सोमवार, 30 अक्तूबर 2023

नेताजी : एक स्वाधीन आत्मा

डॉ. मीना शर्मा
भारतीय स्वाधीनता संग्राम के महानायक, आधुनिक भारत के निर्माताओं में अग्रगण्य, भारत माता का मस्तक ऊँचा करने वाले भारत माता के लिए अपना तन-मन-धन, अपना संपूर्ण जीवन, अपनी प्राणात्मा का उत्सर्ग करने वाले मां भारती की सेवा में, अर्चना में अपना शीश फूल चढ़ा देने वाले स्वाधीनता के सबसे बड़े पुजारी और स्वाधीनता के सबसे बड़े सिपाही एवं निर्भय आत्मबलिदानी महापुरुष का नाम 'सुभाष चन्द्र बोस' है।
सुभाषचन्द्र बोस सिर्फ एक व्यक्ति का नाम नहीं है, बल्कि एक संस्था का नाम है, एक विचार का नाम है। निरर्थक चिंतन या विकास में समय लगाना वे समय की बर्बादी मानते थे। स्वाधीनता के विचार और स्वाधीनता के व्यवहार का नाम है। विचार की सार्थकता उनके कदमों में होती है। जहाँ स्वाधीनता के विचार और उसका मूर्तरूप व्यवहार एक दूसरे से रचे-बसे हुए हैं, घुले-मिले हुए हैं। समरूप हैं। समरस हैं। जहाँ अपना सर्वस्व, अपनी एक एक सांस आखिरी सांस लहू का एक- एक कतरा आखिरी कतरा भी भारत माता की अनन्य भक्ति में स्वतंत्रता की देवी के श्रीचरणों में आत्मत्याग और आत्म समर्पण कर दिया जाता है। शीश रूपी फूल को स्वाधीनता के अनुष्ठान में मां भारती के कदमों में भेंट चढ़ा दिया जाता है। कुछ भी अपने पास निःशेष नहीं होता है।
श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने 'नेताजी' के सर्वोच्च आत्मबलिदान, आत्मोत्सर्ग की भावना को इन शब्दों में रेखांकित करते हुए कहा था कि- 'He was one of India's greatest and he fearlessly sacrificed everything for the cause of his country's freedom. His life and career will serve as a source of insipiration to generations of Indians Irrespective of caste, creed or community'.
राष्ट्रकवि माखनलाल चतुर्वेदी की 'पुष्प की अभिलाषा' सबने पढ़ी होगी किन्तु क्या किसी ने स्वयं अपने शीश को ही पुष्प समझा, पुष्प मानकर स्वाधीनता देवी को भेंट चढ़ाने की अभिलाषा क्या किसी ने रखी है और उसे ही साकार करने, उसे ही जीने में अपना संपूर्ण जीवन न्यौछावर कर दे, खुद को ही अर्पित कर दे, अपना जीवन खपा दे, प्राणों की आहुति, आत्मबलिदान कर दे, नेताजी न केवल आजादी के यज्ञ में प्रस्तुत हैं, बल्कि राष्ट्र के नवयुवकों, आजाद हिन्द सेना, देश के सिपाहियों के रग-रग में, कण कण में जोश का संचार करते हुए सर्वोच्च बलिदान का आह्वान करते हुए शीश पुष्प गुच्छों की अभिलाषा को इन शब्दों में व्यक्त करते हैं-
'स्वतंत्रता बलिदान चाहती है। उसके लिए सबकुछ देना है। आपने आजादी के लिए बहुत त्याग किया है, किन्तु अभी प्राणों की आहुति देना शेष है। आजादी को आज अपने शीष फूल चढ़ा देने वाले पुजारियों की आवश्यकता है। हमें ऐसे नवयुवकों की आवश्यकता है जो अपने हाथों से अपना सिर काटकर स्वाधीनता की देवी को भेंट चढ़ा सके। आप मुझे अपना खून दें, मैं आपको आजादी दूंगा।'
आजाद हिन्द सेना और उसका प्रतिज्ञापत्र राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन की पाठशाला थी। जहां प्रत्येक सिपाही देश के लिए मर-मिटने का जज्बा लेकर प्राणों की आहुति के लिए हर क्षण तत्पर एवं स्वयं को प्रस्तुत करते हुए यह शपथ लेता था कि- 'मैं स्वयं आजाद हिन्द सेना में भर्ती होता हूं। भारत की स्वतंत्रता के लिए तन-मन-धन न्यौछावर कर देने की दृढ़ प्रतिज्ञा करता हूँ। भारत की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों की बाजी लगाने को भी तैयार हूँ। मैं स्वयं को छोड़कर अपने देश की सेवा करूंगा। देशवासियों से चाहे वह किसी जाति, संप्रदाय व प्रांत से हों, किसी प्रकार का भेदभाव नहीं रखूंगा और सभी भारतीयों को अपना भाई समझंगा।'
सुभाषचन्द्र बोस के लिए स्वाधीनता का कार्य पुण्य का कार्य और पराधीन रहना पाप समान था। अपने जीवन के अंतिम सांस तक वे इसी स्वाधीनता यज्ञ के पुजारी थे। इस निर्मल यज्ञ में स्वाधीनता के साथ किसी भी प्रकार के समझौते के लिए कोई स्थान नहीं था। यही वजह थी कि कांग्रेस के समझौतावादी नीतियों और सत्ता प्राप्ति के लिए औपनिवेशिक शासन के साथ गांधी जी और नेहरू जी का समझौता रास नहीं आया। जिस अंग्रेजी साम्राज्यवाद ने देश के सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक ढांचे को नष्ट, तहस नहस कर दिया था। वे गुलामी को मनुष्य के जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप समझते थे और ब्रिटिश सरकार के अन्याय, उत्पीड़न के साथ समझौता करना सबसे बड़ा अपमान मानते थे। अपने स्वाधीनता के ऊंचे आदर्श एवं सिद्धांत के साथ सुभाषचन्द्र बोस फिर वो कैसे सोच सकते थे, और न ही औपनिवेशिक शासन के साथ कांग्रेस की समझौतावादी नीतियों को ही वे बर्दाश्त कर सकते थे। वसूलों पे आंच आना उन्हें कतई पसंद नहीं था।
सुभाषचन्द्र बोस के लिए देश सबसे ऊपर था, दल या व्यक्ति नहीं। दल या सत्ता के लिए समझौता करना नैतिकता, आदर्श, सिद्धांत के लिए नैतिकता के दलदल के समान था। अतएव वे गांधीजी का सम्मान करते हुए भी जहां उनके सिद्धांत एवं आदर्श गांधी के साथ टकराते थे वहां वे ससम्मान निर्भय एवं अडिग स्वर में बापू से कहते- "मैं आपका अन्धाअनुकरण नहीं करता 'वे उसी रास्ते पर चलना पसंद करते थे, जो देश की स्वाधीनता के लिए सर्वोत्तम हो। आंतरिक प्रेरणा से जिस व्यक्ति ने जन्मभूमि की सेवा का आजीवन व्रत रखने का संकल्प लिया हो, सिविल सर्विस में चतुर्थ स्थान प्राप्त किया हो उसके बावजूद भी उस अंग्रेजी व्यवस्था के सरकारी नौकरी को लात मार दिया हो, क्योंकि उसके शपथ ग्रहण में ब्रिटेन की महारानी के प्रति निष्ठा की शपथ और अंग्रेजी सरकार की सेवा का पाठ पढ़ाया जाता था। सुभाष अंग्रेजों की सेवा और देश की सेवा दोनों भला एक साथ कैसे कर सकते थे? दोनों में से किसी एक को चुनना था। सुभाष ने देश की सेवा को चुना। यहां भी उनका मान और देश का अभिमान एक दूसरे में घुले-मिले थे। ब्रिटिश सरकार की बुनियाद को मजबूत करने की जगह उससे पृथक हो जाना ही वे श्रेष्ठ समझते थे।
जिस आई.सी.एस. यानी सिविल सर्विस को युवा पद - लालसा के कारण मोह और सपने पालता है, उसी नौकरी को बिना किसी शिकन के यूं लात मार दिया सुभाष ने, क्योंकि उनका देश के प्रति मोह और सपने कहीं अधिक बड़े थे। जिसे वे नि:स्पृह भाव से त्यागकर आत्मत्याग के आदर्श को लेकर ही अपने जीवन को देशहित में आरंभ करना चाहते थे। तभी नौकरी छोड़ते ही तुरन्त राष्ट्र सेवा के कार्य में लग गए। आत्मत्याग के आह्वान को वे साहस के साथ, धैर्य के साथ स्वीकार करते हुए समझौते के स्थान पर सिद्धांत को, अंग्रेजी सेवा के स्थान पर देश सेवा दल के स्थान पर देश को चुना ओर गांधीजी और कांग्रेस की ढुलमुल समझौतवादी नीतियों के कारण विवश होकर देश छोड़ विदेश से ही आजाद हिंद फोर्स बनाकर भारत की स्वतंत्रता संग्राम का संघर्ष का रास्ता चुना । सुविधा और ऐशोआराम की जगह वैरागी एवं कष्ट का जीवन चुना। भारतीय जेलों में रहकर सड़कर मरने से अच्छा देश की आजादी के लिए प्राण न्यौछावर कर एक शहीद जवान का जोखिम भरा बलिदान वाला रास्ता चुना।
आहार, निद्रा, सन्तानोत्पत्ति तक सीमित लोक लीक चलन नीति उनके लिए किसी जीवित राष्ट्र का मरण के समान था। ऐसा राष्ट्र मरणोन्मुख होता है। भारतीय इतिहास और मध्य युग में व्याप्त अंधकारपूर्ण युग या मुगलराज का कारण भी किसी राष्ट्र का इस लोक लीक चलन नीति से ग्रसित होना होता है। परन्तु नवजागरण की झलक का प्रकाश पाकर अंधकार मिटने लता है और नवजागरण की चेतना जीवन का उद्देश्य और जीवन धर्म को पुनः प्रकट करने लगती है। केवल जिंदा रहने के लिए जिन्दा रहना सुभाष को वरेण्य नहीं था। देश, जीवन और भारतीय सभ्यता के उद्देश्य के लिए वे बंगाल और भारत के नवयुवकों के जीवन को एक उद्देश्य एक मिशन के साथ जोड़कर युवाओं और राष्ट्र की नवीन शिराओं में नवीन रक्त का संचार, जागरण की नई चेतना का उन्मेष करते हैं। नई ऊर्जा, नई दिशा, नया जोश नया आत्मविश्वास भरते हैं।
व्यक्ति हो या फिर राष्ट्र दोनों के लिए ही आत्मविश्वास (Self believe ) जरूरी होता है, खड़ा होने के लिए सपनों को साकार करने के लिए। अस्तित्व की सार्थकता का विश्वास किसी व्यक्ति या राष्ट्र को जिंदा रखती है। और अस्तित्व की सार्थकता को रास्ता भूमिका के निर्वहन से होकर गुरजता है। बिना भूमिका के व्यक्ति या राष्ट्र को पुनः जीवित कर देता है। वह सपना देखने के लिए साहस करता है और फिर साहस के लिए सपने देखता है। If you dare to Dream than Dream to dare.'
महीनों महीनों जेल में रहकर आजादी की लड़ाई में तमाम यातनाएं, क्रूरताएं, मार, चोट, दर्द आदि को सहते हुए भी इसी आत्मविश्वास इसी अन्तःप्रेरणा ने सुभाषचन्द्र बोस को टूटने नहीं दिया। बल्कि और भी अधिक, पहले से भी अधिक शक्तिशाली हो उठते हैं। अक्सर यातनाएं सहते समय उनका मन उत्तर देता था 'भारत का एक मिशन है, एक गौरवपूर्ण भविष्य, भारत के उस भविष्य के उत्तराधिकारी हम हैं। नये भारत के, मुक्ति के इतिहास की रचना हम ही कर सकते हैं और हम ही करेंगे।'
भारत के आत्मप्रतिष्ठा का मार्ग इस खोये हुए आत्मविश्वास को पुनः प्राप्त कर अटल आस्था के साथ देश की युवाशक्ति को मृत्युजयी बनाते हुए भारतमाता के लिए अपना जीवन उत्सर्ग करने प्रबल उत्कंठा में बदलकर सुभाष युवाओं की चेतना में क्रांतिकारी परिवर्तन कर देते हैं। वो अब आदर्श के कठोराघातों से यथार्थ के निष्ठुर सत्य को भी धूल में मिला सकता था।
जीवन उत्सर्ग की प्रेरणा, अदम्य साहस, भारत की श्रेष्ठता पुनः प्रतिपादित करने की प्रबल भावना एंव कामना ने सुभाष चन्द्र बोस को 'नेताजी' सुभाषचन्द्र बोस बनाता है। 'नेता' का अर्थ राजनीतिज्ञ या चुनाव लड़ने वाला छुटभैये नेता न होकर वे इस शब्द में एक नवीन अर्थ, नया अर्थ गौरव भरते हैं। 'नेता' का अर्थ 'नेतृत्व' देने वाला व्यक्ति, Leader 32 A Person who can lead the Nation, the Society is called a Leader.'
देश, समाज और युवाओं को एक नई दिशा देने वाला व्यक्ति ही वास्तविक अर्थों में Leader या नेता कहलाता है। इतिहास के उस दौर में युवाओं का उनसे बेहतर दिशा और नेतृत्व प्रदान करने वाला व्यक्ति और कौन हो सकता है? आजाद हिन्द फौज की स्थापना एवं नवयुवकों की फौज खड़ी करना, जो आत्मबलिदान की भावना से लबालब थे, लैश थे, इसी का जीवन्त ऐतिहासिक प्रमाण एवं उदाहरण है। इस युवा शक्ति को सुभाष जीने को, जीवन को राष्ट्र को एक उद्देश्य से संपृक्त करते हैं, जो पतनशीलता के अंधकार को दूर करने का बीड़ा उठाते हुए तमाम कष्ट सहता है, यातनाएं भोगता है, इस विश्वास के मनोबल पर कि 'जब इस जीवन में कोई श्रेष्ठ कर्म नहीं कर सकते तो जीवित रहना व्यर्थ है।'
देश के लिए जीना धर्म है। धर्म और देश के लिए जीवित रहना ही यथार्थ जीवन है। 'भारत और भारतवासियों एवं भारतमाता की दुर्दशा, गुलामी, अन्याय, घोषणा, उत्पीड़न को देखकर परतंत्र भारत माता के साथ-साथ भारतमाता की संतान की आत्मा भी हो उठती है। वह नेताजी सुभाष चन्द्र के नेतृत्व में स्वार्थरहित होकर भारतमाता के लिए अपना जीवन बलिदान, उत्सर्ग की भावना से भरकर युवाशक्ति हुंकार भरता है। आत्मप्रतिष्ठा का मार्ग का वरण कर मातृभूमि पर शीश फूल चढ़ाने निकल पड़ता है। फिर क्या था 'वन्दे मातरम' राष्ट्रीय अभियान और राष्ट्रीय अभियान बनकर पूरे बंगाल और देश में गूंजने लगती है। विपत्तिकाल में मां के आह्वान के अतिरिक्त कोई और दूसरा नाम होता है क्या? 'भारत माता' के चरणों में आत्मोत्सर्ग आत्मत्याग की भावना से भरकर राष्ट्र सेवा के मार्ग में युवाओं का पथ प्रदर्शक बनकर सुभाष पूरी निष्ठा के साथ परतंत्र भारत मात्रा को युक्त कराने के राष्ट्रीय कार्यों में खुद को लाखों युवाओं के साथ झोंक देते हैं। जिदंगी दांव पे लगा देते हैं। प्राण न्यौछावर कर अदम्य उत्साह के साथ करते हैं।
सुभाष और भारत माता के नेतृत्व को पूरे बंगाल, देश और युवा हृदय से स्वीकार करने लगता है। भारत माता के प्रति हृदय में अटूट श्रद्धा रखकर मातृभूमि की सेवा के अधिकार का, कर्त्तव्य का उत्साह के साथ पालन करता है। क्योंकि मां के अतिरिक्त अन्य कोई चीज पूज्य नहीं, और विपत्ति में मां के अतिरिक्त अन्य कोई नाम नहीं होता है। अन्य नाम है क्या? क्योंकि इतिहास गवाह है कि विपत्ति काल में सदा हमने मां का आह्वान किया है।
http://mohdriyaz9540.blogspot.com/

http://nilimapalm.blogspot.com/

musarrat-times.blogspot.com

http://naipeedhi-naisoch.blogspot.com/

http://azadsochfoundationtrust.blogspot.com/