गुरुवार, 12 दिसंबर 2013

देश की राजनीति के लिए क्या संकेत हैं

अवधेश कुमार

निश्चय ही लोकसभा चुनाव पूर्व के इन विधानसभा चुनावों के बाद हमारा ध्यान 2014 की ओर जा रहा है। सामान्यतः यह कहा जाता है कि राज्य विधानसभा चुनाव परिणामों को लोकसभा चुनाव के परिप्रेक्ष्य में नहीं देखा जाना चाहिए। चार राज्यों के चुनावों के संदर्भ में भी कुछ हलकों से यही तर्क दिया जा रहा है। किंतु इसे हम आंशिक सच के रुप में ही स्वीकार कर सकते हैं। यह चुनाव यकीनन प्रदेश का चुनाव था जिनके परिणामों के निर्धारण में स्थानीय समस्याएं, स्थानीय मुद्दे, स्थानीय नेतृत्व, स्थानीय राजनीतिक समीकरणों की मुख्य भूमिका रही है। किंतु इसे हम राष्ट्रीय राजनीतिक परिपे्रक्ष्य से अलग होकर नहीं देख सकते हैं। इन परिणामों का असर राष्ट्रीय राजनीति पर नहीं होगा और लोकसभा चुनाव इससे बिल्कुल अप्रभावित रहेगा ऐसा मानना बेमानी होगा। सामान्य तौर पर विचार करने से भी यह स्पष्ट हो जाएगा कि इसका यकीनन राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य है और भविष्य की राजनीति के लिए कुछ साफ संदेश भी। अगर इन परिप्रेक्ष्यों और संदेशों को हम ठीक प्रकार से पढ़े ंतो फिर कुछ निश्चित निष्कर्ष निकाल सकते हैं।

कांग्रेस या अन्य कुछ पार्टियां इसे जिस रुप में लें, पर भाजपा ने राज्यों के चुनावों को लोकसभा चुनाव के पूर्व सेमिफाइनल का नाम दिया था। इसमें कांगे्रस बुरी तरह पराजित हुई है तो उसके द्वारा लोकसभा चुनाव को फाइनल कहकर इससे जोड़ते हुए प्रचारित करना एकदम स्वाभाविक है। इन चार राज्यों के 72 लोकसभा स्थानों में कांग्रेस के पास 41 तथा भाजपा के पास 30 थे। दिल्ली को छोड़कर ऐतिहासिक रुप से तीन राज्यों में विधानसभा एवं लोकसभा चुनावों के प्रदर्शनों में समानता रही है। यानी जिस पार्टी को विधानसभा चुनाव मंे सफलता मिलती है उसी को लोकसभा में भी। इससे भाजपा अपना प्रदर्शन काफी बेहतर करने की उम्मीद कर सकती है। अगले लोकसभा चुनाव के लिए बढ़े हुए आत्मविश्वास का महत्व आसानी से समझा जा सकता है। मध्यप्रदेश में पिछली बार से ज्यादा सीटें, राजस्थान में रिकाॅर्ड विजय, दिल्ली में सबसे बड़ी पार्टी तथा छत्तीसगढ़ में भी संतोषजनक प्रदर्शन.......के बाद उसका आत्मविश्वास बढ़ना स्वाभााविक है। इसके समानांतर यह कांग्रेस के लिए हर पहलू से आत्मविश्वास गिराने वाला तथा भविष्य की चिंता में डुबोने वाला परिणाम है। नरेन्द्र मोदी के राष्ट्रीय राजनीतिक क्षितीज पर आविर्भाव तथा भाजपा के प्रधानमंत्री पद का उम्मीदार बनने के बाद राजनीतिक तापमान बढ़ा हुआ है। उनकी सभाओं से वैसे ही लोकसभा चुनाव जैसा वातावरण बन चुका है। इस कारण भी इन चुनावों पर राष्ट्रीय माहौल का असर था। मध्यप्रदेश में 73 प्रतिशत लोगांे ने एक सर्वेक्षण में स्वीकार किया कि उनके मतदान करने के निर्णय में नरेन्द्र मोदी भी कारक हैं। राजस्थान में इससे ज्यादा लोगों का जवाब ऐसा ही था। इसके आधार पर इन चुनावों पर राष्ट्रीय राजनीति के प्रभाव को स्वीकार करने में समस्या नहीं है।

कांग्रेस कह रही है कि यह चुनाव नरेन्द्र मोदी बनाम राहुल गांधी था ही नहीं। इसके विपरीत भाजपा ने इन चुनावों को नरेन्द्र मोदी बनाम राहुल गांधी में परिणत करके इसे राष्ट्रीय प्रकृति से आच्छादित करने की रणनीति अपनाई थी। मोदी ने दिल्ली एवं राजस्थान की अपनी रैलियों में स्थानीय सरकारों के साथ केन्द्र सरकार, राहुल गांधी, सोनिया गांधी को ज्यादा निशाना बनाया। उनने प्रदेश चुनावों को भी कांग्रेस से देश को मुक्त करने के अपने विचार से जोड़ा। वे कहते थे कि पहले प्रदेश से कांग्रेस को खत्म करेंगे उसके बाद देश से। कांग्रेस भी प्रदेश नेतृत्व के साथ मोदी पर हमला करती थी। हालांकि राहुल गांधी एवं सोनिया गांधी ने कभी मोदी का नाम नहीं लिया, लेकिन उनका इशारा साफ होता था। राहुल गांधी को जिस भाषण के लिए चुनाव आयोग का नोटिस मिला, उसमें उनने मुजफ्फरनगर दंगे के लिए बिना नाम लिए भाजपा को जिम्मेवार ठहराया था। इस प्रकार दोनों पक्षों ने इसे एक राष्ट्रीय चरित्र दिया था। कांग्रेस ने केन्द्र सरकार की खाद्य सुरक्षा कानून से लेकर अन्य कल्याणकारी योजनाओं को लगातार प्रचारित किया। प्रदेश के नेताओं ने भी हर स्तर पर नरेन्द्र मोदी को निशाना बनाया। सच यह है कि आज यदि भाजपा का प्रदर्शन खराब हुआ होता तो कांग्रेस सहित दूसरी पार्टियां भी इसे मोदी की अस्वीकृति कहकर उन पर हमला करते।

वस्तुतः इन परिणामों को कांग्रेस के विरुद्ध जनादेश स्वीकार करने में किसी को समस्या नहीं होगी। स्वयं कांग्रेस को भी नहीं। इसमें भ्रष्टाचार, महंगाई, असुरक्षा केन्द्र सरकार से जुड़े मुदृदे थे। साफ है कि इससे जनता में व्याप्त व्यापक असंतोष ही इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन से बाहर आया है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की आशातीत सफलता के पीछे यदि जन लोकपाल को लेकर केन्द्र सरकार के विरुद्ध अन्ना के अनशन अभियानों से जोड़कर देखें तो यह केवल मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की नीतियों की नहीं केन्द्र एवं राज्य दोनों की सम्मिलित नीतियों के विरुद्ध परिणाम है। साफ है कि अगर कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ में वहां की भाजपा सरकारों के संदर्भ में सत्ता विरोधी रुझान को कमजोर करने में कामयाब न हुए और केन्द्र के विरुद्ध असंतोष हाबी रहा तो फिर लोकसभा चुनाव में वे इससे परे परिणाम लाने में कामयाब होंगे इसकी उम्मीद कठिन है। यह राहुल बनाम मोदी की प्रतिस्पर्धा में कांग्रेस के विरुद्ध जाने वाली राजनीतिक परिणति है। मोदी छत्तीसगढ़ एवं दिल्ली में भाजपा को श्रेष्ठतम सफलता दिलाने में सफल नहीं हुए, लेकिन कांग्रेस की राजधानी दिल्ली और राजस्थान में जैसी दुर्गति हुई उसे कांग्रेसजन याद भी नहीं करना चाहेंगे। इससे बचे-खुचे संप्रग के अंदर निराशा बढ़ रही है। राकांपा द्वारा कांग्रेस को आत्ममंथन करने की नसीहत को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है।

तो इन चुनाव परिणामों के कुछ संदेश और संकेत साफ हैं। सबसे पहले कांग्रेस के लिए। एक, मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार की नीतियों के विरुद्ध जनता में गुस्सा कायम है और भाजपा व मोदी तथा दूसरे दल भी उसे और बढ़ाने में सफल हो रहे हैं। दूसरा, पूरा कांग्रेस नेतृत्व इस गुस्से के शमन का सूत्र तलाशने में विफल है। राहुल गांधी एवं सोनिया गांधी का करिश्मा गुस्से की अग्नि के सामने कमजोर पड़ रही है। तीसरा, इससे कांग्रेस के अंदर निराशा बढ़ेगी। इसका चैथा संकेत यह है कि राहुल एवं सोनिया की महिमा कमजोर होने के कारण आगामी चुनाव में उसे सहयोगी मिलना कठिन हो जाएगा। कोई भी बगैर मजबूरी ऐसी पार्टी के साथ चुनाव लड़ना नहीं चाहेगा जिसके विरुद्ध जनता में गुस्सा हो। यानी कांग्रेस पर अपने साथियों का दबाव बढ़ेगा। इसके समानांतर भाजपा के लिए पहला संदेश यह है कि नरेन्द्र मोदी का प्रभाव मतदाताओं पर है। इन चुनावों ने साबित कर दिया कि उनमें गुजरात से बाहर वोट पाने की क्षमता है। प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार होने के बाद उनके लिए यह पहला परीक्षण था। इसमें वे डिस्टिंग्शन यानी विशिष्टता से भले उत्तीर्ण नहीं हुए, लेकिन अच्छे अंक अवश्य पाए हैं। दूसरा, यह बढ़ा हुआ आत्मबल भाजपा और मोदी को कांग्रेस, केन्द्र सरकार, राहुल गांधी, सोनिया गांधी के खिलाफ और आक्रामक बनने को प्रेरित करेगा। इससे उनके समर्थकों का उत्साह बढ़ सकता है। तीसरा, मोदी द्वारा व्यंग्यात्मक लहजे में राहुल गांधी को शहजादा एवं सोनिया गांधी को मैडम कहने की हम आप जितनी आलोचना करें लेकिन इन चुनावों के दौरान उनकी सभाओं में इसका असर देखा गया है। यह राजनीति के लिए उचित भाषा है या अनुचित इस पर सहमति असहमति हो सकती है, पर जब वे शहजादा बोलते थे तो लोगों की तालियां ज्यादा बजतीं थीं। इसलिए आगे इसके कम होने के संकेत नहीं हैं। इस प्रकार रजनीति का तापमान और बढ़ेगा।
इस प्रकार इसका राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य और संकेत बिल्कुल स्पष्ट है। इसके अनुसार कुल मिलाकर यह स्वीकार करने में समस्या नहीं है कि कांग्रेस अपना चेहरा, चिंतन, चित्त, चरित्र और आचरण में बदलाव लाने के लिए व्यापक पैमाने पर कदम नहीं उठाती तो केन्द्र से उसकी सत्ता का जाना निश्चित है। दूसरी ओर भाजपा को भी अपनी राष्ट्रीय राजनीति की दृष्टि से यह विचार करना होगा कि दिल्ली में वह कांग्रेस विरोधी माहौल का पूरा लाभ उठाने में सफल क्यों नहीं हुई? क्यों नवजात आम आदमी पार्टी इसका लाभ उठाने में कामयाब हो गई? इस प्रश्न का अगर वह ईमानदारी से उत्तर तलाशेगी तो फिर यह समझ आएगा कि उसे भी जनता का सकारात्मक विकल्प बनने के लिए काफी कुछ करने की आवश्यकता है। मोदी का असर वोट में योगदान तो कर सकता है, लेकिन आधार तो उसकी रीति-नीति ही होगी।
अवधेश कुमार, ई.ः30, ्रगणेश नगर, पांडव नगर काॅम्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208      

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