बुधवार, 28 जून 2023

अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में नए अध्याय का निर्माण

अवधेश कुमार

इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि अमेरिका ने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को राजकीय यात्रा पर आमंत्रित करने के साथ जिस तरह स्वागत सम्मान किया, उनके प्रति राष्ट्रपति जो वाइडन ,उनकी पत्नी जिल वाइडन, उपराष्ट्रपति कमला हैरिस सहित संपूर्ण वाइडन प्रशासन और  विपक्ष का जैसा व्यवहार रहा एवं जिस तरह के समझौते हुए वैसा पिछले अनेक वर्षों में नहीं हुआ। किसी को याद नहीं कि प्रधानमंत्री मोदी की तरह का व्यवहार दूसरे वैश्विक नेता या देश के साथ अमेरिका में कब किया गया। मोदी को व्हाइट हाउस के अंदर ले जाने के लिए एक तरफ राष्ट्रपति बाइडन ने हाथ पकड़ा था तो दूसरी ओर उनकी पत्नी। बाइडन के साथ व्हाइट हाउस में पहली मुलाकात के समय पहली बार व्हाइट हाउस ने इतनी संख्या में भारतीय अमेरिकियों के लिए दरवाजे खोले थे। अमेरिका में सत्तारूढ़ डेमोक्रेटिक पार्टी और विपक्षी विपक्षी रिपब्लिकन पार्टी के बीच गहरे मतभेद और टकराव है किंतु भारत के साथ गहरे बहुपक्षीय रिश्तों और रणनीतिक साझेदारी को लेकर गजब एकता दिखी है। दोनों पार्टियों ने मोदी को अमेरिकी संसद को संबोधित करने के लिए आमंत्रित किया और संबोधन के दौरान उत्साहजनक तालियां एवं 15 बार स्टैंडिंग ओवेशन मिला। सांसदों में नरेंद्र मोदी से हाथ मिलाने और ऑटोग्राफ लेने की होड़ थी।

आलोचकों ने कहा है कि यह तो खरीदी हुई राजकीय यात्रा, संसद संबोधन एवं सम्मान था। इस प्रकार की आलोचना न केवल भारत को छोटा करना है बल्कि इस यात्रा के फलितार्थों, भारत अमेरिका संबंधों, भारत के विश्व में प्रभावी महाशक्ति बनने, अंतरराष्ट्रीय संबंधों को प्रभावित करने तथा आने वाले समय के लिए वैश्विक समीकरणों की दृष्टि से इसके विराट महत्व को कम करना होगा। इस यात्रा से 21वीं सदी के वैश्विक समीकरणों में बदलाव की शुरुआत हुई तथा ऐसी नई विश्व व्यवस्था की नींव पड़ी है जिसमें भारत अपनी क्षमता, विचारधारा और नेतृत्व की बदौलत निर्णायक भूमिका में दिखाई पड़ेगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वाशिंगटन के कैनेडी सेंटर में भारत और अमेरिका के शीर्ष कारोबारियों, समाजसेवियों और भारतीय अमेरिकी समुदाय के सदस्यों को संबोधित करते हुए कहा कि भारत अमेरिकी साझेदारी सहूलियत पर नहीं, बल्कि दृढ़ विश्वास ,साझा प्रतिबद्धता और संवेदना पर आधारित है।

तीन दिनों की यात्रा में राष्ट्रपति बाइडन के साथ चार चरणों की मुलाकात के बाद दोनों देशों की तरफ से रक्षा, अंतरिक्ष, कारोबार व अत्याधुनिक प्रौद्यौयिगिकी में सहयोग की जो बड़ी घोषणाएं हुई, समझौते हुए वे सब दो देशों के बीच ही नहीं संपूर्ण विश्व के बदलते समीकरणों के परिचायक हैं। इस यात्रा से भारत अमेरिका संबंधों ,अंतरराष्ट्रीय राजनीति एवं नई विश्व व्यवस्था की दृष्टि से नए दौर की शुरुआत हुई, नए अध्याय का निर्माण हुआ है।  भारतीय वायु सेना के हल्के युद्धक विमान तेजस् की अगली पीढ़ी के विमानों में लगने वाला एफ414 इंजन को जनरल इलेक्ट्रिक एयरोस्पेस हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड यानी एचएएल के साथ मिलकर निर्माण करेगा। सेमीकंडक्टर बनाने वाली माइक्रोन अहमदाबाद में प्लांट लगाने में 2.7 अरब डॉलर का निवेश करेगी तो अप्लाइड मैटेरियल्स भी 80 करोड़ डॉलर का निवेश करने जा रहा है। दोनों देशों द्वारा चांद, मंगल, अंतरिक्ष के दूसरे क्षेत्रों के रहस्य का पता लगाने के लिए साझा अभियान चलाना नए अंतरराष्ट्रीय परिवेश का ही परिचायक है। जो अमेरिका एक समय भारत को जीपीएस देने को तैयार नहीं था वह अंतरिक्ष में साझेदारी तक बढ़ गया। अभी तक रूस अंतरिक्ष क्षेत्र में भारत का सबसे निकट का साझेदार रहा है। 

भारत ने 2020 के आर्टेमिस समझौते पर भी हस्ताक्षर किए। यह 1967 के अंतरिक्ष समझौते पर आधारित अमेरिका द्वारा निर्मित एक गैर बाध्यकारी व्यवस्था है जो अंतरिक्ष में असैन्य शोध के मूल आदर्श व्यवहार के मापदंडों को निर्धारित करती है।  अमेरिका बंगलुरु और अहमदाबाद में दो नए वाणिज्य दूतावास खोलेगा तो भारत  सिएटल में। कारोबारी संभावनाएं नहीं हो तो वाणिज्य दूतावास खोलने का कोई अर्थ नहीं हो सकता। जनरल एटॉमिक्स के साथ 30 एमक्यू-9 बी प्रिडेटर यानी रीपर ड्रोन खरीदने पर भी सहमति इसलिए महत्वपूर्ण है कि यह दुनिया का सबसे घातक मानवरहित विमान है जिसके अचूक निशाने व सटीक निगरानी को संपूर्ण विश्व स्वीकार करता है। अमेरिका ने उच्च शिक्षा हासिल भारतीय पेशेवरों के लिए ज्यादा सहूलियतों और सुविधाओं की घोषणा की। एच 1बी वीजा की संख्या बढ़ाई गई और नवीनीकरण भी अमेरिका के अंदर की हो जाने की घोषणा हुई। अमेरिका भारतीय छात्रों को भी उदारतापूर्वक वीजा देगा। पिछले वर्ष अमेरिका ने भारतीय छात्रों को करीब एक लाख 25 हजार वीजा जारी किए जो रिकॉर्ड है।

मोदी बाइडन के बीच शिखर वार्ता के बाद आतंकवाद और कट्टरता के बढ़ते खतरे पर जारी संयुक्त बयान में पाकिस्तान के लिए सख्त शब्दों का प्रयोग सामान्य बात नहीं है। बयान में सीमा पार आतंकवाद की निंदा के साथ कहा गया है कि पाकिस्तान सुनिश्चित करे कि उसकी जमीन का इस्तेमाल आतंकवादी गतिविधियों के लिए न हो। मुंबई हमले व पठानकोट हमले के दोषियों को सजा दिलाने की मांग के साथ संयुक्त राष्ट्र की तरफ से घोषित अलकायदा जैसे मोहम्मद लश्कर-ए-तैयबा और हिजबुल मुजाहिद्दीन के आतंकवादियों के खिलाफ ठोस कदम उठाने की अपील भी इसमें है। दोनों देशों ने आतंकवादी गतिविधियों को रोकने के लिए फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स एफएटीएफ के अंदर ज्यादा सहयोग करने की बात कही है। आतंकवाद के विरुद्ध इस तरह की स्पष्ट घोषणा और सहमति बताती है कि अमेरिका भारत के साथ किस सीमा तक आगे बढ़ने का निर्णय कर चुका है। अमेरिकी प्रशासन ने आतंकवाद को लेकर पहली बार इस तरह की सहमति किसी देश के साथ व्यक्त की और संयुक्त बयान जारी किया।

इस तरह समझौते ,साझेदारी, सहमतियां और घोषणाएं निश्चित रूप से बदलते वैश्विक समीकरणों एवं नई विश्व व्यवस्था के परिचायक हैं । अमेरिका ने इसके पूर्व किसी भी देश के साथ इस तरह के खुले समझौते बिना अनुबंध और शर्तों के नहीं किए थे। जर्मनी और जापान के साथ उसके समझौते अनुबंध आधारित रहे हैं। निस्संदेह ,अमेरिका के अपना रणनीतिक हित हैं,भारत के साथ संबंधों को लेकर उसकी हिचक खत्म हो गई है। सामरिक सहयोग में दोनों देश लगातार नए आयाम स्थापित कर रहे हैं।  दोनों देश के सैन्य ठिकानों ,सुविधाओं तक पहुंच के साथ संवेदनशील सूचनाओं की साझेदारी अब ऐसे ठोस दौर में पहुंच गया है जहां से हम भावी वैश्विक तस्वीरों को आसानी से देख सकते हैं।  भारत ने अमेरिका के साथ सबसे ज्यादा साझा सैन्य अभ्यास किया है। भारत की भूमिका क्वाड को सामरिक तेवर देने में भी महत्वपूर्ण रहा है इसे बाइडन ने अपने आरंभिक संयुक्त वक्तव्य में स्वीकार भी किया। भारत विश्व की सबसे बड़ी जनसंख्या के साथ सबसे तेज गति से बढ़ती हुई आर्थिक शक्ति है। भारत की बढ़ती हुई आर्थिक एवं सैन्य ताकत ने इसे एशिया और विस्तारित एशिया प्रशांत क्षेत्र में शक्ति संतुलन की दृष्टि से महत्वपूर्ण बना दिया है। अमेरिकी रक्षा मंत्री ने कहा भी कि अमेरिका भारत साझेदारी ही हिंद प्रशांत क्षेत्र की शांति एवं सुरक्षा के मूल में है। यही क्षेत्र विश्व में राजनीतिक एवं आर्थिक केंद्र के रूप में उभर रहा है।

इसमें दो राय नहीं कि अमेरिका की चिंता चीन की बढ़ती आर्थिक एवं सामरिक ताकत है। चीन संपूर्ण विश्व में जिस तरह की आपूर्ति श्रृंखला स्थापित कर रहा है उसका मुकाबला भारत के बगैर आज के विश्व में संभव नहीं है। चीन भारत के लिए भी चिंता का कारण है। रूस और चीन की दोस्ती अमेरिका के लिए 21 वीं सदी की सबसे बड़ी चुनौती बनकर उभरी है। यूक्रेन युद्ध ने संपूर्ण विश्व के समक्ष नए प्रकार के खतरों और चुनौतियों को रेखांकित किया है। इनको ध्यान में रखें तो भारत अमेरिका के आर्थिक, सामरिक, सांस्कृतिक साझेदारी तथा पृथ्वी, आकाश, पाताल सहित जीवन के हर क्षेत्र में सहयोग पर सहमति का महत्व समझ में आ जाएगा।  व्हाइट हाउस में राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद में रणनीतिक संचार के समन्वयक जॉन किर्बी ने  इस यात्रा का लक्ष्य भारत को चीन के मुकाबले पेश करना नहीं बल्कि विश्व के दो बड़े लोकतांत्रिक देशों के बीच रक्षा सहयोग सहित अन्य संबंधों को प्रगाढ़ करना बताया। वास्तव में विश्व को लेकर भारत और अमेरिका का दृष्टिकोण पूरी तरह समान नहीं हो सकता किंतु अनेक बिंदुओं पर सहमति है और इस दृष्टि से दोनों के बीच साझेदारी वैश्विक व्यवस्था के पुनर्निर्माण की क्षमता रखता है।

अवधेश कुमार, ई-30, गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली -110092, मोबाइल- 98110 27208

मंगलवार, 27 जून 2023

सोमवार, 19 जून 2023

मंगलवार, 13 जून 2023

गुरुवार, 8 जून 2023

भागवत के भाषण पर विवाद का कारण नहीं


अवधेश कुमार 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ मोहन भागवत ने नागपुर में संघ के प्रशिक्षण शिविर के तृतीय वर्ष के समापन पर जो कुछ बोला उस पर देश में विवाद और बहस चल रहा है। हालांकि उनका भाषण काफी लंबा था जिसका मूल स्वर यही था कि हमारे बीच अलग-अलग प्रकार के भेद हो सकते हैं किंतु सबको राष्ट्र की एकता - अखंडता के साथ इसकी मजबूती के लिए एकजुट होकर काम करना चाहिए। इसी मूल स्वर को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने बहुत सारी बातें बोली। हमारे देश की राजनीति और गैर राजनीतिक एक्टिविज्म की बड़ी समस्या है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता कुछ भी बोलें उनमें से अपने अनुसार कुछ पंक्तियां निकाल कर बवंडर खड़ा करने की हमेशा कोशिश होती है। उन्होंने दुनिया में इस्लाम के विस्तार का इतिहास बताते हुए कहा कि स्पेन से मंगोलिया तक वे गए लेकिन वहां के लोग जागृत एवं संगठित हुए, संघर्ष किए तो वहां इस्लाम उस रुप में नहीं है। भारत ऐसा देश है जहां इस्लाम को अपने मजहब के अनुसार उपासना करने की पूरी स्वतंत्रता है। संभवतः वे यह समझाने की कोशिश कर रहे थे कि जो लोग भारत में इस्लाम खतरे में है कि भयानक तस्वीर पेश कर रहे हैं वे गलत हैं। इससे देश की एकता खंडित होती है। अपने देश का हित चाहने वाला कोई भी बड़ा व्यक्तित्व यही कहेगा कि मजहब आपका जो भी हो ऐसी भाषा मत बोलिए, ऐसी सोच मत फैलाइए जिससे देश के अंदर अविश्वास बढ़े और हमारा विकास बाधित हो।

देखें तो डॉक्टर भागवत ने केवल इतिहास का तथ्य रखा। सच यही है कि इस्लाम का विस्तार तेजी से यूरोप से लेकर एशिया, अफ्रीका आदि में हुआ। इस्लाम के विस्तारकों ने भीषण आक्रमणों की क्रूरता से यहूदी एवं ईसाई धर्म को पूरी तरह खत्म करने की कोशिश की। वे वीजीत होते, आगे बढ़ते गए। इसी के विरुद्ध विद्रोह हुआ और इतिहास में क्रूसेड यानी धर्मयुद्ध  की लंबी श्रृंखला है। लगभग सात धर्म युद्ध का इतिहास 11 वीं सदी के अंत से लेकर 13 वीं सदी के अंत  तक लगातार मिलता है। यूरोप के ईसाइयों ने 1098 और 1291 के बीच अपने रीलीजन की पवित्र भूमि फिलिस्तीन और उसकी राजधानी यरूशलम में स्थित ईसा की समाधि का गिरजाघर मुसलमानों से छीनने और अपने अधिकार में करने के प्रयास में युद्ध किए । यह धीरे-धीरे विस्तारित हुआ। वास्तव में धर्मयुद्ध इतिहास के पश्चिमी काल विभाजन के अनुसार मध्यकाल में  लैटिन चर्च द्वारा आरंभ, समर्थित और कभी-कभी निर्देशित धार्मिक युद्धों की लंबी श्रृंखला थी । 1095  में प्रथम धर्मयुद्ध आरंभ हुआ और 1099 में यरूशलम की विजय हुई। यह युद्ध किसी न किसी तरह 15वीं सदी तक चलते रहे। आप गहराई से देखेंगे तो ईसाइयत और इस्लाम का टकराव पूरी तरह कभी खत्म नहीं हुआ। 19वीं सदी के महाद्वीपीय युद्ध हो या फिर 20 वीं सदी का बाल्कन युद्ध जिसके परिणाम स्वरूप प्रथम युद्ध हुआ उसकी भी छानबीन करें तो मूल कारण आपको यही दिखाई देगा। तो यह सत्य है जो इतिहास का ज्ञान रखने वाले सभी को पता है।

इसका अर्थ यह हुआ कि जिस तरह इस्लाम ने ईसाइयत को खत्म करने और अपने ही मजहब को थोपने की कार्रवाई की उसकी प्रतिक्रिया में ईसाइयों ने वही किया। भारत का चरित्र इससे बिल्कुल अलग रहा। हमले का प्रतिकार एक बात थी, मजहब के रूप में इस्लाम को कभी कोई खतरा भारत में नहीं रहा। ऐसा लगता है डॉक्टर मोहन भागवत ने यही बात समझाने के लिए इसका उल्लेख किया।

 आज का भयावह सच यही है कि लंबे समय से संघ विरोधियों तथा राजनीति में भाजपा विरोधियों ने भारत सहित दुनिया भर में दुष्प्रचार किया है। मुसलमानों के अंदर भी ऐसे लोग हैं जिन्होंने यही प्रचारित किया है कि यह संगठन इस्लाम विरोधी है तथा इनकी शक्ति जैसे-जैसे बढ़ेगी ये इस्लाम को मजहब के रूप में खत्म करने की कोशिश करेंगे। अनेक कट्टरपंथी मजहबी इस्लामिक नेता लगातार बोल रहे हैं कि हमारी मस्जिदें छीन  जाएंगी, हमारा नमाज पढ़ना तक रुक जाएगा। ऐसे दुष्प्रचारों से आम मुसलमानों के अंदर गुस्सा बढ़ाया गया है और उन्हें लगता है कि अपने मजहब की रक्षा के लिए किसी सीमा तक जाना चाहिए। आपको हर दिन और किसी दिन न जाने कितनी बार यह सुनने को मिलता है कि भारत की धार्मिक विविधता खतरे में है, संविधान खतरे में है, हिंदुत्ववादी तत्वों ने सारी संस्थाओं को नियंत्रित कर लिया है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नष्ट कर दी गई है आदि-आदि। जिस देश में बड़े नामचीन और प्रभावी लोग इस तरह देश की दिन-रात  डरावनी तस्वीर पेश कर रहे हो वहां किस तरह की मानसिकता तैयार होती होगी इसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है । देश की सीमाओं से बाहर भी कुछ लोग इसी तरह की बातें बोल रहे हैं। इन दुष्प्रचारों को कमजोर करना हर भारतीय का दायित्व है।  मोहन भागवत इस समय विश्व के सबसे बड़े हिंदू संगठन तथा व्यापक संगठन समूह के प्रमुख हैं। इस नाते उनका दायित्व सबसे ज्यादा है। सबसे ज्यादा आरोप इस संगठन परिवार पर ही लगता है, इसलिए भी उन्हें समय-समय पर अलग-अलग तथ्यों और तर्कों से अपने स्वयंसेवकों, कार्यकर्ताओं, समर्थकों के साथ सभी भारतीयों एवं दुनिया भर में रहने वाले भारतवंशियों व भारत में रुचि रखने वालों को संदेश देना पड़ता है।

किसी भी संगठन और विचारधारा से असहमत होने में न समस्या है और नय बुराई। एक स्वस्थ लोकतांत्रिक समाज का यही स्वाभाविक लक्षण है। समस्या तब आती है जब आप दुराग्रह, हठधर्मिता अपनाते हैं और निहित अलग-अलग स्वार्थों के वशीभूत होकर अनर्गल बातें करते हैं। ऐसा नहीं होता तो डॉक्टर भागवत के भाषण का स्वागत होता। आप किसी भी विचारधारा के हों, अंतिम लक्ष्य सबका अपने देश की उन्नति तथा इसकी एकता अखंडता को बनाए रखना ही होगा। भारत का विश्व में सम्मान बढे, गौरव बढ़े,यह अपनी सांस्कृतिक- सभ्यतागत -अध्यात्मिक विरासत एवं हर प्रकार की उपलब्धियों के आधार पर विश्व को दिशा देने वाली भूमिका में आए ऐसा अपने देश से प्रेम करने वाला कौन भारतीय नहीं चाहेगा? किसी को इस महान सोच में भी फासिस्टवाद और सांप्रदायिकता दिखता है तो ऐसे लोगों के बारे में क्या कहा जा सकता है? डॉक्टर भागवत का पूरा भाषण सार्वजनिक है। स्वतंत्रता के अमृत काल में भारत की आंतरिक और बाहरी उपलब्धियों का उल्लेख करते हुए वे हर भारतीय का आत्मविश्वास बढ़ाते हैं, उसे देश के लिए विचारने और काम करने की प्रेरणा देते हुए  दिखते हैं। कोई नहीं कहता कि भारत की सारी समस्याएं दूर हो गई हैं या इस देश के आम व्यक्ति के जीवन में कठिनाइयां और समस्याएं नहीं है। किंतु समग्र रूप में देखें तो विश्व के अनेक देशों की तुलना में भारत की स्थिति संतोषजनक और बेहतर है। जो चुनौतियां हैं उनसे भी देश निपटने के लिए प्रयासरत है। इसी तरह विश्व पटल पर शक्तिशाली विरोधियों द्वारा बाधा डालने के बावजूद भारत का सम्मान एवं विश्वसनीयता लगातार ऊंचाइयां छू रही हैं। इससे हर भारतीय को अपने देश को लेकर गौरव बोध होना चाहिए। जो समस्याएं और चुनौतियां हैं उनसे निपटने के लिए राजनीतिक एवं वैचारिक मतभेद देशहित पर हाबी होने देने से बचाना अपरिहार्य है। डॉक्टर भागवत के पूरे भाषण की थीम यही है कि आपके मतभेद होंगे लेकिन देश के द हित का ध्यान रखेंगे तो यह अपने आप कम हो जाएंगे और इसकी कोशिश हर भारतीय को करते रहनी चाहिए। इसमें सबसे नकारात्मक भूमिका किसी व्यक्ति या समुदाय में प्रभावी संगठनों या सरकारों को लेकर भय के मनोविज्ञान का है। अगर किसी समाज के अंदर अपने देश की व्यवस्था, यहां के बड़े संगठनों , सरकारों या किसी समुदाय को लेकर भय और गुस्सा पैदा कर दिया गया तो उस समूह में राष्ट्रवाद का भाव हाशिए पर चला जाता है। देश के नेताओं, एक्टिविस्टो एवं मीडिया के कुछ पुरोधा बार-बार यही डर पैदा कर रहे हैं। ऐसे लोगों का केवल विरोध करना पर्याप्त नहीं है। इसके समानांतर व्यापक सकारात्मक परिदृश्य एवं उनको सहमत कराने योग्य तथ्यों एवं विचारों को लगातार अभिव्यक्त करते रहना आवश्यक है। डॉ भागवत के भाषण का सार यही है।


सोमवार, 5 जून 2023

गुरुवार, 1 जून 2023

नई संसद भवन के साथ इतिहास का निर्माण

अवधेश कुमार

नए संसद भवन के उद्घाटन के समय लगभग राजनीतिक परिदृश्य वही था जो हमने इसके शिलान्यास- भूमि पूजन और योजना के संदर्भ में देखी। विपक्षी दलों का बड़ा समूह इसका बहिष्कार कर रहा है।  नरेंद्र मोदी और भाजपा का हर हाल में विरोध करना ही है यह व्यवहार अनुचित है। क्या करीब 100 वर्ष पहले अंग्रेजों द्वारा अपने शासन की मानसिकता से बनाया गया संसद भवन और उसके आसपास की पूरी रचना अनंतकाल तक रहनी चाहिए थी? यह बताने के लिए कि हमने भारत में भी संसदीय प्रणाली अपना लिया है अंग्रेजों ने संसद भवन का निर्माण किया। आजादी के समय न हमारे पास इतना समय था और न संसाधन कि उसका परित्याग कर नए भवन में संविधान सभा चले या निर्वाचित सांसद संसदीय गतिविधियों में हिस्सा ले सकें।   कहा जा रहा है कि इसी भवन में हमारी आजादी की घोषणा हुई , संविधान सभा वहीं बैठी आदि आदि।  क्या इसके आधार पर उसी संसद भवन को बनाए रखा जाएगा?

इसमें लगातार फेरबदल और निर्माण होते भी रहे हैं।1956 में और मंजिलें जोड़ीं गईं थो 1975 में संसद एनेक्सी का निर्माण हुआ। 2002 में अपग्रेडेशन हुआ, पुस्तकालय भवन बना जिसमें कमिटी कक्ष के अलावा सम्मेलन कक्ष और एक सभागार तैयार करना पड़ा। यह भी कम पड़ा तो 2016 में संसद एनेक्सी का और विस्तार किया गया। संसद भवन परिसर की केवल मुख्य संरचना ही एक हद तक पुरानी है, शेष बहुत कुछ लगातार निर्मित हुआ है।

संसद भवन में अब वर्तमान एवं भविष्य के आवश्यकताओं को देखते हुए बहुत ज्यादा परिवर्तन की गुंजाइश नहीं रह गई थी। कई पीठासीन अधिकारियों ने सांसद भवन के अंदर की समस्याओं पर चिंता व्यक्त करते हुए इसके समाधान करने की बात की। 2012 में तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार ने संसद भवन को रोते हुए तक कह दिया। तब वर्तमान संसद भवन परिसर के विकल्प या नए संसद भवन के लिए एक अधिकार प्राप्त समिति के गठन को स्वीकृति मिली।  2015 में तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने  संसद भवन के निर्माण का प्रस्ताव दिया, जो  आधुनिक तकनीकों से लैस होने के साथ सांसदों की संख्या बढ़ने पर उन्हें समायोजित करने वाला हो।  सन् 2026 में परिसीमन के बाद सांसदों की संख्या बढ़ने की संभावना है। नये संसद भवन के बारे में जितनी जानकारी है उसके अनुसार अनेक सॉलियाथू और सुविधाओं से युक्त हर तरह की आवश्यकता को पूरी करने वाली है। न केवल सांसदों की बढ़ी हुई संख्या अगले 100 वर्षों तक इसमें समायोजित हो सकेंगी बल्कि आधुनिक तकनीकों में भी अद्यतन है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के इतने वर्षों बाद अंग्रेजों का भवन ही हमारे लोकतंत्र की शीर्ष इकाई का स्थान हो यह समझ नहीं आता। अंग्रेजों ने संसद से लेकर आसपास के इलाकों को, जिसे सेंट्रल विस्टा कहा जाता है ,अपने अनुसार विकसित किया। उनमें पिछले 75 वर्षों में हुए परिवर्तन भी नाकाफी हैं। आवश्यक हो गया था कि कोई सरकार साहस कर भविष्य की चुनौतियों और आवश्यकताओं का आकलन करते हुए पूरे क्षेत्र का पुनर्निर्माण करे। विरोधी पार्टियां भले राष्ट्रपति से उद्घाटन न कराए जाने को मुद्दा बनाएं, सच यही है कि वे पूरी परियोजना के विरुद्ध थे। न्यायालय से लेकर हर स्तर पर इसे बाधित करने की कोशिश हुई।  राष्ट्रपति उद्घाटन करें इसमें समस्या नहीं है पर प्रधानमंत्री करें इसमें भी समस्या नहीं होनी चाहिए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विरोध करना है तो अवश्य करिये, किंतु यह पूरे देश के लिए आत्मसंतोष का विषय होना चाहिए कि हम इस स्थिति में है कि विश्व के श्रेष्ठ संसद भवन निर्मित करा सकते हैं और उसके अनुरूप आसपास के सरकारी भवनों और स्थलों को भी उत्कृष्ट ढांचे में नए सिरे से खड़ा कर सकते हैं।

हालांकि विरोध करने वाली पार्टियों का 540 लोकसभा में 143 तथा 238 की राज्यसभा में 91 सदस्य हैं। इस तरह लोकसभा में 26.38% एवं राज्यसभा में 38.23% पार्टियां विरोध में है। जो पार्टियां  भाग ले रही हैं लोकसभा में उनकी सदस्य संख्या 338 यानी 60.82% और राज्यसभा में 102 यानी 42.86% है। सत्तापक्ष की ताकत हमेशा ज्यादा होती है क्योंकि उसे बहुमत प्राप्त होता है। इसलिए इस आधार पर मूल्यांकन करना उचित नहीं होगा कि कितनी संख्या साथ है कितनी दूर। मुख्य बात यह है कि क्या विरोध करने वाली पार्टियों का देश, लोकतंत्र और उससे संबंधित ढांचे आदि को लेकर कोई विशेष विजन यानी कल्पना है या नहीं? नरेंद्र मोदी से सहमत हों,  असहमत हों,  एक विजन के तहत उन्होंने समस्त परिवर्तन किए हैं। 1967 से इंडिया गेट के पास मूर्ति की खाली जगह पर सुभाषचंद्र बोस की मूर्ति लगी। जॉर्ज पंचम की मूर्ति हटाने के बाद किसी को शायद आज तक समझ नहीं आया कि वहां किसकी मूर्ति लगानी चाहिए। यह भी प्रश्न है कि 1947 के बाद 20 वर्षों तक वहां जॉर्ज पंचम की मूर्ति क्यों थी? उसके साथ वहां युद्ध स्मारक बनाया गया। इंडिया गेट तक का राजपथ कर्तव्य पथ बना। तो इन सबके पीछे निश्चित रूप से देश के संदर्भ में यह सोच है कि इन स्थानों से क्या संदेश जाए और लोगों के अंदर कैसी मानसिकता पैदा हो।

सुभाषचंद्र बोस स्वतंत्रता और राष्ट्र के लिए लोगों के अंदर दासतां से मुक्ति के लिए सैन्य- वीरत्व- आत्मोसर्ग भाव की प्रेरणा हैं। आधुनिक भारत में उनसे बड़ी प्रेरणा का स्रोत कोई नहीं हो सकता। इसके पहले प्रधानमंत्री मोदी ने 2018 में लालकिले से 22 अक्टूबर को तिरंगा फहराया जो, सुभाष बाबू द्वारा संपूर्ण स्वराज्य की घोषणा का 75वां वार्षिक दिवस था। भारत के पास कभी अपना युद्ध स्मारक नहीं रहा जबकि हमें अनेक युद्ध लड़े, जिनमें हमारे जवानों ने अद्भुत वीरता का प्रदर्शन किया और अनेक वीरगति को प्राप्त हुए। इन सबको मिलाकर संसद और आसपास की सेंट्रल विस्टा परियोजना को देखना होगा। जीवन में स्थलों और प्रतीकों का व्यापक महत्व होता है क्योंकि वहां से आपकी मानसिकता बनती है और संदेश निकलता है। अनेक स्थलों का मोदी काल में इसी तरह या तो पुनर्निर्माण हुआ है , जीर्णोद्धार हुआ है या उन स्थानों पर मूर्तियां लगी हैं।

 वीर सावरकर यानी विधायक दामोदर सावरकर के जन्मदिवस पर संसद भवन के उद्घाटन से भी निःसंदेह विपक्ष को समस्या हो सकती है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश ने अपने ट्वीट में इसे राष्ट्र निर्माताओं का अपमान तक बता दिया है। मोदी एकाएक वीर सावरकर तक नहीं पहुंचे हैं। वे महात्मा गांधी से आरंभ करते हुए सरदार बल्लभ भाई पटेल, बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ,लोकनायक जयप्रकाश नारायण, डॉ राम मनोहर लोहिया, बिरसा मुंडा, ज्योतिबा फूले, सुभाष चंद्र बोस जैसे महापुरुषों को महत्व देते यहां तक आए हैं । संत रामानुजम से लेकर आदि शंकराचार्य की मूर्तियों का भी उन्होंने अनावरण किया है। तो यह देश के तस्वीर की दृष्टि है जिसमें व्यापकता है। भारत यदि विश्व के प्रमुख देशों की कतार में खड़ा है तो उसके अनुसार उसके सरकारी भवनों में भी भव्यता होनी चाहिए। दिल्ली आने वाले या रहने वाले लोगों को संसद के आसपास पूरे सेंट्रल विस्टा में निर्मित या निर्माणाधीन स्थलों को देखकर भव्यता का अहसास होता है। आज भारत जैसे देश के लिए स्वयं को हर स्तर पर एक बड़े ब्रांड के रूप में पेश करने पर किया गया यह खर्च किसी दृष्टि से अनावश्यक नहीं कहा जाएगा। यह दृष्टि का ही अभाव था कि 14 अगस्त, 1947 को प्राप्त सेंगोल यानी राजदंड को पंडित नेहरू ने वह स्थान नहीं दिया जो उसे मिलना चाहिए था। इसे 1960 से पहले आनंद भवन और 1978 से इलाहाबाद संग्रहालय में रखा गया। जब भारत के सत्ता हस्तांतरण में तमिल विद्वान पंडितों के मंत्रों द्वारा सिद्ध किया गया राजदंड पंडित  जवाहरलाल नेहरू ने प्राप्त किया तो उसे संसद भवन के केंद्र में होना चाहिए था।  भारतीय संस्कृति में इनका केवल प्रतीकात्मक नहीं सूक्ष्म प्रभावकारी महत्त्व  है। देश में किसे याद था कि अंग्रेजों से सत्ता हस्तांतरण के समय भारतीय परंपरा के अनुसार राजदंड स्वयं नेहरु जी ने ग्रहण किया जिसे बाद में शायद विचारधारा के अनुकूल न मानते हुए दिल्ली से बाहर भेज दिया गया। क्या राजदंड आनंद भवन और संग्रहालय के लिए दिया गया था? मोदी सरकार राजदंड को लोकसभा स्पीकर की कुर्सी के बगल में स्थापित कर रही है।  संयोग देखिए कि 14 अगस्त , 1947-राजदंड प्रदानगी समारोह में शामिल पंडितों में से एक आज भी जीवित हैं और वह उन 20 पंडितों में शामिल होंगे जो राजदंड प्रधानमंत्री मोदी को सौंपेंगे। मोदी सरकार नहीं होती तो उस राजदंड को पुनर्स्थापित करने का कार्यक्रम तो छोड़िए कल्पना भी कोई नहीं करता।

स्पष्ट है कि विरोधी इस महत्वपूर्ण अवसर का महत्व नहीं समझ रहे। वे यह भी नहीं सोच रहे कि बरसों बाद जब संसद के उद्घाटन की तस्वीरें देखी जाएंगी या फिर कौन - कौन शामिल थे इसका उल्लेख होगा तो उनमें इस समय के बहिष्कार करने वाले विपक्षी नेता और सांसद नहीं दिखेंगे। इतिहास के अध्याय से स्वयं को वंचित रख ये नेता क्या पाना चाहते हैं? कार्यक्रम में शामिल होकर भी आगे अपना विरोध कायम रख सकते हैं।  इतिहास किसी की प्रतीक्षा नहीं करता। जो अध्याय लिखे जाने हैं वे लिखे जाते हैं और नया संसद भवन, सेंट्रल विस्टा और सिंगोल के साथ स्वतंत्र भारत में इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय लिखा गया है।

अवधेश कुमार, ई-30,गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली- 110092, मोबाइल- 98910 27208

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