरीके से पूर्ण कर देना असाधारण उपलब्धि है। निश्चित रूप से संघ परिवार में नीचे स्तर के लोगों ने आमंत्रण में दृष्टिहीनता के अभाव में ऐसे लोगों को भी बुलाया जो इस ऐतिहासिक अवसर में सम्मानित होने के पात्र नहीं थे। निस्संदेह ,सुपात्रों को वंचित किया गया। किंतु इससे इस दीर्घकालिक परिणामों की ओर अग्रसर क्रांति को ग्रहण नहीं लग सकता। पूरे अयोध्या में आपको एक भी भाजपा का कार्यकर्ता लोगों से यह कहते नहीं मिलेगा कि हमारा कार्यक्रम है, चुनाव में हमारा सहयोग करिए। इसके भी प्रमाण नहीं कि इतनी भारी संख्या में लोगों को अयोध्या लाने के पीछे भाजपा की भूमिका हो। भाजपा को अगर इसका चुनावी लाभ मिलेगा तो इसलिए कि अयोध्या में प्रभु श्रीराम का मंदिर बनने और विग्रह प्रतिष्ठापित होने की अदम्य आकांक्षाएं पूरी हुईं हैं। जिस संगठन परिवार ने, जिस पार्टी ने और जिस सरकार ने पूरा करके दिखाया उसके प्रति गहरी आत्मीयता और उसका समर्थन स्वाभाविक है। राजनीतिक नेतृत्व में शीर्ष पर होने के कारण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इस समय संपूर्ण भारत ही नहीं, विश्वभर के भारतवंशियों के शीर्ष पुरुष बन चुके हैं। आप अयोध्या में मोदी और योगी के बारे में कोई प्रश्न पूछिए उनके चेहरे का भाव बता देगा किया समर्थन नहीं श्रद्धा भाव है। नेताओं के प्रति भी ऐसे भाव को भी क्रांतिकारी परिवर्तन की तरह देखना गलत नहीं होगा।

मंगलवार, 23 जनवरी 2024

नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की हयाते तय्यबा

नामे मुबारक :- मुहम्मद (दादा ने रखा) अहमद (वलिदाह ने रखा)
पैदाइश तारिख :- 12 रबीउल अव्वल सन 570 ई.
पैदाइश दिन :- पीर
पैदाइश का वक़्त :- सुबह सादिक़
पैदाइश का शहर :- मक्का शरीफ
दादा का नाम :- शैबा-अब्दुल मुत्तलिब (कुनियत-अबुल हारिस)
दादी का नाम :- फातिमा
वालिद का नाम :-अब्दुल्लाह (कुनियत-ज़बीह)
वालिदा का नाम :-बीबी आमना (कुनियत-अबुल क़ासिम)
नाना का नाम :- वाहब बिन अब्दे मुनाफ
खानदान :-  क़ुरैश
दूध पिलाने वाली ख़ादिमा :- उम्मे एयमन. हलीमा सादिया
वालिद का इंतेक़ाल :- आपकी पैदाइश से पहले।
वालिदा का इंतेक़ाल :- जब आपकी उम्र 6 साल कि थी
(आपकी वालिदा का इंतेक़ाल अब्वा नाम कि जगह पर हुवा, जो मक्का और मदीना के बीच में है)
वालिद और वालिदा के इंतेक़ाल के बाद आपकी परवरिश :- दादा अब्दुल मुत्तलिब ने कि दादा के इंतेक़ाल के वक़्त आपकी उम्र 8 साल थी।
दादा ने परवरिश कि :-  2 साल
दादा के बाद आपकी परवरिश कि :- चाचा अबु तालिब ने की
आपके लक़ब :- अमीन। (अमानतदार) और सादिक़। (सच्चा)
पहला तिजारती सफ़र :- मुल्के शाम
पहला निकाह :- हज़रते खदीजा रदियल्लाहो तआला अन्हा। (मक्का के लोग ताहिरा नाम से पुकारते थे)
निकाह के वक़्त आपकी उम्र :- 25 बरस 
हज़तरे खदीजा रदियल्लाहु  तआला अन्हा कि उम्र :- 40 बरस
ऐलाने नुबुव्वत के वक़्त उम्र :- 40 बरस
पहली वही कि जगह :- ग़ारे हिरा (ग़ारे हिरा जबले नूर पहाड़ पर है)
वही लाते थे :- हज़रते जिब्रईल अलैहिस्सलाम
पहला नाज़िल लफ्ज़ :- इक़रा (पढ़ो)
सबसे पहले औरतो में इस्लाम क़ुबूल किया :- हज़रते खदीजा रदियल्लाहु तआला अन्हा ने
सबसे पहले मर्दो में इस्लाम क़ुबूल किया:-  हज़रते अबु बक़र सिद्दीक़ रदियल्लाहो तअला अन्हु ने।
सबसे पहले बच्चो में इस्लाम क़ुबूल किया:- हज़रते अली रदियल्लाहो तअला अन्हु ने।
आप व आप के साथी बेठा करते थे :- दारे अकरम(दारे अकरम सफा पहाड़ पर है)
पसीना मुबारक :- मुश्क़ से ज्यादा खुशबूदार था।
आप जिस रास्ते से गुज़रते थे लोग पुकार उठते कि यहाँ आप का गुज़र हुवा है।
साया :- आप का साया नही था।
कद:- न ज्यादा लम्बे न कम दरमियानी था।
भवे :- मिली हुई थी।
बाल :- घने और कुछ घुमाव दार थी।
आँखे:- माशा अल्लाह बढ़ी और सुर्ख डोरे वाली।
कुफ्फार मक्का ने बोकात किया:- नुबुव्वत के ऐलान के 9वें साल में।
ताइफ़ का सफ़र :- शव्वाल सन 10 नबवी।
हज़रते खदीजा व अबु तालिब का इंतिक़ाल :- ऐलाने नुबुव्वत के 10वें  साल में (इस साल को अमूल हुजन भी कहा जाता है)
हिजरत :-  ऐलाने नुबुव्वत के 13 साल बाद।
हिजरत के वक़्त उम्र शरीफ :- 53 साल।
मक्का से हिजरत :- मदीना कि जानिब।
हिजरत के साथी :-  हज़रते अबु बक़र सिद्दीक़ रदियल्लाहो तअला अन्हु।
हिजरत के वक़्त आपने पनाह ली:- ग़ारे सौर यहाँ आपने तीन  राते गुज़ारी।
इस्लामी तारीख का आगाज़ :-   आपकी हिजरत से।
पहली जंग :- गजवाये बद्र इसमें मुसलमानो कि तादाद 313 और काफिरो कि 1000 थी।
हज़रते ज़ैनब से निकाह:- हिजरत के पांचवे साल।
आपने निकाह किये :-  ग्यारह (इतने निकाह आपने इस्लाम और इस्लाम कि तालीमात को फैलाने के लिए किये)
दन्दाने मुबारक शहीद हुए :- जंगे उहद में।
सबसे बढे दुश्मन :- अबु लहब, अबु जहल
पर्दा के वक़्त उम्र शरीफ :- 63 बरस
पर्दा किया :- मदीना मुनव्वरा में


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मेरा दरवाज़ा खटखटाने का शुल्क

मेरा दरवाज़ा खटखटाने का शुल्क
जिन घरों में मैं अखबार डालता हूं उनमें से एक का मेलबॉक्स उस दिन पूरी तरह से भरा हुआ था, इसलिए मैंने उस घर का दरवाजा खटखटाया। उस घर के मालिक, बुजुर्ग व्यक्ति श्री बनर्जी ने धीरे से दरवाजा खोला।
मैंने पूछा, "सर, आपका मेलबॉक्स इस तरह से भरा हुआ क्यों है?"
उन्होंने जवाब दिया, "ऐसा मैंने जानबूझकर किया है।" फिर वे मुस्कुराए और अपनी बात जारी रखते हुए मुझसे कहा "मैं चाहता हूं कि आप हर दिन मुझे अखबार दें... कृपया दरवाजा खटखटाएं या घंटी बजाएं और अखबार मुझे व्यक्तिगत रूप से सौंपें।"
मैंने हैरानी से प्रश्न किया, " आप कहते हैं तो मैं आपका दरवाजा ज़रूर खटखटाऊंगा, लेकिन यह हम दोनों के लिए असुविधा और समय की बर्बादी नहीं होगी ?"
उन्होंने कहा, "आपकी बात सही है... फिर भी मैं चाहता हूं कि आप ऐसा करें ...... 
मैं आपको दरवाजा खटखटाने के शुल्क के रूप में हर महीने 500/- रुपये अतिरिक्त दूंगा।"
विनती भरी अभिव्यक्ति के साथ, उन्होंने कहा, *"अगर कभी ऐसा दिन आए जब आप दरवाजा खटखटाएं और मेरी तरफ से कोई प्रतिक्रिया न मिले, तो कृपया पुलिस को फोन करें!"
उनकी बात सुनकर मैं चौंक-सा गया और पूछा, "क्यों सर?"
उन्होंने उत्तर दिया, "मेरी पत्नी का निधन हो गया है, मेरा बेटा विदेश में रहता है, और मैं यहाँ अकेला रहता हूँ । कौन जाने, मेरा समय कब आएगा?"
उस पल, मैंने उस बुज़ुर्ग आदमी की आंखों में छलक आए आंसुओं को देख कर अपने भीतर एक हलचल महसूस कीं ।
उन्होंने आगे कहा, "मैं अखबार नहीं पढ़ता... मैं दरवाजा खटखटाने या दरवाजे की घंटी बजने की आवाज सुनने के लिए अखबार लेता हूं। किसी परिचित चेहरे को देखने और कुछ परस्पर आदान-प्रदान करने के इरादे से....!"
उन्होंने हाथ जोड़कर कहा, "नौजवान, कृपया मुझ पर एक एहसान करो! यह मेरे बेटे का विदेशी फोन नंबर है। अगर किसी दिन तुम दरवाजा खटखटाओ और मैं जवाब न दूं, तो कृपया मेरे बेटे को फोन करके इस बारे में सूचित कर देना ..." 
इसे पढ़ने के बाद, मुझे एहसास हुआ कि हमारे दोस्तों के समूह में बहुत सारे अकेले रहने वाले बुजुर्ग लोग हैं।
कभी-कभी, आपको आश्चर्य हो सकता है कि वे अपने बुढ़ापे में भी व्हाट्सएप पर संदेश क्यों भेजते रहते हैं, जैसे वे अभी भी बहुत सक्रिय हों ।
दरअसल, सुबह-शाम के इन अभिवादनों का महत्व दरवाजे पर दस्तक देने या घंटी बजाने के अर्थ के समान ही है;  यह एक-दूसरे की सुरक्षा की कामना करने और देखभाल व्यक्त करने का एक तरीका है।
आजकल, व्हाट्सएप बहुत सुविधाजनक है । अगर आपके पास समय है तो अपने परिवार के बुजुर्ग सदस्यों को व्हाट्सएप चलाना सिखाएं!
किसी दिन, यदि आपको उनकी सुबह की शुभकामनाएँ या संदेश नहीं मिलता है, तो हो सकता है कि वे अस्वस्थ हों और उन्हें आप जैसे किसी साथी की आवश्यकता हो ।
(संकलित)

गुरुवार, 18 जनवरी 2024

सकारात्मक वातावरण सुखद भविष्य का संकेत

अवधेश कुमार

इसमें दो मत नहीं कि देश में अद्भुत राममय वातावरण बना है। बाजारों में श्रीराम से जुड़ी चीजों की खरीदारी की नई प्रवृत्ति देखी जा रही है। बाजार में रामजी के नाम से बने सिक्के, आभूषण वस्त्र आदि की मांग काफी बढ़ी है और इस कारण व्यापारिक गतिविधियां भी। आपको चलते-फिरते किसी ने किसी मोहल्ले में श्री राम जय राम की धुन से लेकर अन्य संकेत मिल जायेंगे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार की कोशिशों से 22 जनवरी के लिए लाखों की संख्या में मंदिरों ने कार्यक्रम की तैयारी की है। कांग्रेस या कम्युनिस्ट पार्टियों के वक्तव्य और व्यवहार से निस्संदेह, थोड़ा नकारात्मक वातावरण बना लेकिन यह साफ दिख रहा है कि आम लोगों ने इसे स्वीकार नहीं किया तथा पूरा वातावरण सकारात्मक है। स्वयं कांग्रेस पार्टी के अंदर भी सोनिया गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे द्वारा निमंत्रण अस्वीकार करने का संपूर्ण समर्थन नहीं है। इससे पता चलता है कि लगभग तीन दशक बाद पूरे देश का वातावरण अयोध्या में श्रीराम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा को लेकर कैसा बना है। हालांकि 22 जनवरी के निमंत्रण को लेकर उन लोगों के अंदर थोड़ी निराशा और खीझ है जिन्होंने प्रतिबद्धता के साथ श्रीराम मंदिर के विषय को विपरीत परिस्थितियों में भी मुद्दे के रूप में बनाए रखने के लिए अपने निजी हितों की लगातार बलि चढ़ाई। ऐसे अवसर पर उनकी दुखद अनदेखी तथा ऐसे लोगों को, जिन्होंने या तो विरोध किया या सेक्युलरवाद विरोधी छवि न बने इस कारण खामोश रहे या बीच का रास्ता अपनाया या फिर जिन्होंने इन विषयों का संकुचित स्वार्थ के लिए उपयोग किया उन सबको निमंत्रण द्वारा प्रतिष्ठा देना ऐसे लोगों को कचोट रहा है। किंतु सबके मन में भाव यही है कि ध्वस्त किए गए मानविन्दुओं के 500 वर्षों बाद आध्यात्मिक अतःशक्ति को फिर से पुनर्प्रतिष्ठित करने का समय आया है तो ऐसे में विवाद खड़ा करके सकारात्मक वातावरण को कमजोर न किया जाए।

निश्चित मानिए ऐसे माहौल का संपूर्ण राष्ट्र के वर्तमान एवं भविष्य की दृष्टि से व्यापक प्रभाव होगा। 

तात्कालिक रूप से हम भले यह गणना करें कि आगामी लोकसभा चुनाव में इसका लाभ किसे मिलेगा या इसेसे किनको क्षति होगी, पर श्रीराम के बाल विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा तथा मंदिर के संपूर्ण निर्माण का प्रभाव केवल चुनाव तक सीमित नहीं हो सकता। यह तो साफ है कि जिस पार्टी ने अयोध्या के विवादित स्थल पर श्रीराम मंदिर के पुनर्निर्माण को अपना लक्ष्य घोषित किया, उसके लिए आंदोलन अभियान चलाए उसे मंदिर निर्माण और प्राण प्रतिष्ठा तक का श्रेय मिलेगा। जो पार्टियां आज राजनीतिक लाभ के लिए राम का उपयोग करने का आरोप लगातीं हैं उन्हें अपने गिरेबान में झांकने की आवश्यकता है। आखिर इन पार्टियों का ही नहीं, हमारे देश की मीडिया और बुद्धिजीवियों के बड़े समूह का श्रीराम मंदिर आंदोलन के प्रति रवैया क्या रहा? भाजपा ने जब से विवादित स्थल पर श्रीराम मंदिर निर्माण को अपने एजेंडे में शामिल किया तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रेरणा से विश्व हिंदू परिषद ने इसे आगे बढ़ाया तभी से पूरे परिवार के लिए कम्युनल फोर्सेस यानी सांप्रदायिक शक्तियां शब्द प्रयोग होने लगे। पहले विश्व हिंदू परिषद की एकात्मता यात्रा को जगह-जगह रोकने और बाधित करने की कोशिश हुई और बाद में लालकृष्ण आडवाणी की सोमनाथ से अयोध्या तक की रथ यात्रा को। रथ यात्रा के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय तक मामले ले जाए गए। यह अलग बात है कि आडवाणी इतना सधा हुआ भाषण देते थे कि न्यायालय को इसमें कुछ भी आपत्तिजनक, सांप्रदायिक या किसी कम्युनिटी को भड़काने जैसा नहीं मिला । ज्यादातर समाचार पत्रों-पत्रिकाओं ने इसके विरुद्ध ही तेवर अपनाया तथा कई ने तो अपनी पत्र-पत्रिका को ही राम मंदिर आंदोलन विरोधी अभियान का हिस्सा बना दिया। उस समय टेलीविजन या इंटरनेट का दौर नहीं था इस कारण आपको तब की सामग्रियों के लिए थोड़ी शोध करनी पड़ेगी। ऐसा माहौल बनाया गया मानो संघ और भाजपा देश में हिंदुओं और मुसलमान के बीच संघर्ष कराकर गृह युद्ध की स्थिति पैदा करना चाहती है। चाहे न्यायालय में मुकदमे लड़ने वाले हों या फिर अन्य तरीकों से श्रीराम मंदिर के पक्ष में काम करने वाले , सबका उपहास उड़ाया गया। लेकिन धीरे-धीरे जनता का व्यापक समर्थन मिला और मामला सघन हुआ तो न्यायालय तक में बड़े-बड़े वकील इसके विरोध में खड़े होने लगे।

राजधानी दिल्ली की पत्रकारिता और बौद्धिक क्षेत्र का वातावरण इतना डरावना था कि कोई सामान्य पत्रकार, लेखक, बुद्धिजीवी, अयोध्या आंदोलन या श्रीराम मंदिर के पक्ष में बोलने का साहस तक नहीं कर सकता था। ऐसा करने का अर्थ था उसके कैरियर का नष्ट हो जाना। कुछ को इसका खामियाजा भुगतना भी पड़ा। 6 दिसंबर, 1992 के बाबरी विध्वंस के बाद राम मंदिर समर्थकों के विरुद्ध आतंककारी वातावरण बन गया था। संघर्ष से जुड़े संगठन प्रतिबंधित थे, भाजपा और विहिप सहित मंदिर आंदोलन के अनेक नेता जेल में थे और उसके साथ ऐसा अभियान चल रहा था ताकि किसी तरह पूरे संगठन परिवार को नष्ट कर दिया जाए। राजधानी दिल्ली में हर दिन कहीं न कहीं गोष्ठियां होती थी जिनमें एक ही तर्क होता था कि योजनाबद्ध तरीके से षड्यंत्र कर ढांचे को ध्वस्त किया गया है। इसे विश्व भर में हिटलर और मुसोलिनी के समानांतर फासिस्टवाद की डरावनी घटना साबित की गई। समाचार पत्र और पत्रिकाओं के पन्ने रंग दिए गए जिनका स्वर ही होता था कि भारत में फासिस्ट मजहबी शक्तियां किस सीमा तक हिंसक हो चुकी है। आज कहा जा रहा है कि राम सबके हैं और मंदिर से किसी का विरोध नहीं है किंतु भाजपा और तत्कालीन बाल ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना को छोड़ दीजिए तो किसी भी पार्टी का एक शब्द आपको श्रीराम मंदिर के समर्थन में नहीं मिलेगा। बाबरी विध्वंस के बाद भाजपा की तीन सरकारें बर्खास्त कर दीं गईं और माहौल ऐसा बना जिसमें माना गया कि भाजपा की सत्ता में वापसी नहीं होगी। वैसे विपरीत माहौल में भाजपा के शीर्ष नेताओं में से कुछ के बयानों में काफी नरमी और क्षमायाचना की मुद्रा थी किंतु कुल मिलाकर पार्टी ने अपने एजेंडा से अयोध्या को हटाया नहीं। भाजपा और संघ परिवार के नेता रायबरेली न्यायालय में बाबरी ध्वंस का मुकदमा झेलते रहे तो दूसरी और श्रीराम मंदिर बनाम बाबरी मस्जिद सिविल वाद में भी संगठन परिवार  वादी न होते हुए भी पूरी ताकत लगा दी।   बड़े-बड़े वकील इसी कारण खड़े हुए तब जाकर जिला सिविल न्यायालय से लेकर उच्च और उच्चतम न्यायालय तक मामला गंभीरता से लड़ा जा सका।  

 यह भी स्वीकार करने में आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि केन्द्र में भाजपा की नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सरकार नहीं होती तथा उत्तर प्रदेश में गैर भाजपा सरकार होती तब भी मंदिर का निर्माण नहीं हो पता। न्यायालय का फैसला पड़ा रहता। केंद्र में सरकार होते हुए भी प्रदेश सरकार का पूरा सहयोग और समर्थन नहीं होता तब भी इसका निर्माण असंभव था। उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार है, योगी आदित्यनाथ की मंदिर निर्माण के प्रति अटूट आस्था है तथा उनके उपमुख्यमंत्रियों में भी केशव प्रसाद मौर्य विश्व हिंदू परिषद से निकले हैं। इसलिए संकल्प के साथ समय सीमा तय करके मंदिर निर्माण पूरा किया जा रहा है। दिसंबर 2023 या जनवरी 2024 तक गर्भगृह का संपूर्ण निर्माण कर उसमें मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा का लक्ष्य तय हुआ और यह साकार हो रहा है। इसमें अगर भाजपा को इसका लाभ मिल रहा है तो इसमें आश्चर्य का कोई विषय नहीं है। दूसरे दलों ने पहले भी इसी तरह का रवैया अपनाया और आज उनके सामने इस ऐतिहासिक कालखंड में अपनी सकारात्मक भूमिका निभाने का अवसर था जिससे वे चूक रहे हैं। किंतु इससे विचलित होने की बजाय प्राण प्रतिष्ठा के साथ  पूरे देश का सकारात्मक माहौल हमारे लिए आत्मसंतोष और प्रेरणा का कारण बनना चाहिए।

शुक्रवार, 12 जनवरी 2024

आगामी लोक सभा चुनावों में मायावती की डगर

बसंत कुमार

अगले कुछ माह में देश में आम चुनाव होने वाले है और एनडीए एवं इंडिया गठबंधनों के लोग अपनी अपनी सियासी गणित बिठाने में लगे हैं पर एक ऐसा चेहरा है जिसके विषय में यह अंदाजा नहीं लगाया जा सकता कि वह किस ओर जायेगी वह है बहुजन समाज पार्टी कीसुप्रिमो सुश्री मायावती। अभी तक यह अंदाजा नहीं लगाया जा सकता कि वह वर्ष 2024 में होने वाले चुनावो में की वो एनडीए अलायंस के साथ जायेगी या विपक्ष के अलायंस इंडिया के साथ जायेगी, इसके कारण जानना इसलिए भी आवश्यक है कि एक समय में देश में 21% आवादी वाले दलित मतदाता इनकी पार्टी के वोट बैंक माने जाते थे जिस प्रकार मुलायम सिंह यादव के समय में यादव मतदाता समाजवादी पार्टी के मतदाता के रूप में जाने जाते थे। आलम यह था कि कांग्रेस और भाजपा सहित अन्य पार्टिया जाटव(चमार) व यादव बस्तियों में प्रचार करने में जाने में कतराती थी और वहा जाकर प्रचार को समय की बर्बादी समझते थे यहाँ तक की भाजपा के चाणक्य माने जाने वाले अमित शाह ने एक बार खुले तौर पर गैर जाटव और गैर यादव रणनीति को स्वीकार किया था। यह अलग बात है कि मायावती जी ने कभी भी किसी जाटव जाति के नेता को प्रमोट नहीं किया उनके सिपह सलारो में नसिमुद्दी सिद्धिकी, स्वामी प्रसाद मौर्या और सतीश चंद मिश्र आदि रहे अर्थात  जाटव समाज का एक भी नेता उनके सिपह सलारो में कभी नहीं रहा और अंततोगत्वा उन्होंने अपने भतीजे प्रकाश आनंद को को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया।

फिर भी इंडिया गठबंधन के नेता मायावती को अपने पाले में लाने की भरपूर कोशिश कर रहे है और आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल कई मौकों पर इस बात को दोहरा चुके है यद्यपि सपा अद्यक्ष अखिलेश यादव बसपा का इंडिया गठबंधन में विरोध कर रहे है वे वर्ष 2019 में मायावती के साथ गठबंधन का हवाला देते हुए कहते है कि हमारे परम्परा गत वोट तो बसपा उम्मीद वारो को मिल गए पर हमारे प्रत्यासियो को जाटव बिरादरी के लोगो ने वोट देने के बजाय भाजपा उम्मीदवारों को वोट देना बेहतर समझा।

बसपा के संस्थापक काशी राम जीवन भर ब्राह्मण बनिया और ठाकुर की राजनीति का विरोध करते रहे और दलित एवम अति पिछड़ी जातियों को एक साथ जोड़ने का प्रयास करते रहे परंतु उनकी मृत्यु के पश्चात मायावती ने सतीश चंद मिश्र के साथ मिलकर जाटव- ब्राह्मण अलाइंस के माध्यम से सोसल इंजीनियरिंग कार्ड खेला और वर्ष 2007 में भाजपा सपा और काग्रेस को पछाड़ते हुए सत्ता में आई पर मायावती अपने मुख्य मंत्रित्व काल में ऐसी कोई उपलब्धि न कर पायी जिससे उन्हे बाबा साहब अंबेडकर और काशी राम की लिगेसी का वारिश कहा जा सके। उप्र में जाटवो व चमारो के आर्थिक विकास के लिए कोई कदम नहीं उठाये, यही कारणों का प्रधानमन्त्री आवास योजना, उज्जवला योजना, घर घर शौचालय से प्रभावित होकर दलित ( जाटव) समाज को मतदाता आज भाजपा की और झुकता हुआ नजर आ रहा है, एक अनुमान के मुताबिक उ प में दलितो में 65 उप जातियाँ है, इनमें सबसे बड़ी आवादी जाटव समुदाय की है जो कुल दलित आवादी का 50% है। विशेषज्ञ यह भी मानते है कि मायावती दलितो के बीच अब वो दम नहीं रखती जो पहले हुआ करता था और दलितो का अच्छा खासा तबका अब भाजपा के साथ लगातार जुड़ रहा है जैसा वर्ष 2014 और वर्ष 2019 के लोक सभा चुनावो में देखा गया। दूसरा बसपा में टिकट के बदले धन उगाही के कारण मायावती से उनकी अपनी बिरादरी के शिक्षित व योग्य लोग बसपा का टिकट मांगने से कतरा रहे है जबकि काशी राम के समय पार्टी में व्यक्ति का पार्टी के सिद्धांतों के प्रति संकल्प को विशेष महत्व दिया जाता था पर अब ऐसा नहीं है,

यह जानते हुए इंडिया के अधिकांश घटक मायावती को अपने अलायंस में मिलाना चाहते हैं और ऐसी संभावना है कि अगला चुनाव एनडीए बनाम इंडिया हो सकता है ऐसे में मायावती जी किसी भी गठबंधन के साथ जाने में क्यो कतरा रही है। जबकि मायावती सदैव भाजपा को मनुवादियों की पार्टी कह कर अपना दुश्मन नंबर वन कहती रही है यह अलग बात है वे उसी भाजपा के समर्थन से उ प की मुख्य मंत्री बनती रही हैं पर जब से उनकी स्थिति कमजोर हो गयी है और उनका पारंपरिक वोट भाजपा की ओर खिसक रहा है ऐसे में आगामी लोक सभा चुनाव मायावती के घटते वोट शेयर और घटती घटती सीटें उनके लिए चुनौती है और वो यह तय नहीं कर पा रही है दोनों गठबंधनो में से किसके साथ जाँये या अपने दम पर चुनाव लड़े। भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन एनडीए के लिए यही फायदे मंद रहेगा कि वो अलग चुनाव लड़े जिससे कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन का वोट बैंक काट कर भाजपा की जीत सुनिश्चित कर सके जैसा अभी हाल में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ में देखने को मिला है। ऐसी परिस्थितियों में भाजपा को भी बसपा के वोट बैंक जाने वाले जाटव वोट बैंक को साधने के लिए सकरात्मक कदम उठाना होगा और टिकट बटवारे में सुरक्षित सीटो पर जाटवो की जगह पासी, खटिक आदि को अधिक वरीयता देने की नीति को त्यागना होगा'

एक अनुमान के अनुसार देश में 21% आवादी दलितो की है और काशी राम जी के समय में इन दलित वोटरो पर बहुजन समाज पार्टी का वर्चस्व होता था, विशेषकर जाटवो को भाजपा का शत प्रतिशत वोट बैंक माना जाता था पर काशीराम के देहांत के बाद से जाटव मतदाता बसपा से बिखर कर नरेंद्र मोदीजी के कारण भाजपा को अपने विकल्प के रूप में देखने लगा है क्योकि मायावती की पैसे के लोभ और परिवार वाद की नीति के कारण वह बसपा से बिखर गया है अब बसपा की भी इन्हे अपनी ओर लाने का प्रयास करना होगा और इस वर्ग के योग्य और प्रतिभा शाली लोगो को को लोक सभा चुनावो और संगठन में अवसर प्रदान करे जो मायावती को एनडीए के साथ लाने के प्रयास से बेहतर होगा, वैसे भी वर्ष 2014 केबाद भाजपा अब ब्राह्मण और बनियों की पार्टी के बजाय दलितो और पिछड़ो में अपनी पैठ बना रही हैं।

गुरुवार, 11 जनवरी 2024

हिंडेनबर्ग पर शीर्ष न्यायालय के फैसले के मायने

अवधेश कुमार

अडानी हिंडेनबर्ग मामले में उच्चतम न्यायालय न्यायालय के फैसले का पहला विवेकशील निष्कर्ष यह है कि सरकार के विरुद्ध किसी मुद्दे को उठाने और उसे बड़ा बनाने के पहले उस पर पर्याप्त शोध और सोच-विचार किया जाना चाहिए। न्यायालय के फैसले को आधार बनाएं तो हिंडेनबर्ग रिपोर्ट को लेकर भारत और भारतीयों के संपर्क से पूरी दुनिया में जो बवंडर खड़ा हुआ, शेयर मार्केट से लेकर स्वयं गौतम अडानी की कंपनियों को जो नुकसान पहुंचा तथा नरेंद्र मोदी सरकार को लेकर पैदा हुआ संदेश सभी तत्काल निराधार साबित हुए हैं। न्यायालय यह कहते हुए याचिकाओं को निरस्त कर दिया कि हिंडेनबर्ग के आरोपों की जांच के लिए सीट या विशेष जांच दल गठित करने यानी किसी दूसरी एजेंसी को सौंपने की आवश्यकता नहीं है। याचिकाकर्ताओं की ओर से बार-बार सिक्योरिटी एंड एक्सचेंज बोर्ड आफ इंडिया यानी सेबी की जांच को प्रश्नों के घेरे में लाने को भी न्यायालय ने सही नहीं माना तथा उसकी जांच से संतुष्टि व्यक्त की। सेबी अब तक 24 में से 22 मामलों की जांच पूरी कर चुकी है।

 सही है कि शीर्ष न्यायालय ने सेबी और भारत सरकार से कहा है कि निवेशकों की रक्षा के लिए तत्काल उपाय करें, कानून को सख्त करें तथा जरूरत के मुताबिक सुधार भी।  यह भी कहा कि सुनिश्चित करें कि फिर निवेशक इस तरह की अस्थिरता का शिकार नहीं हो जैसा कि हिडेनबर्ग रिपोर्ट जारी होने के बाद देखा गया था। ध्यान रखिए कि न्यायालय द्वारा न्यायमूर्ति सप्रे की अध्यक्षता में गठित विशेषज्ञों की समिति की रिपोर्ट पर भी विचार किया गया। इस समिति ने भी शेयर निवेश की सुरक्षा से संबंधित सुझाव दिए हैं। न्यायालय ने उसे शामिल करने को कहा है। वास्तव में फैसले का यह पहलू स्वाभाविक है क्योंकि हिडेनबर्ग रिपोर्ट के बाद अडानी समूह के शेयरों में जिस ढंग से गिरावट आई उससे पूरा भूचाल पैदा हो गया था। आगे ऐसा ना हो इसका सुरक्षा उपाय करना आवश्यक है और इसी ओर न्यायालय में ध्यान दिलाया है । इसमें कोई अगर किसी भी तरह हिंडेनबर्ग रिपोर्ट में थोड़ी सच्चाई देखता है वह उसकी समझ पर प्रश्न खड़ा होगा। न्यायालय के फैसले से साफ हो गया है कि गौतम अडानी को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर लगाए गए आरोप निराधार ही थे। किंतु भारत की राजनीति और एक्टिविज्म की दुनिया में शिकार करने का चरित्र। इसलिए पहले सेबी और फिर आप न्यायालय को भी कटघरे में खड़ा करने का अभियान चल रहा है।

यह स्थिति चिंताजनक है। अगर उच्चतम न्यायालय को हिडेनबर्ग रिपोर्ट में थोड़ी भी सच्चाई दिखती तो उसके आदेश में यही लिखा होता कि आगे कोई भी कंपनी किसी तरह अपने प्रभाव का लाभ न उठा पाए इसके लिए सुरक्षाउपाय करें। उसने ऐसा नहीं कहा है। उसका कहना इतना ही है कि अगर कहीं से फिर ऐसी रिपोर्ट आ गई तब शेयर मार्केट में निवेशकों को कैसे सुरक्षित रखा जाए इसकी व्यवस्था होनी चाहिए। उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा है कि केंद्र सरकार की जांच एजेंसी के रूप में सेबी जांच करें कि क्या हिंडनबर्ग रिसर्च और किसी अन्य संस्था की वजह से निवेशकों को हुए नुकसान में कानून का कोई उल्लंघन हुआ है? यदि हुआ है तो उचित कार्रवाई की जाए। याचिकाकर्ताओं ने कई नियमों में खामियों की बात उठाई थी जिसे न्यायालय ने खारिज कर दिया। न्यायालय ने कहा कि संशोधन से नियम सख्त हुए हैं। खोजी जर्नलिस्ट संगठन की रिपोर्ट को भी खारिज किया गया और कहा कि यह सेबी की जांच पर सवाल उठाने के लिए मजबूत आधार नहीं है, इन्हें इनपुट के रूप में नहीं माना जा सकता है। जरा पीछे लौटिये और याद करिए कि पिछले वर्ष 24 जनवरी को अडानी समूह पर हिंडेनबर्ग रिपोर्ट आने के बाद क्या स्थिति पैदा हुई थी? तब समूह का मार्केट कैप 19.2 लाख करोड़ था। इस रिपोर्ट के बाद उसकी 9 कंपनियों का वैल्यूएशन 150 अरब डालर तक घट गया था। धीरे-धीरे उसकी भरपाई हो रही है किंतु अभी भी वह उसे समय से 31% नीचे है। यद्यपि उच्चतम न्यायालय के फैसले के बाद तेजी से अडानी समूह के शेयर भाव उछले एवं उसी अनुसार सूचकांक भी। बावजूद उस क्षति की भरपाई एक बड़ी चुनौती है। प्रश्न है कि इसके लिए किसे जिम्मेदार माना जाए? करोड़ों निवेशकों के जो धन डुबाने के लिए कौन दोषी है? सबसे बड़ी बात कि इससे भारत की छवि पूरी दुनिया में बिगड़ी उसकी भरपाई कौन करेगा? हिंडेनबर्ग रिपोर्ट को आधार बनाकर दुष्प्रचार यही हुआ कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं और उनकी सरकार एक उद्योगपति कारोबारी के लिए किसी सीमा तक जाने को तैयार है। उन्हें सरकार का राजनीतिक संरक्षण और सहयोग प्राप्त है जिनकी बदौलत ही यह कंपनी आगे बढ़ी है अन्यथा इसकी अपनी क्षमता ऐसी नहीं है। यह सरकार और पूंजीपति के बीच शर्मनाक दुरभिसंधि का आरोप था। यह आरोप सच होता तो क्ऱनी केपीटलिइज्म का इससे बड़ा उदाहरण कुछ नहीं हो सकता। विश्व भर में निवेशकों और कारोबारियों के बीच यह छवि बन जाती कि वाकई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक ही उद्योगपति और कारोबारी के हितों में नियम बनवाते हैं, उसे सत्ता का संरक्षण प्रदान करते हैं और इसी बदौलत समूह देश और दुनिया में अवैध तरीके से वित्तीय शक्ति का विस्तार कर रहा है तो फिर वे भारत से मुंह मोड़ लेते।‌ इसका संपूर्ण भारतीय अर्थव्यवस्था और आर्थिक रूप से महाशक्ति बनने के लक्ष्य पर क्या प्रभाव पड़ता इसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है। वास्तव में हिंडेनबर्ग रिपोर्ट एक कंपनी पर अवश्य था किंतु इससे पूरे भारत सरकार और देश की नियति नत्थी हो गई थी। हिंडेनबर्ग ने में मुख्यत: यही कहा था कि अदानी समूह की वित्तीय हैसियत इतनी बड़ी है नहीं जितनी वह अंकेक्षण में दिखलाती  है, वह अपना मूल्यांकन जानबूझकर ज्यादा करवाती है जिससे उसके शेयर भाव बढ़े रहते हैं तथा टैक्स हैवन देशों में सेल कंपनियां बनाकर वह गलत निवेश करती है और इन सबमें उसे सत्ता का पूरा सहयोग और संरक्षण है। कोई कंपनी प्रधानमंत्री के वरदहस्त से काली कमाई करती हो इससे खतरनाक आरोप और क्या हो सकता है। साफ है कि जहां हिडेनबर्ग रिपोर्ट के पीछे केवल एक कंपनी की वित्तीय स्थिति को अपनी दृष्टि से सामने लाना नहीं था बल्कि निशाने पर नरेंद्र मोदी सरकार और उसके माध्यम से पूरा भारत था। जिस देश में इस ढंग से क्रॉनी केपीटलिइज्म हो उसकी दुनिया में साख और हैसियत कुछ हो ही नहीं सकती। प्रधानमंत्री  कह रहे हैं कि 2024 से 29 के बीच भारत विश्व की तीसरी अर्थव्यवस्था बनेगा और 2047 तक विश्व की पहली श्रेणी का देश बनाना है तो निश्चय ही इससे अनेक देशों संगठनों, नेताओं, यहां तक की भारत के भी कुछ लोगों और समूहों के कलेजे पर सांप लोट रहा होगा। वो हर तरीके से इसमें बाधा उत्पन्न करने की कोशिश करेंगे। उच्चतम न्यायालय ने हिंडेनबर्ग रिपोर्ट के पीछे के इरादों या कानूनों के उल्लंघन, निवेशकों को हुए नुकसान के पीछे कारकों के जांच के लिए हरी झंडी दी हैतो  उम्मीद रखिए की आने वाले समय में पूरा सच सामने आएगा। उच्चतम न्यायालय की सुनवाई से इतना स्पष्ट हुआ कि भारत के एक नामी वकील के एनजीओ ने कंपनी के संदर्भ में सूचनाएं पहुंचाने में भूमिका निभाई थी। कुछ बातें महुआ मोइत्रा के संसदीय जांच समिति की रिपोर्ट से भी पता चलता है। यह सामान्य बात नहीं है कि एक शॉर्ट सेलिंग वाली कंपनी जो ऐसा करके मुनाफा कमा रही हो उसे हमारे यहां शत -प्रतिशत सच मान लिया तथा अडानी समूह एवं तथ्यों पर बात करने वाले को गलत। दलीय राजनीति के बीच वैर भाव इस सीमा तक न हो कि आपसी संघर्ष में देश का हित ही दांव पर लग जाए।



बुधवार, 10 जनवरी 2024

श्रमिक विरोधी नीतियों के विरूध, एनएफआईआर के आह्वान पर यूआरएमयू का क्रमिक अनशन प्रारम्भ

नई दिल्ली। एनएफआईआर के आह्वान पर उत्तरीय रेलवे मजदूर युनियन के हैडक्वार्टर मण्डल के आह्वान पर कनॉट प्लेस स्थित केन्द्रीय चिकित्सालय के बाहर मण्डल मंत्री डीके चावला के नेतृत्व में सैकड़ो रेल कर्मचारीयों ने प्रातः 9 बजे से सायं 5 बजे तक कमिक अनशन का प्रारम्भ किया गया।
कार्यक्रम को सम्बोधित करते हुए करते हुए यूआरएमयू के महामंत्री बी सी शर्मा ने कहा की केन्द्र सरकार को अब एनपीएस की मांग पर न्यायोचित आधार पर विचार करते हुए तुरन्त श्रमिक हित को सर्वोपरी रखकर तत्काल पुरानी पैशन से बदल देना चाहिये। पुरानी पेंशन से सम्पूर्ण श्रमिक परिवारो का हित जुड़ा हुआ है। मण्डल मंत्री डी के चावला ने कहा कि महगाई भत्ते की तीनों रूकी हुई किश्तें तत्काल प्रभाव से जारी करें और अपनी घोषणानुसार 2026 के लिये श्रम मण्डल सह मंत्री इन्द्रजीत सिंह ने कहा कि केन्द्र सरकार के प्रत्येक लक्ष्य के लिये जान की बाजी लगाकर प्रण प्राण से रात दिन समर्पित भाव से कार्य करने वाले केन्द्रीय कर्मचारीयो को ओपीएस के दायरे में लाना पूर्णतः श्रमिक हितों पर कुठाराघात है। केन्द्रसरकार अपनी ही नीति के विरूध जाकर नियमित प्रकृति के कार्यों को भी ठेकेदारी प्रथा की आंधी चला दी है चंही ठेकेदार द्वारा प्रशासन की नाक के नीचे खुले आम ठेके श्रमिकों का आर्थिक शोषण व्यापक पैमाने पर हो रहा है श्रमिकों को लगाने के नाम पर मोटी रकम लेने के बाद भी, छुटटीयों के स्थान पर डबल डयूटी के साथ मासिक भुगतान भी कम किया जा रहा है जिस पर कोई कार्यवाही नहीं की जा रही है।
धरने को केन्द्र सरकार को श्रमिक विरोधी नितियों को तत्काल वापस लेने का आहवान करते हुए रेणु त्यागी, मनोज मच्चल, रमणीक शर्मा, आशीष यादव, बलवान ग्रेवाल, ने सम्बोधित किया।

मंगलवार, 9 जनवरी 2024

उपराज्यपाल ने नए भर्ती किए गए 398 सरकारी कर्मचारियों को नियुक्ति पत्र सौंपे

नई दिल्ली। दिल्ली के उपराज्यपाल, श्री वी के सक्सेना ने विज्ञान भवन, दिल्ली आयोजित एक समारोह में 398 नवनियुक्त सरकारी कर्मचारियों को नियुक्ति पत्र वितरित किए। पिछले डेढ़ साल के दौरान दिल्ली सरकार के विभागों/सिविक एजेसियों में 22,000 स्थायी सरकारी भर्तियां की गई हैं। मृत सरकारी कर्मचारियों के 149 आश्रित को अनुकम्पा के आधार पर नियुक्ति पत्र सौंपे गये। चयन की प्रक्रिया पारदर्शी और परेशानी रहित है। भर्ती की निष्पक्ष और पारदर्शी प्रणाली के माध्यम से राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार के विभिन्न विभागों/स्वायत्त निकायों/स्थानीय निकायों में स्थायी आधार पर पदों को भरने का उद्देश्य रिक्त पदों पर संविदा और तदर्थ नियुक्तियों की प्रणाली को समाप्त करना है। उपराज्यपाल ने बताया कि डेढ़ साल के भीतर, दिल्ली सरकार के विभिन्न विभागों में 22,000 और रिक्तियों को भरा जाएगा।

सेवा विभाग द्वारा आयोजित आज के समारोह में माननीय उपराज्यपाल ने नए भर्ती किए गाए 398 सरकारी कर्मचारियों को नियुक्ति पत्र सौपे, जिन्हें शिक्षा निदेशालय, सूचना और प्रौद्योगिकी विभाग, दिल्ली परिवहन निगम, दिल्ली नगर निगम, नई दिल्ली नगरपालिका परिषद, श्रम विभाग, दिल्ली कृषि विपणन बोर्ड, दिल्ली जल बोर्ड जैसे विभिन्न विभागों/स्थानीय निकायों/स्वायत्त निकायों में नियुक्त किया जा रहा है। सेवा विभाग और नई दिल्ली नगर निगम द्वारा अनुकंपा के आधार पर 149 नियुक्तियां की गई है। नई नियुक्तियों में महिला, दिव्यांग और अन्य आरक्षित श्रेणियों के लोग शामिल है।
आज का आयोजन 24.02.2023, 19.04.2023 और 30.06.2023 को आयोजित पिछले कार्यक्रमों के क्रम में अपनी तरह का चौथा समारोह था। इन अवसरों के दौरान, माननीय उपराज्यपाल ने लगभग 3400 नियुक्ति पत्र वितरित किए। दिल्ली के मुख्य सचिव ने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार के विभिन्न विभागों, स्थानीय निकायों और स्वायत्त निकायों के प्रमुखों के साथ-साथ अन्य सम्मानित अतिथियों के साथ इस कार्यक्रम की शोभा बढ़ाई।
श्री ए. के. सिंह, आईएएस, प्रमुख सचिव (सेवाएं) ने स्वागत भाषण दिया और नवनियुक्त सरकारी कर्मचारियों को बधाई दी। उन्होंने श्रोताओं को बताया कि सभी संबंधित विभागों के ठोस प्रयासों के कारण सेवा विभाग के लिए इन समारोहों को त्वरित रूप से आयोजित करना संभव हो पाया है। उन्होंने श्रोताओं को सूचित किया कि माननीय उपराज्यपाल के मार्गदर्शन और निर्देशन में दिल्ली सरकार में अनुकंपा नियुक्ति के लिए एक संशोधित योजना तैयार की गई है, जो न केवल निष्पक्ष और पारदर्शी है, बल्कि मृतक सरकारी कर्मचारी की वित्तीय स्थिति के संतुलित और वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन की सुविधा भी प्रदान करती है। उन्होंने दर्शकों को आगे बताया कि भर्ती प्रक्रिया के अलावा, सेवा विभाग ने माननीय उपराज्यपाल, दिल्ली द्वारा निर्धारित दृष्टिकोण और प्राथमिकताओं के अनुसार भर्ती नियमों और अन्य सेवा संबंधी मुद्दों को नियंत्रित करने वाले नियमों को फिर से तैयार करने/संशोधित करने के लिए सक्रिय उपाय किए हैं।
डीएसएसएसबी के अध्यक्ष ने आज के समारोह के दौरान प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में माननीय उपराज्यपाल दिल्ली के निर्देशन और निगरानी में हासिल किये गये डीएसएसएसबी की हाल के दिनों की उपलब्धियों पर प्रकाश डाला। अपने संबोधन में बताया कि पिछले डेढ़ वर्षों में बोर्ड की दक्षता में महत्वपूर्ण सुधार हुआ है और यह प्रतियोगी परीक्षाओं के संचालन के लिए एक कुशल और पारदर्शी तंत्र स्थापित करने में सक्षम रहा है, जो पेपरलेस, संपर्क रहित और परीक्षा केंद्रों पर बायोमेट्रिक जांच के साथ ऑनलाइन है। प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करने के लिए उठाए गए विभिन्न कदमों के साथ, परिणामों की घोषणा में लगने वाला समय पहले के 12 महीनों की तुलना में 6 से 8 महीने तक हो गया है। 10,000 चयन पहले ही किया जा चुका है। 9000 रिक्तियों चयन भर्ती के विभिन्न चरणों में है और 13000 रिक्तियों की जांच की जा रही है। अगले डेढ़ साल की अवधि के भीतर लगभग 22,000 और रिक्तियां भरी जाएंगी।
नवनियुक्त सरकारी कर्मचारियों ने भी इस अवसर पर अपने विचार रखे और आभार व्यक्त करते हुए बड़ी निष्ठा, ईमानदारी और पारदर्शिता के साथ कार्य करने का संकल्प लिया।
मुख्य सचिव ने भी श्रोताओं को संबोधित किया। उन्होंने जीएनसीटीडी की सरकारी सेवा में प्रवेश करने पर नए भर्ती किए गए सरकारी कर्मचारियों को बधाई दी और उनसे आग्रह किया कि उन्हें पहले दिन से ही पूरे जुनून और उत्साह के साथ काम करना चाहिए। उन्होंने उनसे अपनी सीखने की प्रक्रिया जारी रखने का भी आग्रह किया। मुख्य सचिव ने विभिन्न विभागों के प्रयासों की भी सराहना की, जिसके कारण नई भर्तियां पहले से कहीं अधिक तेजी से करना संभव हो पाया है। उन्होंने दर्शकों को बताया कि पिछले डेढ़ वर्षों के दौरान नई भर्तियों में भारी वृद्धि हुई है। ये सभी नियुक्तियां एक खुली, निष्पक्ष और पारदर्शी भर्ती प्रणाली के माध्यम से स्थायी आधार पर की गई हैं और संविदा और तदर्थ नियुक्तियों की प्रक्रिया समाप्त कर दी गई है।

माननीय उपराज्यपाल ने दिल्ली के लोगों की ओर नवनियुक्त सरकारी कर्मचारियों को बधाई दी और सूचित किया कि जब से उन्होने दिल्ली के उपराज्यपाल का कार्यभार संभाला है, तब से वह तदर्थ और संविदा भर्ती के बजाय सरकारी रिक्तियों को स्थायी रूप से भरने पर जोर दे रहे हैं, क्योंकि तदर्थ और संविदा भर्ती की प्रक्रिया में पक्षपात और भ्रष्टाचार की सम्भावना होती है जिसमे वैसे नागरिकों का शोषण होता है जो नौकरी के हकदार हैं। उन्होंने नियुक्तियों की प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करने के लिए कई बैठकों की अध्यक्षता की थी, जिसके कारण दिल्ली अधीनस्थ सेवा चयन बोर्ड (डीएसएसएसबी) द्वारा भर्ती प्रक्रियाओं को अभूतपूर्व गति मिली है। माननीय उपराज्यपाल ने मुख्य सचिव को विशेष रूप से बधाई दी, जिनकी देखरेख में दिल्ली में स्थायी रोजगार का सृजन और उनकी भर्ती प्रक्रिया संस्थागत हो गई है।

उन्होंने आगे बताया कि अनुकंपा के आधार पर दिए गए 149 नियुक्ति पत्रों में से 103 आश्रितों को सेवा विभाग द्वारा नियुक्त किया गया है और 46 आश्रितों को एनडीएमसी द्वारा नियुक्त किया गया है। इसके अलावा मई 2022 और मई 2023 के बीच की अवधि के दौरान, मुख्य रूप से शिक्षा विभाग में डीएसएसएसबी के माध्यम से 15,367 पद भरे गए, एनडीएमसी ने केंद्र सरकार की मदद से लगभग 4,500 व्यक्तियों की भर्ती की, 376 पद यूपीएससी के माध्यम से भरे गए, जिनमें से 324 पद दिल्ली में खाली पड़े प्रिंसिपल/वाइस प्रिंसिपलों के थे। डीएसएसएसबी के माध्यम से दिल्ली अग्निशमन सेवा के 500 पदों के अलावा डीटीसी और श्रम विभाग के पदों को भी भरा गया था।

माननीय उपराज्यपाल ने विशेष रूप से जीएनसीटीडी में अनुकंपा नियुक्ति की एक निष्पक्ष और पारदर्शी योजना तैयार करने के लिए सेवा विभाग के प्रयासों की सराहना की, जिससे अनुकंपा नियुक्तियों के लिए आवेदकों के वित्तीय स्थिति का यथार्थवादी और वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन संभव हो सका है। माननीय उप- राज्यपाल ने श्रोताओं को सूचित किया कि अनुकंपा के आधार पर आश्रितों को जारी किए गए नियुक्ति पत्र पहली बार पूरी तरह से पारदर्शी प्रक्रिया से गुजरे हैं, जिसमें चयन किये गये आवेद्को की सूची को सार्वजनिक डोमेन में रखा गया था, ताकि कोई भी उसे देख सके और अपनी आपत्ति या शिकायत दर्ज करा सके। इस प्रक्रिया से सुनिश्चित किया गया है कि अनुकंपा आधार पर नौकरी प्रदान करने मे पक्षपात या भ्रष्टाचार न हो और आश्रितों को किसी तरह की परेशानी न हो।

नियुक्ति पत्रो के वितरण के तुरंत बाद विज्ञान भवन में नई भर्तियों को संबोधित करते हुए, माननीय उपराज्यपाल ने बताया कि दिल्ली सरकार/ स्थानीय निकायों के विभिन्न विभागों/एजेसियों की 22,000 रिक्तियों को अगले डेढ़ साल के अंदर स्थायी तौर पर भरा जाएगा।

माननीय उपराज्यपाल ने आगे कहा कि कोई भी नौकरी छोटी या बड़ी नहीं होती बल्कि काम के प्रति जिम्मेदारी मायने रखती है। जिसे भी जो काम मिला है, उसे उस काम को दृढ़ विश्वास के साथ प्रतिबद्धता, समर्पण और ईमानदारी से निभाना है। माननीय उपराज्यपाल ने आगे जोर देकर कहा कि सरकारी नौकरी आजीविका का एक माध्यम मात्र नहीं है, बल्कि देश की सेवा और देश की तरक्की में एक महत्वपूर्ण योगदान का अवसर है।

 

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