शनिवार, 28 अगस्त 2021

काबुल हमले के भयावह निहितार्थ

अवधेश कुमार

अफगानिस्तान की राजधानी काबुल पर हुए बम धमाकों ने पूरी दुनिया को कुछ स्पष्ट संदेश दिया है। आरंभ में केवल दो धमाकों और 13 -14 लोगों के मारे जाने की खबरें आ रही थीं। हालांकी यह अंदेशा था कि धमाके भी ज्यादा हो सकते हैं और मृतकों की संख्या भी। कम से कम सात धमाके हुए और 170 से ज्यादा लोगों के मारे जाने तथा 1400 के आसपास के घायल होने की खबरहै। भारी संख्या में घायलों की स्थिति खराब है। वहां अस्पतालों का संचालन करने वाली इटली  की एक संस्था के प्रबंधक मार्को पुनतिन ने आरंभ में ही कहा था कि हमले में घायल 60 लोगों का उपचार किया जा रहा है जबकि 10 घायल ऐसे थे जिन्होंने अस्पताल लाने के दौरान ही दम तोड़ दिया। अभी तक इतना साफ है कि इन धमाकों में 12 अमेरिकी नौसैनिक और एक नौसेना का चिकित्सा कर्मी मारा गया। अमेरिकी अधिकारी ही यह कहते सुने गए कि अमेरिकी सेना के 60 से अधिक जवान घायल हुए हैं और इनकी संख्या बढ़ सकती है। जाहिर है, अमेरिका के लिए यह सीधी चुनौती है तथा संपूर्ण दुनिया के लिए चेतावनी । अफगानिस्तान और तालिबान को लेकर के नए सिरे से खुलकर विचार विमर्श करने तथा रणनीति बनाने की आवश्यकता अगर विश्व समुदाय महसूस नहीं करता तो यह दुर्भाग्यपूर्ण होगा। 

इस हमले का सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों ने पहले ही चेतावनी दे दी थी कि आईएस काबुल हवाई अड्डे पर हमला कर सकता है । इन्होंने अपने नागरिकों को काबुल हवाई अड्डे पर न जाने के प्रति अलर्ट भी जारी कर दिया । बावजूद इसके हमला कैसे हो गया ? अमेरिका और नाटो देशों को यह भी पता था कि पिछले दिनों ही तालिबान ने आईएस के चार आतंकवादियों को पकड़ा था। उनका क्या हुआ किसी को नहीं पता। संभव है उनका काम तमाम कर दिया गया हो। आम खबर ये थी कि काबुल हवाई अड्डे पर जाने के लिए अब कई स्तर की सुरक्षा व्यवस्था की गई है । फिर आत्मघाती बम विस्फोटक और बंदूक लिए आतंकवादी कैसे वहां तक पहुंच गया ? ब्रिटेन के विदेश मंत्री ने तो कहा कि उनके पास पहले से लिखित बयान मौजूद था कि आईएस का हमला होगा और क्या बोलना है। यह ऐसी स्थिति है जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती थी । विश्व भर में जो देश आतंकवाद से पीड़ित हैं या आतंकवादियों के रडार पर हैं या जो आतंकवाद का अंत करना चाहते हैं वे विचार करें कि पूर्व चेतावनी और जानकारी रहते हुए भी बड़े देश अगर उनके खिलाफ पुख्ता सुरक्षा व्यवस्था नहीं कर सकते तो फिर क्या होगा ?

 अमेरिकी राष्ट्रपति जो बिडेन को गुस्सा आना स्वाभाविक है। उन्होंने चेतावनी देते हुए यह तो कह दिया है कि हम माफ नहीं करेंगे। हम नहीं भूलेंगे। हम चुन-चुन कर तुमको मारेंगे। आपको इसका अंजाम भुगतना ही होगा। किंतु वे करेंगे क्या इसके संदर्भ में कोई स्पष्ट संकेत नहीं दिया है। वे यह भी कह रहे हैं कि काबुल हवाई अड्डे पर हुए हमलों में तालिबान और इस्लामिक स्टेट के बीच मिलीभगत का अब तक कोई सबूत नहीं मिला है। इसका मतलब क्या है? उनकी घोषणा यह भी है कि हम अफगानिस्तान में अमेरिकी नागरिकों को बचाएंगे तथा अफगान सहयोगियों को बाहर निकालेंगे और हमारा मिशन जारी रहेगा। अमेरिका पूरी तरह वापसी के निर्णय पर कायम है तथा अभी उसका उद्देश्य केवल अपने नागरिकों तथा सहयोगियों को वहां से बाहर निकालना है। उनके बयान का अर्थ यह भी है कि वे तालिबान के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करने जा रहे हैं। आईएसआईएस खुरासान समूह ने इस हमले की जिम्मेदारी स्वीकार की है और तत्काल इसे नकारने का कोई कारण नहीं है। आईएएस और तालिबान के बीच हिंसक संघर्ष चल रहा है। हम सामान्यतया मान कर चलते हैं कि वैश्विक जेहादी आतंकवाद के विश्व स्तर पर और अलग-अलग देशों में जितने समूह हैं उन सबकी विचारधारा एक होगी। यह सही नहीं है। एक समय अलकायदा विश्व भर के आतंकवादियों के लिए मुख्य प्रेरणा का स्रोत था भले वे उससे प्रत्यक्ष जुड़े हों या नहीं। उसी अलकायदा के अंदर से विद्रोह करके अल बगदादी निकला और उसने आईएस की स्थापना की। धीरे-धीरे अलकायदा कमजोर हुआ और विश्व भर में जिहादी मानसिकता के लोग आईएसआईएस से जुड़ने लगे। अलकायदा हाशिए पर गया आईएसआईएस मुख्य संगठन बना। 

आतंकवादी समूहों के बीच व्यापक मतभेद व शत्रुता का इससे बड़ा उदाहरण कुछ नहीं हो सकता। इराक में आतंकवादी समूह ने एक दूसरे के विरुद्ध भी हमला किया है। अफगानिस्तान तो इनका सबसे भयंकर उदाहरण बना है। तालिबान और इस्लामिक स्टेट एक ओर अमेरिका और नाटो के साथ अफगान सेना के विरुद्ध आतंकवादी हमले करते रहे तो एक दूसरे के विरुद्ध भी। आईएस वैश्विक स्तर पर इस्लामिक साम्राज्य यानी खलीफा का शासन स्थापित करना चाहता है, अलकायदा का भी यही लक्ष्य था और तालिबान उसके समर्थक थे। तालिबान की गतिविधि अफगानिस्तान और पाकिस्तान तक ही सीमित रही। तालिबान ने अपना केंद्र बिंदु अफगानिस्तान को ही बनाया और अमेरिका के साथ समझौता कर लिया । इस कारण आईएस ही नहीं ,विश्व भर के अनेक जेहादी समूह तालिबान के विरुद्ध हैं। उनका मानना है कि तालिबान ने ओसामा बिन लादेन और उसके जैसे दूसरे जिहादी नेताओं के विचारों को तिलांजलि दे दिया है । वैश्विक जिहादी आतंकवाद का यह ऐसा पहलू है जिस पर अगर सही परिपेक्ष में विचार नहीं किया जाए तो कोई देश उपयुक्त नीति निर्धारित नहीं कर सकता। आने वाले समय में अफगानिस्तान में कुछ और समूह भी तालिबान के विरुद्ध हिंसक सक्रियता दिखा सकते हैं। दुर्भाग्य से इस समय अफगानिस्तान में तालिबान के हिंसक आधिपत्य को लेकर विश्व में जिस तरह का मतभेद है वैसा ही मतभेद आतंकवादी समूहों को लेकर भी रहा है। रूस खुलेआम तालिबान के साथ काम करने की इच्छा जता चुका है, बातचीत कर रहा है। चीन ने तो उनके प्रतिनिधिमंडल को पहले बीजिंग बुलाया, चीनी प्रतिनिधिमंडल काबुल गया। बड़ी शक्तियों के बीच यही मतभेद आतंकवादी समूहों का हौसला अफजाई करने वाला है। सीरिया और इराक में अमेरिका ,रूस, चीन जैसे देशों का आपसी मतभेद आईएस के खात्मे में बहुत बड़ी बाधा रहा है। यही स्थिति अफगानिस्तान और पाकिस्तान को लेकर भी है। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बिडेन भले अपने जवानों की मृत्यु पर आंसू बहाए, पूरी दुनिया में अमेरिकी ठिकानों के झंडे झुकाने का ऐलान करें, सच यही है कि वर्तमान भयावह स्थिति के लिए तत्काल कोई एच देश और व्यक्ति जिम्मेदार है तो अमेरिका और जो बिडेन। तालिबान से बातचीत करने की पहल अमेरिका ने की ,समझौता उसने किया और जो बिडेन ने बिना गंभीरता से विचार किए, अफगान सेना के बैकअप यानी रणनीतिक मार्गदर्शन और आवश्यक सामग्रियों की आपूर्ति की व्यवस्था के संदर्भ में आत्मनिर्भर बनाए  एकाएक वापस आना आरंभ कर दिया। इस कदम ने 20 वर्षों के युद्ध को निष्फल कर दिया। मजहबी हिंसा वाले आतंकवादी समूह को आप मान्यता देंगे तो दूसरे आतंकवादी समूह उसके विरुद्ध खड़े वैसे भी होंगे। दूसरे आतंकवादी समूहों को यह भी संदेश मिलेगा कि अमेरिका अब हमसे लड़ना नहीं चाहता इसलिए जैसे चाहो हिंसा करो। हैरत की बात है कि अमेरिका को यह भी पता है कि सारे आतंकवादी समूह उसके जानी दुश्मन हैं, फिर भी उसने विशेष सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए न तो कोई अंतरराष्ट्रीय बैठक बुलाई न नाटो के देशों के साथ मिलकर प्रबंध ही किया। इस हमले के बाद भी जो बिडेन के नेतृत्व वाला अमेरिकी प्रशासन इस दिशा में कदम उठाना तो छोड़िए विचार करने के लिए भी तैयार नहीं है। हालांकि अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन का बयान है कि अमेरिका इस दिशा में विचार कर रहा है कि काबुल हवाई अड्डे की सुरक्षा कैसे सुनिश्चित की जाए ताकि 31 अगस्त के बाद भी वहां से कोई निकलना चाहे तो सुरक्षित निकल सके ,दूसरे देशों के जहाजों का आवागमन हो सके। जब आपके सैनिक वापस ही आ जाएंगे ,अफगान सेना ने हथियार डाल दिया है तो यह व्यवस्था किसके जिम्मे होगी? अफगानिस्तान में नए आंतरिक और आपसी जिहादी युद्ध की यह नये सिरे से  शुरुआत है। आगे

 इससे भी भीषण संघर्ष देखने को मिलेगा और यह अफगानिस्तान तक सीमित नहीं रह सकता। काबुल हमले के अगले दिन कज़ाकिस्तान के सैन्य अड्डे पर श्रृंखलाबद्ध धमाका इसका प्रमाण है।विश्व समुदाय इस खतरे को समझे तथा नए सिरे से तालिबान और अफगानिस्तान को लेकर अपनी नीति बनाए। 

अवधेश कुमार, ई- 30 ,गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली- 110092 ,मोबाइल -98110 27208

गुरुवार, 19 अगस्त 2021

अफगानिस्तान में तालिबानी आधिपत्य

अवधेश कुमार

अफगानिस्तान की तस्वीरें अंदर से हिला देने वाली है। तालिबान की अफगानिस्तान में आधिपत्य के साथ विश्व समुदाय के अंदर फिर नए सिरे से चारों ओर इस्लामिक हिंसक कट्टरवाद के उभरने तथा आतंकवादी हमलों के बढ़ने की आशंकाएं बलवती हो रही है तो यह बिलकुल स्वाभाविक है। वैसे जिस तरह तालिबान ने अफगानिस्तान पर कब्जा किया है वह अपने आपमें भयावह है। पूरा परिदृश्य विचलित और आतंकित करने वाला है ।  एक घोषित मजहबी आतंकवादी संगठन सशस्त्र संघर्ष करते हुए देश पर आधिपत्य जमा ले, निर्वाचित व विश्व द्वारा मान्यता प्राप्त सरकार को सत्ता छोड़ने के लिए मजबूर कर दे और विश्व समुदाय मूकदर्शक बना देखता रहे सामान्यतः इस स्थिति की कल्पना नहीं की जा सकती। यह तथाकथित आधुनिक दुनिया है जहां संयुक्त राष्ट्रसंघ के सभी सदस्य देशों ने आतंकवाद को नष्ट करने का सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित किया हुआ है। ध्यान रखिए,  2001 का प्रस्ताव भी तब अफगानिस्तान के संदर्भ में ही था। तालिबान और अलकायदा की मजहबी आतंकवादी विचारधारा के विरुद्ध विश्व समुदाय का वह भी एक वैचारिक संकल्प था । इस दृष्टि से अफगानिस्तान में तालिबानी आधिपत्य आधुनिक विश्व की सबसे बड़ी विडंबना है। 

अगस्त आरंभ होने के साथ तालिबान ने जिस ढंग से अफगानिस्तान के राज्य -दर राज्य कब्जा करना शुरू किया और अफगान सेना आत्मसमर्पण करती गई उसके बाद यही होना था। हैरत की बात यही है कि करीब 20 वर्षों से अफगान की भूमि पर मौजूद अमेरिका को जमीनी सच का पता नहीं चला। अमेरिकी रक्षा मंत्रालय ने काबुल के पतन के लगभग दो सप्ताह पहले वक्तव्य दिया था कि तालिबान ऐसे दिखा रहे हैं मानो जीत रहे हैं जबकि अंतिम अध्याय लिखा जाना बाकी है। कुछ दिनों पहले अफगान पत्रकार बिलाल सरवरी ने एक विदेशी समाचार एजेंसी को जमीनी स्थिति बताते हुए कहा था कि तालिबान के कमांडर गुपचुप तरीके से अफगान सेना के कमांडरों तथा गांवों, जिलों और प्रांतीय स्‍तर पर महत्‍वपूर्ण नेताओं के साथ संपर्क बना रहे हैं। इसके लिए वे उनके कबीले, परिवार और दोस्‍तों की मदद ले रहे हैं ताकि  गुप्‍त समझौता किया जा सके। इसी वजह से अफगान सेना को हार का मुंह देखना पड़ रहा है। कंधार से आई एक रिपोर्ट में कहा गया था कि तालिबान आतंकवादी अफगान नेताओं और कमांडरों को आश्‍वासन दे रहे हैं कि अगर वे मदद करते हैं तो माफ कर दिया जाएगा। तालिबान मुख्यतः पश्तून संगठन है जो अफगानिस्तान की आबादी के 45 प्रतिशत हैं। कुछ ताजिक भी हैं। हालांकि तालिबान विजय क यही कारण नहीं हैं। अमेरिकी रक्षा विशेषज्ञ और लॉन्‍ग वॉर जनरल के संपादक बिल रोग्गियो का विस्तृत आकलन पिछले दिनों अमेरिका सहित दुनियाभर की मीडिया में प्रकाशित हुआ था । उन्‍होंने कहा कि यह वियतनाम में 1968 के बाद अमेरिका की सबसे बड़ा खुफिया नोनाकामी है। बिल का प्रश्न था कि यह कैसे हुआ कि तालिबान ने योजना बनाई, खुद को एकजुट किया, तैयार किया और देश भर में इतने बड़े आक्रामक अभियान को क्र‍ियान्वित किया वह भी सीआईए, डीआईए, एनडीएस और अफगान सेना की नाक के नीचे? उनके अनुसार अमेरिकी सेना और खुफिया अधिकारियों ने खुद को यह समझा लिया कि तालिबान बातचीत करेगा। तालिबानी आतंकियों की यह सैन्‍य रणनीति थी ताकि वार्ता की मेज पर इसका फायदा उठाया जा सके। अमेरिकी तालिबान की इस साजिश को पकड़ नहीं पाए कि तालिबान सैन्‍य ताकत के बल पर देश पर कब्‍जा कर सकता है। अमेरिका ने अफगान सेना की ताकत के बारे में गलत अनुमान लगाया कि वह एक साल तक तालिबान को रोक सकती है।

बिल की बात से कोई असहमत नहीं हो सकता। अमेरिकी रक्षा मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा था कि अफगान सेना में तालिबान को रोकने की पूरी क्षमता है और वे कम से कम एक साल तक उन्हें रोक सकते हैं। अमेरिका में लंबे समय से यह धारणा बन रही थी कि 11 सितंबर 2001 को हमला कराने वाला ओसामा बिन लादेन मारा जा चुका है तो हमारा वहां पड़े रहना मूर्खता है। पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप तो प्रश्न उठाते थे कि आखिर अमेरिका वहां क्यों है जबकि भारत ,चीन, रूस तक नहीं हैं? लेकिन पिछले कुछ सालों में अमेरिका में यह मुद्दा रह ही नहीं गया था। ट्रंप ने सैनिकों की वापसी की घोषणा की योजना भी बना ली थी लेकिन एकाएक वापस आने का उन्होंने निर्णय नहीं किया। वर्तमान अमेरिकी राष्ट्रपति जो बिडेन ने बिना सोचे विचारे 11 सितंबर की अंतिम तिथि निश्चित कर दी और फिर उसके बाद तालिबान के निर्वाचित सरकार उसके नियंत्रण में चलने वाली सेना के पैरों तले जमीन खिसक गई । अमेरिकी सैनिकों की आपसी का मतलब था वहां लड़ने वाली ढांचा का खत्म होना। जब ढांचा ही नहीं रहा तो अफगान सेना बेसहारा हो गई पिछले तीन सप्ताह में अमेरिका ने भारी बमबारी की लेकिन अफगानिस्तान के जमीनी हालात बिल्कुल बदल गए थे। इसमें यही होना था।

कोई अमेरिकी तालिबान का शासन अफगानिस्तान में नहीं चाहता होगा। जिस तालिबान के कट्टर मजहबी आतंकवादी शासन को अमेरिका ने उखाड़ फेंका वही इनके कारण इतनी आसानी से वापस आ गया। करीब 20 वर्षों बाद तालिबान जिस तरह वापस आए हैं उसमें अब उन्हें उखाड़ फेंकना अत्यंत कठिन है। संपूर्ण नाटो सेना और अमेरिकी सेना की शर्मनाक वापसी के बाद कोई संगठन, देश या देशों का समूह अफगानिस्तान में हाथ डालने का साहस नहीं करेगा। निश्चित रूप से 2001 और 2021 में अंतर है किंतु यह तालिबान के लिए ज्यादा अनुकूल है । कतर की राजधानी दोहा में उनका राजनीतिक मुख्यालय है जहां से वे अमेरिका सहित अन्य देशों के साथ बातचीत कर रहे थे। तब ऐसा नहीं था। इस बीच तालिबान ने अपने समर्थक देशों की मदद से ऐसे व्यक्तित्व विकसित कर लिए हैं जो विश्व के साथ सभ्य और सधी हुई भाषा में संवाद करते हैं, कूटनीतिक शब्दावली में बयान देते हैं।।बातचीत के कारण अनेक देशों के नेताओं और राजनयिकों के साथ उनके संबंध बने हैं। पहले केवल पाकिस्तान का हाथ उनके सिर पर था। पाकिस्तान का हाथ आज भी है और तालिबान की ताकत बढ़ाने तथा उनकी जीत में इसकी प्रमुख भूमिका है। इस बार चीन और रूस ने तालिबान के साथ संवाद बढ़ाया। चीन ने पाकिस्तान के माध्यम से तालिबान नेताओं से संपर्क किया, दोहा स्थित राजनीतिक ब्यूरो के प्रमुख मुल्लाह अब्दुल गनी बरादर के नेतृत्व में तालिबान प्रतिनिधिमंडल को बीजिंग बुलाकर बातचीत की। रूस तालिबान के साथ काम करने में स्पष्ट रुचि दिखा रहा है।

तालिबान ने अपने कट्टर इस्लामी विचारधारा में परिवर्तन किया है इसके प्रमाण अभी तक नहीं मिले हैं। अफगानिस्तान में 1996 से 2001 तक का तालिबानी शासन काल शरिया के नाम पर बर्बरता की मिसाल था। तालिबान उसी की पुनरावृत्ति करते हैं या थोड़ी उदारता दिखाते हैं यह भविष्य के गर्त में है लेकिन किसी भी परिस्थिति में उदार और खुला शासन नहीं  होगा । कंधार पर कब्जे के बाद जब तालिबान लड़ाके अजीज बैंक में गए तो उन्होंने काम कर रही 9 महिलाओं को घर जाने का आदेश दिया तथा ऐलान किया कि उनके पति या परिवार के पुरुष रिश्तेदारों वहां काम कर सकते हैं। सत्ता हाथ में आने के साथ ही उनके रंग बदलने लगे और उन्होंने महिलाओं और विरोधियों के साथ जो कुछ करना शुरू किया है वह भविष्य का ट्रेलर ही है । वास्तव में तालिबान एक ऐसी विचारधारा के झंडाबरदार हैं जो संपूर्ण आधुनिक सभ्यता को नकारती और उसके विनाश का लक्ष्य रखती है। इस तरह अफगानिस्तान में उनकी फिर से वापसी उस विचारधारा की विजय है जो सम्पूर्ण मानवता के लिए खतरा है । पहले तालिबान बिना अंतरराष्ट्रीय मान्यता के शासन करते रहे हैं। सत्ता से वंचित किए जाने तथा आतंकवादी संगठन घोषित होने के कारण प्रतिबंधित होने के बावजूद उनका अस्तित्व कायम रहा। उसी स्थिति में अपने समर्थक देशों के सहयोग से उसने संवाद के जरिए अघोषित मान्यता भी प्राप्त की। भारत के लिए विकट स्थिति पैदा हो गई । चीन और पाकिस्तान के वहां प्रभावी होने का अर्थ भारत के हितों पर सीधा कुठाराघात। भारत में वहां करीब 3 अरब डॉलर का निवेश किया है। इसके अलावा 34 प्रांतों में लगभग 400 परियोजनाएं शुरू की गई है। अफगानिस्तान के साथ रणनीतिक साझीदार समझौता भी अब गया। तालिबान की विजय से उत्साहित होकर आतंकवादी फिर से भारत को हिंसा में जलाने की कोशिशें बढ़ा सकते हैं। हम तालिबान शासन के साथ संबंध बनाते हैं तो वह उस विचारधारा को मान्यता देना है जहां से इस्लामी साम्राज्य की स्थापना के लिए हिंसा और आतंकवाद निकलता है। नहीं करते हैं तो आर्थिक सामरिक हित प्रभावित होंगे। मुख्य चिंता का विषय यह है एक आतंकवादी संगठन को किस तरह अमेरिका और उसके साथ ही देशों ने अपनी मूर्खता और नासमझी से इस स्थिति में ला दिया कि आज वह फिर से अफगानिस्तान की राजधानी काबुल सहित कुछ स्थानों को छोड़कर लगभग पूरे देश में अपना इस्लामी झंडा लहराने में सफल है।

अवधेश कुमार, ई:30, गणेश नगर ,पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली :110092 ,मोबाइल :98210 27208

शुक्रवार, 13 अगस्त 2021

जंतर मंतर धरने में हिंदुत्व समर्थकों के खिलाफ पुलिस कार्रवाई

अवधेश कुमार

राजधानी दिल्ली के जंतर मंतर पर इससे पहले धरना में भाषण देने वाले कब गिरफ्तार हुए इसके लिए पूरा इतिहास खंगालना होगा। इस तरह यह एक विरल मामला हो गया है। आरोप है कि समान नागरिक संहिता, जनसंख्या नियंत्रण कानून, देश में एक कानून आदि की मांग के लिए आयोजित धरने में कुछ लोगों ने आपत्तिजनक भाषण दिए। निस्संदेह, कुछ भाषण अस्वीकार्य थे। किसी मजहब को आप पसंद नहीं करते हैं यह आपका विषय हो सकता है। किंतु उसके बारे में हिंसक और सांप्रदायिक वक्तव्य को भारतीय कानून मान्यता नहीं देता और दुनिया के किसी सभ्य समाज में इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। इस आधार पर देखें तो धरना में शामिल चिन्हित लोगों के खिलाफ पुलिस कार्रवाई उचित लगती है। ऐसा नहीं हुआ तो दूसरे लोग भी इस तरह का भाषण देकर के और आग भड़का सकते हैं। 

जो कुछ भी हुआ या हो रहा है उसे अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण कहना होगा। यह बात सही है कि सरकारों द्वारा अल्पसंख्यक तुष्टीकरण एवं इससे जुड़े वोट बैंक की राजनीति के विरुद्ध देश में गैर मुस्लिम धर्मावलंबियों के बीच आक्रोश है। हिंदुओं के अंदर पिछले कुछ वर्षों में जागरण हुआ है। हिंदुत्व को लेकर आक्रामकता भी बढ़ी है। इस कारण ही देश की अनेक राजनीतिक पार्टियों को अपना वोट बचाने के लिए स्वयं को हिंदू धर्म के प्रति निष्ठावान साबित करने की श्रृंखला चल पड़ी है। हिंदुत्व समर्थकों के लिए यह उत्साह का विषय होना चाहिए। किंतु हिंदुत्व जैसे व्यापक और सर्व समावेशी विचार को स्थाई स्वीकृति दिलाने के लिए धैर्य, संयमित बयान संतुलन आदि की गहरी आवश्यकता है। हिंदुत्व समर्थकों में एक बड़ा वर्ग निश्चित रूप से इन मानकों पर खरा उतरता है। किंतु दूसरी और यह भी सच है कि बड़ी संख्या में अतिवादी और उग्र विचार रखने वाले भी इस समय हिंदुत्व के पुरोधा बन गए हैं और ये अपना ही पक्ष कमजोर करते हैं । लोकतंत्र में आपको अपनी मांग के लिए धरना प्रदर्शन करने का पूरा अधिकार है। समान नागरिक संहिता के पक्ष में तो उच्चतम न्यायालय और देश की कई उच्च न्यायालय अनेक बार टिप्पणियां कर चुका है। राजनीतिक दल मुस्लिम वोटों के बिखर जाने के भय से इस दिशा में कभी आगे नहीं आए। देश की स्थिति ऐसी हो गई है कि राष्ट्रीय स्तर पर इसके बारे में सर्वसम्मति कायम करना कठिन है। मांग नाजायज नहीं है। इसी तरह जनसंख्या नियंत्रण कानून के पक्ष में भी व्यापक वर्ग है। हालांकी इसे लेकर थोड़ा सतर्क होने की बात करने वाले भी हैं। यह भी सही है कि जनसंख्या नियंत्रण के लिए जिन देशों में कानून लगाओ लागू हुआ वह पूरी तरह सफल नहीं रहा। भारत में राजनीतिक पार्टियों के बीच इस पर सहमति नहीं हो सकती ,क्योंकि सबके सामने मुस्लिम वोट का सवाल है। हालांकि भाजपा शासित कुछ राज्यों ने इस दिशा में साधारण कदम बढ़ाए हैं। राष्ट्रीय स्तर पर भारत की विविधताओं को देखते हुए इस तरह का कानून बनाना और उसे लागू करना अत्यंत कठिन है । फिर इसके खतरे भी हैं। जिन देशों ने जनसंख्या का नियंत्रण किया वै बूढ़ों के देश हो चुके हैं या हो रहे है। आज पश्चिम के ही अनेक देश ज्यादा बच्चा पैदा करने के लिए लोगों को प्रेरित कर रहे हैं। चीन ने ही ,जिसने एक समय एक बच्चे की नीति को लागू करने की कोशिश की अब तीन बच्चे की अनुमति दे दी है है। 

जो भी स्थिति हो मुसलमानों के खिलाफ हिंसक और सांप्रदायिक बयान देना खतरनाक है, मूर्खता भी है और ऐसे लोगों से सावधान और सतर्क रहने की जरूरत है। हिंदुत्व  इस तरह की बात नहीं करता। हिंदुत्व सर्वधर्म समभाव में विश्वास करता है। विरोधियों के प्रति भी उनका मानस परिवर्तन करने की अनुशंसा हिंदुत्व में है। इस्लाम की कुछ बातों से अगर आपकी असहमति है तो उसे प्रकट करने का तरीका भी संयमित संतुलित होना चाहिए। दुर्भाग्य से पूरे भारत में बड़ी संख्या में लोग इसे नहीं समझते कि भारत जैसे देश में आप किसी एक मजहब को निशाने पर रखकर  हिंसा सांप्रदायिकता की कोशिश करेंगे तो उससे देश को क्षति होगी। इससे हिंदुत्व का पक्ष कमजोर होगा। ऐसे लोग उन लोगों के विचारों को, उनके पक्ष को सही ठहराते हैं जो आरोप लगाते हैं कि हिंदुत्व एक फासीवादी विचारधारा है और अगर हिंदुत्व स्वीकृत हुआ तो भारत में किसी मजहब के लिए कोई स्थान नहीं बचेगा। यह बिल्कुल गलत है। हिंदुत्व में सभी धर्मों को अपनी उपासना पद्धति के अनुसार जीने और काम करने का की पूरी स्वतंत्रता है। यहां पर पुलिस कार्रवाई सही लगती है। 

लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी है। किसी धरना में ऐसे अनेक लोग शामिल होते हैं जिनको आयोजक तक नहीं जानते। जिन्हें वहां भाषण देने के लिए बुलाया जाता है वह भी वहां ज्यादातर लोगों को नहीं जानते। इसलिए किसी धरना में अगर कुछ अतिवादी लोगों ने आपत्तिजनक भाषण दिए तो वीडियो के अनुसार केवल उन पर कार्रवाई होनी चाहिए। ऐसा नहीं होना चाहिए कि जो लोग वहां भाषण देने गए उनको आप दोषियों के बदले दोषी साबित कर दें। दुर्भाग्य से इस मामले में ऐसा हो रहा है।  जंतर -मंतर पर इससे भी खतरनाक भाषण, आपत्तिजनक नारों का लंबा रिकॉर्ड है। ऐसा नहीं सुना गया कि उसके कारण लोगों पर मुकदमा हुआ हो, पुलिस पूछताछ कर रही हो ,गिरफ्तारी हो रही हो। आम आदमी पार्टी के धरना में ,जिसमें अरविंद केजरीवाल सहित सारे नेता उपस्थित थे एक किसान ने आत्महत्या कर लिया। उस समय तो किसी ने इसकी जहमत नहीं उठाई कि केजरीवाल और बाकी लोगों से पूछताछ हो, उनकी गिरफ्तारी हो। हिंदुत्व के खिलाफ वहां अनेक बार आपत्तिजनक भाषण दिए गए।  भारत देश के ही खिलाफ वहां भाषण हुए हैं। भारतीय संविधान की प्रतियां तक वहां जलाई गई है। कभी नहीं सुना गया कि इस तरह की कार्रवाई हो। इस समय देश में जिस ढंग से विचारधारा की लड़ाई चल रही है उसमें सेक्येलरवाद की विकृत व्याख्या करने वाले तथाकथित सेकुलर ब्रिगेड को केवल यही कार्यक्रम नागवार गुजरा। उन लोगों ने सोशल मीडिया पर इसको  मुद्दा बनाया, पुलिस के पास कार्रवाई के अलावा कोई चारा नहीं था। जो लोग हिंदुत्व की व्यापक अवधारणा को समझते हैं और भारत सहित विश्व में उसकी स्वीकृति की कल्पना करते हैं उन्हें इस घटना से पूरी तरह सतर्क हो जाना चाहिए। आप अपनी मांग रखिए,अपनी बात कहिए लेकिन ध्यान रहे कि अतिवादी तत्व इसका दुरुपयोग कर आपके पक्ष को कमजोर न कर दें। इस समय समान नागरिक संहिता, जनसंख्या नियंत्रण कानून आदि की मांग ही इनके कारण कमजोर पड़ गया।

बुधवार, 4 अगस्त 2021

विश्व व्यवस्था को प्रभावित करेगा भारत अमेरिका संबंध

अवधेश कुमार

अमेरिकी विदेश मंत्री एंटोनी ब्लिंकन की भारत यात्रा पर केवल भारत के अंदर ही नहीं बाहर भी कई देशों की गहरी दृष्टि रही होगी। वे ऐसे समय भारत आए जब अफगानिस्तान को लेकर अनिश्चय का माहौल है, पाकिस्तान चीन के साथ मिलकर वहां महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की ओर अग्रसर है ,भारत को अफगानिस्तान से बाहर करने या वहां भूमिकाहीन करने की कोशिशें चल रही हैं एवं चीन की भारत विरोधी गतिविधियां जारी है…...। निस्संदेह,  कोविड महामारी से निपटने में आपसी सहयोग भी यात्रा का एक महत्वपूर्ण मुद्दा था, पर सामरिक चुनौतियां एजेंडा में सबसे ऊपर रहा। जो बिडेन प्रशासन भारत को कितना महत्व देता है इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि इस वर्ष ब्लिंकन भारत आने वाले तीसरे अमेरिकी नेता थे। ब्लिंकन के पहले रक्षा मंत्री लॉयड ऑस्टिन तथा जलवायु परिवर्तन मामलों पर अमेरिकी राष्ट्रपति के विशेष दूत जॉन कैरी भारत आ चुके हैं। ब्लिंकन की यात्रा में हिंद प्रशांत क्षेत्र में शांति और स्थिरता को बढ़ावा देने के अलावा अफगानिस्तान सहित क्षेत्रीय सुरक्षा के मामलों पर अधिक सशक्तता से मिलकर काम करने पर सहमति बनी है। विदेश मंत्री एस जयशंकर के साथ संयुक्त प्रेसवार्ता में ब्लिंकन ने कहा कि भारत और अमेरिका की साझेदारी हिंद प्रशांत क्षेत्र में स्थिरता और समृद्धि प्रदान करने तथा दुनिया को यह दिखाने के लिए महत्वपूर्ण होगी कि लोकतंत्र अपने लोगों के लिए कैसे काम कर सकता है। उन्होंने भारत के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा कि दुनिया में ऐसे बहुत कम रिश्ते हैं जो भारत और अमेरिका के बीच के संबंधों से ज्यादा महत्वपूर्ण है। उनके शब्द थे कि भारत और अमेरिका के लोग मानवीय गरिमा और अवसर की समानता, कानून के शासन, धर्म और विश्वास की स्वतंत्रता सहित मौलिक स्वतंत्रता में विश्वास करते हैं। 

ये बातें महत्वपूर्ण हैं और इनसे भारत अमेरिका संबंधों की ठोस व्यावहारिक और वैचारिक आधार भूमि का आभास होता है । इस समय आम भारतीय की रुचि ज्यादा शुद्ध व्यवहारिक मुद्दों पर थी । इनमें अफगानिस्तान सबसे ऊपर है। विदेश मंत्री एस जयशंकर ने अफगानिस्तान सहित क्षेत्रीय सुरक्षा के मुद्दों पर व्यापक चर्चा की बात कही । उन्होंने कहा कि शांतिपूर्ण सुरक्षित और स्थिर अफगानिस्तान में भारत और अमेरिका की गहरी रुचि है। जयशंकर के अनुसार इस क्षेत्र में एक विश्वसनीय भागीदार के रूप में भारत ने अफगानिस्तान की स्थिरता और विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है तथा उसे जारी रखेगा। उन्होंने आश्वस्त करने के अंदाज में कहा कि अमेरिका और भारत अफगान लोगों के हितों के लिए मिलकर काम करना जारी रखेंगे तथा क्षेत्रीय स्थिरता का समर्थन करने के लिए भी काम करेंगे। 

अमेरिका जिस तरह वहां से निकल गया उससे उसकी अपनी साख तो कमजोर हुई ही है पूरे क्षेत्र की सुरक्षा और स्थिरता पर खतरा पैदा हो चुका है । पाकिस्तान की कोशिश है कि तालिबान सत्ता पर कब्जा जमाये और उसके माध्यम से उसका प्रभाव कायम हो । चीन पाकिस्तान के माध्यम से वहां प्रभावी भूमिका निभाने की ओर अग्रसर है । पाकिस्तान के सहयोग से तालिबानी नेताओं के साथ चीन के विदेश मंत्री की बातचीत भी हो चुकी है । तालिबान ने घोषणा भी किया है कि वह चीन के हितों को कतई नुकसान नहीं पहुंचाएगा तथा शिनजियांग के विद्रोहियों को अपने यहां किसी सूरत में शरण नहीं देगा । भारत के संदर्भ में तालिबान का ऐसा कोई बयान नहीं आया है। 

हालांकि तालिबान का प्रभाव क्षेत्र बढ़ने के बावजूद ऐसी स्थिति कायम नहीं हुई जिससे लगे कि अब्दुल गनी सरकार पराजय की ओर बढ़ रही है ।  हमारे लिए तालिबान की ताकत बढ़ना निश्चित रूप से गहरी चिंता का कारण है। भारत ने तीन अरब डॉलर से ज्यादा निवेश कर वहां सड़कें , बांध, अस्पताल ,पुस्तकालय आदि आधारभूत संरचनाओं का निर्माण किया है। यहां तक कि संसद भवन भी भारत ने ही बनाया है। भारत ने वहां के सभी 34 प्रांतों में 400 से अधिक परियोजनाएं आरंभ की है। तालिबान उन्हें ध्वस्त कर सकते हैं। हालांकि तालिबान ने कहा है कि ऐसा नहीं करेंगे लेकिन वे भरोसा के लायक नहीं है। भारत में आतंकवाद का निर्यात भी बढ सकता है। चीन और पाकिस्तान का उन पर प्रभाव कायम रहा तो भारत विरोधी रवैया उनका निश्चित रूप से सामने आएगा। भारत की पूरी कोशिश है कि अमेरिका अफगानिस्तान के संदर्भ में ठोस रणनीति बनाए और उसके तहत भारत की मदद करता रहे । इस पर व्यापक बातचीत हुई है और कुछ ठोस निर्णय भी करने का संकेत है।

ब्लिंकन की राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल के साथ भी लंबी मुलाकात हुई।  इसमें द्विपक्षीय एवं क्षेत्रीय सामरिक मुद्दे शामिल थे। हालांकि इस संबंध में सार्वजनिक तौर पर बहुत कुछ नहीं कहा गया लेकिन हम मान सकते हैं कि अफगानिस्तान, पाकिस्तान, चीन और हिन्द  प्रशांत क्षेत्र पर बातचीत केंद्रित रही होगी। अफगानिस्तान को लेकर अमेरिका ने भारत को क्या आश्वासन दिया यह भले अस्पष्ट है, लेकिन वह तालिबान के खिलाफ बीच-बीच में हवाई हमले कर रहा है तथा अफगानिस्तान सरकार को भारी आर्थिक एवं सैन्य सहायता देने जा रहा है। इसका अर्थ हुआ कि अमेरिका जमीन से भले वापस चला जाए, अफगानिस्तान सरकार को वह उनके ही हाल पर नहीं छोड़ रहा। भारत-अमेरिका के बीच प्रशांत क्षेत्र से जुड़ा क्वाड भी बहुआयामी सहयोग का मंच है। इस वर्ष के आरंभ में क्वाड का वर्चुअल शिखर सम्मेलन हुआ जिसमें अमेरिकी राष्ट्रपति जो बिडेन के अलावा जापान के प्रधानमंत्री योशिहिदे सुगा,भारत के नरेंद्र मोदी और ऑस्ट्रेलिया के स्काॅट माॅरिसन शामिल हुए थे। उस बैठक में कोविड-19 टीके को लेकर एक कार्य समूह गठित हुई थी तथा यह तय हुआ था कि जापान के आर्थिक व ऑस्ट्रेलिया के लॉजिस्टिक मदद से भारत हिन्द प्रशांत के देशों के लिए अमेरिकी टीका की एक अरब खुराक बनाएगा। आगे कैसे उस निर्णय को अमल में लाया जाएगा यह ब्लिंकन की यात्रा के दौरान चर्चा का विषय रहा होगा।  क्वाड से अमेरिका के हित भी गहरे जुड़े हुए हैं। दो महासागरों वाले हिंद प्रशांत क्षेत्र अमेरिका के समुद्री हितों की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार इस वर्ष दुनिया के कुल निर्यात के 42 प्रतिशत और आयात की  38 प्रतिशत सामग्रियां यहां से गुजर सकती हैं। 2019 का आंकड़ा बताता है कि इन महासागरों से 19 खरब डॉलर मूल्य की अमेरिकी व्यापार सामग्रियां गई थी। चीन जिस प्रकार अपने आर्थिक और सैन्य ताकत की बदौलत दुनिया में वर्चस्व कायम करने की ओर अग्रसर है उसमें क्वाड उसे रोकने का रणनीतिक मंच बने  तभी इसकी उपयोगिता है। ब्लिंकन ने नई दिल्ली में निर्वासित तिब्बती सरकार तथा दलाई लामा के प्रतिनिधियों से सार्वजनिक मुलाकात कर फिर चीन को कुछ साफ संकेत दिया है । भारत यात्रा के दौरान कई अमेरिकी नेता तिब्बतियों से मुलाकात करते रहे हैं पर इस बार यह इस मायने में अलग हो जाता है क्योंकि  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले दिनों दलाई लामा को जन्म दिवस पर बधाई देने का संदेश ट्वीट भी कर दिया । किसी भारतीय प्रधानमंत्री द्वारा ऐसा पहली बार किया गया । यह बिल्कुल संभव है कि अमेरिका और भारत के बीच तिब्बत को लेकर कुछ दीर्घकालीन नीतियों पर सहमति बनी हो। यदि भारत अमेरिका, यूरोप तथा एशिया में जापान जैसे देशों के साथ मिलकर सक्रिय होता है तो यह चीन की आक्रामकता का माकूल प्रत्युत्तर होगा। चीन का सामना करने के लिए क्वाड का विस्तार जरूरी है। भारत और अमेरिका साथ मिलकर अगर इसमें यूरोपीय देशों को शामिल करें तो फिर यह ज्यादा सशक्त मंच बन सकता है।

अमेरिका और भारत के बीच रक्षा सहयोग काफी आगे बढ़ चुका है और उस पर ब्लिंकन के यात्रा के दौरान भी बातचीत हुई। सैन्य अभ्यास, प्रशिक्षण, आतंकवाद विरोध,  गुप्तचर सूचनाओं के आदान-प्रदान आदि की बात की गई है। आने वाले समय में इस दिशा में और बातचीत होती रहेगी। हथियार बेचने की बात अपनी जगह है लेकिन नरेंद्र मोदी सरकार की कोशिश है कि साझेदारी के साथ अमेरिकी कंपनियां यहां रक्षा सामग्रियों का उत्पादन करें। उस दिशा में अमेरिका क्या करता है यह देखना होगा। द्विपक्षीय व्यापार में अमेरिका ने जिस तरह के शुल्क लगाकर अपने देश को रक्षित करने की कोशिश की हुई है उससे भारत का निर्यात प्रभावित हो रहा है। निश्चित रूप से ब्लिंकन से इस पर चर्चा हुई होगी। कुल मिलाकर ब्लिंकन की यात्रा सकारात्मक मानी जाएगी। अफगानिस्तान में अमेरिका सक्रिय रहेगा तथा नहीं चाहेगा कि चीन और पाकिस्तान वहां प्रभावी हों एवं भारत निष्प्रभावी । ज्यादातर मुद्दों पर आपसी सहमति यह बताने के लिए पर्याप्त है कि आने वाले समय में दोनों देशों का सहयोग ज्यादा ठोस और विस्तारित शक्ल में दिखेगा। इस स्तर का भारत अमेरिका सहयोग और साझेदारी अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को प्रभावित करने वाला साबित हो सकता है।

अवधेश कुमार 30 गणेश नगर पांडव नगर कंपलेक्स दिल्ली 110092 मोबाइल 98210 27208



सोमवार, 2 अगस्त 2021

दावत-ए-इस्लामी की पूरे वर्ल्ड में 2 करोड़ पेड़ लगाने की मुहिम शुरू, देश के सभी हिस्सों में लगाएंगे पेड़

मो. रियाज

नई दिल्ली। आज दावत-ए-इस्लामी की ओर से पूरे वर्ल्ड में 2 करोड़ पेड़ लगाने की मुहिम चलाई गई। दावत-ए-इस्लामी में कई डिपार्टमेंट हैं जिसमें एफजीआरएफ ने पेड़ लगाने की मुहिम चलाई है। दावत-ए-इस्लामी द्वारा देश के सभी हिस्सों में पेड़ लगाए गए। आज दिल्ली में भी दावत-ए-इस्लामी के लोगों ने पेड़ लगाए। उत्तरी पूर्वी दिल्ली के वेलकम की दावत-ए-इस्लामी की टीम ने बुलन्द मस्जिद कॉलोनी में भी पेड़ लगाए और लोगों से भी ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगाने की अपील की।
इस मौके पर दावत-ए-इस्लामी की टीम से इस्लाम अत्तारी, आरिफ अत्तारी, इरशाद अत्तारी, समाजसेवी अनीस खान, मोहम्मद अज़ीज़ आदि लोग मौजूद रहे।


 
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