शुक्रवार, 30 मार्च 2018

दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले की गलत व्याख्या न करे आप

 

अवधेश कुमार

दिल्ली उच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग द्वारा सदस्यता रद्द किए गए विधायकों के बारे में जो फैसला दिया है वह यकीनन आम आदमी पार्टी के लिए राहत लेकर आया है। किंतु यह ऐसा फैसला नही ंहै जिससे यह मान लिया जाए कि इन विधायकों की सदस्यता पर लटकती तलवार खत्म हो गई है। फैसले में न्यायालय ने इस विषय पर विचार किया ही नहीं कि विधायक होते हुए संसदीय सचिव के रुप में ये लाभ के पद पर थे या नहीं। उसने केवल चुनाव आयोग के फैसले में प्रक्रियागत खामियां स्वीकार की है। इसी अधार पर न्यायालय ने चुनाव आयोग से सभी विधायकों को फिर से सुनने तथा उसके बाद राष्ट्रपति के पास अपनी अनुशंसा भेजने को कहा है। उच्च न्यायालय के फैसले के आधार पर यह तो कहा जा सकता है कि चुनाव आयोग को विस्तार से सुनवाई करनी चाहिए थी, लेकिन अभी यह नहीं माना जा सकता कि जिस तरह मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने 21 विधायकों की संसदीय सचिव के रुप में नियुक्त किया था वह सही था एवं उसे लाभ के दोहरे पद के दायरे में नहीं लाया जा सकता। दिल्ली उच्च न्यायालय ने ही 8 सितंबर 2016 को 21 विधायकों के संसदीय सचिव की नियुक्ति को रद्द कर दिया था। उच्च न्यायालय की जो टिप्पणियां थीं वहीं साबित करता था कि यह नियुक्ति संवैधानिक तरीकों से नहीं गई थी। न्यायालय ने अपने आदेश में कहा कि नियमों को ताक पर रख कर ये नियुक्तियां की गईं थीं। तो यह बात साफ है कि वो नियुक्तियां गलत थी। अब प्रश्न यह रह जाता है कि क्या उसके आधार पर इनकी सदस्यता जानी चाहिए या नहीं?

संविधान का अनुच्छेद 102 (1) (ए) स्पष्ट करता है कि सांसद या विधायक ऐसा कोई दूसरा पद धारण नहीं कर सकता जिसमें अलग से वेतन, भत्ता या अन्य कोई लाभ मिलते हों। इसके अलावा संविधान के अनुच्छेद 191 (1)(ए) और जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 9 (ए) के अनुसार भी लाभ के पद में सांसदों-विधायकों को अन्य पद लेने का निषेध है। इन सब प्रावधानों का मूल स्वर एक ही है, आप यदि सांसद या विधायक हैं तो किसी दूसरे लाभ के पद पर नहीं रह सकते या यदि आप किसी लाभ के पद पर हैं तो सांसद या विधायक नहीं हो सकते। आम आदमी पार्टी तर्क दे रही है कि जिन विधायकों को संसदीय सचिव बनाया गया उनको न कोई बंगला मिला, न गाड़ी, न अन्य सुविधाएं। यानी जब उन्होंने कोई लाभ लिया ही नहीं तो फिर उनको दोहरे लाभ के पद के तहत सजा कैसे दी जा सकती है? यह तर्क पहली नजर में सही भी लगता है। किंतु यह मामले का एक पहलू है।

संसदीय सचिवों ने वाकई कोई लाभ या सुविधा लिया या नहीं इसमें जाने की आवश्यकता थी नहीं। मुख्य बात है कि संसदीय सचिवों का पद लाभ के पद के दायरे में आता है या नहीं। ऐसे कई राज्य हैं जहां संसदीय सचिव का पद लाभ के पद के दायरे के अंदर है तो कुछ राज्य ऐसे हैं जहां यह बाहर है। दिल्ली में इन्हें लाभ के पद के दायरे में रखा गया है। दिल्ली में 1997 में सिर्फ दो पद (महिला आयोग और खादी ग्रामोद्योग बोर्ड के अध्यक्ष) ही लाभ के पद से बाहर थे। 2006 में नौ पद इस श्रेणी में रखे गए। पहली बार मुख्यमंत्री के संसदीय सचिव पद को भी शामिल किया गया था। इसके अनुसार भी दिल्ली में मुख्यमंत्री केवल एक संसदीय सचिव रख सकते हैं। केजरीवाल ने 21 विधायकों की नियुक्ति करते समय इस बात का ध्यान नहीं रखा।  मई, 2012 में पश्चिम बंगाल सरकार ने भी संसदीय सचिव की नियुक्ति को लेकर विधेयक पास किया था। इसके बाद ममता बनर्जी ने 20 से ज्यादा विधायकों को संसदीय सचिव नियुक्त किया। बावजूद इसके कोलकता उच्च न्यायालय ने सरकार के विधेयक को असंवैधानिक ठहरा दिया। 13 मार्च 2015 को केजरीवाल सरकार ने अपने 21 विधायकों को संसदीय सचिव नियुक्त किया था। इसके खिलाफ दिल्ली उच्च न्यायालय में राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा की ओर से वकील रविन्द्र कुमार ने याचिका दायर की थी। इसके समानांतर दिल्ली के एक वकील प्रशांत पटेल ने 19 जून 2015 को राष्ट्रपति के पास याचिका दायर की थी। इसमें संसदीय सचिव को लाभ का पद का मामला बताया था। जब विवाद बढ़ा तो दिल्ली सरकार 23 जून, 2015 को विधानसभा में लाभ का पद संशोधन विधेयक लाई। इसमें रिमूवल ऑफ डिस्क्वॉलिफिकेशन कानून-1997 में संशोधन किया गया था। इस विधेयक का मकसद संसदीय सचिव के पद को लाभ के पद से बाहर रखना था। विधेयक पास करा कर 24 जून 2015 को इसे तत्कालीन उप राज्यपाल नजीब जंग के पास भेज दिया गया। उप राज्यपाल ने इसे राष्ट्रपति के पास भेज दिया। निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार राष्ट्रपति ने चुनाव आयोग से सलाह मांगी। चुनाव आयोग ने याचिका दायर करने वाले से जवाब मांगा। प्रशांत पटेल ने 100 पृष्ठ का जवाब दिया और बताया कि मेरे याचिका लगाए जाने के बाद असंवैधानिक तरीके से विधेयक लाया गया। चुनाव आयोग इस जवाब से संतुष्ट हुआ और उसके अनुसार राष्ट्रपति को सलाह दिया। राष्ट्रपति ने विधेयक वापस कर दिया।

उस समय प्रणब मुखर्जी राष्ट्रपति थे। आज आम आदमी पार्टी इसमें वर्तमान राष्ट्रपति को भी घसीट रही है। राष्ट्रपति की भूमिका हमारे यहां सलाह पर काम करने की है। अगर चुनाव आयोग विधायकों की सदस्यता जाने की अनुशंसा करता है तो राष्ट्रपति इस परहस्ताक्षर करेंगे ही। ध्यान रखिए कि दिल्ली विधानसभा में कोई विधेयक पेश करने के पूर्व उप राज्यपाल से अनुमति का प्रावधान है। केजरीवाल सरकार ने संसदीय सचिवों को लाभ के पद के दायरे से बाहर करने के लिए विधेयक पेश करने के पहले इसकी अनुमति तक नहीं ली। वैसे भी केजरीवाल सरकार अगर संसदीय सचिव के पद को लाभ का पद मानती ही नहीं थी तो फिर यह विधेयक लाने की आवश्यकता क्यों महसूस की गई? उनको पता था कि गलती हो चुकी है इसलिए सुधार के लिए विधेयक पारित कर दो ताकि संसदीय सचिव का पद लाभ के पद के दायरे से बाहर हो जाए। आम आदमी पार्टी का यह भी तर्क है कि जब उच्च न्यायालय ने संसदीय सचिव के रुप में उनकी नियुक्ति को रद्द कर दिया तो फिर उनकी सदस्यता को खत्म करने का औचित्य नहीं है। वे चुनाव आयोग पर राजनीतिक दृष्टिकोण से यानी केन्द्र सरकार के इशारे पर ऐसा करने का आरोप लगा रहे हैं। यह आरोप दुर्भाग्यपूर्ण है चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है और सभी पार्टियों की जिम्मेवारी है कि उसे अपनी राजनीति में न घसीटे। आज एक पार्टी का शासन है कल दूसरे का आएगा लेकिन संवैधानिक संस्थाओं की साख बची रहनी चाहिए। कई बार न्यायालय तक के फैसले बदल जाते हैं। इसीलिए तो पुनर्विचार याचिका का प्रावधान है। उसने एक फैसला दिया और न्यायालय ने माना कि उसमें सुनवाई की जितनी और जिस तरह की प्रक्रिया का पालन होना चाहिए नहीं हुआ। तो उसका पालन होना चाहिए।

लेकिन आम आदमी पार्टी का यह तर्क वाजिब नहीं है कि जब वे संसदीय सचिव हैं ही नही ंतो फिर उनकी सदस्यता जाने का औचित्य क्या है? आज वे संसदीय सचिव नहीं है लेकिन इनके पास 13 मार्च 2015 से 8 सितंबर 2016 के बीच संसदीय सचिव का पद था। तो फैसला इस पर होगा कि जितने दिन वे संसदीय सचिव रहे उतने दिनों तक वे लाभ के दोहरे पद पर रहे या नहीं। 2006 में जया बच्चन मामले में उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले में कहा था कि किसी पद से लाभ अर्जित नहीं करना, उस पद को लाभ के पद के दायरे से बाहर नहीं करता है। वे तब उत्तर प्रदेश फिल्म विकास निगम की अध्यक्ष थीं। वो भी वहां से कोई वेतन-भत्ता नहीं लेतीं थी। बावजूद इसके उन्हें सांसदी गंवानी पड़ी। इस फैसले का मतलब यही था कि यदि आपने लाभ का पद लिया है तो आपको सांसदी या विधायकी से हटना होगा भले आपने वेतन या भत्ता न लिया हो।

हालांकि हमें चुनाव आयोग के नए फैसले की प्रतीक्षा करनी होगी। हो सकता है वो फिर सुनवाई करे या उच्च न्यायालय के आदेश के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय जाए। इस समय इतना कहा जा सकता है कि आम आदमी पार्टी उच्च न्यायालय के फैसले की अतिवादी व्याख्या कर रही है।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

 

 

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