शनिवार, 29 अप्रैल 2017

इनकी शहादत व्यर्थ न जाए

 

अवधेश कुमार

बस्तर के सुकमा जिले के बुरकापाल गांव के पास सड़क की सुरक्षा में लगे केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल के जवानों पर घात लगाकर माओवादियों द्वारा किए गए खूनी हमले से पूरे देश में गम और क्षोभ का माहौल है। एक साथ दो दर्जन से ज्यादा सीआरपीएफ जवानों के शहीद होने की खबर पर भी अगर देश में क्षोभ पैदा न हो तो फिर माना जाएगा कि हम मृत समाज हैं। वैसे शहीद जवानों की संख्या बढ़ सकती है। राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री, गृहमंत्री सहित अनेक नेताओं ने जवानों को श्रद्वांजलि दे दी, उनके चले जाने पर शोक व्यक्त किया। प्रधानमंत्री ने कहा कि उनको जवानों की बहादूरी पर गर्व है और उनकी मौत व्यर्थ नहीं जाएगी। गर्व पूरे देश को है और देश भी चाहेगा कि उनका बलिदान व्यर्थ नहंीं जाए। आखिर हमारे जवान हमारे लिए ही अपना बलिदान दे रहे है। ऐसे में पूरा देश उनका प्रति कृतज्ञ रहेगा। किंतु सवाल है कि केवल कृतज्ञता ज्ञापन तक ही हमारी प्रतिक्रियाएं सीमित रहेंगी या इसके आगे भी कुछ होगा? आखिर हमारे जवान कब तक माओवादियों के हाथों शहीद होते रहेंगे? यह सवाल आज हर भारतीय के अंदर कौंध रहा है। इसमें दो राय नहीं कि हाल के वर्षों में माओवादियांे की हिंसक गतिविधियों में काफी कमी आई है। इससे पता चलता है कि उनके खिलाफ चल रहे ऑपरेशन में सुरक्षाबलांे को सफलता मिली है। किंतु अगर कुछ अंतराल पर वे ऐसे हमले करने तथा हमारे जवानों की जानें लेने में सफल होते रहेंगे तो फिर यह मानना मुश्किल होगा कि उनकी कमर टूट गई है। इससे माओवादियों तथा उनके समर्थकों का हौंसला बढ़ता है, उनको पुनर्संगठित होने की ताकत मिलती है तथा वे हमले की तैयारी में लग जाते हैं।

देश चाहता है कि इस खूनी सिलसिले का अंत हो। ऐसी स्थिति में जब गम और क्षोभ का माहौल हो कटु सच बोलना जरा कठिन होता है, लेकिन यदि माओवादियों का अंत करना है तो हमें अपनी कमजोरियों पर बात करनी ही होगी। हम मानते हैं कि जिन परिस्थितियों में जवानों पर माओवादियों ने हमला किया उसमें उन पर विजय पाना जरा कठिन था। सीआरपीएफ की 74 वीं बटालियन सड़क ओपनिंग के लिए निकली थी। दोरनापाल से जगरगुंडा के बीच 56 किमी सड़क का निर्माण कार्य चल रहा है। बुरकापाल कैंप में तैनात सीआरपीएफ की 74 वीं बटालियन के करीब 150 जवानों की तैनाती रोड ओपनिंग के लिए की गई थी। जवान सुबह 6 बजे से पैदल गश्त पर निकले थे। दोपहर करीब 12.55 बजे सड़क से कुछ मीटर अंदर जंगल में जवानों ने भोजन करना आरंभ किया। माओवादियों को इनकी प्रत्येक गतिविधि की जानकारी थी। ये कितने बजे और कहां दोपहर का भोजन करेंगे इसकी पूरी जानकारी नहीं होती तो वे उनपर उसी समय हमला नहीं करते। बगल की काली पहाड़ी से माओवादियों ने फायरिंग शुरू कर दी। इनने ग्रेनेड के अलवा रॉकेट लॉन्चर भी दागे। जब तक जवान संभल पाते, उनमें से कई को गोली लग चुकी थी। माओवादी ऊंचाई पर थे, जबकि जवानों का दल नीचे थे। उपर से माओवादियों के लिए इनकी गतिविधियों को देखना आसान था, इसलिए उनकी स्थिति मजबूत थी। हालांकि भोजन करने के बारे में नियम है कि एक साथ सभी भोजन नहीं करते। कूुछ जवान करीब आधे पहरा देते हैं और शेष भोजन करते हैं। बताया जा रहा है कि ऐसा ही वंहां भी था। बावजूद इतने जवान शहीद हो गए तो साफ है कि ये कमजोर पड़ गए थे। क्यों?

एक कारण तो उनका उंचाई पर होना मान लिया जाएगा। दूसरे, उनकी संख्या जवानों से काफी ज्यादा थी। तीसरे, उनके पास अत्याधुनिक हथियार थे। किंतु इससे भी चिंताजनक बात जो घायल जवानों ने बताया है वह यह कि इस बार कुछ गांवों के लोग उनको जवानों के लोकेशन के बारे में बता रहे थे। माओवादियों ने गांवों की महिलाओं और बच्चों की आड़ लेकर भी हमला किया। इसमें जवानों के लिए कठिनाई थी, क्योंकि ये बच्चों और निर्दोष महिलाओं को नहीं मारना चाहते थे। इस तरह यहां यह कहा जा सकता है कि माओवादियों ने कायरों की तरह हमला किया जिसके लिए उनको शर्म आनी चाहिए। लेकिन क्या ऐसा उन्होंने पहली बार किया है? उनके लिए केवल अधिक से अधिक जवानों का खूना बहाना लक्ष्य है उसके लिए जो भी करना पड़े करंेगे। वे कोई सैद्वांतिक और नैतिक युद्ध नहीं लड़ रहे हैं। कहने के लिए वे माओवादी हैं किंतु माओ के सिद्धांत से भी उनका लेना-देना नहीं। माओ के विचार में हिंसा का प्रमुख स्थान है और इसलिए वह पूरी तरह अस्वीकार्य एवं निदंनीय है। किंतु माओ ने चीन में लाल मार्च किया तो उसमें कुछ भी छिपा नहीं था। सब कुछ खुला हुआ था। उसने गुरिल्ला युद्ध भी किए। हमारे यहां तथाकथित माओवादियों की तरह अकारण हिंसा उसने नहीं किया। इसलिए इनको माओवादी या नकस्लवादी दोनों कहना गलत है। ये केवल आतंकवादी हैं, हत्यारे हैं और इनसे इस तरह निपटा जाना चाहिए।

किंतु जरा यहां अपनी सुरक्षा व्यवस्था पर भी आत्मविश्लेषण जरुरी है। ऐसा तो है नहीं कि जवानों पर यहां पहली बार हमला हुआ जिसके लिए पूर्व तैयारी नहीं थी। सुकमा में 11 मार्च को भी भेज्जी में पुल निर्माण को सुरक्षा दे रहे सीआरपीएफ जवानों पर माओवादियों ने हमला किया था जिसमें 12 जवान शहीद हो गए थे। माओवादी जवानों के हथियार भी लूट ले गए। माओवादियों ने सुबह 9 बजकर 15 मिनट पर तब हमला बोला, जब सीआरपीएफ के 219 जी बटालियन के जवान रोड ओपनिंग टास्क के लिए जा रहे थे। इसके पूर्व 30 जनवरी को दंतेवाड़ा के निकट राशन वाली जवानों की गाड़ी विस्फोट से उड़ा दी गई थी, जिसमें 7 जवान शहीद हुए थे। इस साल माओवादी वारदातों में अर्धसैन्य बलों के 49 जवान शहीद हो चुके हैं। यह तो इस साल की बात है। ये दो घटनाएं ही हर दृष्टि से सम्पूर्ण पूर्व तैयारी का कारण होना चाहिए था। हम यहां सारी घटनाओं का विवरण नहीं दे सकते। लेकिन दो घटनाओं को याद करना जरुरी है। इसी सुकमा जिले की दर्भा घाटी में नक्सलियों ने 25 मई 2013 को बड़ा हमला किया था। इस हमले में कांग्रेस के सारे वरिष्ठ नेता मार डाले गए थे। कुल मरने वालांे की संख्या 27 थी। उसके बाद कहा गया कि सुरक्षा की पूरी समीक्षा की गई है। तो क्या हुआ उसका? यही वह क्षेत्र है जहां माओवादियों ने 6 अप्रैल 2010 को सीआरपीएु के काफिले पर हमला किया था। इसमें 2 पुलिसकर्मियों सहित 76 जवानों की जान गई थी। क्या उस घटना के बाद सुरक्षा की समीक्षा नहीं हुई थी? तो फिर ऐसी घटनाआंें की पुनरावृत्ति क्यों हो रही है?

ध्यान रखिए जवानों और माओवादियों के बीच करीब सवा तीन बजे तक मुठभेड़ हुआ लेकिन तब तक वहां बैकअप पार्टी नही पहुंच पाई। जहां वारदात हुई, वहां से दोनों ओर चिंतागफा और बुरकापाल कैंप हैं, लेकिन घटना की सूचना काफी देर बाद अधिकारियों को मिली। जब तक मदद पहुंचती माओवादी भाग चुके थे। बुरकापाल से चिंतागुफा थाने की दूरी 5 किमी है, जबकि बुरकापाल से घटनास्थल की दूरी केवल 2 किमी है। 3 बजकर 10 मिनट के आसपास चिंतलनार व चिंतागुफा थाने से बैकअप पार्टी पैदल रवाना हुई। बैकअप पार्टी 4 बजकर 25 मिनट पर घटनास्थल पहुंची। इसे क्या कहेंगे? सुकमा हमले की खबर वायुसेना की एंटी नक्सल टास्कफोर्स को करीब 3 बजे मिली। उसके बाद जगदलपुर से दो हेलिकॉप्टर घायलों को लाने के लिए रवाना किए गए। 7 घायलों को रायपुर के हॉस्पिटल में पहुंचाया गया। इस दौरान रास्ते में एक घायल जवान की मौत हो गई। हो सकता है समय पर उसे अस्पताल पहुंचाया जाता तो उसकी जान बच जाती। अगर सूचना तंत्र मजबूत होता, समय पर सूचना पहुंचती और बैकअप पार्टी के वहां त्वरित पहुंचने की तैयारी होती तो तसवीर कुछ अलग होती। यह भी ध्यान रखिए कि इस सड़क पर हर 5 किमी पर सीआरपीएफ के कैंप हैं। दोरनापाल से आगे पोलमपल्ली, कांकेरलंका, तिमिलवाड़ा, चिंतागुफा, बुरकापाल और चिंतलानार में कैंप हैं। इन कैंपों तक सूचना क्यों नहीं पहुंची? ये सक्रिय क्यों नहीं हुए? ये ऐसे सवाल है जिनका जवाब देश चाहेगा। विस्फोट के लिए बदनाम रही सड़क का निर्माण पुलिस हाउसिंग बोर्ड कर रहा है। अब यहां एक मीटर मोटी सीसी सड़क बनाई जा रही है। यह पता है कि माओवादियों के लिए इस तरह की सड़के मौत का वारंट होती हैं। अगर आने जाने का रास्ता बन गया तो उनके लिए हिंसक औपरेशन चलाना कठिन हो जाएगा। इसलिए सड़कों या ऐसे किसी भी विकास कार्यों का वो हर संभव विरोध करते हैं। जाहिर है, इसके लिए हमारी पूर्व तैयारी होनी चाहिए थी। पूरे दुख के साथ यह स्वीकारना पड़ता है कि हमारी तैयारी खतरे के अनुरुप नहीं थी। चुनौती सामने होते हुए भी उसका पूरा आकलन हमारे सुरक्षा मकहमे ने नहीं किया था। इसका परिणाम हमें भुगतना पड़ा है। क्या इसके बाद गारंटी मिलेगी कि ऐसा दोबारा नहीं होगा? इसका उत्तर हां में देना कठिन है।

टवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 9811027208

 

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