मंगलवार, 30 अगस्त 2022

शुक्रवार, 26 अगस्त 2022

कश्मीरी हिंदुओं की हत्या आतंकवादियों की रणनीति

 अवधेश कुमार

स्वतंत्रता दिवस के ठीक अगले दिन दक्षिण कश्मीर के शोपियां में आतंकवादियों द्वारा दो कश्मीरी हिंदू भाइयों पर अंधाधुंध गोलीबारी ने फिर वहां गैर मुस्लिमों के वर्तमान और भविष्य को लेकर कई प्रश्नों को खड़ा किया है। दोनों भाई अपने बाग में काम कर रहे थे कि आतंकवादियों ने उन पर हमला कर दिया जिसमें सुनील कुमार चल बसे और पितांबर नाथ का शोपियां के जिला अस्पताल में इलाज चल रहा है। ऐसा नहीं है कि इस बात की आशंका पहले नहीं थी। ध्यान रखने की बात है कि 1990 के दशक में पलायन की पूरी परिस्थिति होते हुए भी इन हिंदू परिवारों ने वहीं रहने का निर्णय किया था। चोटीगाम गांव के वे आज तक वहीं रह रहे हैं। उनकी संख्या भी ज्यादा नहीं है। केवल तीन परिवार हैं । यानी वे पलायन करने के बाद वापस आकर बसे नहीं है। जाहिर है, इन तीन दशकों से ज्यादा समय में इन परिवारों ने वहां बहुत कुछ झेला होगा। सबको झेलते हुए वहां रहना सामान्य जिजीविषा  की बात नहीं है। लेकिन जब कश्मीर धीरे-धीरे गैर कश्मीरियों के भी रहने के अनुकूल बन रहा है तो वहां के निवासी होने के नाते गैर मुस्लिमों या कश्मीरी हिंदुओं की हत्या उद्वेलित करती है। जिस कश्मीरी फ्रीडम फाइटर्स नामक आतंकवादी संगठन ने बयान जारी कर हमले की जिम्मेदारी ली है उसके बारे में विस्तृत जानकारी नहीं है।  माना जा रहा है कि यह अन्य कई संगठनों के ही छद्म नाम हैं जिनका उद्देश्य कश्मीर का संपूर्ण इस्लामीकरण तथा भारत से अलगाव है।

जिस तरह कश्मीर में घर-घर तिरंगा अभियान गांव -गांव तक पहुंचा जगह-जगह तिरंगा यात्रा निकली उनको अलगाववादी आतंकवादी सहित सीमा पार के उनके प्रायोजकों के लिए सहन करना संभव नहीं है। तिरंगे का अर्थ भारत के प्रति लगाव और राष्ट्रवाद की भावना का संचार है। जम्मू कश्मीर को हर हाल में भारत से अलग करने के लिए षड्यंत्रों में लगी शक्तियों के लिए पहला सबसे बड़ा आघात 5 अगस्त, 2019 को लगा था जब जम्मू कश्मीर से धारा 370 को निष्प्रभावी कर दिया गया। तब आतंकवादी संगठनों और पाकिस्तान की बौखलाहट स्पष्ट रूप से सामने आई थी। ऐसा लगा था जैसे पाकिस्तान के सामने अपने अस्तित्व का संकट पैदा हो गया है। अंदर से लेकर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पाकिस्तान के लिए लंबे समय तक धारा 370 और कश्मीर सबसे बड़ा मुद्दा बना रहा। किंतु वे कुछ कर न सके। धीरे-धीरे जिस तरह वहां पुराने हिंदू धर्म स्थलों का उद्धार हो रहा है, लोग विधिपूर्वक अनुष्ठान कर रहे हैं ,उनकी लाइव तस्वीरें सामने आ रही हैं तथा लाल चौक से लेकर एक समय आतंकवादियों और अलगाववादियों के प्रभाव वाले क्षेत्रों में स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस सहित तिरंगे संबंधी उत्सवों तथा इसके नाम पर होने वाले अन्य आयोजनों में लोगों के उमड़ते समूह ने पाकिस्तानपरस्तों सहित सभी अलगाववादी- आतंकवादियों को अंदर से हिला दिया है। जाहिर है ,उन्हें इसका विरोध करना ही था।

कश्मीर में आज यह स्थिति तो है नहीं कि पहले की तरह हुर्रियत नेता आह्वान करें और लोग सड़कों पर उतर जाएं या पत्थरबाजी हो। तो आतंकवादी इसके लिए आसान निशाना ढूंढते हैं। लंबे समय से वहां रहने वाले हिन्दू परिवार जीवन रक्षा को लेकर अवश्य ही थोड़ा निश्चिंत मानसिकता में जी रहे होंगे। उसमें उन पर गोलियां चलाना इनके लिए आसान था। वास्तव में आतंकवादियों ने रणनीति के तहत कश्मीर में बाहर से आकर काम करने वालों या फिर गैर मुस्लिमों को अपना लक्ष्य बनाया है। इसी वर्ष देखें तो यह गैर मुस्लिमों यानी कश्मीरी हिंदुओं पर सातवां हमला था। 13 अप्रैल को कुलगाम में सतीश कुमार सिंह नामक डोगरा राजपूत की हत्या कर दी गई थी। इसके करीब 1 महीने बाद यानी 12 मई को चाडूरा में तहसीलदार कार्यालय में कश्मीरी हिंदू कर्मी राहुल भट्ट की हत्या हुई थी। उसने पूरे देश को उद्वेलित किया था। कश्मीरी पंडित सड़कों पर उतर कर वहां से पलायन की आवाज उठाने लगे थे। कुछ  चले भी गए। 15 मई को बारामुला में शराब की दुकान पर काम करने वाले रंजीत सिंह की हत्या की गई। 31 मई को कुलगाम  के एक विद्यालय में दलित अध्यापिका रजनी बाला की हत्या ने फिर सनसनी पैदा की और यह भी पूरे देश में गुस्से का कारण बना था। ठीक इसके 2 दिन बाद यानी 2 जून को कुलगाम में ही राजस्थान निवासी एक बैंक मैनेजर विजय कुमार की हत्या कर दी गई। इस तरह देखेंगे तो आतंकवादियों ने लक्ष्य बनाकर कश्मीरी हिंदुओं या गैर मुसलमानों पर हमले और उनकी हत्या की रणनीति बनाई और उस पर काम कर रहे हैं। जब भी ऐसी हत्याएं होंगी तो कश्मीरी हिंदुओं विशेषकर पंडितों की सुरक्षा का मामला सतह पर आएगा। कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति केपीएसएस ने फिर पहले के जैसा ही बयान दिया है कि कश्मीर ऐसी जगह है जहां पर्यटक सुरक्षित है पर कश्मीरी हिंदुओं पर हमले हो रहे हैं। इसलिए कश्मीरी हिंदुओं को यहां से पलायन करना चाहिए। यह बात सही है कि केपीएसएस उन कश्मीरी हिंदुओं का संगठन है जिन्होंने वहां आतंकवादी हिंसा के समय में भी पलायन नहीं किया था। तो क्या यही एकमात्र चारा है? क्या कश्मीरी हिंदुओं का पलायन उनकी सुरक्षा और कश्मीर सुरक्षा की गारंटी है? क्या कोई भारतीय चाहेगा कि वहां से दूसरे मजहब के सारे लोग चले जाएं एवं कश्मीर के इस्लामीकरण का एजेंडा पूरा करने में सहभागी बनें?

ध्यान रखिए, कि चोटीगाम मे पिछले 4 अप्रैल को दवा विक्रेता बालकृष्ण पर उसके घर के बाहर ही गोलियां बरसाई गई थी जिसमें गंभीर रूप से घायल हो गए थे। स्पष्ट है कि उसके बाद में सुरक्षा की व्यवस्था हुई होगी। यह परिवार अर्जुन नाथ और श्रीजी भट्ट भाइयों का है। मृतक सुनील श्रीजी भट्ट का बेटा है और अर्जुन नाथ का बेटा जख्मी है। कहने की आवश्यकता नहीं की आतंकवादियों ने इनको भी गांव से निकालने के लिए ही हमला किया है। तो वहां से भागने का मतलब इन आतंकवादियों के एजेंडे को ही पूरा करना होगा। यह बात ठीक है कि किसी के परिवार पर जब हमले होते हैं तो उसके लिए डट कर खड़ा रहना मुश्किल होता है। त्रासदी की पीड़ा वही समझता है जिसे भुगतना पड़ता है। किंतु सब जानते हैं कि समय बदल रहा है। आतंकवादियों के लिए अब पहले की तरह बड़ी वारदात करना संभव नहीं रहा। अलगाववादियों के लिए पहले की तरह भारत विरोधी जुलूस निकालना असंभव है। पत्थरबाजी लगभग खत्म है। 

आतंकी हमलों की संख्या घटी है। बड़े हथियार और बारूदी सुरंगों के बड़े जाल कश्मीर में नहीं दिखते। तो यह सब बहुत बड़े बदलाव हैं। यही नहीं एक समय के दुर्दांत आतंकवादियों और अलगाववादियों बिट्टा कराटे, यासीन मलिक,  मसर्रत आलम आदि को जेल  में डाला जा चुका है। उन्हें  अपने अपराधों की सजा मिलनी सुनिश्चित हो रही हैं। इस बदलाव को स्वीकार करते हैं कोई फैसला करना चाहिए।  निस्संदेह, ऐसे समय परिवारों को हिम्मत देने, उनकी यथासंभव आर्थिक मदद करने ,उनके साथ खड़े होने, उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने का समय है। यह धारणा आम होनी चाहिए कि किसी की हत्या हो या हमला हो तो न केवल जम्मू कश्मीर प्रशासन बल्कि पूरा देश उसके साथ खड़ा है। इससे ही वहां भय और निराशा का माहौल कमजोर होगा तथा लोगों के अंदर विपरीत परिस्थिति में भी रुके रहने का साहस पैदा होगा। 

वैसे भी सरकार ने कश्मीरी हिंदुओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए काफी कदम उठाए हैं। वहां कार्यरत कर्मचारियों को जिला केंद्रों पर स्थानांतरित करने से लेकर उनके निवास आदि को भी एक जगह करने की व्यवस्थाएं की गई हैं, की जा रही हैं। इसमें कश्मीरी पंडितों या अन्य संगठनों का भी दायित्व बनता है कि सरकार पर दबाव बनाते हुए भी साथ दें एवं कश्मीर को आतंकवाद एवं अलगाववाद से मुक्ति का सहयोगी बने रहें। जो समूह आतंक के भय से पलायन करेगा उसे आतंकवादी हमेशा डर आएंगे। यह न भूलिए कि आतंकवादी जम्मू कश्मीर में मुसलमानों की भी हत्या कर रहे हैं लेकिन वे कभी वहां से बाहर पलायन करने की आवाज नहीं उठाते। सभी गैर मुस्लिमों की सुरक्षा जितना संभव है सुनिश्चित हो इसकी मांग जायज है किंतु आतंकवादी और सीमा पार उनके प्रायोजकों के हौसलों को पस्त करना है, उन्हें अंतिम रूप से पराजित करना है तो तो वहां से भागने या इसकी आवाज उठाने से बचना ही होगा।

अवधेश कुमार, ई-30, गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स,  दिल्ली -1100 92, मोबाइल -98110 27208

शुक्रवार, 19 अगस्त 2022

देश को शिखर पर ले जाने का रास्ता

अवधेश कुमार

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का लालकिला से स्वतंत्रता दिवस का हर संबोधन व्यापक आकर्षण और बहस का विषय रहा है। जाहिर है, अमृत महोत्सव यानी अंग्रेजों से मुक्ति के 75 वर्ष पूरा होने के अवसर के भाषण को विशिष्ट होना चाहिए था। स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री का दायित्व है कि वे अंग्रेजों के विरुद्ध मुक्ति के संघर्षों, बलिदानों की याद दिलाते हुए लोगों के अंदर यह भाव पैदा करें कि हमारे पूर्वजों ने अपनी बलि चढ़ा कर हमें आजादी दिलाई है ताकि हमें स्वतंत्रता के मूल्यों का आभास रहे। दूसरे, भारत राष्ट्र के लक्ष्य की दृष्टि से प्रधानमंत्री स्पष्ट रूपरेखा सामने रखें। तीसरे, स्वतंत्रता को अक्षुण्ण बनाए रखने एवं राष्ट्र के सर्वोपरि लक्ष्य को पाने की दृष्टि से हमारी चुनौतियां क्या है उन दिशाओं में देश कहां-कहां क्या कर रहा है तथा आम भारतीय का दायित्व क्या हैं आदि पर भी प्रभावी शैली से प्रकाश डालें। इन सारे पहलुओं की दृष्टि से विचार करें तो निष्पक्ष निष्कर्ष यही होगा कि अपने करीब 83 मिनट के भाषण में प्रधानमंत्री मोदी ने उन हरसंभव प्रश्नों का उत्तर दिया जो लाल किला से दिया जाना आवश्यक था।

वास्तव में प्रधानमंत्री ने अगर हमारे स्वतंत्रता सेनानियों व मनीषियों का स्मरण करते हुए राष्ट्र के प्रति उनका योगदान ,उनके लक्ष्यों का आभास कराया तो यह भी विश्वास दिलाने की कोशिश की कि भारत की अंतःशक्ति इतनी मजबूत है, इसमें वह क्षमता है कि आने वाले समय में यह विश्व का श्रेष्ठतम देश बन सकेगा। हां, इसके लिए आवश्यक है कि भारतीय के नाते हम अपने दायित्वों के प्रति सचेत रहें उनका पालन करते रहें।

प्रधानमंत्री द्वारा भ्रष्टाचार व वंशवाद के विरुद्ध आक्रामक प्रहार की सबसे ज्यादा चर्चा हो रही है। यह आवश्यक भी है। भ्रष्टाचार ने पूरी व्यवस्था के प्रति लोगों के अंदर वितृष्णा भाव पैदा किया है। लोगों में यह धारणा व्याप्त हो चुकी है कि राजनीति और शासन का चरित्र ही भ्रष्ट होता है और इससे मुक्ति नहीं हो सकती। देखा जाए तो वंशवाद यानी भाई भतीजावाद और भ्रष्टाचार काफी हद तक एक दूसरे से अंतर्संबद्ध हैं।  उनका यह कहना देश के लिए चेतावनी थी कि अगले 25 साल में ये दोनों चुनौतियां विकराल रूप ले सकती हैं अगर समय रहते न चेता गया। प्रधानमंत्री ने इस संदर्भ में वही कहा जो सच है। यानी भ्रष्टाचार के प्रति नफरत तो दिखती है लेकिन कभी-कभी भ्रष्टाचारियों के प्रति उदारता बढ़ती जाती है। यह सच है कि लोग इतनी बेशर्मी तक चले जाते हैं कि दोषी साबित होने व सजा के बावजूद उनका महिमामंडित करते हैं। वास्तव में हम भारतीयों के एक वर्ग में भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारी के प्रति संपूर्ण नफरत का भाव नहीं होता है। हम कई बार अपनी जाति, अपने व्यक्तिगत संबंध, अपनी पार्टी, विचारधारा आदि के आधार पर मूल्यांकन करने लगते हैं। इस नाते उनका यह कहना सही है कि जब तक भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारी के प्रति नफरत का भाव पैदा नहीं होता सामाजिक रूप से उसको नीचा देखने के लिए मजबूर नहीं करते तब तक यह मानसिकता खत्म होने वाली नहीं है।

प्रकारांतर से यह भ्रष्टाचार के विरुद्ध सामाजिक क्रांति का आह्वान है। यानी हर भारतवासी भ्रष्टाचार के प्रति अपने अंदर शून्य सहिष्णुता का संस्कार पैदा करें और कोई भी हो उसके प्रति समाज में नफरत का भाव, उसके विरोध का मानस तथा उसको समाज से अलग-थलग करने का प्रयास होना ही चाहिए। परिवारवाद ने हमारी पूरी व्यवस्था को जकड़ लिया है। परिवारवाद का यह अर्थ नहीं है कि किसी परिवार से निकला हुआ कोई प्रतिभावान व्यक्ति भी आगे न आए। लेकिन परिवार का है इसी कारण उसे राजनीति में, सत्ता में या जहां जो है वह अपने परिवार को महत्व दे, उनको स्थान दे तो इससे प्रतिभाओं का दमन होता है एवं यह देश को खोखला करता चला जाता है। प्रधानमंत्री का यह कहना बिल्कुल सही है कि हमें हर क्षेत्र और संस्था में परिवारवाद और भाई भतीजावाद को लेकर नफरत और जागरूकता पैदा करनी होगी तभी हम अपनी संस्थाओं को बचा पाएंगे। एक भारतीय के नाते हमें आपको प्रधानमंत्री की इस अपील के आधार पर अपना व्यवहार निर्धारित करना है जिसमें उन्होंने कहा कि लाल किले की प्राचीर से संविधान का स्मरण करते हुए देशवासियों से खुले मन से कहना चाहते हैं कि राजनीति की सभी संस्थाओं के शुद्धिकरण के लिए इस परिवारवादी मानसिकता से मुक्ति दिलाकर योग्यता के आधार पर देश को आगे ले जाना होगा। इसे एक लड़ाई बताते हुए अगर प्रधानमंत्री देश के युवाओं से इसमें आगे आने की अपील करते हैं तो यह समझना चाहिए कि वे क्या चाहते हैं।

वास्तव में परिवारवाद एवं भ्रष्टाचार के विरुद्ध जब तक सामाजिक दृष्टि से क्रांति नहीं होगी, इसके विरूद्ध संघर्ष नहीं होगा  इसका अंत नहीं हो सकता है।प्रश्न है कि क्या हम सब इस क्रांति में इस लड़ाई में अपनी भूमिका निभाने के लिए तैयार हैं?

अगर अपने देश को दुनिया के शिखर पर ले जाना है जैसा प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में घोषित 5 प्रणों में कहा कि अगले 25 साल यानी 2047 आने तक देश को विश्व के शिखर पर ले जाने के लक्ष्य से काम करना है तो हमें भूमिका निभानी ही होगी। पहले  प्रण के रूप में उन्होंने कहा कि देश बड़े संकल्प लेकर चलेगा और वह बड़ा संकल्प है विकसित भारत।  उन्होंने दूसरे प्रण के रूप में कहा कि गुलामी की छोटी से छोटी चीज भी कहीं नजर आए तो उससे मुक्ति पानी होगे।  व्यक्ति व्यवस्था का गुलाम होने के साथ मन को भी गुलामी की जंजीरों में बांध देता है। हमारे विचार गुलामी को प्रतिबिंबित करने लगते हैं।  गुलामी से मुक्ति का अर्थ हर तरह की गुलाम विचारधारा से मुक्ति है। इसके साथ तीसरा प्रण अपनी विरासत के प्रति गर्व का भाव होना चाहिए। हमें यही पढ़ाया गया कि हम तो हमेशा गुलाम थे, हमारे में कोई अच्छाई थी नहीं जबकि हमारी विरासत ने हमें स्वर्णिम काल दिया था। अपने विरासत पर जब गर्व का भाव होगा तो पता चलेगा कि इस भारत नामक राष्ट्र के मायने क्या हैं इनके लक्ष्य क्या हैं। यहीं से भारत के विश्व की प्रमुख शक्ति होने की संपूर्ण रूपरेखा स्पष्ट होगी। इस दृष्टि से चौथा प्रण एकता और एकजुटता का है। 130 करोड़ आबादी वाले विविधताओं के इस देश की एकता और अखंडता को तोड़ने की शक्तियां लगातार सक्रिय रहती हैं। 

भारत की एकता का सूत्र यहां की संस्कृति, विरासत और जीवन शैली में है। अगर यह भाव पैदा है कि हम सब एक भारत की संतान हैं, हमारी विरासत संपूर्ण ब्रह्मांड को एक ही परम तत्व का मानती है है जहां न कोई अपना है न पराया, हम कण-कण में एक ही तत्व को देखते हैं तो न केवल अंतरिक एकता मजबूत होगी बल्कि इसी से भौगोलिक अखंडता भी सुनिश्चित होगी। इसी से जुड़ा हमारा पांचवा प्रण है अपने कर्तव्य के पालन का। अधिकारों की बहुत बात होती है पर कर्तव्यों की याद शायद ही कोई दिलाता है। हमारा हर अधिकार कर्तव्यों के साथ आबद्ध है। भारत की बड़ी समस्या यह है कि हममें से ज्यादातर अपने दायित्वों के प्रति न सतर्क रहते हैं न सचेष्ट। तो हर व्यक्ति अपने दायित्व को समझें। हमारा अपने परिवार और बच्चे के प्रति दायित्व है तो यह भी ध्यान रखें कि पड़ोसी को कष्ट पहुंचेगा तो हम सुखी नहीं रह सकते हैं। इसी को विस्तारित करें तो देश सुखी रहेगा तभी हम सुखी रहेंगे। बगैर कर्तव्यों के न व्यक्तिगत स्तर पर हमारा उत्थान हो सकता है न परिवार न समाज और देश का।

इस तरह देखें तो प्रधानमंत्री का पूरा भाषण भारतीयों के अंदर भारत बोध कराते हुए सभी प्रकार के गुलामी के अवशेषों और समाज एवं राष्ट्र में व्याप्त विद्रूपताओं से मुक्ति और उनके प्रति अपने दायित्व के पालन का भाव पैदा करना रहा है। पूरे भाषण का एक प्रमुख पहलू महिलाओं के प्रति समाज की दृष्टिकोण में बदलाव संबंधी उनकी अपील भी है। प्रधानमंत्री ने कहा कि महिलाओं को लेकर हमारे अंदर जो अपमान का भाव है वह हर हाल में दूर होना चाहिए। हमारे यहां जितनी गालियां, मजाक, एक दूसरे का उपहास उड़ाने आदि के लिए शब्दावली, लोकोक्तियां ,कहावतें, मुहावरे हैं उनमें ज्यादातर महिला केंद्रित ही हैं। यह किसी भी समाज के लिए शर्म का विषय है। महिलाओं के सम्मान के बिना कोई भी परिवार सुखी नहीं रह सकता। जब परिवार सुखी संपन्न नहीं होगा तो देश अपने वास्तविक क्षमता के अनुरूप प्रगति नहीं कर सकता। नारी शक्ति और पुरुष शक्ति मिलकर ही देश को शक्तिशाली बना सकते हैं। तो प्रधानमंत्री की इस अपील का असर हो यही कामना सब करेंगे ताकि महिलाओं  और पुरुषों के बीच भारतीय दृष्टि में समानता का भाव साकार हो एवं नर नारी सब मिलकर स्वयं को सुखी करें, देश को सुखी करें और विश्व के कल्याण के लिए काम कर सकें।

अवधेश कुमार, ई-30, गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली 110092, मोबाइल 9811027208



शनिवार, 13 अगस्त 2022

इन चुनावों के संदेश महत्वपूर्ण हैं

 

अवधेश कुमार

उपराष्ट्रपति के रूप में जगदीप धनखड़ निर्वाचित होंगे इसे लेकर किसी को कोई संदेह नहीं था। कुल 780 सांसदों में से राजग के 441 सांसदों एवं पांच मनोनीत सांसदों के अलावा बीजू जनता दल , वाईआरएससी, बसपा, तेलुगूदेशम, अकाली दल और शिवसेना ने भी समर्थन दिया था जिनके कुल 81 सांसद हैं। तृणमूल ने अपने 36 सांसदों के साथ पहले ही मतदान के बहिष्कार की घोषणा कर दिया था। इसलिए कुल मत 734 रह गया था। इनमें भी 725 सांसदों ने मतदान किया। धनखड़ को अपेक्षा के अनुरूप ही 528 वोट मिले। हालांकि मारग्रेट अल्वा को केवल 182 वोट मिलना विपक्ष के लिए चिंता का विषय होना चाहिए। पूरा विपक्ष  अगर उपराष्ट्रपति चुनाव में एकजुट होकर मतदान नहीं कर सकता तो इसका अर्थ गंभीर है। 1997 यानी 25 वर्ष बाद चुनाव में विजय का यह सबसे बड़ा अंतर है। वास्तव में धनखड़ की विजय महत्वपूर्ण तो है ही लेकिन इससे ज्यादा महत्वपूर्ण उस विजय के पीछे का अंकगणित तथा विपक्ष  के उम्मीदवार को वोट कम मिलना है। यह वर्तमान एवं भविष्य की भारतीय राजनीति की एक बड़ी रूपरेखा है जिसे गहराई से समझने की आवश्यकता है।

वास्तव में उपराष्ट्रपति चुनाव परिणाम के दो प्रमुख पहलू हैं। पहला, राजनीति का संकेत एवं दूसरा , जगदीप धनखड़ की भावी भूमिका। राष्ट्रपति से लेकर उपराष्ट्रपति के निर्वाचन में वर्तमान और भावी भारतीय राजनीति के दृष्टि से एक बात समान थी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा और संघ का विरोध करते हुए भी भाजपा विरोधी पार्टियां दयनीय बिखराव का शिकार रहीं। जिन 15 सांसदों के मत अमान्य हुए संभव है कुछ ने जानबूझकर ऐसा किया होगा। उपराष्ट्रपति और राष्ट्रपति चुनाव को देखें तो ऐसा लगता है जैसे आजादी के बाद से 1977 तक विपक्ष कांग्रेस के सामने  बिल्कुल कमजोर पड़ जाता था थोड़े भिन्न रूप में भाजपा और नरेंद्र मोदी के संदर्भ में वही स्थिति बनती जा रही है। हालांकि आज विपक्षी दलों की संख्या उस समय से ज्यादा है,शक्ति भी अधिक है, मीडिया में उनकी मुखरता भी है। बावजूद ऐसा लगता है जैसे भारतीय राजनीति भविष्य की दृष्टि से भाजपा के एकल वर्चस्व की ओर अग्रसर है। तृणमूल कांग्रेस उपराष्ट्रपति चुनाव में मतदान का बहिष्कार करेगा यह कल्पना से परे था। राज्यपाल के रूप में जगदीप धनखड़ एवं ममता बनर्जी सरकार के संबंध हमेशा तीखे रहे। बावजूद यदि ममता बनर्जी ने मतदान से अलग रहने का फैसला किया तो उसके मायने गंभीर है।

इन दोनों चुनावों ने स्पष्ट कर दिया है कि विपक्ष चाहे नरेंद्र मोदीऔर  भाजपा के विरुद्ध अलग-अलग जितना जितनी आक्रामकता प्रकट करें वैचारिकता एवं दिशा का सर्वथा अभाव है। जब आपकी विचारधारा नहीं होती तो दिशा स्पष्ट नहीं होती और फिर आप समझ नहीं पाते कि हमें किस प्रसंग में क्या भूमिका निभानी है।

 विपक्ष इसी दुरवस्था का शिकार है और यह राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति दोनों चुनावों में प्रकट हुआ है। तो लोकसभा चुनाव के पहले के ऐसे चुनाव में, जहां उसे एकजुटता से रोकने वाला कारक मौजूद नहीं था, इस तरह बिखरा रहा तो वह मिलजुल कर आगे मोदी के लिए चुनौतियां पेश करेंगे ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है। नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व वाली भाजपा हर प्रकार की सफलता को उत्सव के रूप में प्रतिध्वनि करती है।  राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनाव में इस प्रकार का उत्सव जैसा माहौल पहले भारत में नहीं देखा गया। इन सबसे समर्थकों और कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ता है तथा वे सकारात्मक आत्मविश्वास के साथ पार्टी के लिए काम करते रहते हैं। एक तरफ आत्मविश्वास से भरी हुई भाजपा तथा दूसरी तरफ वैचारिक दिशा भ्रम एवं बिखराव का शिकार विपक्ष। उपराष्ट्रपति और राष्ट्रपति चुनाव ने संपूर्ण भारतीय राजनीति का यही परिदृश्य उत्पन्न किया है।

किंतु इसका अर्थ यह नहीं कि उपराष्ट्रपति के रूप में जगदीप धनखड़ के लिए बिल्कुल सुगम और अनुकूल परिस्थितियां होंगी। हमारे देश में उपराष्ट्रपति यद्यपि कार्यकारी पद है लेकिन राज्यसभा का सभापति होने के कारण वे संसद के भी अंग हैं। उपराष्ट्रपति की मुख्य भूमिका राज्य सभा के संचालन में ही होती है। देश में राजनीतिक विरोध जितना तीखा एवं हिंसक होता जा रहा है उसका शिकार भारतीय संसद भी हुआ है। हमने देखा विपक्षी दल किस तरह सभापति के आसन पर कागज फेंकने से लेकर मेज पर चढ़कर हंगामा करते हैं। वेंकैया नायडू जैसे अनुभवी नेता के सामने भी सांसदों के विरुद्ध कठोर कार्रवाई की नौबत आ गई। उन्हें बार-बार अपना क्षोभ प्रकट करना पड़ा है। विपक्ष के ज्यादातर दल अब इस स्थिति में नहीं कि जनता के बीच उनके मुद्दों के आधार पर लोकप्रियता पाने तथा सरकार को दबाव में लाने की स्थिति पैदा करें। वे जमीन पर आंदोलन वगैरह नहीं कर सकते इसलिए उनके पास संसद सत्र  अवसर होता है अपना विरोध प्रदर्शित करने का। ज्यादातर पार्टियों ने संसद को अपने विरोध का शिकार बनाना शुरू कर दिया है। इसमें जगदीप धनखड़ की सूझबूझ और कार्यशैली की परीक्षा होनी है। उन्हें कानून और संविधान का ज्ञाता होने के साथ शांत सहनशील, समझ - बूझ वाला माना जाता है। तृणमूल कांग्रेस के साथ टकराव होते हुए भी कभी उनके चेहरे पर गुस्से और तमतमाहट का भाव नहीं देखा गया। बावजूद वे आक्रामक विपक्ष को संभालने में सफल होंगे ऐसा निश्चयात्मक तौर पर नहीं कहा जा सकता। जिस तरह आम राजनीतिक विरोध भी हिंसा का शिकार हो रहा है उससे देश के वातावरण का आभास होता है। नीतियों या मुद्दों के विरोध में हो रही भयानक हिंसा, आगजनी हमको आपको डरा सकती है लेकिन भारत की वर्तमान स्थिति का यही सच है जिसकी प्रतिध्वनि हमें संसद के अंदर भी सुनाई पड़ती है। 

निश्चित रूप से नरेंद्र मोदी सरकार सदन में अपने एजेंडे को पूरा करने की कोशिश करेगी और विपक्ष उसके रास्ते लगातार बाधाएं खड़ी करेगा। ऐसे में राज्यसभा के उपसभापति के रूप में धनखड़ के लिए संचालन आसान नहीं होगा। वर्तमान माहौल को देखते हुए आश्चर्य नहीं हो यदि विपक्ष उन पर पक्षपात का भी आरोप लगा दे। तो देखना होगा जगदीप धनखड़ कैसे स्थितियों को संभालते हैं। वेंकैया नायडू के कार्यकाल में राज्य सभा के अंदर कुछ महत्वपूर्ण विधायकों पर हमने ऐसे परिदृश्य देखे जिससे लगता था कि इसका संभालना मुश्किल होगा। तीन तलाक विधेयक, नागरिकता संशोधन विधेयक ,धारा 370 हटाने वाली जम्मू कश्मीर पुनर्गठन विधेयक, कृषि विधायक आदि के दौरान संसद के अंदर और बाहर पूरे देश का तीखा विभाजन साफ दिखाई दे रहा था। नागरिकता संशोधन विधेयक को लेकर भारत के साथ दुनिया भर से प्रतिक्रियाएं हुईं। जम्मू कश्मीर पुनर्गठन विधेयक को तो गृह मंत्री अमित शाह ने लोकसभा से पहले राज्यसभा में ही पेश किया था। उस दौरान वेंकैया नायडू ने जिस सूझबूझ से सदन को संभाला वह अवश्य अविस्मरणीय है। संभव है आने वाले दिनों में सरकार कुछ ऐसे विधेयक लाए जिन पर उसी तरह विभाजन और हंगामे की स्थिति बने। तो धनखड़ के पास वेंकैया नायडू के रूप में उदाहरण है। कृषि कानून को तो उन्होंने विपक्ष के बहिर्गमन के बावजूद पारित घोषित कर दिया था क्योंकि उनकी दृष्टि में अगर मतदान करने के लिए विपक्ष तैयार नहीं हो केवल इसलिए विधायक को लंबित नहीं रखा जा सकता था। वेंकैया नायडू के कार्यकाल में यूक्रेन पर हमले का ऐसा वैश्विक संकट आया जिन्हें लेकर देश में अलग-अलग राय थी। हालांकि सरकार ने जैसा स्टैंड ले लिया उसमें विपक्ष के पास विरोध करने का कोई बड़ा आधार नहीं रहा। लेकिन भविष्य में अगर चीन ताइवान के विरुद्ध आक्रामक कार्रवाई करता है तो भारत के लिए इसी प्रकार से निरपेक्ष रहना संभव नहीं होगा। निश्चित रूप से उसका असर संसद पर पड़ेगा और उस दौरान धनखड़ की परख होगी। 

वैसे उपराष्ट्रपति राज्यसभा के सभापति अवश्य होते हैं लेकिन वह चाहे तो देश की वर्तमान परिस्थितियों में कई प्रकार की महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। सरकार को कोई सुझाव देने या किसी मंत्री,अधिकारी आदि को बुलाकर बात करने आदि के लिए संविधान उपराष्ट्रपति पर कहीं से रोक नहीं लगाता है। देशभर में अलग-अलग राज्यों में जनप्रतिनिधियों से संवाद करते हुए बेहतर राजनीतिक वातावरण बनाने की भी भूमिका निभा सकते हैं। इसके साथ नवजवानों से संवाद का उदाहरण प्रस्तुत किया है। शैक्षणिक संस्थानों से लेकर वैज्ञानिक, धार्मिक, सांस्कृतिक संस्थानों के साथ संवाद कर वे भविष्य की दृष्टि से बेहतर उदाहरण प्रस्तुत कर सकते हैं। 

अवधेश कुमार, ई-30, गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली- 110092 ,मोबाइल-9811027208



गुरुवार, 4 अगस्त 2022

ममता के लिए बहुत बड़ा आघात

अवधेश कुमार


दक्षिण कोलकाता के टाॅलीगंज पाॅश कॉलोनी के एक घर से जब प्रवर्तन निदेशालय के अधिकारियों ने आलीशान मकान से ट्रक पर बड़े -बड़े बक्से लादना शुरू किया तो देखने वाले भौंचक्क रह गए। वह आलीशान घर मॉडल और अभिनेत्री अर्पिता मुखर्जी का है। पहले दौर में उनके एक घर से 21 करोड़ 20 लाख रुपए नगद, 79 लाख रुपए के सोने व हीरे के गहने, 20 मोबाइल फोन, 54 लाख रुपए मूल्य की विदेशी मुद्रा, 10 जमीनों के दस्तावेज और काफी मात्रा में विदेशी शराब मिले। उनके बेलघरिया स्थित दूसरे घर से 27 करोड़ 90 लाख रुपए नकद, 6 किलो सोना के गहने और चांदी के सिक्के के साथ कई संपत्ति के दस्तावेज तथा नोटबंदी के दौरान रद्द हो चुके 500 एवं1000 के नोट भी मिले। कुल मिलाकर अभी तक ईडी की कार्रवाई में अर्पिता के यहां से 49 करोड़ 20 लाख नगद मिल चुके हैं। बेलघरिया स्थित फ्लैट के टॉयलेट से नोट मिले। रुपए बैग और प्लास्टिक के पैकेट में इस तरह रखे गए थे मानो उनके रखने के लिए ही वो जगह बनी हो। इसका मतलब उस घर का निर्माण ही भ्रष्टाचार से आए नकदी को ठीक से रखने के लिए किया गया था।

जैसा हम जानते हैं बंगाल में स्कूल सेवा आयोग के शिक्षक भर्ती घोटाले में जांच चल रही है। इसी संदर्भ में ईडी ने पार्थ चटर्जी और अर्पिता को गिरफ्तार किया है।  जिस समय  घोटाला हुआ उस समय पार्थ  शिक्षा मंत्री थे। ममता बनर्जी और पूरी तृणमूल कांग्रेस छापेमारी में बरामद इन नोटों को देखकर सन्न हैं। उन्हें समझ नहीं आ रहा कि क्या प्रतिक्रिया दिया जाए। तृणमूल कांग्रेस का तर्क है कि अर्पिता मुखर्जी का पार्टी से कोई लेना देना नहीं है।  अर्पिता मुखर्जी ने ईडी को बताया है कि सारे रुपए पार्थ के हैं।  उसके अनुसार उसके फ्लैट का रुपए रखने के लिए गोदाम की तरह इस्तेमाल किया जा रहा था। पार्थ चटर्जी ने भी बयान दिया है कि उन्हें षड्यंत्र के तहत फंसाया जा रहा है।

पार्थ चटर्जी सामान्य नेता नहीं हैं। वे गिरफ्तार होने के बाद बरखास्तगी तक राज्य के उद्योग, सूचना प्रौद्योगिकी व संसदीय कार्य मंत्री थे।  पार्थ पार्टी में भी महत्वपूर्ण थे। तृणमूल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष, प्रदेश महासचिव ,अनुशासनात्मक समिति के सदस्य और पार्टी के मुखपत्र जागो बांग्ला के संपादक थे। थोड़े शब्दों में कहा जाए तो ममता बनर्जी या उनके भतीजे अभिजीत बनर्जी के बाद या उनके द्वारा अधिकार प्राप्त समानांतर शक्ति रखने वाला पार्टी में वह शीर्ष व्यक्तित्व थे। जाहिर है, ममता बनर्जी ने गिरफ्तारी के 6 दिन बाद भले उन्हें सभी पदों से निलंबित कर दिया, प्रश्नों के दायरे में वो स्वयं भी हैं। आखिरी एक व्यक्ति , जो उनका दाहिना हाथ बना, इतने बड़े भ्रष्टाचार का खलनायक साबित हो रहा है तो इसकी जिम्मेवारी उसकी अकेले नहीं हो सकती। यह संभव नहीं है कि धन का उपयोग पार्थ अकेले करते हो। शिक्षक भर्ती घोटाले के बारे में जितनी जानकारी सामने आई है उससे साफ हो गया है कि शिक्षकों की नियुक्ति में नीचे से ऊपर मंत्री से लेकर अधिकारी कर्मचारी नेता तक शामिल थे।

अर्पिता पार्टी से जुड़ी है या नहीं है यह मायने नहीं रखता।  पार्थ चटर्जी के फेसबुक प्रोफाइल में अर्पिता मुखर्जी का परिचय दिया गया है। नाकतला उदयन संघ की दुर्गा पूजा समिति की अर्पिता ब्रांड अंबेडकर रही है और इसके अध्यक्ष पार्थ चटर्जी हैं। अर्पिता विधानसभा चुनाव मे बेहला पश्चिम सीट पर पार्थ के समर्थन में चुनाव प्रचार करती थी। स्वयं ममता मंच से उसकी प्रशंसा कर चुकी हैं कि वह अच्छा काम कर रही है । उसके घर पर वीआईपी का आना-जाना लगा रहता था। वैसे पश्चिम बंगाल की राजनीति पर नजर रखने वाले एवं सत्ता के गलियारों से जुड़े हुए लोग अर्पिता और पार्थ चटर्जी के रिश्ते अच्छी तरह जानते हैं। आखिर तृणमूल कांग्रेस का कौन नेता है जो अर्पिता को नहीं जानता हो?

आरंभ में अवश्य तृणमूल के प्रवक्ताओं ने इसे राजनीतिक प्रतिशोध की कार्रवाई बताया। बाद में तृणमूल कांग्रेस सहमी हुई नजर आई। ममता बनर्जी तथा तृणमूल के पहले के ऐसे मामलों में व्यवहार और वर्तमान रवैया में आपको जमीन आसमान का अंतर आएगा। पार्था पर कार्रवाई करने में उन्हें 6 दिन इसीलिए लग गए कि इसके पूर्व वह अपनी पार्टी के नेताओं, मंत्रियों या अधिकारियों तक के विरुद्ध कार्रवाई के खिलाफ मोर्चा मोर्चाबंदी करती थी। सारधा चिटफंड घोटाले में मंत्री मदन मित्रा की गिरफ्तारी के विरुद्ध ममता सड़कों पर उतर गई थी। 

सीबीआई के साल्टलेक स्थित कार्यालय के सामने बड़ा प्रदर्शन किया गया था। रोज वैली कांड में जब सांसद सुदीप बंदोपाध्याय और तपस पाल की गिरफ्तारी हुई तो ममता उनसे मिलने भुवनेश्वर तक गई थी। सारधा कांड में सबूतों को मिटाने के आरोप में जब सीबीआई फरवरी 2019 में कोलकाता के तत्कालीन पुलिस आयुक्त राजीव कुमार से पूछताछ करने के लिए उनके आवास पर पहुंची तो ममता धरमतल्ला में धरने पर बैठ गई थी। पिछले वर्ष मई में जब नारद स्टिंग कांड में सीबीआई ने दो मंत्रियों फिरहाद हकीम, सुब्रत मुखर्जी तथा विधायक मदन मित्रा को गिरफ्तार किया तो ममता सीबीआई कार्यालय निजाम पैलेस पहुंची और वहां 6 घंटे तक बैठी रही। उनके भतीजे अभिजीत बनर्जी और उसकी पत्नी से पूछताछ के मामले में भी उनका तेवर आक्रामक था। हर अवसर पर ममता का यही तर्क था कि मोदी सरकार उनके विरुद्ध राजनीतिक बदले की भावना से कार्रवाई कर रही है। किंतु  इतने नोटों और अन्य सामग्रियों की बरामदगी के बाद उनके लिए कोई भी तर्क देना संभव नहीं रहा है।

वास्तव में पार्थ के मामले में ममता बनर्जी एवं तृणमूल का पूरा व्यवहार उनके पूर्व के चरित्र के विपरीत है। इसके मायने गंभीर हैं। 2016 में माकपा के नेतृत्व वाले वाम मोर्चा को सत्ता से उखाड़ कर शासन संभालने वाली ममता बनर्जी अपने क्रांतिकारी तेवरों के लिए जानी जाती रही है। धीरे-धीरे उनकी पार्टी, सरकार और नेताओं पर भ्रष्टाचार के इतने आरोप लगे जिनसे निकलना अब आसान नहीं रह गया है। ध्यान रखिए कि जितने भी मामले में ईडी या सीबीआई जांच कर रही है उन सबके लिए हरी झंडी कोलकाता उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय से मिली हुई है।  उनके भतीजे अभिजीत बनर्जी और उनकी पत्नी रुचिरा बनर्जी पर भी धनशोधन मामले में मुकदमा दर्ज है। अभिषेक से ईडी 22 मार्च को दिल्ली स्थित मुख्यालय पर लंबी पूछताछ कर चुकी है। ईस्टर्न कोलफील्ड लिमिटेड में कोयले की चोरी और तस्करी को लेकर सीबीआई ने मुकदमा दर्ज किया हुआ है।

इस सब में वर्तमान प्रकरण ने ममता बनर्जी और तृणमूल को सबसे ज्यादा परेशानी में डाला है। इतने नोटों की गड्डियां तथा सामग्रियां कभी यहां बरामद हुआ नहीं। ममता बनर्जी और उनके रणनीतिकार लगातार मंथन कर रहे होंगे कि से निकला कैसे जाए? किंतु निकलना आसान नहीं है। संभव है आने वाले समय में इस जांच का विस्तार हो और दूसरे लोग भी चपेट में आए। जांच में दूसरे लोग आते हैं तो ममता के लिए राजनीतिक समस्या भी बढ़ेगी। भाजपा आक्रामक हो चुकी है। इससे उसके डरे समय और निराश कार्यकर्ताओं तथा समर्थकों में नई जान आ सकती है। वाममोर्चा भी उनके विरुद्ध धरना प्रदर्शन कर रहा है। तो विपक्ष के विरोध प्रदर्शनों को रोकने के लिए ममता इस हालत में कदम नहीं उठा सकती। उनकी सोच में शायद बदलाव आया है। उपराष्ट्रपति चुनाव से उन्होंने अपनी पार्टी को अलग कर दिया है। यह कोई सामान्य निर्णय नहीं है। जो नेत्री विदेशी मोर्चे के नेतृत्व के लिए अभियान चला रही हो वह उपराष्ट्रपति के चुनाव में विपक्ष के उम्मीदवार को वोट ना दें इसकी कल्पना नहीं की जा सकती थी।

राष्ट्रपति चुनाव में भी यशवंत सिन्हा को खड़ा करने के बावजूद ममता क्या उनके दूसरे साथी बिल्कुल सक्रिय नहीं दिखे। सच कहे तो भाजपा के पास ममता व तृणमूल के विरुद्ध पार्था और अर्पिता के रूप में ऐसा हथियार हाथ लगा है जिसके आधार पर वह आक्रामक तरीके से अपनी राजनीति को आगे पढ़ा रही है। इसमें ममता बनर्जी व तृणमूल के पास प्रति आक्रमण का कोई विकल्प नहीं है। उन्हें केवल अपना बचाव करना है और किसी संघर्ष में बचाव सफलता की रणनीति रणनीति या गारंटी नहीं हो सकती। पार्था अर्पिता प्रकरण बताता है कि सरकार किस ढंग से चल रही है। शिक्षकों की भर्ती में इतना बड़ा भ्रष्टाचार हो सकता है तो अन्य सरकारी भर्तियां पूरी तरह बेदाग होंगी ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है। वैसे भी पश्चिम बंगाल जाने आने वाले लोगों को पता है कि भ्रष्टाचार और अपराध वहां कैसे सर्व स्वीकृत हो चुका है। तृणमूल कार्यकर्ता एवं समर्थक मनमाने तरीके से व्यवहार करते हैं। ममता के पास अवसर था कि वे वाम मोर्चे के अपराध और भ्रष्टाचार से पश्चिम बंगाल को मुक्ति दिलाएं लेकिन उन्होंने लेकिन उनकी राजनीति उसी दिशा में आगे बढ़ती चली गई। सत्ता से जुड़े या पार्टी के लालची और बेईमान समर्थकों के लिए तो ऐसा शासन अवसर है किंतु आम कार्यकर्ता, समर्थक और बंगाल की जनता के लिए यह भयानक स्वप्न जैसा बनता जा रहा है। 

अवधेश कुमार, ई-30,गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली -110092, मोबाइल- 98110 27208



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