बुधवार, 29 नवंबर 2023

राजनीतिक विरोध में ऐसी भाषा अंदर से हिला देती है


अवधेश कुमार

राजनीतिक दलों में नेता अपने विरोधियों और प्रतिस्पर्धियों के विरुद्ध जैसे शब्द और विचार प्रकट करने लगे हैं वो किसी भी विवेकशील व्यक्ति को अंदर से हिलाने वाला है। विश्व कप क्रिकेट में भारत की पराजय के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को केंद्र बनाकर जिस तरह के शब्द और विचार शीर्ष स्तर के नेताओं द्वारा प्रकट किए गए उनकी सभ्य समाज में कल्पना  नहीं की जा सकती। राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए पनौती शब्द प्रयोग किया। पनौती का सामान्य अर्थ होता है ऐसा व्यक्ति जो जहां जाएगा वही बंटाधार कराएगा। जैसे हम गांव मोहल्ले में किसी के बारे में बोलते हैं कि अरे, सुबह-सुबह उसका चेहरा देख लिया, पूरा दिन बर्बाद हो गया, वह नहीं होता तो हम सफल होते आदि आदि। राहुल गांधी ने कहा कि अच्छे भले लड़के खेल रहे थे, गया और हरवा दिया। उन्होंने कहा कि पीएम मतलब पनौती मोदी। कांग्रेस के शीर्ष नेताओं में शामिल और इस समय राहुल गांधी के रणनीतिकारों में प्रमुख जयराम रमेश ने तो भारतीय टीम की पराजय के बाद ड्रेसिंग रूम में जाकर मुलाकात पर उन्हें मास्टर ऑफ ड्रामा कह दिया। ऐसा करने वाले ये दो ही नहीं थे। नेताओं की एक लंबी सूची है। उदाहरण के लिए बिहार के श्रम संसाधन मंत्री और राजद नेता सुरेंद्र राम ने भी हार के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जिम्मेदार ठहराया, राजस्थान के आरएलपी नेता हनुमान बेनिवाल ने प्रधानमंत्री को हार का जनरेटर बता दिया और शिवसेना ( उद्धव गुट) के नेता सांसद संजय राउत ने कहा कि  अगर फाइनल मैच मुंबई के वानखेड़े स्टेडियम या कोलकाता के ईडन गार्डन में होता तो भारत क्रिकेट का विश्वविजेता बन सकता था। सरदार वल्लभभाई स्टेडियम का नाम बदलकर नरेंद्र मोदी स्टेडियम बना दिया ताकि वहां वर्ल्ड कप जीतें तो ये संदेश जाए कि नरेंद्र मोदी स्टेडियम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी थे इसलिए विश्व कप जीता है।

  राहुल गांधी की सीमा केवल पनौती शब्द तक सीमित नहीं रही। क्रिकेट मैच के परे उन्होंने पॉकेटमार शब्द प्रयोग किया । कहा कि पाकिटमारो का गैंग होता है जिसमें कुछ लोग आपको बातों में फंसाएंगे और दूसरा पाकिट मार लेगा। तो पाकिटमार गैंग के दो सदस्य हैं, जो आपको बातों में फंसाते हैं और अदाणी आपका पौकेट मार लेगा। प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के लिए पाकिटमार जैसे शब्द प्रयोग करना क्या साबित करता है? सामान्यतः किसी भी विवेकशील और गरिमामय समाज में इस तरह के वक्तव्य के बारे में सोचा ही नहीं जा सकता। ऐसे बयानों के विरुद्ध स्वाभाविक ही दूसरा पक्ष भी प्रतिक्रिया देगा। 

प्रियंका बाड्रा ने तेलंगाना की जनसभा में कहा कि मुझे याद है, जब 1983 में इंडिया ने क्रिकेट विश्व कप जीता था उस समय इंदिरा जी बहुत खुश थीं, उन्होंने पूरी टीम को चाय के लिए घर बुलाया था। आज इंदिरा जी का जन्मदिन है और हम फिर से विश्व कप जरूर जीतेंगे। जब भारत हार गया तो लोगों ने सोशल मीडिया पर पूछना शुरू कर दिया कि क्या इंदिरा गांधी भी पनौती हैं? प्रश्न है कि क्या राजनीति में दलीय प्रतिस्पर्धा इस स्तर तक पहुंच गया है कि हम किसी के बारे में कुछ भी बोलने के पहले विचार नहीं कर सकते कि इसका देश के माहौल पर क्या असर होगा या हम कैसी परंपरा डाल रहे हैं? इसे कोई भी स्वीकार करेगा कि पनौती शब्द राहुल गांधी के नहीं हो सकते। आमतौर पर गांवों - मोहल्लों में प्रयोग किए जाने वाले शब्दों से उनका कभी सीधा सामना नहीं हुआ है।  उनके सलाहकारों और रणनीतिकारों ने ही उन्हें ऐसा बोलने का सुझाव दिया होगा। उन्होंने इसे समझा होगा और तब जाकर बोला होगा। पॉकेटमार शब्द वो जानते हैं किंतु इस प्रकार के उदाहरण का सुझाव भी उन्हें कहीं न कहीं से मिला होगा। इससे पता चलता है कि राहुल गांधी, वर्तमान कांग्रेस में उनके रणनीतिकार, सलाहकार और समर्थक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या भाजपा को लेकर गुस्से और घृणा के उच्चतम अवस्था में पहुंच गए हैं और झुंझलाहट में किसी तरह का शब्द या विचार प्रकट कर सकते हैं। वैसे राहुल गांधी ने 2018 से 2019 लोकसभा चुनाव तक चौकीदार चोर है का नारा भी लगवाया था।

 अत्यंत कटु और कठोर शब्द भी व्यंग्य की शैली में कहा जाए तो उसका संदेश ऐसा ही नहीं निकलता। राहुल गांधी पनौती व्यंग्यात्मक  शैली में रखते तो उससे लोग आनंद लेते लेकिन अंदर इतना गुस्सा भरा हुआ है कि बोलने के अंदाज से लगता है मानो आप मानते ही हैं कि नरेंद्र मोदी वाकई ऐसे व्यक्ति हैं जो जहां जाएंगे दुर्भाग्य की शुरुआत हो जाएगी। फिर पाकिटमार तो पूरे कमिटमेंट से बोल रहे थे।

 समाचार पत्रों और टीवी में इस पर चर्चा हुई तो कांग्रेस के नेताओं की टिप्पणियां देख लीजिए। वे लिखने लगे कि सारे ज्ञानचंद कहां थे जब मूर्खों का सरदार और न जाने क्या-क्या कहा गया। राहुल गांधी या किसी पार्टी के शीर्ष नेता जो बोलें उनके बचाव में पार्टी न उतरे यह नहीं हो सकता।  प्रधानमंत्री विश्व कप का राजनीतिक उपयोग कर रहे हैं आदि को राजनीति की स्वाभाविक प्रतिक्रिया मानने में हर्ज नहीं है। हालांकि इसकी भी आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। अतीत में भी क्रिकेट मैचों में तत्कालीन प्रधानमंत्री उपस्थित रहे हैं।  लेकिन गुस्से और तिलमिलाहट में ऐसी भाषा प्रयोग करना जो अपशब्द की श्रेणी में आए दुर्भाग्यपूर्ण है। भारतीय टीम मैच हार गई थी और प्रधानमंत्री वहां हैं तो देश के नेता के नाते  खिलाड़ियों के बीच जाना,  उनको हौंसला देना तथा खेल को खेल की भावना से लेने के लिए प्रेरित करना उनका स्वाभाविक दायित्व था। जब चंद्रयान-2 विफल होने के बाद भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के वैज्ञानिक निराश होकर बैठे थे तब भी प्रधानमंत्री उनसे मिलने गए, गले लगाया, साहस दिया।  तो यह एक अच्छी परंपरा है कि केवल सफलता और विजय पर शाबाशियां और बधाई देने नहीं विफलता और पराजय पर भी आगे बेहतर करने की प्रेरणा देने के लिए देश के नेता उन तक पहुंचते हैं। कई क्रिकेट खिलाड़ियों ने ट्वीट में लिखा कि इससे उनका हौसला बढ़ा। यह भी लिखा कि हम इसकी उम्मीद नहीं कर रहे थे। विदेशों से भी अच्छी प्रतिक्रियायें आईं। आम भारतीय की प्रतिक्रिया भी ऐसी ही है। आप सत्ता में हैं या विपक्ष में, राजनीति देश के लिए है। तो सरकार या विपक्ष की नीतियां, व्यवहार, वक्तव्य सबमें देश ही प्रथम झलकना चाहिए। प्रधानमंत्री का ड्रेसिंगरूम में जाकर खिलाड़ियों से मिलना, गले लगाना ऐसा व्यवहार था जिसकी आलोचना का कोई कारण नहीं है। कांग्रेस जैसी सबसे लंबे समय तक शासन करने वाली पार्टी के नेता ड्रामा मास्टर का ड्रामा बताते हैं तो देश स्वीकार नहीं करेगा। यह प्रतिक्रिया आम गरिमा और सभ्यता की परिधि से बाहर का तो था ही, राजनीतिक दृष्टि से भी लाभकारी नहीं हो सकता। आम प्रतिक्रिया इसे लेकर नकारात्मक है। अपनी राजनीति के कारण प्रशंसा नहीं कर सकते तो मौन बेहतर रास्ता था। 

 खिलाड़ियों से प्रधानमंत्री की मुलाकात और बातचीत में ऐसा कुछ नहीं था जिसे नाटक मान लें। जरा सोचिए, प्रधानमंत्री वहां रहते हुए पराजय के बाद खिलाड़ियों के बीच नहीं जाते तो क्या संदेश निकलता? क्या यह प्रश्न नहीं उठता कि उन्हें खिलाड़ियों से मिलकर सांत्वना देना चाहिए था। इस तरह प्रधानमंत्री ने देश के नेता के रूप में अपने दायित्व का पालन किया है। प्रधानमंत्री अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं से लौटे खिलाड़ियों से मिलते हैं जिनमें विजीत, पराजित, मेडल लाने वाले, न लाने वाले सभी शामिल होते हैं। खिलाड़ियों से बात करेंगे तो पता चलेगा कि इससे माहौल काफी बदला है। माहौल ऐसा बना है कि हम जीतें या हारें हमारा असम्मान नहीं होगा। जीतने का हौसला भी इसी से आता है। फिर पॉकेटमार जैसे नीचे स्तर का अपमानजनक शब्द क्या हो सकता है? राजनीति इस स्तर तक नहीं आनी चाहिए कि वक्तव्य और व्यवहार से समाज में भी गुस्सा, घृणा और जुगुप्सा बढ़े। मीडिया में सबसे ज्यादा वक्तव्य व व्यवहार राजनीतिक व्यक्तित्व का ही आता है। उनकी जिम्मेदारी ज्यादा है। केवल अपने लिए जनमत बनाना नहीं, देश में सकारात्मक - आशाजनक वातावरण बनाए रखना भी नेताओं का दायित्व है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भाजपा और अन्य संगठनों के प्रति राजनीतिक दलों , नेताओं ,बुद्धिजीवियों, एक्टिविस्टों ,पत्रकारों आदि  के एक बड़े समूह के अंदर सोच वैचारिक मतभेद से आगे बढ़कर घृणा और दुश्मनी की सीमा तक पहुंच गई है इसलिए इस ऐसी भाषा निकलती है जो किसी के हित में नहीं। सबके हित में यही है कि मतभेद को विचारधारा, नीतियों और मुद्दों तक रखें, घृणा और जुगुप्सा की मानसिकता से बाहर निकलें तथा व्यक्तिगत हमले बिल्कुल होने ही नहीं चाहिए। लेकिन क्या वर्तमान स्थिति में यह संभव है?

अवधेश कुमार, ई-30, गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली -110092, मोबाइल -9811027208



सोमवार, 27 नवंबर 2023

जलवायु परिवर्तन पर युनाइटेड नेशन्स फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज की बैठक 30 नवंबर से

-कृषि मंत्री तोमर ने की बैठक की तैयारियों व कृषि क्षेत्र में कार्बन क्रेडिट क्षमता की समीक्षा

-अंतरराष्ट्रीय मंच पर प्रदर्शित होगी कृषि क्षेत्र में भारत की उपलब्धियां: श्री तोमर


नई दिल्ली। जलवायु परिवर्तन पर युनाइटेड नेशन्स फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) (सीओपी-28) की बैठक 30 नवंबर से 12 दिसंबर 2023 तक दुबई में होगी। केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री श्री नरेंद्र सिंह तोमर ने, इस बैठक में भारतीय शिष्टमंडल की भागीदारी के लिए चल रही तैयारियों के साथ ही कृषि क्षेत्र में कार्बन क्रेडिट की क्षमता की समीक्षा की। श्री तोमर ने बताया कि मंत्रालय द्वारा बैठक में अंतरराष्ट्रीय मंच पर जलवायु अनुकूल श्रीअन्न, प्राकृतिक खेती, मृदा स्वास्थ्य प्रबंधन, जलवायु अनुकूल गांवों के वैश्विक महत्व सहित देश की उपलब्धियां साइड इवेंट्स में प्रदर्शित होगी।

केंद्रीय मंत्री श्री तोमर ने कहा है कि कृषि को जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन किया जाना चाहिए, ताकि कृषक समुदाय इससे लाभान्वित हो सकें। उन्होंने जोर देकर कहा कि भारत जैसा अत्यधिक आबादी वाला देश शमन व लक्षित मीथेन कटौती की आड़ में खाद्य सुरक्षा पर समझौता नहीं कर सकता है। समीक्षा बैठक में, केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण सचिव श्री मनोज अहूजा ने मंत्री श्री तोमर को सीओपी बैठक के महत्व, जलवायु परिवर्तन व भारतीय कृषि पर लिए गए निर्णयों के प्रभाव के बारे में जानकारी दी।

मंत्रालय के एनआरएम डिवीजन के संयुक्त सचिव श्री फ्रैंकलिन एल. खोबुंग ने खाद्य सुरक्षा पहलुओं तथा भारतीय कृषि की स्थिरता के संबंध में जलवायु परिवर्तन के मुद्दों पर ऐतिहासिक निर्णयों और भारत के रुख पर विवरण प्रस्तुत किया। बैठक में डेयर के सचिव एवं भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के महानिदेशक डॉ. हिमांशु पाठक ने भी अधिकारियों के साथ भाग लिया।

संयुक्त सचिव (एनआरएम) ने कार्बन क्रेडिट के महत्व को भी प्रस्तुत किया, जो जलवायु अनुकूल टिकाऊ प्रथाओं को अपनाने के माध्यम से कृषि में उत्पन्न किया जा सकता है। राष्ट्रीय सतत् कृषि मिशन (एनएमएसए) के अंतर्गत कृषि वानिकी, सूक्ष्म सिंचाई, फसल विविधीकरण, राष्ट्रीय बांस मिशन, प्राकृतिक जैविक खेती, एकीकृत कृषि प्रणाली आदि जैसे अनेक उपायों का आयोजन किया गया है। मिट्टी में कार्बन को अनुक्रमित करने की क्षमता है, जिससे जीएचजी व ग्लोबल वार्मिंग में योगदान कम हो जाता है।

श्री तोमर ने सुझाव दिया कि कार्बन क्रेडिट का लाभ कृषि विज्ञान केंद्रों (केवीके), राज्य कृषि विश्वविद्यालयों, राष्ट्रीय बीज निगम के बीज फार्मों और आईसीएआर संस्थानों में मॉडल फार्मों की स्थापना के माध्यम से किसानों तक पहुंचना चाहिए। उन्होंने कहा कि केवीके को कृषक समुदाय के बीच जागरूकता पैदा करने में भी शामिल होना चाहिए, ताकि किसानों की आय बढ़ाई जा सके। कार्बन क्रेडिट, किसानों को सतत् कृषि का अभ्यास करने में प्रोत्साहन के लिए एक महत्वपूर्ण पहल हो सकती है। श्री तोमर ने कहा कि ऐसे कार्यक्रमों को सफल बनाने के लिए कार्बन क्रेडिट के ज्ञान वाले किसानों को साथ लिया जा सकता है।



शनिवार, 25 नवंबर 2023

आधुनिक समाज में वरिष्ठ नागरिक तिरस्कृत क्यों

 

बसंत कुमार

कोरोना काल से पहले तक भारतीय रेल 60 वर्ष से अधिक या उससे अधिक आयु के पुरुषों को किराये में 40% की छूट देती थी और महिलाएं जिनकी आयु 58 वर्ष हो गई है उनको 50% छूट दी जाती थी, परंतु कोविड-19 महामारी के प्रसार को रोकने के बहाने 20 मार्च 2020 को वरिष्ठ नागरिकों को दी जाने वाली छूट को वापस ले लिया गया है। इसकी देखा देखी देश के सभी निजी अस्पतालों में वरिष्ठ नागरिकों को दी जाने वाली 10% रियायतें बंद कर दी गई हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि वृद्ध लोग बहुत आवश्यक होने पर ही ट्रेनों में सफर करते हैं और अस्पताल जाते हैं। मगर किसी भी बहाने इनको दी जाने वाली रियायतों को न दिया जाना कहां तक जायज है, जबकि देश की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने स्वयं बताया कि सरकारी बैंकों ने पिछले पांच वर्षों में 10,09,511 करोड़ रुपए के फंसे कर्ज बट्टे खाते (एनपीए) में डाल दिए और सरकारी बैंकों को चूना लगाने वाले करोड़पतियों से कर्ज की वसूली के बजाय उसे एनपीए में डाल देना और वृद्ध लाचार वरिष्ठ नागरिकों को दी जाने वाली छूट को बंद किया जा रहा है।

जीवन बीमा कंपनियां स्वास्थ्य बीमा के लिए वृद्धों को प्रीमियम में छूट देने के बजाय ज्यों-ज्यों बीमा धारक की आयु बढ़ती जाती है त्यों-त्यों बीमा कंपनियों की प्रीमियम राशि बढ़ती जाती है और बीमा धारक की आयु 70-80 वर्ष होने पर उनका स्वास्थ्य बीमा बंद हो जाता है। एक ओर जहां वृद्ध की आय के सभी स्रोत बंद हो जाते हैं वहीं दूसरी ओर बीमार होने की हालत में अस्पतालों द्वारा दी जाने वाली रियायते बंद कर दी जाती हैं और उनका बीमा बंद कर दिया जाता है तो बीमार बुजुर्ग जिनका अधिकांश मामलों में अंतिम ठिकाना अनाथालय या वृद्धाश्रम हो जाता है। यह वृद्ध अपना इलाज कैसे कराएं जबकि यूरोपीय देशों में वरिष्ठ नागरिकों के लिए मुफ्त मेडिकल बीमा दिया जाता है और हमारे देश में इन वृद्धों के लिए कोई सुविधा नहीं है।

प्रश्न यह उठता है कि बुजुर्गों के हितों कि रक्षा का कानून होने के बावजूद इनका इतना तिरस्कार क्यों हो रहा है। बुजुर्गों की इस दयनीय स्थिति में संरक्षण प्रदान करने के लिए वर्ष 2007 में सरकार ने 'माता-पिता तथा वरिष्ठ नागरिक भरण पोषण' कानून बनाया। परंतु हमारे सामाजिक मूल्यों में आ रही गिरावट की वजह से आज बुजुर्गों को अपनी ही संपत्ति में सुरक्षित रहने और संतानों की प्रताड़ना से बचने के लिए अदालतों की शरण में जाना पड़ रहा है। सामाजिक मूल्यों में गिरावट का ही नतीजा है कि संपत्ति के लालच में आज बेटा-बहू और बेटी द्वारा अपने माता-पिता को बेआबरू करने की घटनाएं बढ़ रही हैं, परिवारों में बुजुर्ग माता-पिता अब बोझ समझे जाने लगे हैं और उन्हें अपने ही घर से बाहर निकाल दिया जाता है या फिर इन्हें वृद्धाश्रम या अनाथलायों में रहने के लिए छोड़ दिया जाता है।

वृद्ध अपने ही देश, समाज और घर-परिवार में बेगाने होते जा रहे हैं, उनकी लाचारी भरी जिंदगी पर उच्चतम न्यायालय ने भी चिंता व्यक्त की है और वर्ष 2018 में केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को निर्देश दिया कि बुजुर्गों के हितों की रक्षा के लिए बनाए गए कानूनों "माता-पिता और वरिष्ठ नागरिक भरण पोषण कानून" का सख्ती से पालन करे। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने डॉ. अश्विनी कुमार बनाम यूनियन ऑफ इंडिया में स्वीकार किया की संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रदत्त जीने के अधिकार को व्यापक अर्थ दिया जाए। एक अन्य मामले में आशीष विनोद दलाल एवं अन्य विनोद राम लाल दयाल में टिप्पणी करते हुए बॉम्बे उच्च न्यायालय की पीठ ने कहा कि आशीष दयाल अपने 90 वर्षीय पिता और 89 वर्षीय माता को परेशान करता था जबकि इस मकान का स्वामित्व इस बुजुर्ग दंपत्ति के पास था। कितनी दुखद बात है कि माता-पिता को अपनी ही औलाद से खुद को बचाने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ रहा है, जबकि जीवन की अंतिम बेला में वरिष्ठ नागरिकों के साथ सम्मानजनक व्यवहार किया जाना चाहिए। संतानों का यह कर्तव्य है कि वे अपने माता-पिता के साथ अच्छा व्यवहार करें और उनकी इस तरह से देखभाल करें ताकि वे सम्मान से जीवन व्यतीत कर सके।

अदालतों ने अब 'माता-पिता तथा वरिष्ठ नागरिक भरण पोषण कानून के तहत अधिकरणों के आदेशों के बेदखली के खिलाफ बहुत से मामले पहुंच रहे हैं, इस कानून के तहत वरिष्ठ नागरिकों का परित्याग दंडनीय अपराध है, इस अपराध के तहत तीन महीने की कैद और पांच हजार रुपए तक के जुर्माने का प्रावधान है। इसके बावजूद बड़े पैमाने पर माता-पिता का परित्याग हो रहा है। इस कानून में बुजुर्गों के हितों के खातिर भरण-पोषण न्यायाधिकरण और अपीलीय प्राधिकरण की व्यवस्था है। इन न्यायाधिकरणों को बुजुर्गों की शिकायत का निपटारा 90 दिनों के अंदर करना पड़ता है, भरण-पोषण न्यायाधिकार में ऐसे नागरिकों को दस हजार रुपए का प्रतिमाह भुगतान का आदेश दे सकता है। सरकार ने वृद्ध माता-पिता और परिवार के अन्य वृद्ध सदस्यों के साथ दुर्व्यवहार, उनकी उपेक्षा और उनकी संपत्ति हड़पने उनकी प्रताड़ना को रोकने के लिए ही यह कानून बनाया है।

असहाय बुजुर्गों के लिए काम कर रही गैर-लाभकारी संगठन हेल्पज इंडिया के अनुसार देश में लगभग 15000 वृद्धाश्रम है जिसमें 7,00,000 वृद्ध रहते हैं, धनवानों के कुछ आश्रमों को छोड़ दिया जाए तो अधिकतर वृद्धाश्रम अपने काम के लिए चंदे पर निर्भर करते हैं। परंतु कोरोना काल के बाद सरकार ने, औद्योगिक घरानों ने खर्च में कटौती के नाम पर इनको चंदा देना बंद कर दिया है। इस कारण इन आश्रमों में रहने वालों का सब कुछ दांव पर लग गया है और कुछ वृद्धों को साफ-सफाई कपड़े धोने, खाना पकाने का काम स्वयं करना पड़ रहा है। कुल मिलाकर हमारे समाज में जहां आदिकाल से बड़े बुजुर्गों को सम्मान देने की परंपरा रही है, वहीं उसी समाज में वरिष्ठ नागरिक और बड़े बूढ़े तिरस्कार भरा जीवन जी रहे हैं। एक ओर वृद्ध मां-बाप बुढ़ापे में अपने बच्चों द्वारा दुत्कार दिये जाने के पश्चात् अनाथलायों या वृद्धाश्रमों में रहने को मजबूर हैं, एक ओर जहां सरकार 81 करोड़ लोगों को हर माह मुफ्त राशन वितरित कर रही है वहीं बेसहारा हो चुके वरिष्ठ नागरिकों को दी जाने वाली रियायतों को समाप्त कर रही है। आखिर जो वृद्ध हमारे सनातनी संस्कृति में पूजे जाते रहे हैं वो आज हमारे ऊपर बोझ बन गए हैं। आखिर ये वृद्धजन जीवन की अंतिम संध्या पर कहां जाएं।

बुधवार, 22 नवंबर 2023

भारत को विश्व गुरु बनाने पर फोकस अधिवेशन

 अवधेश कुमार

हमारे देश का स्वभाव ऐसा हो गया है कि बहुत बड़े , प्रभावी और भविष्य के लिए दिशा देने की संभावनाओं वाले कार्यक्रमों में भी राजनीति का अंश नहीं हो तो इसकी व्यापक चर्चा नहीं होती। राजधानी दिल्ली में 7 दिसंबर से 10 दिसंबर तक अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का राष्ट्रीय अधिवेशन इसी श्रेणी का कार्यक्रम है।  परिषद 75 वां वर्षगांठ पूरा कर चुका है, इसलिए अमृत महोत्सव वर्ष के राष्ट्रीय अधिवेशन का अपना महत्व है। यह देश का सबसे बड़ा छात्र संगठन है जिसकी इकाई भारत के प्रत्येक जिले में है। अध्ययन का कोई क्षेत्र नहीं जहां विद्यार्थी परिषद सक्रिय नहीं हो चाहे वह सरकार द्वारा संचालित हो या निजी संस्थान। पिछले दिनों परिषद के राष्ट्रीय सह संगठन मंत्री प्रफुल्ल आकांत ने अधिवेशन के पूर्व के कार्यक्रमों, तैयारियों, योजनाओं आदि के बारे में पत्रकारों से अनौपचारिक बातचीत में जो जानकारियां दीं उनमें कई बातें आश्चर्य में डालने वालीं थीं।  ज्यादातर छात्र संगठनों के अधिवेशनों का स्वर राजनीतिक होता है। सरकारों की आलोचनाएं होती हैं कुछ मांग होतीं हैं। इस अधिवेशन में राजनीति के स्वर का अंश मात्र भी नहीं है।

अधिवेशन का मुख्य फोकस इस पर है कि भारत विश्व गुरु यानी विश्व को दिशा देनेवाले देश के रूप में किस तरह आगे बढ़ रहा है। एक राष्ट्र के रूप में भारत का इतिहास, इस दिशा में भारत और विश्व भर में क्या हुआ है, हो रहा है और भविष्य के क्या संकेत हैं आदि से संबंधित विमर्श के साथ अलग-अलग प्रदर्शनियां भी शामिल हैं। चूंकि अधिवेशन दिल्ली में है, इसलिए इंद्रप्रस्थ के वास्तविक इतिहास का विवरण होगा जिनमें मुगल और सल्तनत काल नाम देकर हाशिए में फेंक दिए गए महानायकों की गाथाएं होंगी। छात्रों और युवाओं के प्रेरणा के दो मुख्य कारक होते हैं, विचार और व्यक्तित्व। भारत की विचारधारा ने कैसे इसे इतिहास में विश्व गुरु का स्थान दिया और किस तरह षडयंत्रपूर्वक महानायकों  तथा आध्यात्मिक और भौतिक उपलब्धियों को हटा दिया गया इसका अवलोकन अधिवेशन में होगा। छत्रपति शिवाजी के राज्याभिषेक का 350 वां वर्ष है। एक-एक भारतीय के लिए वो प्रेरणा के स्रोत हैं और आम परिवार से निकलकर विकट परिस्थितियों में सतत संघर्ष करते हुए भी आदर्श और मानक राज व्यवस्था स्थापित करने वाले वैश्विक व्यक्तित्व भी। शिवाजी की तरह और कुछ व्यक्तित्वों को भी प्रेरणा और भविष्य में काम करने की दिशा स्रोत के रूप में अधिवेशन में लिया गया है। स्वाभाविक ही 75 वर्ष पूरे करने पर संगठन ने अब तक क्या कुछ किया है उसे भी रखा जाएगा। इसका उद्देश्य भविष्य के कार्य के लिए दिशा देना है। वास्तव में एक छात्र संगठन के बारे में आमधारणा यही होती है कि यह विश्वविद्यालयों , महाविद्यालयों के मुद्दों और समस्याओं तक सीमित होगा तथा इसकी मूल ध्वनि राजनीतिक होगी। अधिकतर साथ संगठन किसी राजनीतिक पार्टी की शाखा हैं।

परिषद के कार्यों के विवरण को देखें तो स्पष्ट हो जाएगा कि छात्र संगठन होने के बावजूद गतिविधियां शिक्षा और शिक्षालियों तक सीमित नहीं है। इसके आयाम के विवरण में थिंक इंडिया, मीडियाविजन, एग्री विज़न ,फार्मा विजन ,जिज्ञासा ,विकासार्थ विद्यार्थी विश्व विद्यार्थी युवा संघ, अंतरराज्य छात्र जीवन दर्शन शोध-कार्य, सेवार्थ विद्यार्थी, राष्ट्रीय कला मंच, सविष्कार, खेलो भारत, इंडि जीनियस आदि के साथ मिशन साहसी, ऋतुमति अभियान, सामाजिक अनुभूति जैसे अभियान शामिल हैं। इन नामों से इनके हेतु का संकेत मिलता है। एक उदाहरण लीजिए। परिषद ने अमरकंटक से भुज तक नर्मदा यात्रा की और उससे संबंधित रिपोर्ट बनाई, राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण में गए। नर्मदा नदी की सफाई व पर्यावरण से संबंधित पहलुओं सहित उनकी योजनाओं में परिषद की भूमिका अधिकृत रूप से संबंधित सरकारों में स्वीकृत है। इसी तरह समाज के वंचित तबकों के बीच सहयोग, सहायता व विकास के अनेक कार्यक्रम परिषद चलाता है। 

ये ऐसी बातें हैं जिनके बारे में आम भारतीय को पता नहीं। राजनीतिक दलो, नेताओं, बुद्धिजीवियों ,एक्टिविस्टों के बड़े समूह ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े संगठनों के बारे में सतत दुष्प्रचार अभियान चलाया है, इसलिए जो प्रत्यक्ष नहीं जानते उनके अंदर कई गलतफहमियां होतीं हैं। विरोधियों की समस्या है कि बहुत कुछ देखते जानते हुए भी सार्वजनिक तौर पर स्वीकार नहीं कर सकते , क्योंकि इससे उनका दुष्प्रचार ध्वस्त हो जाएगा। सच कहा जाए तो इस तरह की गतिविधियां संगठन के व्यापक लक्ष्य को प्रमाणित करते हैं। संगठन की विचारधारा अगर भारत को सशक्त कर विश्व का श्रेष्ठतम देश बनना हो तो छात्रों को भी उस रूप में विचारधारा के साथ कार्य करने के लिए तैयार किया जाएगा। इसीलिए इसका आयाम व्यापक है। विचारधारा पर मतभेद होते हुए भी राजनीतिक दल, बुद्धिजीवी, एक्टिविस्ट, पत्रकार आदि स्वीकार करें तो छात्रों और नौजवानों को सकारात्मक दिशा मिलेगी। वैसे भी परिषद की ओर से भारत के सभी प्रमुख छात्र संगठनों के साथ विश्व स्तर के छात्र संगठनों को भी आमंत्रित किया जा रहा है। यह अच्छी पहल है जिसका सभी संगठनों को स्वागत करना चाहिए। पूरे कार्यक्रम का माहौल शत-प्रतिशत सकारात्मक बनाए रखने की कोशिश है। कोई नकारात्मकता नहीं।

सकारात्मक माहौल से आप कठिन परिस्थितियों पर भी विजय का आधार बना सकते हैं। युवाओं के बीच आशाओं और उम्मीदों से भरे सकारात्मक माहौल निर्मित करना कितना आवश्यक है यह बताने की आवश्यकता नहीं। अधिवेशन से संबंधित दो यात्राएं हैं। एक पूर्वोत्तर की यात्रा है जो 20 नवंबर को समाप्त हो गई। दूसरी यात्रा शिवाजी के केंद्र रायगढ़ से लेकर दिल्ली तक चल रही है, जो 2 नवंबर को खत्म होगी। समझा जा सकता है कि इन यात्राओं में होने वाले संवादों से समाज के बीच क्या संदेश दिया जा रहा होगा। इसी तरह पिछले कई महीनों से अलग-अलग कला संस्थानों के छात्र -छात्राएं प्रदर्शनियों के लिए सामग्रियां तैयार कर रहे हैं। तत्काल जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में जाकर इन्हें देखा जा सकता है। इस तरह के ऐसे अनेक पहलू बताते हैं कि कैसे यह अधिवेशन आम संगठनों के अधिवेशनों से गुणात्मक रूप से बिल्कुल अलग है। आप संघ परिवार के विरोधी हों या समर्थक, जरा सोचिए कौन संगठन अपने राष्ट्रीय अधिवेशन के लिए इस प्रकार की गहरी तैयारियां करता है, इसके लिए इतने कार्यक्रम आयोजित करता है? विषयों की प्रस्तुतियां, प्रस्ताव आदि के लिए सभी  संगठन अपनी सोच के अनुरूप आवश्यक तैयारी करते हैं, कई बार कुछ विषयों पर भारी लोगों को भी बोलने के लिए आमंत्रित करते हैं , संगठन विस्तार से लेकर कुछ कार्यक्रमों अभियानों की भी घोषणाएं होती हैं पर इससे आगे कुछ नहीं। कोई छात्र संगठन इतने व्यापक और दूरगामी सोच के साथ ऐसे बहुआयामी कार्यक्रमों, अभियानों और प्रस्तुतियों के साथ कार्यक्रम नहीं करता। ज्यादातर राजनीतिक दलों के अधिवेशन तो अपनी प्रशंसा और विरोधियों की आलोचनाओं तक सीमित हो गए हैं। इसका कारण संगठनों की सीमाओं के बाहर तथा देश और समाज को लेकर दूरगामी व्यापक लक्ष्य नहीं होना है। संघ भी शताब्दी वर्ष की ओर बढ़ रहा है जिसका ध्यान रखते हुए जैसा अधिवेशन की जानकारी में बताया गया विद्यार्थी परिषद ने अपनी सदस्यता एक करोड़ तक पहुंचाने का लक्ष्य निर्धारित किया है। किंतु जैसा हम कह सकते हैं यह संगठन की केवल एक तात्कालिक योजना है न कि संपूर्ण लक्ष्य। संपूर्ण लक्ष्य की व्यापकता में व्यक्ति समाज और देश के उत्तरोत्तर विकास के सभी बातें समाहित हैं। विश्वविद्यालयों या व्यावसायिक व तकनीकी संस्थानों में एक छात्र केवल कुछ वर्ष व्यतीत करता है। कोई संगठन वही तक सीमित हो तो फिर वहां से निकलने के बाद जीवन में आगे उनके सामने दिशाहीनता होती है। यदि छात्र जीवन में ही उन्हें व्यापक आयाम वाली दिशा मिल गई तो फिर उनमें संपूर्ण जीवन काम करने की संभावनाएं समाहित होती हैं। तो कुल मिलाकर भारत को विश्व गुरु बनाने के लक्ष्य वाला यह अधिवेशन ज्यादातर राजनीतिक दलों के अधिवेशनों से कई गुणा ज्यादा महत्व का है और हम सबका दायित्व है कि इसी रूप में इसकी चर्चा करें।

अवधेश कुमार, ई-30, गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली 110092, मोबाइल - 98110 27208

शनिवार, 18 नवंबर 2023

पिछड़ों और महादलितों के कल्याण की बात करना राजनीति है या कुछ और?

 

बसंत कुमार

पिछले सप्ताह डॉ. राम मनोहर लोहिया और लोक नायक जयप्रकाश नारायण के आदर्शों की राजनीति का दंभ भरने वाले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सदन में महिलाओं की शिक्षा और बिहार के इतिहास में इकलौते महादलित मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के विषय में इतनी आपत्तिजनक बातें कह दीं, उससे यह पता लगाना मुश्किल है कि जातिगत जनगणना और जितनी जिसकी है आबादी उसकी उतनी हिस्सेदारी की बात करने वाले नीतीश कुमार महिलाओं और दलितों के प्रति किस तरह का पूर्वाग्रह रखते हैं। भरे सदन में शिक्षित महिलाओं के बारे में उन्होंने जो कह दिया उसकी कल्पना नहीं की जा सकती। उसी तरह प्रदेश के इतिहास में महादलित समुदाय से संबंध रखने वाले इकलौते मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी द्वारा दलित समुदाय की उपेक्षा पर बोलना उनको इतना नागवार गुजरा कि उन्होंने भरे सदन में यह कह दिया कि मेरा दिमाग खराब था कि वर्ष 2014 में जीतन राम मांझी को प्रदेश का मुख्यमंत्री बना दिया जबकि वास्तविकता यह है कि श्री मांझी 1980 से विधायक थे और नीतीश जी के मंत्रिमंडल में वरिष्ठ मंत्री थे। नीतीश जी उनकी कार्य क्षमता के बारे में भली भांति जानते थे फिर उन्होंने 2014 में चुनाव में पार्टी द्वारा खराब प्रदर्शन होने के कारण जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाने की गलती क्यों की।

सभी राजनीतिक दलों की कमोबेस रणनीति यही रहती है कि राजनीतिक लाभ के लिए अपनी सुविधा के अनुसार दलित, आदिवासी, पिछड़े नेता का नाम आगे कर दिया जाए जिससे समाज में यह संदेश चला जाए कि हम ही इनके हितैषी हैं और अपना काम निकल जाने के पश्चात् इन्हें दूध में पड़ी मक्खी की तरह बाहर निकाल दो जैसा नीतीश कुमार ने वर्ष 2014 में जीतन राम मांझी के साथ किया। वर्ष 1969 में कांग्रेस का विभाजन होने पर इंदिरा गांधी ने अपनी चुनावी नैया पार करने के लिए बाबू जगजीवन राम को अपनी पार्टी का अध्यक्ष बना दिया और चुनाव जितने के बाद उन्हें पार्टी छोड़कर जनता पार्टी के साथ जाने को मजबूर कर दिया और वर्ष 1980 में उनको प्रधानमंत्री बनने से रोकने के लिए संसद भंग करवा दी। अब कांग्रेस की डूबती नैया पार करने के लिए दलित नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को पार्टी का अध्यक्ष बना दिया है तो क्या यह मान लिया जाए कि पार्टियों द्वारा समय पड़ने पर इन दलितों आदिवासियों को आगे लाकर लाभ उठाना अवसरवादिता है या कुछ और।

आजादी से पहले महात्मा गांधी ने अस्पृश्यता निवारण के अपने आंदोलन के समय यह कहा था कि मेरा सपना तभी साकार होगा जब एक दलित (अछूत) इस देश का प्रधानमंत्री बनेगा। पर कितने आश्चर्य की बात है कि जब देश के आजाद होने का समय आया और देश के प्रधानमंत्री रूप में पंडित नेहरू, सरदार पटेल और मोहम्मद अली जिन्ना के नामों की चर्चा चल रही थी पर गांधी जी ने देश के सबसे शिक्षित नेता जो संविधान के ज्ञाता थे, कानूनविद् थे और अर्थशास्त्री थे यानी डॉ. अंबेडकर का नाम क्यों नहीं चलाया जिससे एक दलित के देश का प्रधानमंत्री बनने का गांधी का सपना पूरा हो जाता। उनके प्रधानमंत्री बनने से देश को निम्न फायदे होते

1. डॉ. अंबेडकर यदि देश के प्रधानमंत्री होते तो संविधान में अनुसूचित जातियों और जनजातियों को दिया जाने वाला आरक्षण मात्र 10 वर्षों के लिए होता क्योंकि एक अर्थशास्त्री होने के नाते वे देश का आर्थिक विकास सुनिश्चित करते जिससे दलित व आदिवासी समाज देश की मुख्यधारा में शामिल हो जाता और उनके लिए आरक्षण की अवधि 10 वर्ष से अधिक बढ़ाने की आवश्यकता न होती। देश के राजनीतिक दलों को दलितों आदिवासियों और अल्पसंख्यकों को वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करने का अवसर न मिलता।

2. अंबेडकर जी का विचार था कि यदि देश का धर्म के आधार पर बंटवारा होना ही है तो जनसंख्या का सम्पूर्ण स्थानांतरण हो यदि वे देश के प्रधानमंत्री बनते तो पाकिस्तान बनने की दशा में देश की सारी मुस्लिम आबादी पाकिस्तान स्थानांतरित हो जाती तो भारत में हिंदू-मुस्लिम का झगड़ा ही नहीं होता और दोनों देश पड़ोसी मित्रों की तरह रहते और दोनों देशों को एक-दूसरे के विरुद्ध इस्तेमाल करने हेतु इतने भारी पैमाने पर हथियारों की खरीद-फरोख्त नहीं करनी पड़ती।

3. अंबेडकर जी शुरू से जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 लागू करने के विरुद्ध में थे और जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देना नहीं चाहते थे। ये दोनों ही काम पंडित नेहरू ने उनकी इच्छा के विरुद्ध किए और सभी जानते हैं कि भारत और पाकिस्तान के बीच विवाद का विषय कश्मीर घाटी ही रहा, परंतु प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी की दृढ़ इच्छा शक्ति की वजह से वर्ष 2019 में अनुच्छेद 370 को समाप्त कर दिया गया।

4. अंबेडकर प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की विदेश नीति के घोर आलोचक थे, वे चाहते थे कि भारत के आजाद होने के पश्चात् गुट निरपेक्ष आंदोलन में अहम भूमिका निभाने के बजाय दो महाशक्तियों यानि सोवियत संघ और अमेरिका के बीच चल रहे शीत युद्ध में अमेरिका के साथ हाथ मिलाते जिससे अमेरिका की सहायता से भारत का विकास होता और भारत को यूएन की सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता मिल जाती और हम इतने सशक्त हो जाते कि चीन 1962 मे आक्रमण करके हमारी हजारों वर्ग किमी जमीन हथियाने का साहस न करता।

डॉ. अंबेडकर में प्रधानमंत्री बनने की सारी योग्यताएं होने के बावजूद अपने पूर्वाग्रह के कारण गांधी जी ने उन्हें देश का प्रधानमंत्री बनने का अवसर नहीं दिया। अन्यथा भारत के आर्थिक विकास की आधारशिला 50 और 60 के दशक में ही रख दी गई होती, जो काम अब 6 दशक के पश्चात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दूरदर्शिता पूर्ण कदम के कारण अब संभव हो पा रहा है। एक दलित को देश का प्रधानमंत्री बनाने का अवसर वर्ष 1980 में आया जब देश के सफल मंत्रियों में से एक बाबू जगजीवन राम को जनता पार्टी का नेता बनाया गया और वे सदन में अपना बहुमत साबित करने की स्थिति में थे पर श्रीमती इंदिरा गांधी और चौधरी चरण सिंह की सांठगांठ के कारण तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने जगजीवन राम को सरकार बनाने का अवसर देने के बजाय लोक सभा भंग कर दी, यदि दक्षिण अफ्रीका जैसे रंगभेद समर्थक देश में अश्वेत प्रधानमंत्री बन सकता है तो क्या कारण है कि भारत में आज तक दलित प्रधानमंत्री का बापू का सपना अधूरा है।

यदि हम जाति और संप्रदाय से दूर एक विकसित भारत की स्थापना करना चाहते हैं और देश को जाति पर आधारित आरक्षण की भरमार से बचना चाहते हैं तो दलितों अछूतों और आदिवासियों के प्रति पूर्वाग्रह से बचना होगा और जो भी दलित आदिवासी अपनी मेहनत और योग्यता के बल पर देश का नेतृत्व करने की स्थिति में हो उनके राह में रोड़े न अटकाएं जाएं, तभी हम एक जाति विहीन और धर्मनिरपेक्ष भारत की स्थापना कर सकेंगे। देश के कोने-कोने से जाति के आधार पर उठ रही मांगों पर विराम लगा सकेंगे और वर्तमान समय की यही आवश्यकता है।

मंगलवार, 14 नवंबर 2023

संघ कार्यकारी मंडल बैठक : देश की इतनी चिंता करने वाला संगठन फासिस्ट नहीं हो सकता

अवधेश कुमार 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल की गुजरात के भुज में आयोजित बैठक से निकले संदेश को तटस्थता से समझने की आवश्यकता है। बैठक में संघ के कार्यों की दृष्टि से 45 प्रांतों व 11 क्षेत्रों के संघचालक, कार्यवाह, प्रचारक, अखिल भारतीय कार्यकारिणी सदस्य तथा कुछ विविध संगठनों के अखिल भारतीय संगठन मंत्रियों सहित 357 प्रतिनिधि उपस्थित रहे। हमारे देश में अनेक राजनीतिक दलों से लेकर, एक्टिविस्टों व पत्रकारों और बुद्धिजीवियों का एक बड़ा वर्ग हमेशा संघ को विरोधी दृष्टिकोण से देखता और विचारता है और उनके व्यवहार में कई कारणों से बदलाव की संभावना अति क्षीण है। कुछ मुद्दों और विचार के स्तर पर मतभेद हो सकते हैं। आप यह सोचेंगे ही नहीं कि 98 वर्षों से सक्रिय संगठन धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए भारत से विश्व के अनेक देशों तक स्वयं या अपने अनुषांगिक संगठनों के साथ पहुंचा है तो उसमें अवश्य ही सकारात्मक पहलू होंगे आप सच्चाई तक नहीं पहुंच सकते। ऐसा नहीं होता तो जिस तरह कार्यकारी मंडल और उसके पूर्व की संघ की बैठकों से देश और समाज के लिए काम करने की ध्वनियां बाहर आईं कम से कम उसकी प्रशंसा नहीं तो समर्थन अवश्य किया जाता। पिछले एक वर्ष के संघ की अखिल भारतीय बैठकों और कार्यक्रमों में पारित प्रस्तावों और योजनाओं को देखें तो सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह नजर आती है कि वे यह निश्चय करते हैं कि हमें क्या करना है न कि सरकार यह करे। यही संघ को अन्य अनेक संगठनों से बिल्कुल अलग करता है। यद्यपि कार्यकारी मंडल में कोई प्रस्ताव पारित नहीं हुआ किंतु संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले द्वारा पत्रकार वार्ता में दिए गए वक्तव्यों से वर्तमान एवं भावी कार्यक्रमों की स्पष्ट रूपरेखा मिलती है।

वास्तव में इसमें ऐसी कई बातें हैं जिनका देश के दूसरे संगठनों को भी संज्ञान लेना चाहिए। उदाहरण के लिए होसबोले ने कहा कि देशभर में सीमावर्ती क्षेत्रों की सुरक्षा की दृष्टि से सीमा जागरण मंच के माध्यम से इन क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधा, शिक्षा, सुरक्षा, स्वावलंबन, सहित नागरिक कर्तव्य के संबंध में प्रयास किए जाएंगे और इस कार्य को अधिक गति से आगे बढ़ाया जाएगा। देश के अनेक सीमावर्ती क्षेत्र कई कारणों से ऐसी सामान्य जीवन की समस्याओं से जूझते रहे हैं। सरकार भी अपने स्तर से सीमावर्ती क्षेत्र के लोगों के सामाजिक आर्थिक विकास एवं आम समस्याओं के समाधान की कोशिश कर रही है। यह पर्याप्त नहीं है जो सुरक्षा के लिए भी जोखिम भरी है। सीमावर्ती क्षेत्रों में स्थानीय नागरिक एवं सुरक्षा तंत्र के साथ सामंजस्य बढ़ाने के लिए भी विशेष प्रयत्न किये जाने की बात उन्होंने कही। जब आप धरातल पर काम करते हैं आपके पास कई प्रकार की सूचनाओं अपने आप आती हैं,उससे संबंधित सरकारी विभाग तक पहुंचने से उनका समाधान होता है और सुरक्षा भी सशक्त होती है। देश की चिंता करने वाले किसी संगठन की यही उपयुक्त भूमिका हो सकती है। उन्होंने अन्य संगठनों की तरह इसके लिए सरकार और प्रशासन से कोई विशेष मांग नहीं की। यानी संगठन अपने स्तर से इस दिशा में काम करेगा। स्वाभाविक ही उसमें सरकारी सहयोग मिल सकता है तो लिया जाएगा। सरकार को केंद्र में रखकर कोई योजना नहीं बनी है।  संघ शताब्दी वर्ष की ओर बढ़ रहा है जिसकी दृष्टि से उसकी बैठकों में कुछ न कुछ बातें सामने आती है। शताब्दी वर्ष में सामाजिक समरसता, ग्राम विकास, पर्यावरण संरक्षण, गौ-सेवा एवं परिवार प्रबोधन जैसे विषय आग्रहपूर्वक समाज के समक्ष रखने का ही कार्यक्रम है। सामाजिक समरसता के कार्यक्रम में स्वयंसेवक समाज को जोड़ने का अभियान चला रहे हैं तो परिवार प्रबोधन के द्वारा परिवारों को सांस्कृतिक मूल्यों के साथ आवद्ध रखने का लक्ष्य है। इसी तरह पर्यावरण रक्षा के कई कर्मों में वृक्ष लगाने और पॉलिथीन के उपयोग को कम करने तथा जल संरक्षण पर फोकस किया जा रहा है। राजस्थान में संघ दृष्टि से जोधपुर प्रांत , जो प्रदेश का एक तिहाई हिस्सा है, उसमें संघ के कार्यकर्ताओं ने 14,000 किमी यात्रा कर 15 लाख पेड़ लगाए। कर्नाटक में सीड बॉल पद्धति से एक करोड़ पौधे लगाने के लक्ष्य पर काम हो रहा है। जो संगठन ऐसे कार्यों के लिए अपने स्वयंसेवकों को प्रेरित करता है और शताब्दी वर्ष में भी इसे ही आगे बढ़ता है उसे आप किस श्रेणी में रखेंगे? कोई फासिस्ट या सांप्रदायिक संगठन इस तरह के कार्यक्रम और अभियान नहीं चला सकता।

लव जिहाद भारत में अब एक बड़ा मुद्दा हो चुका है और स्वभाविक ही संघ उस पर काम कर रहा है। किंतु जब लड़कियां उन संबंधों से बाहर आती हैं उनमें से अनेक परिवार ही उन्हें स्वीकार नहीं करते। संघ महिलाओं के पुनर्वास पर काम कर रहा है। विरोध या मुकदमे से आप किसी को मुक्त करा देंगे लेकिन आगे उनकी जिंदगी कैसे चले यह महत्वपूर्ण विषय है। संघ इस पर काम कर रहा है तो निश्चय ही आने वाले समय में ऐसी लड़कियों और महिलाओं के अंदर असुरक्षा बोध नहीं रहेगा। संघ की एक विशेषता समय-समय पर अपने कार्यों और गतिविधियों की समीक्षा तथा उनमें मूल्य लक्ष्य का ध्यान रखते हुए आवश्यक संशोधन और बदलाव करना है। संघ के प्रशिक्षण वर्गों में बदलाव इसी का प्रमाण है। जैसा दत्तात्रेय होसबोले ने बताया अब हर आयु वर्ग के लिए अलग-अलग पाठ्यक्रम होंगे। संघ के कार्यकर्ता समाज के सभी क्षेत्रों में काम कर रहे हैं इसलिए परंपरागत बौद्धिक और शारीरिक के अतिरिक्त उनकी रुचि के अनुरूप क्षेत्र से संबंधित प्रशिक्षण दिया जाएगा। तत्काल यह सकारात्मक बदलाव दिखता है। इसका अर्थ है कि संघ ऐसे कार्यकर्ताओं का समूह तैयार करने की कोशिश कर रहा है जिनमें हर क्षेत्र का आवश्यक व्यवहारिक ज्ञान और कार्य करने का अनुभव वाले हों। स्वाभाविक ही ऐसे कार्यकर्ताओं की संख्या जितनी बढ़ेगी संघ की पहुंच उतने ही परिवार और लोगों तक होगी।

जैसा हम जानते हैं 22 जनवरी, 2023 को राम जन्मभूमि मंदिर में श्रीराम की मूर्ति प्रतिस्थापित होने वाली है। मंदिर निर्माण आंदोलन में संघ की प्रमुख भूमिका रही है, इसलिए यह अवसर उसके लिए संपूर्ण भारत और विश्व भर में फैले हिंदुओं को इससे भावनात्मक रूप से जोड़ने का है। उसके लिए स्वयंसेवक 1 से 15 जनवरी तक अधिक से अधिक परिवारों तक पूजित अक्षत और श्रीराम की तस्वीर लेकर जाने वाले हैं। श्री राम मंदिर संबंधी संघ के विचारों को देखें तो साफ हो जाएगा कि यह केवल एक मंदिर का नहीं बल्कि भारत के सांस्कृतिक पुनर्जागरण का आंदोलन था। श्रीराम को आदर्श मानकर भारत के लोग जीने और काम करने की प्रेरणा लें यह संदेश कायम रखने की यह कोशिश है।कार्यकारी मंडल से निकले संदेशों और कार्यक्रमों की वस्तुनिष्ठ समीक्षा करें तो जिस तरह का संदेहजनक माहौल संघ को लेकर एक बड़ा वर्ग बनाता है वह निराधार साबित हो जाएगा। बनाई जा रही धारणाओं के विपरीत राजनीति का कोई बिंदु नहीं तथा विरोधियों के प्रति किसी तरह के विरोध का वक्तव्य भी नहीं। बड़े और दुरगामी लक्ष्य से काम करने वाले संतुलित संगठन का यही चरित्र हो सकता है। आप विरोधियों को प्रत्युत्तर देने या उनसे संघर्ष में उलझ गए तो फिर लक्ष्य बाधित हो जाता है। ये सब थे वो भीमैं ये में में भी में भी बड़ी सी ये ये सब कुछ भी थे ये थे उसके थे ये सब ही ये सबअन्य संगठन भी संघ के इस आचरण को चरित्र में अपना लें तो पूरे देश का माहौल सकारात्मक बनेगा तथा अनावश्यक तनाव और टकराव में कमी आएगी। विचारधारा के स्तर पर आपको लगता है कि संघ से सहमति नहीं हो सकती तो भी उसे समझिए, अपनी असहमति व्यक्त करिए किंतु दुश्मनी, घृणा और जुगुप्सा के व्यवहार से बाहर निकलिए।

अवधेश कुमार, ई-30, गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली 110092, मोबाइल- 98110 27208

शुक्रवार, 10 नवंबर 2023

मुफ्त राशन वितरण योजना पर राजनीति

बसंत कुमार

इस समय देश में पांच राज्यों के विधानसभा के चुनाव हो रहे हैं और वोटरों को आकर्षित करने के उद्देश्य से हर राजनीतिक दल चुनावी रेवड़ियां बांटने के चुनावी वायदों की झड़ी लगा रहा है। ऐसे चुनावी वातावरण में छत्तीसगढ़ की एक चुनावी सभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने घोषणा कर दी कि देश के 81 करोड़ गरीबों को दी जाने वाली मुफ्त अनाज वितरण योजना पांच वर्ष तक जारी रहेगी। प्रधानमंत्री के इस भाषण के बाद केंद्र सरकार के कई वरिष्ठ मंत्रियों ने ट्वीट करके वाहवाही लूटने की कोशिश की, वहीं दूसरी ओर कांग्रेस ने इसे चुनावी रेवड़ी मानकार इसकी शिकायत चुनाव आयोग से करने का फैसला किया। इसके बाद आर्थिक जानकारों के बीच यह बहस छिड़ गई कि विश्व की पांचवीं आर्थिक महाशक्ति का दावा करने वाले देश में 81 करोड़ से अधिक जनसंख्या बीपीएल कार्ड धारक हैं और मुफ्त अन्न वितरण योजना का लाभ उठाने के हकदार हैं अर्थात जिस देश की आबादी 141 करोड़ हो और उसमें से 81 करोड़ (58%) लोग अपना पेट भरने के लिए मुफ्त अन्न वितरण योजना पर निर्भर करते हो तो उस देश को विश्व की पांचवीं आर्थिक महाशक्ति कैसे माना जा सकता है।

ताजा आंकड़ों के अनुसार ऐसे लाभार्थियों की संख्या बढ़कर 81.35 करोड़ हो गई है और नेशनल फूड सिक्योरिटी एक्ट की शुरुआत वर्ष 2013 में डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार ने की थी। इस योजना के तहत बीपीएल कार्ड धारकों को एक रुपए किलो गेहूँ और तीन रुपए किलो चावल देने की बात की गई थी। इसके तहत प्रति व्यक्ति को हर माह 5 किलो अनाज मिलता था फिर नरेंद्र मोदीजी की सरकार अंत्योदय योजना लेकर आई जिसमें 35 किलो अनाज की सीमा निर्धारित की गई, फ्री राशन योजना इस वर्ष दिसंबर में समाप्त होने वाली थी जिसे अब प्रधानमंत्री ने इसे पांच वर्ष के लिए बढ़ा दिया है। पौने दो लाख करोड़ की राहत से यह योजना शुरू की गई थी, निश्चित तौर पर यह योजना कोरोना काल में गरीब परिवारों को मुसीबत की घड़ी में बहुत कामयाब रही परंतु इस योजना के चलते अधिकांश लोगों के घर बैठने की प्रवृत्ति के कारण मजदूरों की कमी से छोटे और मझोले उद्यमों को बहुत झटका लगा है तब इस योजना की उपयोगिता पर प्रश्न खड़ा करना जायज लगता है।

प्रश्न यह है कि देश के मध्यम वर्ग के बूते पर करोड़ों लोगो को फ्री राशन मिलेगा। भोजन की गारंटी देना किसी भी जन कल्याणकारी सरकार की अहम् जिम्मेदारी है पर उसके लिए मध्यम वर्ग की जेब काटना कोई भी समझदारी नहीं है। फ्री राशन और हर चीजों पर सब्सिडी देने से करोड़ों की आबादी नकारा बन जाती है पर हमारे देश में सरकारों द्वारा वोट पाने के लिए फ्री राशन और फ्री भोजन की योजनाएं चलाई जा रही हैं जबकि होना यह चाहिए कि सबको शिक्षा और स्वास्थ के साथ-साथ रोजगार की गारंटी दी जानी चाहिए। इस बारे में मुगलकाल में उप्र की राजधानी लखनऊ स्थित इमाम बाड़ा के निर्माण की कहानी से प्रेरणा ली जानी चाहिए, इसका निर्माण 1784 में अवध के नवाब आसिफउद्दौला ने अकाल के दौरान इसलिए कराया था कि लोगों को रोजगार मिल सके, दिन में इसका निर्माण होता और रात में इसे गिरा दिया जाता, कहते हैं कि इस इमाम बाड़ा का निर्माण और अकाल, 11 साल तक चला, इमाम बाड़े के निर्माण में करीब 20000 श्रमिक शामिल थे और इसके निर्माण में उस जमाने में 8 से 10 लाख रुपए की लागत आई पर नवाब ने अकाल के समय काम दिया पर खैरात नहीं दी।

अब राजनीतिक दलों के लिए यह नुस्खा बन गया है कि मुफ्त राशन, सस्ते भोजन की घोषणाएं करो और जब किसी को मुफ्त भोजन मिलेगा तो वह काम क्यों करेगा। देश में पहले विकसित देशों की कंपनिया आकर कारखाने लगाती थीं इससे मजदूरों को बेहतर रोजगार मिलता था और उनके जीवन का स्तर ऊपर उठता था क्योंकि विकसित देशों में आबादी कम होने के कारण मजदूर बहुत महंगे मिलते थे इसलिए ये कंपनियां भारत जैसे विशाल आबादी वाले देश की तरफ रुख करती थीं परंतु अब भारत में मुफ्त राशन मिलने से यहां के मजदूर कामचोरी करने लगे हैं। अब उनके लिए काम हो या न हो कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि उन्हें अब मुफ्त का राशन मिल ही रहा है। अब तो शहरों के छोटे कारखाने के लिए मजदूर मिलना बहुत मुश्किल हो गया है क्योंकि जो लोग कोरोना काल में शहरों को छोड़कर गांवों में पलायन कर गए थे वे फिर वापस नहीं आये।

दुर्भाग्य यह है कि मुफ्त राशन और फ्री बिजली बांटने का काम हर राजनीतिक दल कर रहा है, इस समय मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान जैसे राज्यों में विधानसभा चुनावों के दौरान सभी पार्टियों में परस्पर होड़ मची हुई है कि कि मुफ्त बिजली, मुफ्त भोजन बांटने की घोषणा में कौन किससे आगे दिख रहा है। दिल्ली में तो मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने उत्तर भारतीय वोटरों को मुफ्त राशन, मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी, महिलाओं के लिए मुफ्त डीटीसी बस कि ऐसी आदत डाली कि उसके बुते पर वे दो बार से लगातार एकक्षत्र राज कर रहे हैं। उनकी देखा-देखी कांग्रेस और भाजपा सहित सभी राजनीतिक दल यह सीखने की कोशिश कर रहे हैं कि मुफ्तखोरी की लालच से वोटरों को पटाया जाए। अब वोटरों को इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि इस सरकार के कई मंत्री भ्रष्टाचार के आरोप में जेल में हैं क्योंकि जनता को फ्री की रेवड़ी खाने की आदत पड़ गई है। इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि लोग गांव के कोटेदार के यहां अपनी चौपहियां गाड़ी से बीपीएल कार्ड पर मुफ्त राशन लेने जाते हैं। ये तथ्य हमारी व्यवस्था में भारी पैमाने पर हो रहे भ्रष्टाचार की ओर इशारा करते हैं और इसी कारण देशभर में गरीबों के लिए प्रारंभ की गई योजनाओं का लाभ लाखों की गाड़ियों में घूमने वाले और करोड़ों के घरों में रहने वाले लोग उठाते हैं। फिर भी गरीबों को दी जाने वाली मुफ्त राशन वितरण कल्याणकारी योजनाओं के लाभार्थियों की संख्या 81 करोड़ से अधिक हो जाना सचमुच चिंता की बात है आखिर देश में मुफ्त रेवड़ी बांटने की प्रथा कब खत्म होगी।

(लेखक भारत सरकार में उप सचिव पद पर रह चुके हैं।)

मंगलवार, 7 नवंबर 2023

हिन्दी के वैश्वीकरण का वर्तमान

मीना शर्मा

20वीं सदी के अंतिम दशक में उत्पन्न क्रांतिकारी नव तकनीक क्रांति, संचार क्रांति सूचना क्रांति उदारीकरण, बाजारीकरण, भूमंडलीकरण ने समूचे वैश्विक परिदृश्य को बदलकर रख दिया। सवाल यहाँ पर यह है कि भारतीय परिदृश्य और अन्तर्राष्ट्रीय परिदृश्य में समग्र बदलाव के बीच हिन्दी स्वयं को कहाँ खड़ा पाती है? तमाम उथल-पुथल के बीच नवीन चुनौतियों के बीच हिन्दी की अपनी भूमिका क्या रही? वर्तमान के वैश्वीकरण की ऐतिहासिक शक्तियों का सामना हिन्दी ने कैसे किया। तभी हम हिन्दी के वैश्वीकरण के वर्तमान का सही आकलन एवं सही तस्वीर को समझ पाएंगे।
सभागार में उपस्थित प्रिय बुद्धिजीवी साथियों, संकट और सृजन में एक गहरा अन्त: संबंध होता है, एक रचनात्मक संबंध होता है। संकट के गर्भ से ही सृजन का जन्म होता है। कुछ ऐसा ही रचनात्मक रिश्ता हिन्दी का वैश्वीकरण के साथ रहा है। संकट के समय कछुआ सिमट या सिकुड़ जाता है लेकिन हिन्दी की अपनी कहानी है, अलग दर्शन है। वैश्विक सिकुड़न की बेला में कछुआ धर्म के विपरीत हिन्दी विस्तार के रास्ते पर चलती है। बदले हुए परिदृश्य में और बदलाव की घड़ी में हिन्दी अपनी एक रचनात्मक भूमिका निभाती है। वक्त का दामन थामकर वैश्विक बदलाव के लिए हिन्दी खुद को प्रस्तुत करती है, बदलाव के लिए तैयार होकर हिन्दी अपना कदम ताल मिलाती है। हिन्दी अपनी जिजीविषा शक्ति और युगानुसरण की क्षमता, उत्तरोत्तर बदलती हुई स्थितियों के साथ सामंजस्य स्थापित करने की क्षमता, अपनी उदारता एवं लोचदार गुणों के साथ अनुकूलन की क्षमता के साथ बाजार और संसार से खुद को कनेक्ट करती है। इस कार्य मे हिन्दी ने सूचना-संचार, तकनीक, हिन्दी फिल्म्स, हिन्दी गीत-संगीत, मनोरंजन, स्पोट्स, वैश्वीकरण प्रक्रिया और मीडिया जैसे सशक्त माध्यम का साथ लेकर अपना सफर तय किया है। 
आज चीन जैसे देश में भी हिन्दी का मार्केट है, जिसमें फिल्म 'दंगल' 2000 करोड़ का आंकड़ा पार करते हुए भाषा और समाज के बीच सतत् परिवर्तनशील और गतिशील संबंधों को धारण कर हिन्दी अपना सामर्थ्य दिखलाते हुए लोकल से ग्लोबल और राष्ट्रीय से अन्तरर्राष्ट्रीय व्याप्ति दिखाते हुए सात समुन्दर पार तक अपना साम्राज्य विस्तार कायम कर चुकी है। नये विभावों के साथ भावों के सामंजस्य स्थापित करने का जो सौन्दर्य, जो संतुलन, जो सामर्थ्य, जो सरवाइवल इंस्टिक्ट जो क्षमता हिन्दी के पास है, वह किसी अन्य भाषा में दुलर्भ है। मुझे यहाँ पर अनायास महान वैज्ञानिक चॉर्ल्स डारविन की इस उक्ति का स्मरण हो रहा है कि सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट हिन्दी अपने आपको इस कसौटी पर शत-प्रतिशत खड़ा साबित करती है, जो फिट भी है और हिट भी है। 
आजकल फिटनेस को चैलेंज करने का एक नया चलन शुरू हुआ है। विराट कोहली पीएम मोदी को चैलेंज करते हैं तो पीएम मोदी उस चैलेंज को एक्सेप्ट करते हैं, फिर आगे कुछ लोग तेल की बढ़ी करते हैं, कीमतों, रोजगार आदि मसले पर पीएम मोदी को चैलेंज करते हैं, खैर, बात यहाँ इस बात की नहीं है कि कौन किसको किस मसले पर चैलेंज कर रहा है, बात यहाँ चैलेंज की है और हिन्दी ने अपने भीतर दृश्य-अदृश्य ऐतिहासिक शक्तियों के तमाम चैलेंज को हमेशा स्वीकार कर, देशी और विदेशी को साधकर, देशी भारतीय भाषाओं के साथ-साथ विदेशी भाषाओं के साथ, समस्त देशवासियों के साथ-साथ करोडो प्रवासी भारतीयों के साथ, समस्त राष्ट्र को एक सूत्र में जोड़ने के लिए भारतीय अस्मिता के साथ-साथ, पूरे विश्व में फैले भारतीयों को जड़िने एवं संपर्क स्थापित करने के लिए एशियाई अस्मिता से जोड़ने के लिए संपर्क भाषा के तौर पर, हिन्दी लिंक लैंग्वेज के तौर पर सेतू के रूप में एक सूत्र में जोड़ने वाली, पिरोने वाली एक ऐसी भाषा के रूप में उभरकर सामने आयी है जो केवल एक भाषा नहीं है, बल्कि अनेक भाषाओं से निर्मित एक भाषा है। इस भाषा का श्रृंगार अन्य भारतीय भाषाओं/विदेशी भाषाओं ने स्वयं अपने हाथों से किया है। इसीलिए हिन्दी इतनी सुन्दर है, क्योंकि सभी का इसमें कुछ-न-कुछ है और हिन्दी भी सबकी है, सो अबकी बार हिन्दी सरकार।" जिसमें सबका सहकार है, जिसमें सबका सरोकार है। 
हिन्दी की महानता एवं विराटता का रहस्य, यही आदान-प्रदान की शक्ति और लोचदार है। जिसमें कई नदियां आकर मिलती हैं और फिर यही नदियां संसार रूपी सागर से मिलती हैं तभी तो सात समुन्दर पार भी हिन्दी का परचम आज लहरा रहा है, जो अपने भीतर लोकतांत्रिक और वैश्विक मानवीय संवेदना को धारण कर विश्वव्यापी सत्ता कायम करने की राह पर निकल चुका हिन्दी है। हीनता और पराधीनता भाव से मुक्त आज की आत्म-विश्वास से लबालब है, जिसके प्रति विश्व में गौरव और सम्मान बढ़ा है, कुछ हम भी कर लें। क्योंकि पूरे कमी हमारी हिन्दी भाषा में नहीं, हममें है। हमारी सोच में है, घर की मुर्थी बसबर जो समझते हैं, इसीलिए इस सोच के बारे में सोचें, थोड़ी सोच को स्वच्छ कर लें।

गुरुवार, 2 नवंबर 2023

आखिर एक आधुनिक भारत की स्थापना हम क्यों नहीं कर पा रहे हैं

बसंत कुमार

जीवन की आखिरी संध्या पर व्यक्ति जीवन मे हानि लाभ का गुणा भाग करने के बजाय अपना ब्लड प्रेशर ठीक करने के लिए ऐसा वातावरण चाहते है जहा घंटे दो घंटे खुश रहे और हमने चार पांच दोस्तो ने शाम को टहलने  के बहने अपने बैठने का बंदोबस्त कर लिया जहा गप्पे मारना खुश रहना और टेंशन को दूर रखना ही हमारा ध्येय होता और यकीन मानिये शाम को घर जाते समय सबका बी पी समान्य होता जबकि एकाध अपवाद को छोड़कर सबकी उम्र 65 से 80 के बीच होती,कुछ दिन बाद एक मेम्बर और जुड़ गए अच्छा लगा की हमारी संख्या बढ़ी पर पता लगा कि वो गाव इसलिए नही जाना चाहते क्योकि वे अम्बेडकर के लोगो का व्यवहार बर्दाश्त नही कर पाते कभी उन्हे यह दर्द सताता कि दलित उनके यहा बरही/तेराही मे भोज मे बुलाने पर इसलिए नही आते कि खाने के बाद उन्हे पत्तल् फेकना पड़ेगा हमारे क्लब के नये सदस्य की इन शंकाओ ने यह सोचने को मजबूर कर दिया कि क्या कारण है हम एक आधुनिक भारत का निर्माण नही कर पा रहे है।
संविधान निर्माता डा अम्बेडकर जीवन पर्यंत एक अखंड भारत का निर्माण करना चाहते थे, इसी कारण जब वर्ष 1927 मे ब्रिटिश हुकूमत ने मुसलमानो के साथ दलितो के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्रों की बात की और डा अम्बेडकर मुस्लिम लीग की तरह अछूतो के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र की बात मान लेते तो पाकिस्तान की तर्ज पर देश का एक और विभाजन होता तो देश की स्थिति और विकट हो जाती! भारत की एकता हेतु उन्होंने गाँधी के साथ 1932 मे पूना पैक्ट किया और बटवारे के बाद भी अछूत भारत का हिस्सा बने रहे और उनके विकाश के लिए संविधान मे अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियो के लिए आरक्षण का प्रविधान किया गया! परन्तु कुछ रुढिवादी लोग देश मे आरक्षण के लिए डा अम्बेडकर को दोषी मानते है जबकि वस्तविकता यह है कि डा अम्बेडकर ने देश को एक और विभाजन से बचा लिया था! यदि विभाजन की सूरत मे धार्मिक आधार पूर्ण जनसंख्या की अदला बदली की उनकी बात मान ली गयी होती तो देश मे आज इस तरह के साम्प्रदायिक तनाव नही होता।
किसी भी देश और समाज मे समता, समानता, स्वतंत्रता और न्याय जैसे मानवीय मूल्य काफी महत्व रखते है , बाबा साहब अम्बेडकर ऐसे ही मानवीय मुल्यो का भारत देखना चाहते थे- जहा समता हो, बराबरी, सभी नागरिको को, सभी नागरिको को स्वतंत्रता हो और सभी मे बंधुत्व की भावना हो! क्षेत्र भाषा जाति लिंग् आदि के आधार पर कोई भेद भाव न हो, जहा महिलाओ का सम्मान हो, विविधता मे एकता हो! ऐसे वातावरण मे देश निश्चित रूप मे चहुंमुखी विकाश कर सकता है, परंतु भारतीय समाज मे हर क्षेत्र मे असमानता दिखाई देती है, हमारा समाज धर्मो और जातियों मे बटा है, यहाँ लोग पहले हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन समझते है और उसके बाद भारतीय है, भले ही यहाँ सबको अपना धर्म अपनाने की आजादी है पर यहाँ मजहब के नाम पर दंगे होते रहते है और फासी वादी तiकतो को किसी दलित द्वारा जाति वाद से असंतुष्ट होकर अपना धर्म त्याग कर दूसरा धर्म अपना लेने पर बर्दास्त नही होता होता है, आज भी विद्यालयो मे जाति के नाम पर छात्रावiस बन रहे है और आये दिन जाति के नाम पर सम्मेलन आयोजित होते रहते है कहने का तात्पर्य है कि पूरा हिंदू समाज जातियों मे बटा हुआ है!
जहां तक आर्थिक स्थिति की बात है तो भारतीय समाज मे आर्थिक समानता अपने विकराल रूप मे है! वैश्विक असमानता रिपोर्ट के मुताबिक 10% भारतीय आवादी के पास कुल राष्ट्रीय आय का 57% हिस्सा है,  इन 10% मे 1% के पास 22% हिस्सा है, वही निचली 50% आवादी के पास केवल 13% हिस्सा है!  नीति आयोग की गरीबी सूचकांक(एम पी आई) रिपोर्ट के अनुसार उ प, बिहार और मध्य प्रदेश के 10 संयुक्त जिलों मे अन्य राज्यो के मुकाबले बेहद गरीबी है!  यह पहली एम पी आई रिपोर्ट है जिसके अनुसार ये गरीबी अनुपात करीब 25.01% है। बिहार मे लगभग51. 91% आबादी बहु आयामी गरीब है, इसी प्रकार यू पी के तीन जिलों मे गरीबी 70% है, मध्य प्रदेश के तीन जिलों मे गरीबी अनुपात, 60% है।
डाॅ. अम्बेडकर भारतीय समाज को वैज्ञानिक चेतना से लैश देखना चाहते थे पर 21 वी शताब्दी मे भी भरतीय समाज मे अंध विश्वास व्याप्त है और अंध विश्वास के प्रति लोगो की आसथा और बढ़ती जा रही है कभी कभी तो आदिवासी और शैक्षिक रूप से पिछड़े क्षेत्रों मे महिलाओ को डायन कह कर मार दिया जाता है मासूम बच्चो की बलि दे दी जाती है, धर्म के नाम पर लोग मरने को उतारू हो जाते है, इसलिए डा अम्बेडकर ने शिक्षा पर जोर दिया और वे चाहते थे कि लोग शिक्षित होकर चेतन शील बने, वैज्ञानिक चेतना को जगाये, अंधविश्वास को दूर भगाये और अपने जीवन को बेहतर बनाये।
आज की राजनीति मे जिस तरह से धर्म और पूजी का इस्तेमाल हो रहा है वह हमारे संविधान और लोक तंत्र के लिए खतरनाख है, यहाँ राजनीतिक दल बiकायदा से समीकरण बनाते है कि इतने फिसदी वोट हिंदुओ के होंगे, इतने दलितो के, इतने मुसलमानो, सिखों के आदि, यही कारण है कि यहाँ पर धर्म और जाति के आधार पर ध्रुवीकरण किया जाता है, नेताओ और पूजी पतियों के गठजोड़ के चलते आम नागरिको के हितो का दोहन होता है! जब राजनीति अपने साथ धर्म और पूजी दोनों को एक साथ ले लेती है तो लोकतंत्र के विरुद्ध एक सशक्त त्रिभुज बनता है और मीडिया इस त्रिभुज को चतुर्भुज बनाने मे इनके साथ होता है और देश की गरीब जनता चौतरफा मार झेलने को मजबूर होती है और इसके परिणाम स्वरूप अम्बेडकर और संविधान सभा के सदस्यों के सपनो का भारत ध्वस्त हो रहा है, संविधान का नुक्सान हो रहा है और लोकतंiत्रिक् मुल्यो का ह्रास हो रहा है! मसल पॉवर और मनी पॉवर के अपवित्र गठजोड़ के कारण देश का लोकतंत्र तानाशाही मे बदल रहा है।

बुधवार, 1 नवंबर 2023

एर्नाकुलम विस्फोट एक चेतावनी है

अवधेश कुमार 

किसी आतंकवादी घटना की गंभीरता का मूल्यांकन केवल इस आधार पर नहीं होता कि उसमें कितने लोगों की मौत हुई। केरल में एर्नाकुलम जिले के कलामसेरी के कन्वेंशन सेंटर यानी सम्मेलन केंद्र में हुआ विस्फोट हर दृष्टि से डराने और चिंतित करने वाली घटना है। निस्संदेह , तीन व्यक्तियों की मृत्यु तथा 51 लोगों का घायल होना सुरक्षा एजेंसियों के लिए थोड़ी राहत का विषय है। हालांकि एक व्यक्ति की भी मृत्यु या घायल होना हमारे लिए चिंता का विषय होना चाहिए। यहोवाज विटनेसेस या यहोवा विटनेस समुदाय के तीन दिनों के कार्यक्रम में 2000 के आसपास लोग उपस्थित थे। तीन विस्फोट का मतलब इसकी पहले से पूरी तैयारी की गई थी। यह भी साफ हो गया है कि विस्फोट ईईडी से ही हुआ। अभी यह कहना मुश्किल है कि कोच्चि निवासी डोमिनिक मार्टिन नामक व्यक्ति द्वारा घटना की जिम्मेवारी लेने का सच क्या है। क्या वह अकेले इस विस्फोट में शामिल था या उसके साथ अन्य लोग थे? जो कुछ वह कह रहा है उतना ही सच है या इसके पीछे कोई व्यापक षड्यंत्र है? राष्ट्रीय जांच एजेंसी या एनआईए और केरल का आतंकवाद निरोधी दस्ता की छानबीन के बाद इसका पूरा सच सामने आएगा। किंतु केरल सरकार द्वारा बिना सोचे समझे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को आरोपित करने से ज्यादा गैर जिम्मेदार कुछ नहीं हो सकता। तो केरल के रुख और यहोवाज विटनेसेस के साथ इस समय देश का जैसा वातावरण है और विशेष कर केरल में जैसा तनावपूर्ण माहौल बनाया गया है उनकी गहराई से विवेचना आवश्यक है।

यहोवाज विटनेसेस ईसाई धर्म से  निकला हुआ एक समूह है। इसका मुख्यालय अमेरिका के न्यूयौर्क  के वारविक में है और माना जाता है कि इस समय विश्व भर में इसके पचासी लाख सदस्य हैं। इसे इंटरनेशनल बाइबल स्टूडेंट्स एसोसिएशन की इकाई माना जाता है जिसकी स्थापना चार्ल्स टेज रसेल ने वर्ष 1872 में पीट्हवर्ग में की थी। यह मुख्य धारा के ईसाई समुदाय  कैथोलिक प्रोटेस्टेंट आदि से अलग विचार रखता है। इसके अनुसार होली ट्रिनिटी यानी पवित्र त्रयी गॉड, द फादर; गॉड , द सन;-- यीशू :  गाड था होली स्पिरिट में ये विश्वास नहीं करते। ये यहोवा को  गॉड ऑफ द बाइबल और सभी चीजों के निर्माता के रूप में करते हैं।

यहोवाज विटनेस के लोग यीशु मसीह को ईश्वर न मानकर उनका पुत्र मानते हैं तथा स्वयं को वास्तविक क्रिश्चियन कहते हैं। यह क्रिसमस और ईस्टर जैसी छुट्टियां भी नहीं मानते। इनके सामाजिक नियम और रीति- रिवाज काफी सख्त हैं जिसमें तलाक लेने और रक्त लेने तक का निषेध है। स्वाभाविक अन्य ईसाई मतावलंबियों के साथ इनका तनाव होता है। जो ईसा मसीह को ईश्वर मानते हैं वो ईश्वर न मानने वालों का विरोध करेंगे। ये लोगों के बीच अपना विचार प्रसार कर उन्हें अपने साथ शामिल करने की कोशिश करते हैं और इससे भी तनाव पैदा होता है। ध्यान रखिए, केरल में लगभग तीन दशक पहले इस समूह के तीन बच्चों पर उनके स्कूल में राष्ट्रगान का अपमान करने पर अनुशासन तो कार्रवाई की थी और यह मामला उच्चतम न्यायालय तक गया था।  यह समुदाय अपने विस्तार के लिए ऐसी बातें बोलता है जिससे निस्संदेह भारत विरोध या यहां की सभ्यता संस्कृति सामाजिक व्यवहार आदि की निंदा और उनके अंत करने तक की बातें होती हैं। केरल में चर्च की कुछ गतिविधियां भी समाज को असहज करने वाली रही हैं और उनका विरोध होता रहा है। 

मार्टिन ने घटना के बाद छह मिनट का एक वीडियो जारी किया जिसमें कह रहा है कि उसने इसलिए किया क्योंकि संगठन की शिक्षाएं  देशद्रोही है। इसकी विचारधारा खतरनाक है और इसलिए इसे राज्य में समाप्त करना होगा। उसका कहना है कि उसने कई बार संगठन को अपनी शिक्षा या विचार को सही करने को कहा लेकिन ऐसा हुआ नहीं। उसके अनुसार चूंकि मेरे पास कोई अन्य विकल्प नहीं था, इसलिए मैंने यह निर्णय लिया। यहोवाज विटनेस ने उसे अपना पंजीकृत सदस्य मानने से इन्कार किया है। जिस तरह डोमिनिक मार्टिन बयान दे रहा है उससे नहीं लगता कि समूह से उसका संबंध नहीं रहा होगा। निश्चित रूप से इस घटना के बाद डोमिनिक मार्टिन के साथ समूह की ,गतिविधियों, विचारों , संसाधनों आदि की व्यापक छानबीन होगी। किंतु पिछले कुछ समय से केरल में भारत विरोधी हिंसक मजहबी कट्टरपंथ की चिंताजनक गतिविधियां सामने आईं हैं। इजरायल और हमास युद्ध के बाद वैसे तो देश का वातावरण ही काफी संतप्त और तनावपूर्ण बनाया जा चुका है लेकिन केरल में लगभग प्रतिदिन कहीं न कहीं कोई छोटी बड़ी रैली या धरना प्रदर्शन हो रहे हैं। इस विस्फोट के एक ही दिन पूर्व केरल की एक रैली को हमास के पूर्व प्रमुख खालिद मशाल ने संबोधित किया था जिसमें उसने कहा था कि बुलडोजर, हिंदुत्व और यहूदीवाद को उखाड़ फेंकना है। तात्कालिक विस्फोट से सीधे इसका संबंध हो या नहीं हो किंतु स्थिति कितनी खतरनाक है कि विदेश में बैठे हिंसक संगठन का पूर्व प्रमुख वर्चुअल भारत की रैली को संबोधित करते हुए हिंसक विद्रोह के लिए उत्तेजित करता है और लोग तालियां बजाते हैं। भाजपा को छोड़कर किसी राजनीतिक पार्टी ने इसका विरोध नहीं किया।

केरल सरकार को इसका संज्ञान लेकर कार्रवाई करनी चाहिए थी। ऐसा न करने से केवल उन तत्वों का ही नहीं हिंसा की मानसिकता पालने वाले सभी का हौसला बढ़ता है। 20 फोटो के बाद केरल सरकार के प्रवक्ता का बयान है कि पूरा केरल फिलिस्तीन के नाम पर एकजुट है और अगर यह विस्फोट उसे तोड़ने के लिए है तो इसे स्वीकार नहीं किया जाएगा। सरकार की यह मानसिकता डरावनी है। केरल में फिलिस्तीन के नाम पर हो रही रैलियों और प्रदर्शनों में सत्तारूढ़ वाम मोर्चा के साथ कांग्रेस नेतृत्व वाले विपक्षी मोर्चा के नेता भी शामिल हो रहे हैं। हमास के पूर्व प्रमुख खालिद मशाल के रैली में शामिल होने के बाद भ्रम दूर हो जाना चाहिए। इसके बाद यय कहना ज्यादा आसान हो गया है कि इजरायल विरोध‌ के नाम पर हमास का समर्थन किया जा रहा है। पार्टियां, संगठन अपने बयानों और गतिविधियों से पूरे देश का माहौल तनावपूर्ण बना रहे हैं। पूर्णिया में सांप्रदायिक तनाव पैदा हुआ तो महाराष्ट्र में मुंबई से लेकर कई स्थानों पर प्रदर्शनों में उत्तेजक नारे और भाषण हो रहे हैं। इसके परे भी राजनीतिक मतभेद को पार्टियां इस तरह प्रकट करती हैं मानो देश के अंदर युद्ध की स्थिति हो। ऐसे तनावपूर्ण वातावरण में कोई असंतुलित व्यक्ति और समूह हिंसा की सीमा तक जा सकता है। कई राज्य केंद्र के सुरक्षा अलर्ट या खुफिया इनपुट को भी राजनीतिक आधार पर विश्लेषित करते हैं। यहां तक कि उनकी अपनी सुरक्षा एजेंसियों की सूचनाओं को भी बार कई बार उतनी गंभीरता से नहीं लिया जाता जितनी ली जानी चाहिए। जैसी जानकारी है केंद्र की ओर से हमास इजरायल युद्ध के बाद सभी राज्यों को उनकी सुरक्षा संवेदनशीलता के अनुसार सुरक्षा अलर्ट दिया गया था। केरल संवेदनशील राज्यों में शीर्ष पर है , इसलिए उसे कई अन्य राज्यों के साथ विशेष रूप से आगाह किए जाने की सूचना थी। एक साथ 2000 लोग 3 दिनों के लिए इकट्ठे हों, उस संगठन का ईसाइयों के बीच ही विरोध हो, प्रदेश का वातावरण लगातार रैलियों ,विरोध प्रदर्शनों से तनावपूर्ण बना हो, पहले से वहां मजहबी कट्टरपंथ आतंकवाद के स्लीपर सेल पकड़े गए हों वहां विशेष सुरक्षा व्यवस्था न किया जाना बहुत कुछ कहता है। केरल में इसाई मतों के बीच आपसी विरोध और तनाव के समाचार वहां के स्थानीय अखबार में आते रहते हैं। यही नहीं यहोवाज के लोग येरूसलम भी काफी जाते रहते हैं। तो इस दृष्टिकोण से भी थोड़ी ज्यादा सुरक्षा की आवश्यकता थी। जान बिन सही स्पष्ट होगा कि इसके पीछे किस तरह का षड्यंत्र है। दूसरे संगठन भी ध्यान बांटने के लिए ऐसे तत्वों का उपयोग करते हैं।

क्या विस्फोटों के बाद इसे फिलिस्तीन एकजुटता को तोड़ने की कोशिश में के रूप में देखने के सरकार के बयान को जिम्मेवार माना जा सकता है? अभी भी केरल सरकार संघ को आरोपित कर और स्वीकार राजनीति कर रही है। सुरक्षा के मामले पर इस तरह का व्यवहार हमें कहीं का नहीं छोड़ेगा। अनेक शक्तियों और देश भारत में हिंसा और सांप्रदायिक तनाव पैदा कर इसे तोड़ने का षड्यंत्र करते रहते हैं। इसके प्रमाण भी मिले हैं। हमने अनेक आतंकवादी हमले झेले हैं। फिलिस्तीन हमास युद्ध के बाद की संवेदनशीलता को देखते हुए पार्टियों, नेताओं और संगठनों को अत्यंत ही सोच समझकर संयमित बयान देने की आवश्यकता थी। सुरक्षा अलर्ट को भी पूरी गंभीरता से लिया जाना चाहिए। एर्नाकुलम विस्फोट हम सबके लिए एक सबक बनकर आया है। आप सरकार का विरोध करिए लेकिन ऐसे मामले पर कुछ भी बोलते समय ध्यान रखिए कि इसके दुष्परिणाम हमारे देश के लिए घातक हो सकते हैं। सबके पास सारे मुद्दों की पूरी जानकारी नहीं होती। कौन इससे क्या निष्कर्ष निकाल कर कहां क्या कर देगा इसकी कल्पना नहीं की जा सकती।



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