बुधवार, 21 अक्तूबर 2015

उच्चतम न्यायालय के फैसले पर प्रश्न

 

अवधेश कुमार

उच्च्तम न्यायालय द्वारा संविधान के 99 वें संशोधन करके बनाए गए न्यायिक नियुक्ति आयोग या एनजेएसी कानून को रद्द करने के बाद सरकार और अनेक विधिवेत्ताओं की ओर से आई प्रतिक्रियाओं का निष्कर्ष यही है कि इससे संसद के कानून बनाने के सार्वभौमिक दायित्व पर आघात पहुंचा है। सामान्यतः न्यायपालिका के फैसले के विपरीत प्रतिक्रिया देने का चरित्र हमारी राजनीति की नहीं है। दूसरे, ज्यादातर विरोधी दलों ने भी सरकार की आलोचना करने में कोताही बरती है। अगर कोई दूसरा मामला होता और सरकार का कोई कानून इस प्रकार असंवैधानिक करार दिया गया होता तो विपक्षी पाटियों का तेवर कैसा होता इसकी कल्पना करिए। इससे पता चलता है कि उच्चतम न्यायालय के इस फैसले से ज्यादातर राजनीतिक दल एवं विधिवेत्ताओं का बड़ा वर्ग असंतुष्ट एवं नाखुश है। चूंकि उच्च्तम न्यायालय के पांच न्यायाधीश की पीठ यानी संविधान पीठ ने यह फैसला दिया है, इसलिए आगे पुनर्विचार याचिका में इसमें संशोधन की संभावना न के बराबर है। हालांकि पांच में से एक न्यायाधीश ने संसद के कानून को संविधानसम्मत भी माना है। बहरहाल, इस  फैसले के बाद न्यायाधीशों की न्यायाधीशों द्वारा नियुक्ति वाली दो दशक पुरानी कोलेजियम प्रणाली बरकरार हो गई है। यह सामान्य स्थिति नहीं है।

संसदीय लोकतंत्र में संसद को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। संविधान संशोधन करने या कानून बनाने, खत्म करने का अधिकार उसका है। उच्चतम न्यायालय उसकी समीक्षा कर सकता है। संसद द्वारा पारित कानून को रद्द करने का निर्णय संसद बनाम न्यायापालिका के टकराव की ओर जाता है। ध्यान रखिए इस 99 वें संशोधन को संसद के दोनों सदनों के साथ 20 राज्यों ने पारित किया था और इसे सभी राजनैतिक दलों का समर्थन था। इससे इसके पीछे की राजनीतिक औश्र संवैधानिक ताकत का अहसास हो जाता है। हालांकि कुल 1030 पन्नों के फैसले को पढ़ने और समझने में समय लगेगा। लेकिन इसकी कुछ बातें सामने आ गईं हैं। मसलन, 1. एनजेएसी न्यायपालिका की स्वायत्ता में ही नहीं शक्तियों के विभाजन में भी दखल देती है। 2. न्यायिक आजादी  संविधान का बुनियादी ढांचा है, जिसमें सरकार हस्तक्षेप नहीं कर सकती, इसलिए इसे रद्द किया जाता है। 3. एनजेएसी से न सिर्फ मुख्य न्यायाधीश की सर्वाेच्चता कम हो रही थी बल्कि राष्ट्रपति की भूमिका भी कमतर हो रही थी। 4. न्यायाधीशों  के मामले में राष्ट्रपति मंत्रिमंडल की सलाह पर काम नहीं करते बल्कि स्वतंत्र रूप से निर्णय लेते हैं। हालांकि पीठ ने माना कि कोलेजियम प्रणाली में कुछ खामियां है ओर इसमें सुधार के लिए वह याचिकाकर्ताओं और सरकार से मदद चाहती है। इस पर सुनवाई के लिए पीठ ने 3 नवंबर की तारीख तय की है। पीठ ने न्यायाधीशों की नियुक्ति संबंधी 1993 और 1998 के फैसले को समीक्षा के लिए बड़ी पीठ के पास भेजने की केंद्र सरकार की अपील भी खारिज कर दी। इन फैसलों के आधार पर ही कोलेजियम शुरू किया गया था। कोलेजियम में उच्च्तम न्यायालय के पांच वरिष्ठ न्यायाधीश होते हैं जो नियुक्ति, प्रोन्नति तथा स्थानांतरण के लिए उम्मीदवारों की सिफारिश करते हैं। इन सिफारिशों को सरकार मानने के लिए बाध्य होती है और नियुक्ति का आदेश जारी करती है।

आगे बढ़ने से पहले जरा पीठ के न्यायाधीशों की टिप्पणियों पर एक नजर दौड़ा लें। न्यायमूर्ति जगदीश सिंह खेहर-मैं स्वतंत्र रूप से इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि अनुच्छेद 124ए (1) की धारा सी असंवैधानिक है क्योंकि कानून और न्याय के प्रभारी कैबिनेट मंत्री को एनजेएसी को पदेन सदस्य शामिल किया गया है। मेरी राय में धारा सी न्यायिक स्वायत्तता ही नहीं शक्तियों के विभाजन में भी दखल देती है। न्यायमूर्ति मदन लोकुर-99वें संविधान संशोधन तथा एनजेएसी ने सेकेंड और थर्ड जजेज केसों में दी गई सुविचारित प्रक्रिया को पलट दिया है तथा मुख्य न्यायाधीश की संवैधानिक शक्ति को छीन लिया है और उसे शोषण के एनजेएसी की प्लेट में रख दिया है। संसद के लोकप्रिय कानून असंवैधानिक हो सकते हैं और संवैधानिक कानून अलोकप्रिय हो सकते हैं। न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ- इसमें कोई शक नहीं है पूरी गलती कोलेजियम की नहीं है। अयोग्य नियुक्तियों को रोकने में सरकार की सक्रिय चुप्पी ही मुख्य समस्या है। दूसरे और तीसरे जज केसों ने ऐसी नियुक्तियों को रोकने के लिए सरकार के हाथ में प्रभावी औजार दिया था लेकिन सरकार ने इस औजार को कभी प्रभावी तरीके से इस्तेमाल नहीं किया। कोलेजियम में सुधार की जरूरत है और इसे खुलापन तथा पारदिर्शता भी चाहिए। यह प्रणाली लाइलाज नहीं हुई है इसका इलाज संभव है। जस्टिस एके गोयल- कानून मंत्री और दो गैर न्यायाधीश सदस्यों को मुख्य न्यायाधीश के समकक्ष रख दिया गया है। स्पष्ट रूप से उनकी मुख्य न्यायाधीश के साथ तुलना नहीं की जा सकती। कानून मंत्री और दो अन्य सदस्यों के हाथ में सुप्रीम कोर्ट जज, जो कोलेजियम का सदस्य है, के खिलाफ वीटो शक्ति न्यायिक आजादी में दखल बन सकती है।

इनके तर्कों में कितना तीखापन एवं संसद के प्रति कितना गुस्सा है इसका अंदाजा इन वाक्यों से लगा लीजिए। हालांकि इनके परे पीठ मंे एक न्यायाधीश न्यायमूर्ति जे चेल्मेश्वर भी थे, जिन्होंने लिखा है,‘मेरी राय में संविधान संशोधन में कोई खामी नहीं है लेकिन बहुमत की राय के कारण मुझे एनजेएसी की संवैधानिकता का परीक्षण करने का कोई उद्देश्य नजर नहीं आता। लेकिन चूंकि चार न्यायाधीशांें की राय एक है इसलिए फैसला बहुमत से हो गया है। सच यह है कि कोेलेजियम प्रणाली की कई खामिया उजागर होने के बाद यह व्यवस्था की गई थी। इस आयोग में छह सदस्य होते, जिसके अध्यक्ष देश के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई)ही होते। इसके अलावा उच्चतम न्यायालय के दो वरिष्ठ न्यायाधीश, कानून मंत्री और समाज की दो प्रमुख जानी-मानी हस्तियां होती। हस्तियों के चयन में भी प्रधानमंत्री और लोकसभा में दूसरे सबसे बड़े नेता के साथ मुख्य न्यायाधीश की भूमिका थी।  इनके संयोजन का दायित्व न्याय सचिव को करना था। इससे जरा कोलेजियम प्रणाली की तुलना करिए। इसमें मुख्य न्यायाधीश सहित उच्चतम न्यायालय के पांच वरिष्ठ न्यायाधीश होते हैं जो नियुक्ति, स्थानांतरण और प्रोन्नति पर फैसला लेकर सरकार को भेजते हैं। पूरी प्रक्रिया में सरकार की कोई भूमिका नहीं होती। कोलेजियम 1993 और 1998 के सेकेंड और थर्ड जजेज फैसलों के आधार पर बनाए गया था।

दुनिया की ओर भी नजर दौड़ा लें तो अमेरिका में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा होती है एवं सीनेट इसकी अनुमति देती है। जापान में मुख्य न्यायाधीश की नियुक्त कैबिनेट द्वारा मनोनित होने के बाद राजा करते हैं। अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति कैबिनेट करती है। ब्रिटेन में न्यायापालिका के उच्च पदों यानी जजेस ऑफ द हाउस ऑफ लौर्ड्स की सभी नियुक्तियां  संबंधित मंत्री की सलाह पर कार्यकारी राजा करते हैं। प्रधानमंत्री इनमें से लॉ लौर्डस, द लॉर्ड्स जस्टिस ऑफ अपील, द लॉर्ड्स चीफ जस्टिस, द मास्टर ऑफ द रोल्स एंड द प्रेसिडेंट ऑफ द फैमिली डिविजन  को प्रधानमंत्री मनोनीत करते हैं। ऑस्ट्रेलिया में उच्च न्यायालय और अन्य न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्तियां गवर्नर जनरल इन काउंसिल द्वारा की जाती है। कहने का तात्पर्य यह कि दुनिया के ज्यादातर लोकतांत्रिक देशों में न्यायाधीशों की नियुक्तियों में कार्यकारिणी की भूमिका है तो फिर भारत में इस पर ऐतराज क्यों?

साफ है कि जितनी पारदर्शिता और नियुक्ति में सदस्यों का संतुलन न्यायिक नियुक्ति आयोग में था उतना कोलेजियम में नहीं है। सच यह है कि संविधान में भी नियुक्ति के लिए कोलेजियम का कहीं जिक्र नहीं है। उच्चतम न्यायालय को कानून बनाने का अधिकार नहीं, लेकिन कोलेजियम में उसने ऐसा कर दिया और यह 22 वर्ष से चल रहा है। संसद अपनी संप्रभुता के लिए खड़ी होती है तो यहां टकराव सुनिश्चित है, नहीं खड़ी होती है तो इससे उसके संविधान संशोधन एवं कानून बनाने की शक्ति पर प्रश्न खड़ा होता है। अगर उच्चतम न्यायालय पूरे कानून को ही असंवैधानिक कह रहा है तो इसका मतलब है कि संसद ने असंवैधानिक काम किया है। संसद इसे कैसे स्वीकार कर सकती है। इसलिए संसद इस पर चुप नहीं रहेगी। लेकिन रास्ता आसान नहीं है।

इसका सबसे बड़ा खामियाजा उच्चतम न्यायालय में रिक्तियों पर पड़ेगा। 2 करोड़ से ज्यादा मुकदमे लंबित पड़े हैं। करीब 398 न्यायाधीशों के पद खाली हैं। अगर टकराव कायम रहा तो नियुक्तियां नहीं होंगी। संसद के पास एक विकल्प फिर से विधेयक लाकर कानून बनाने का है, लेकिन इसकी लंबी प्रक्रिया है। केन्द्र से राज्य विधायिकाओं में इसे पारित कराना होगा। वैसे 1950 के दशक में न्यायपालिका का नेहरु सरकार से टकराव हुआ था। जमींदारी उन्मूलन, भूमि सुधार आदि के कानून को उच्चतम न्यायालय ने रद्द कर दिया था। उसके बाद नेहरु जीे ने कहा था कि न्यायपालिका ने न्याय का अपहरण कर लिया है। दोबारा इन कानूनों को पारित करके इसे 9 वीं अनुसूचि में डाल दिया गया। इसमें डालने के बाद यह पूरी तरह रक्षित हो जाता है। वर्तमान सरकार भी चाहती तो इसे 9 वीं अनूसूचि में डाल सकती थी। इसके बाद सबसे बड़ा प्रश्न है कि न्यायिक सुधार का क्या होगा? यह उस सुधार का ही एक अंग था। मूल प्रश्न देश के सामने यह था कि न्यायिक नियुक्तियों में पारदर्शिता लाने का। कोलेजियम में पारदर्शिता की गुंजाइश नहीं है। अगर न्यायालय स्वयं इसमें सुधार की जरुरत मानता है तो फिर यह सही नहीं है। इसमें दोष है। कहा जा सकता है कि कोलेजिमय के तहत एक अपारदर्शी प्रणाली में नियुक्तियां होती रहेंगी जहां सभी हितधारकों की आवाज नहीं होगी। कॉलेजियम प्रणाली में बदलाव होगा या नहीं यह भी न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है। यह समझ से परे है कि दो जानकार लोगों को आयोग में शामिल किए जाने पर उच्चतम न्यायालय का आपत्ति क्यों है? आखिर उनके चयन में भी तो मुख्य न्यायाधीश की भूमिका थी। पीठ ने कहा कि नियुक्ति में आम लोगों को शामिल करने से काम नहीं बनेगा। हालांकि आयोग का विरोध कुछ विधिवेत्ताओं ने भी किया था। इनमें सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन ही शामिल है किंतु इनकी संख्या कम थी।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

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