शनिवार, 27 जुलाई 2024

कांवड़ यात्रा के मार्ग में दुकानदारो का धर्म और जाति जानने का विवाद

बंसत कुमार

हिंदू कैलेंडर का सावन मास शुरू होने के साथ ही देशी के कोने-कोने से शिव की नगरी जाने वाले हरिद्वार से जलाभिषेक के लिए जल लेने हेतु कांवड़ियो का जत्था आ रहा है और पूर्व वर्षों की भाँति शिव भक्त कांवड़ियो के विश्राम हेतु अनेक सामाजिक संगठनों द्वारा  रास्ते में विश्राम स्थल बनाये जाते है और  कांवड़ियो के खान पान की व्यवस्था की जाती हैं और यहाँ तक कि थके हुए कांवड़ियो के पैरो की श्रद्धालुओ द्वारा मालिश की जाती है, परंतु इस बार उप्र सरकार द्वारा एक विचित्र आदेश आया है कि कांवड़ियो के मार्ग में पड़ने वाले ढाबों, होटलों और रेहड़ी पटरी वालों को अपने मालिक का नाम लिखना होगा जिससे उनकी जाति और धर्म का पता चल सकेगा। यहां तक की प्रशासन के अधिकारी इन होटलो में काम करने वाले मुस्लिम कर्मचारियों को कांवड़ यात्रा के समय हटा देयद्यपि सरकार के इस आदेश पर सर्वोच्च् न्यायालय ने अंतरिम रोक लगा दी है पर दूसरी ओर हरियाणा के हिसार से खबर आ रही है कि अनुसूचित जाति के कांवड़ियो को मन्दिर में जलाभिषेक नही करने दिया जा रहा है तो क्या हजारो वर्षो से चली आ रही कांवड़ यात्रा के अवसर पर हिंदुत्व को धर्म और जाति के आधार पर वांटा जायेगा। 

 हम सभी जानते है कि इन होटलो का मालिक यदि छोटी जाति का हुआ और उसके द्वारा लगाई गई नेम प्लेट से यह यह जाहिर हो गया तो कांवड़िये उसके यहा भोजन करना तो दूर उसे दो चार गालिया और देंगे, ऐसा तो सर्वविदित है कि अग्रवाल स्वीट या शर्मा भोजनालय पर जलपान करने और भोजन करने सभी आते है जबकि किसी बाल्मीकि मिष्ठान भंडार पर कोई नही जायेगा क्योकि बाल्मीकि उस दुकान के मालिक की जाति का द्योतक है जबकि बाल्मीकि रामायण के रचयिता के नाम का भी द्योतक है इस जातिवादी समाज में बाल्मीकि का अर्थ महर्षि वाल्मीकि से नही अपितु बाल्मीकि ( भंगी) जाति से लिया जाता है।  कांवड यात्रा हजारों वर्ष से चली आ रही हैं और कभी भी कांवड़ियो की जाति और कांवड़ के राश्ते में आने वाली दुकानों ले मालिको की जाति या धर्म नही पूंछे जाते थे पर पिछले कुछ वर्षो से यह सब किया जाने लगा है और ऐसा लगता है कि धार्मिक शुद्धता की आड में ऐसा माना जा रहा है कि दलित और अल्प संख्यक इस देश के नागरिक नही है।

अभी दो दिन पूर्ण कई जगहो से दलितो की शिव मन्दिर में जलाविशेख करने से रोक दिया गया है, यह वही बनारस है जहा आज से 47 वर्ष पूर्व देश के तत्कालीन  उपप्रधानमंत्री बाबू जगजीवन राम द्वारा एक मूर्ति के उद्घाटन के पश्चात् उनके जाने के बाद उस मूर्ति के शुद्धिकरण हेतु उसे गंगा जल से धोया था। आज भी मणिकर्णिका घाट पर हिंदू शवो का दाहसंस्कार करने वाले डोम को वहा के शिव मन्दिर में प्रवेश करने की अनुमति नही है, वे अपनी पूजा मन्दिर के बाहर से ही चढ़ाते है, तो क्या हम सनातन संस्कृति के नाम पर दुकानों पर नाम और पहचान के बहाने उस युग की ओर वापस ले जाना चाहते है जब दलितो को उनकी पहचान के लिए उनके कमर में झाड़ू बांध दिया जाता था और देश के कुछ हिस्सों में अछूत महिलाओ को अपना स्थान ढकने की मनही थी। ये आधुनिक बनारसी पंडे यह नही जानते कि इसी बनारस की धरती पर कबीर, रविदास, बिस्मिल्ला खान ने जन्म लिया और पुरे विश्व में शिव की नगरी काशी की महत्ता को विस्तारित किया पर आज महादेव की नगरी हिंदू मुसलमान, सवर्ण दलित में उलझी हुई है।

अभी दो दिन पूर्ण कई जगहो से दलितो की शिव मन्दिर में जलाविशेख करने से रोक दिया गया है, यह वही बनारस है जहा आज से 47 वर्ष पूर्व देश के तत्कालीन  उपप्रधानमंत्री बाबू जगजीवन राम द्वारा एक मूर्ति के उद्घाटन के पश्चात् उनके जाने के बाद उस मूर्ति के शुद्धिकरण हेतु उसे गंगा जल से धोया था। आज भी मणिकर्णिका घाट पर हिंदू शवो का दाहसंस्कार करने वाले डोम को वहा के शिव मन्दिर में प्रवेश करने की अनुमति नही है, वे अपनी पूजा मन्दिर के बाहर से ही चढ़ाते है, तो क्या हम सनातन संस्कृति के नाम पर दुकानों पर नाम और पहचान के बहाने उस युग की ओर वापस ले जाना चाहते है जब दलितो को उनकी पहचान के लिए उनके कमर में झाड़ू बांध दिया जाता था और देश के कुछ हिस्सों में अछूत महिलाओ को अपना स्थान ढकने की मनही थी। ये आधुनिक बनारसी पंडे यह नही जानते कि इसी बनारस की धरती पर कबीर, रविदास, बिस्मिल्ला खान ने जन्म लिया और पूरे विश्व में शिव की नगरी काशी की महत्ता को विस्तारित किया पर आज महादेव की नगरी हिंदू मुसलमान, सवर्ण दलित में उलझी हुई है।

क्या त्रिलोक नाथ यानी भगवान् शिव क्या सिर्फ कुछ करोड़ सवर्ण हिंदुओ के ईष्ट देव है। गुलाम वंश और मुगल काल में कुछ रूढ़िवादी हिंदुओ और मुसलमानो के अत्याचारो से तंग होकर कुछ हिंदुओ ने इस्लाम ग्रहण कर लिया तो क्या हजारों वर्षो से उनके ईष्ट देव रहे शिव से नाता टूट गया। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दादरी क्षेत्र के पास कुछ मुस्लिम परिवार ऐसे है जो इस्लाम अपनाने से पूर्व क्षत्रिय थे और वे आज भी अपने घर के शुभ काम प्रारंभ करने से पूर्व पृथ्वीराज चौहान की मूर्ति की पूजा करते है। ये रूढ़ि वादी हिंदू जो आजकल पवित्रता का ढोंग करते समय म भूल जाते है कि बगैर मुसलमान पिट्टूओ के उनकी वैष्णो देवी और अमरनाथ यात्रा कभी पूरी ही नही हो सकती, फिर कांवड़ यात्रा हिंदू मुसलमान क्यो किया जाता है। अधिकांश उत्तर प्रदेश निवासियों को पता है कि लखनऊ के टुंडे कबाबी रेस्टोरेंट में बकरा, बीफ, मुर्गा समेत सभी माँस परोसे जाते हैं और इनका मालिक भी मुसलमान है पर वंहा जाने वाले ग्राहकों में 70% हिंदू होते है, देश में बीफ एक्सपोर्ट करने वाली कई कंपनियों के मालिक हिंदू है और कई तो भाजपा के सदस्य है। जब अस्पतालो के ब्लड बैंक से मिलने वाले खून पर हिंदू मुस्लिम सिक्ख ईसाई नही लिखा होता तो ये बवाल क्यो

 आज हम 21वीं सदी के आधुनिक युग में जी रहे है और दुनिया चाँद पर जा रही हैं और हम हिंदू-मुस्लिम खेल रहे है और इस तरह कावंड़ के दौरान खाने-पीने के ढाबे, होटलों आदि के मालिकों के परिचय लिखवाना और होटलों से मुसलमान कारीगरों को छुट्टी पर भिजवाना अनैतिक ही नहीं अपराध है, सरकार को इन धार्मिक अनुष्ठानों में उलझने और पैसा एवं समय बर्बाद करने के बजाय युवाओं की बेरोजगारी, महंगाई और चिकित्सा पर ध्यान देना चाहिए। आज के इस वातावरण में देश को मुख्तार अब्बास नकवी जैसे नेताओं से सबक लेना चाहिए जिनके घर ईद और होली बराबर उत्साह से मनाई जाती हैं।

लेखक बसंत कुमार-  राष्ट्रवादी चिंतक व लेखक है और भारत सरकार के पूर्व उप सचिव है।

 

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