मंगलवार, 6 फ़रवरी 2024

जाति का विचार करके मंत्रिमंडल में विभाग का बंटवारा आलोकतंत्रिक

बसंत कुमार

अभी कुछ दिन पूर्व बिहार मे नितीश कुमार जी के नेतृत्व में एनडीए मंत्रिमंडल ने शपथ ली, पर सुशासन बाबू के मंत्रिमंडल मे एक बात देखने को मिली की विभागों का बटवारा करते समय चाहे अन्य जाति के मंत्रियों को भारी भरकम कई कई विभाग दिये गए वही मंत्रिमंडल के एक मात्र दलित संतोष कुमार सुमन जो युवा है और दिल्ली विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त है और पूर्व मे भी मंत्री रह चुके है उन्हे अनुसूचित जाति- जनजाति कल्याण मंत्रालय पकड़ा दिया गया, ऐसा लगता है देश मे अभी भी दलितो ले लिए अलग निर्वाचक मंडल है जहा दलितो के कल्याण के लिए दलित ही मंत्री बने क्योकि हमारे नेता गण यही दर्शाना चाहते है कि आजादी के सात दशक बाद भी विभिन्न जातियों और सम्प्रदायो मे बटा समाज एक दूसरे पर भरोषा नही करता,यदि संतोष कुमार सुमन को राजस्व, कृषि, वित्त, रोजगार जैसे मंत्रालय का जिम्मा दिया जाता तो उन्हे अपनी प्रतिभा दिखाने का अवसर मिलता। स्वतंत्र भारत के इतिहास मे संभवत: बाबू जगजीवन राम इकलौते दलित मंत्री थे जिन्हे रेलवे, कृषि और रक्षा मंत्रालय मे मंत्री के रूप मे काम करने का अवसर मिला और इन विभागों के मंत्री के रूप में उन्होंने देश मे हरित क्रांति और 1971 की बांग्लादेश विजय जैसी अनेको उपलब्धियां हांसिल की, पर उनके चार दशक से अधिक के मंत्रिमंडल के दौरान उन्हे देश के तीन प्रमुख मंत्रालयों- गृह, वित्त, विदेश मंत्रालयों के उपयुक्त नही समझा गया। यद्यपि अपवाद के रूप मे राम विलास पासवान, सुशील कुमार शिंदे या मल्लिकार्जुन खड़गे को सामाजिक न्याय मंत्रालय से हटकर कुछ मंत्रालय दिये गए पर इन्हे नॉर्थ ब्लॉक, साउथ ब्लॉक स्थित मंत्रालयों के काबिल नही समझा गया।

भारत संसदीय लोकतंत्रिय प्रणाली की विश्व की सबसे बड़ी व्यवस्था वाला देश है और यहाँ केंद्र और राज्यो मे क्रमश:प्रधानमंत्री और मुख्य मंत्री द्वारा सरकार चलाई जाती हैं और इसका महत्वपूर्ण हिस्सा मंत्रिमंडल होता है और मंत्रिमंडल मे मंत्रियों के विभागों का बटवारा मंत्री बनने वाले सदस्यों की योग्यता अनुभव के आधार पर किया जाता है, जिससे मंत्रिमण्डल सुचारु रूप से काम कर सके और जाति और सम्प्रदाय के आधार पर मंत्रियों के विभागों का बटवारा नही होना चाहिए, पर यह देश का दुर्भाग्य है कि आजादी के सात दशक बाद भी मंत्रिपरिषद् मे विभागों का बटवारा इस बात पर निर्भर करता है कि बनने वाला मंत्री किस जाति या सम्प्रदाय का है और इस परिपार्टी से केंद्र सरकार व राज्य सरकार अछूती नही है, यहाँ तक की देश के आजाद होने पर देश के योग्य अर्थ शास्त्री व कानून मंत्री डा अंबेडकर  को गृह, वित्त, योजना मंत्रालय के बजाय कानून मंत्रालय दे दिया गया जहाँ उनको अपनी प्रतिभा साबित करने के लिय कुछ नही था जबकि इससे पूर्व वायसराय परिषद के सदस्य के रूप मे श्रम सदस्य के रूप मे श्रमिकों के कल्याण और जल आपूर्ति के क्षेत्र मे बहुत योगदान कर चुके थे और देश मे रिज़र्व बैंक एवं वित्त आयोग की स्थापना उनके द्वारा किये गए शोधों के आधार पर हुई थी, यद्यपि प्रधानमंत्री बाबा साहब डॉ. आंबेडकर के दर्शाये रास्ते पर चलकर देश को विकास के रास्ते पर ले जाने के अपने प्रयास मे सफल हो रहे हैं और देश को विश्व की पांचवी अर्थ व्यवस्था बनाने मे कामयाब हो गए है पर आज भी सामाजिक न्याय का जिम्मा किसी दलित को  जनजातीय मामलों के मंत्रालय का जिम्मा किसी आदिवासी और अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय का जिम्मा किसी मुसलमान को देने की सदियों पुरानी परिपार्टी से अलग वो भी नहीं कर पा रहे है। जबकि केंद्र या प्रदेश मे किसी मंत्रिमंडल का गठन होता है तो मंत्री पद की शपथ लेने वाले दलित, आदिवासी व मुस्लिम नेताओ को यह पता होता है कि इन्हे इनकी जाति व सम्प्रदाय से संबंधित मंत्रालय ही मिलने वाले है बाकी सवर्ण या पिछड़ी जाति के लोगो के लिए संसय की स्थिति स्थिति रहती है कि किसे कौन सा मंत्रालय मिलने वाला है।

यदि हम पिछले साथ दशक के संसदीय इतिहास पर नजर डाले तो पता चलता है कि समाज कल्याण मंत्रालय जिसे बाद मे सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय कहा जाने लगा उसका मंत्री सदैव दलित समाज का व्यक्ति ही होता रहा और जब से जंजातीय मंत्रालय बना तबसे इसका मंत्री आदिवासी ही बना और अल्प संख्यक मंत्रालय का मंत्री मुसलमान ही रहा, ऐसा इसलिए हो सकता है कि मंत्रियों के विभाग के वितरण में जातीय संतुलन बनाने मे ऐसा किया जाता हो पर  विशेष वर्ग के कल्याण हेतु गठित आयोगो की संरचना पर नजर डाले तो यही निष्कर्ष निकलता है कि राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग का अध्यक्ष दलित, राष्ट्रीय जनजाति आयोग का अध्यक्ष आदिवासी, राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग का अध्यक्ष बाल्मीकि समाज से, राष्ट्रीय अल्प संख्यक आयोग का अध्यक्ष मुस्लिम ही होते हैं तो क्या यह मान लिया जाए कि विविधता मे एकता वाले भारत मे एक जाति दूसरी जाति के उपर विश्वास नही करती और देश को यूनियन ऑफ स्टेटस मानने के बजाय यूनियन ऑफ डिफरेंट कास्टस् मान लिया जाए। यथा शीघ्र हमे इस चलन/परिपार्टी को रोकना  होगा, जिस दिन विभिन्न जातियों और समुदायों के कल्याण हेतु बने अयोगो के अध्यक्ष और सदस्य के रूप मे अन्य जाति के लोग काम करना शुरू कर देंगे तो विभिन्न जातीया एक दूसरे पर भरोसा करना प्रारंभ कर देंगी।

पिछले कुछ दिनों भाजपा ने अपने संगठन मे विभिन्न मोर्चो के प्रभारियो की नियुक्ति मे कुछ ऐसा ही किया है जो स्वागत योग्य है। अनुसूचित जाति मोर्चा के प्रभारी के रूप मे तरुण चुग, अल्प संख्यक मोर्चा के प्रभारी के रूप मे दुष्यंत कुमार गौतम, महिला मोर्चा के प्रभारी के रूप मे बैजन्त पांडा, अनुसूचित जनजाति मोर्चा के प्रभारी के रूप मे डा राधा दास अग्रवाल और अन्य पिछडा वर्ग मोर्चा के प्रभारी के रूप मे विनोद तावड़े को बनाया गया अर्थात विभिन्न जाति- समुदाय के राष्ट्रीय महामंत्रियो को विभिन्न जातियों- समुदायों के मोर्चो का प्रभारी बनाया गया है। इससे विभिन्न जातियों- वर्गो के लोगो को आपस मे समझने का अवसर मिलेगा और लोगो का दूसरी जातियों के प्रति पूर्वग्रह समाप्त होगा, कास ऐसा ही सरकारों द्वारा मंत्रियों के विभाग के बटवारे और विभिन्न अयोगो के अध्यक्षों- सदस्यो के चयन मे भी किया जाने लगे तो हम एक जाति विहीन समाज की स्थापना के स्वप्न को साकार कर पाएंगे, इससे समाज में जाति और सम्प्रदाय के आधार पर भेदभाव व द्वेष समाप्त होगा।
देश मे जिस दिन एक सवर्ण को सामाजिक न्याय व अधिकारिता मंत्रालय तथा एक ब्राह्मण को अल्प संख्यक मामलों के मंत्रालय का मंत्री बनाया जाना प्रारंभ हो जायेगा और एक दलित और आदिवासी को मुख्य प्रसाशनिक मंत्रालय जैसे गृह वित्त आदि का मंत्री बनाया जाना प्रारंभ हो जायेगा उसी दिन से विभिन्न जातियों और सम्प्रदायो के लोगो मे आपस मे एक दूसरे पर भरोसा बढ़ेगा पर दुर्भाग्य वश आजादी के 7 दशक बाद भी अभी सामाजिक न्याय एवम अधिकारिता मंत्री के रूप में किसी दलित और अल्प संख्यक मंत्रालय के मंत्री के रूप मे किसी मुसलमान के रूप मे ताजपोशी होती रह है और यह प्रथा या प्रैक्टिस हमारी लोकतंत्रिक व्यवस्था के पूर्ण रूप से न विकसित होने की ओर इशारा कर रही है अत:इसे बन्द किया जाना चाहिए।

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