शुक्रवार, 23 अप्रैल 2021

कोरोना से संपूर्ण जीवन प्रभावित: कैसे जीवन व्यवस्था और तंत्र चलता रहे इस पर विचार हो

अवधेश कुमार

जब भी कोई संकट और विपत्ति अनेक उपायों के बावजूद बार-बार वार करता है तो मनुष्य कई प्रकार से उसके कारणों का विश्लेषण करने लगता है। कोरोना प्रकोप के संदर्भ में भी यही हो रहा है। आप देख लीजिए, चुनावी रैलियों पर रोक लगे, कुंभ खत्म हो, दूसरे सामूहिक आयोजन न हो... जैसी आवाजें चारों ओर से उठी हैं। कोरोना की भयावहता खत्म होनी जाहिए, पर हममें से कोई यह सोचने को शायद ही तैयार है कि क्या ये सब कोरोना संकट को दूर करने का कारण बन सकते हैं? विश्व एवं भारत में जिस तरह कोरोना बार-बार धमक रहा है उससे जीवन का एक-एक पहलू दुष्प्रभावित है। केवल राजनीति नहीं, व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, शैक्षणिक ... संपूर्ण जीवन पहलू कोरोना की चोट से मर्माहत हैं। तो सोचना होगा कि आखिर जीवन के कितने पहलुओं को और कितने दिनों तक हम स्थगित या विराम की अवस्था में रख सकते हैं?

राजनीतिक नजरिए से आप किसी दलया कुछ दलों को कटघरे में खड़ा कर दीजिए उससे कोरोना का निदान नहीं निकलेगा। चुनाव हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग है। कोरोना 10-20 दिन या महीने भर का संकट अब नहीं रहा जिससे कुछ दिनों के लिए बहुत कुछ को स्थगित रखकर आगे फिर प्रारंभ करने पर विचार कर सके। भारत में हर समय कोई न कोई चुनाव चलता रहता है। आगरा कोरोना का प्रकोप ऐसे ही आगे कुछ समय तक बार-बार सामने आता रहा तो हम कितनी चुनाव प्रक्रिया को बाधित करेंगे? चुनाव प्रणाली ऐसी है जिसमें प्रचार की संपूर्ण गतिविधियों को रोक देना संभव नहीं होता। बड़ी रैलियां आप रोक देंगे तब भी उम्मीदवार और उनके समर्थक वोट मांगने के लिए लोगों तक पहुंचेंगे। जब पहुंचेंगे तो उनके साथ छोटा बड़ा समूह भी होगा। छोटी-छोटी बैठकें करेंगे। जिसे चुनाव लड़ना है और जीतने की उम्मीद से लड़ना है वह मतदाताओं तक पहुंचने का कोई न कोई तरीका अपनाएगा। अगर चुनाव प्रक्रिया चलनी है तो प्रतिस्पर्धी पार्टियां एवं उम्मीदवार को जनता के बीच जाकर अपना पक्ष और विरोधी का विपक्ष रखना आवश्यक है। या तो चुनाव स्थगित कर दीजिए या चुनाव प्रचार होने दीजिए। कोई एक पार्टी या नेता किसी एक राज्य में कुछ समय के लिए अपनी रैलियां स्थगित कर सकता है लेकिन दूसरे राज्य में फिर चुनाव होंगे तो वह ऐसा ही करेगा इसकी गारंटी नहीं। जहां जिसको जीतने की उम्मीद होगी वहां वह हर कवायद करेगा और करना भी चाहिए। एक बार कोरोना के कारण हमने चुनाव स्थगित कर दिया या सारी चुनाव चुनावी सभाएं रोक दीं तो भविष्य के लिए भी यही उदाहरण बनेगा। हां राजनीतिक दलों ,चुनाव आयोग, मीडिया ,बुद्धिजीवियों सबको इस प्रश्न का उत्तर अवश्य तलाशना चाहिए कि अगर कोरोना का संकट लंबा खींचता है तो हम किस तरीके से अपने लोकतंत्र को सुचारू रूप से चलाए रखने के लिए चुनाव प्रक्रिया का संचालन करें? वर्चुअल सभाएं, सोशल मीडिया या मीडिया के माध्यम से भारत जैसे विविधताओं वाले देश में कोई पार्टी या नेता सभी मतदाताओं तक अपनी बात नहीं पहुंचा सकता है। तो रास्ता निकालना होगा।

कोरोना संघात का भय केवल चुनावी सभाओं तक ही सीमित नहीं है। भारत एक उत्सव धर्मी देश है। हमारे यहां धार्मिक कर्मकांड और अध्यात्म भी उत्सव के साथ आबद्ध हैं। अगर नवरात्री है तो दुर्गा प्रतिमा स्थापित होंगी और नौ दिनों की आराधना के बाद उनका विसर्जन होगा। स्थापना और विसर्जन में भीड़ न जुटे तो भी कुछ लोगों को साथ आना ही पड़ेगा। ऐसा कौन सा पर्व त्यौहार है जिसमें हमारे यहां सामूहिकता शामिल नहीं? होली मे घरों में ही सीमित रहने की अपील की गई। भारत में ऐसा कोई समय नहीं जब पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण अलग-अलग क्षेत्रों में कोई पर्व-त्यौहार या उत्सव नहीं होता हो। पता नहीं कितने वर्षों की स्थापित परंपराएं हैं। इन सबको पूरी तरह स्थगित करना संभव नहीं हो सकता। रमजान के महीने में रोजा और उसके साथ इफ्तार का प्रचलन आज तो शुरू हुआ नहीं है। आखिर इसे कब तक कितने दिनों के लिए रोकेंगे? कुंभ और महाकुंभ जैसे आयोजनों की प्रतीक्षा लोग लंबे समय करते हैं और संबंधित नदी में डुबकी लगाने की आकांक्षाएं भी प्रबल होती हैं। ऐसे ही अनेक प्रकार की धार्मिक यात्राएं, तीर्थ यात्राएं, मंदिरों के कर्मकांड आदि भिन्न-भिन्न समय पर आयोजित होते हैं। आप कहीं किसी आयोजन को कुछ समय के लिए स्थगित कर सकते हैं सबको नहीं किया जा सकता है।

यह समय पूरे भारत में शादियों का भी है। यह कहना बहुत आसान है कि कुछ लोगों के बीच ही शादी के आयोजन को पूरा कर लीजिए। हमारे यहां शादी के पहले अनेक राज्यों में महिलाएं टोली बनाकर देवी-देवताओं के पूजन के लिए निकलती है,साथ बाजा होता है, कहीं-कहीं पुरुष भी निकलते हैं ..कई प्रकार की पूजा होती है ,कई-कई दिनों तक रात्रि में गीत-संगीत का आयोजन होता है..। परिवार, रिश्तेदार शादी को लेकर अनेक सपने संजोए होते हैं। इन सबको कोरोना फैलने के भय से अनिश्चित समय तक के लिए खत्म कर देना कैसे संभव होगा? अनेक क्षेत्रों में मृत्यु के बाद शवदहन ही नहीं श्राद्ध का भी लंबा कर्मकांड है। 12-13 दिनों से लेकर एक महीने का श्राद्ध कर्म होता है। यह तार्किक हो या अतार्किक आम धारणा यही है कि इन सबका पालन ना करें तो मृतक की आत्मा को कष्ट पहुंचता है और उसकी मुक्ति का मार्ग बाधित होता है। नई फसल लगाने के साथ भी उत्सव जुड़े हुए हैं। रबी फसलों की बुवाइ, ,धान की रोपाई आरंभ करने के दिन खेतों में पूजा, घर में पूजा और आसपास के लोगों को अपनी क्षमता के अनुसार भोजन कराने की परंपरा है। ऐसे उत्सवधर्मी समाज को कोरोना आघात के भय से बार-बार यह कहकर उत्सव से दूर करना कि अभी कठिन समय है जब समय बेहतर होगा तब आप सारे आयोजन करेंगे संभव नहीं है।

 कोरोना नेपूरी शिक्षा व्यवस्था को अस्त-व्यस्त कर दिया है। साल भर से छात्रों के लिए भारत के ज्यादातर राज्यों में नियमित रूप से शिक्षालय जाना संभव नहीं रहा। परीक्षाएं खत्म की जा रहीं या स्थगित हो रहीं हैं। इन सब छात्रों का भविष्य क्या होगा? कोरोना के लंबे संकट काल में कब तक तदर्थता को जारी रखा जाएगा? नौनिहालों, नवजवानों के भविष्य को लेकर फैसला करना होगा। अर्थव्यवस्था के बारे में बताने की भी आवश्यकता नहीं। केंद्र से लेकर राज्यों तक का आर्थिक ढांचा चरमरा रहा है। हमारे आपके घर की भी आर्थिक स्थिति बुरी तरह प्रभावित हैं। लाखों रोजगार से वंचित हुए तो लाखों रोजगार पाने से वंचित हैं। छोटे-बड़े व्यापार सब प्रभावित हैं। स्वच्छंद रूप से आवागमन नहीं हो रहा। इस स्थिति को लंबे समय तक जारी रखना संभव नहीं होगा। ऐसा हुआ तो कैसी विस्फोटक स्थिति होगी इसकी आसानी से कल्पना की जा सकती है। सबसे बड़ी बात कि क्या वाकई चुनावी सभाओं, सामूहिक धार्मिक-सांस्कृतिक-सामाजिक आयोजनों से कोरोना का प्रसार होता है? पिछले वर्ष चुनाव हुए बिहार में और कोरोना का बम फटा दिल्ली में। इस बार भी चुनाव वाले राज्यों में कोरोना का उतना भयानक प्रकोप अभी तक नहीं हुआ जितना कि दिल्ली, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ आदि में। लाखों के कुंभ में कुछ को कोरोना हुआ तो यह अर्थ नहीं कि उसका कारण कुंभ ही हो। वे अपने मूल स्थानों पर रहते तो उनको कोरोना नहीं होता इसकी गारंटी कौन दे सकता है? होली पूरे देश में मना लेकिन कोरोना प्रकोप सब जगह नहीं।

कोरोना को मात देना है, पर ऐसे कदमों से तंत्र चरमरा सकता है। कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य कि कोरोना संकट पर तात्कालिक भय और घबराहट में निर्णय करने की जगह अब तक उसके प्रसार की गहन समीक्षा तथा जीवन पहलुओं पर पड़ने वाले समस्त प्रभावों का व्यापक स्तर पर गहराई से विचार करके तार्किक-व्यावहारिक निष्कर्ष निकालना होगा। कोरोना प्रसार को रोकना है, उस पर काबू भी करना है लेकिन न लंबे समय तक राजनीतिक प्रक्रियाएं ठप कर सकते हैं, न प्रत्येक चुनाव में उम्मीदवारों, पार्टियों और नेताओं को संपर्क करने से वंचित रख सकते हैं। न धार्मिक आयोजनों, उत्सवों, पर्व-त्योहारों को पूरी तरह सामूहिकता से लंबे समय तक वंचित रखा जा सकता है, न शिक्षा व्यवस्था ही ठप रखी जा सकती है। यह सब आवश्यक भी नहीं है। विचार करें कि कोरोना का दैत्य लंबे समय तक बार-बार आघात करता रहा तो हम इसके फैलाव को रोकने के उपायों को अपनाते हुए भी इन व्यवस्थाओं को कैसे संचालित करेंगे?

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, मोबाइलः9811027208

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