शनिवार, 25 जनवरी 2014

उच्चतम न्यायालय का ऐतिहासिक फैसला

अवधेश कुमार

निस्संदेह, उच्चतम न्यायालय के इस फैसले पर कोई स्पष्ट राय व्यक्त करना कठिन है। दुर्दांत अपराधियों के साथ दया दिखाई जाए इसकी मानसिकता अभी भारत सहित दुनिया में नहीं है। उच्च्तम न्यायालय के फैसले से जिन 15 लोगों की फांसी आजीवन कारावास में बदली है वे सब दुर्दांत अपराध करने वाले हैं। हालांकि उनकी पूरी जिन्दगी जेल में ही कटेगी, किंतु वर्षों तक मौत के भय में जीने से यह बेहतर है। इस फैसले में किन लोगों को राहत मिली यह महत्वपूर्ण है, पर इससे भी महत्वपूर्ण है न्यायालय द्वारा दिए गए आधार और निर्धारित मापदंड। मसलन, न्यायालय ने कहा कि दया याचिका पर फैसले में देरी मत्युदंड को उम्रकैद में तब्दील करने का पर्याप्त आधार है। इसका अर्थ यह है कि एक बार मृत्युदंड की उच्चतम न्यायालय ने अंतिम पुष्टि कर दी यानी पुनर्विचार याचिका खारिज कर दी तो प्रक्रिया इस तरह होनी चाहिए कि दया याचिका पर फैसला जल्दी हो और उसे तुरत अमल में ला दी जाए। न्यायालय के अनुसार दया याचिका खारिज होने के 14 दिनों के भीतर दोषी को फांसी की सजा हो जानी चाहिए। यानी अगर उनकी दया याचिका का निपटारा समय पर हो जाती तो ये अपराधी आज दया के पात्र नहीं बनते। हालांकि 12 अप्रैल 2013 को खालिस्तान लिबरेशन फ्रंट के आतंकी देवेंद्र पाल सिंह भुल्लर की उस याचिका को उच्चतम न्यायालय ने खारिज कर दिया था, जिसमें उसने दया याचिका के निपटारे में हुई देरी के आधार पर फांसी की सजा को उम्रकैद में बदले जाने की गुहार लगाई थी। न्यायालय ने कहा था कि ऐसा मामला जो आतंकवाद से जुड़ा हो और जिसमें बड़ी संख्या में लोगों की हत्या हुई हो देरी के आधार पर फांसी की सजा उम्रकैद में तब्दील नहीं की जा सकती। उसके बाद यह निष्कर्ष निकाला गया था कि अन्य याचिकाएं भी इसी तरह खारिज हो जाएंगी। जाहिर है, न्यायालय ने इसके उलट व्यवस्था दी है तो इसके अर्थ यकीनन गंभीर हैं। 

उच्चतम न्यायालय के इस फैसले की कई तरीके से व्याख्या की जा सकती है। सबसे पहले तो यही कि न्याय में विलंब अगर अन्याय का सूचक है तो न्याय होने के बाद उसका अमल न किया जाना भी। अगर सजा मिलने और दया याचिका खारिज किए जाने के जाने के लंबे समय तक फांसी नहीं दी जाती या दया याचिका लंबे समय तक लंबित रहती है तो न्याय का जो सिद्धांत है वही पराजित हो जाता है। इसके पूर्व भी उच्चतम न्यायालय ने मृत्युदंड पाए अपराधी को फांसी पर न चढ़ाए जाने की एक याचिका पर सुनवाई के दौरान केन्द्र एवं राज्य सरकारों के खिलाफ 20 सितंबर 2009 को काफी तल्ख टिप्पणी की थी। न्यायालय ने कहा था कि अगर मृत्युदंड पाए व्यक्ति की दया याचिका का शीघ्र निपटारा नहीं किया जाता तो उसके एवं उसके रिश्तेदारों को यह अधिकार मिल जाता है कि वे मृत्युदंड को आजीवन कारावास में परिणत करने की मांग करेे।’.....‘हम इस बात को जोर देकर कहना चाहते हैं कि मनुष्य संपत्ति या दास नहीं है और कुछ विस्तृत राजनीतिक एवं सरकारी नीतियों को पूरा करने के लिए उनका कठपुतली की तरह इस्तेमाल नहीं होना चाहिए।’ कहा जा सकता है कि करीब साढे तीन वर्ष पूर्व न्यायालय ने जो टिप्पणी की थी अब उसे अपने फैसले द्वारा पूरा कर दिया है।  

इसे पूरी तरह समझने के लिए फैसले की पृष्ठभूमि पर संक्षिप्त नजर डालना आवश्यक है। उच्चतम न्यायालय के सामने 15 ऐसी याचिकाएं आ गईं थीं जिनमें दया याचिका के निपटारे में देरी का हवाला दिया गया था। दो मामले उच्च न्यायालय में लंबित थे। पिछले वर्ष 18 फरवरी को उच्चतम न्यायालय ने सारे मामले को एक तीन सदस्यीय वृहत्तर पीठ के हवाले किया जिसकी अध्यक्षता मुख्य न्यायाधीश पी. सदाशीवम ने किया है। सबकी अपील यही थी कि उनकी दया याचिका के निपटारे मंे देरी हुई है, इसलिए उनकी फांसी की सजा उम्रकैद में बदल दी जाए। दुर्दान्त अपराधी चंदन तस्कर वीरप्पन के उन साथियों गनन प्रकाश, साइमन,, मिसेकर और बिलावेंदन की फांसी पर रोक लगाई गई थी जिनने न जाने कितनों की निर्दयता से हत्या की होगी। इन चारों को उच्चतम न्यायालय ने 2004 में फांसी की सजा सुनाई थी। न्यायालय ने इसके बाद 6 अप्रैल को 8 अन्य अपराधियों सुरेश, रामजी, गुरुमीत सिंह, प्रवीण कुमार, सुंदर सिंह, जाफर अली, सोनिया और उसके पति संजीव की फांसी पर रोक लगा दी थी। हरियाणा की सोनिया और उसके पति संजीव ने 2001 में अपने परिवार के  संपत्ति के लिए 8 रिश्तेदारों की नृशंस हत्या कर दी थी। उच्चतम न्यायालय ने 15 फरवरी 2007 को दोनों को फांसी की सजा सुनाई थी। बाद में दोनों ने पुनर्विचार यायिका दाखिल की, जिसे न्यायालय ने 23 अगस्त 2007 को खारिज कर दिया। इसके बाद इन दोनों ने दया याचिका दायर की, जिसे राष्ट्रपति ने खारिज कर दिया। आज तक इनकी सजा पर अमल नहीं हुआ। धर्मपाल को बलात्कार और हत्या मामले में मई 1997 में फांसी की सजा सुनाई थी। दया याचिका खारिज होने के बाद इन्होंने पंजाब हरियाणा उच्च न्यायालय में अर्जी दाखिल की। एक अन्य अपराधी  एस. एन. नाटिकर ने दया याचिका खारिज होने के बाद कर्नाटक उच्च न्यायालय में अपील किया था। इसका कहना था कि उसकी दया याचिका 7 साल से लंबित है। उच्चतम न्यायालयने 2005 में इसकी फांसी की सजा को बरकरार रखा था, जिसके बाद इसने दया याचिका दायर की थी।

सरसरी तौर पर नजर दौड़ाएं तो पाएंगे कि सबकी दया याचिका में अत्यंत ही देरी हुई और कई बार सरकार ने जानबूझकर अनाप-सनाप निर्णय किए। एक उदाहरण देखिए। 1 मई 2013 को उच्चतम न्यायालय ने हत्या के अपराधी एम. एन. दास की फांसी की सजा को उम्रकैद में बदल दिया। वह ऐसा अपराधी हे जो पैरोल परबाहर आया और एक व्यकित का सिर काटकर थाने चला गया। उसकी दया याचिका पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने खारिज कर दिया था। उसने उच्चतम न्यायालय में अर्जी दी कि उसकी दया याचिका निपटाने में 11 साल लगे, 14 साल से वह जेल में है, इसलिए उसकी फांसी की सजा रोकी जाए। सत्र न्यायालय ने दास को 1997 में फांसी की सजा सुनाई थी। उच्चतम न्यायालय ने भी 1999 में दास की सजा को बरकरार रखा था। सितंबर, 2004 में गृहमंत्रालय ने मत दिया कि दया याचिका खारिज होनी चाहिए। 30 सितंबर, 2005 को राष्ट्रपति कलाम ने कहा कि दया याचिका स्वीकार की जा सकती है। लेकिन 5 वर्ष बाद 18 अक्टूबर, 2010 को गृह मंत्रालय की ओर से जो अनुशंसा भेजी गई, उसमें पूर्व राष्ट्रपति कलाम की नोटिंग का जिक्र नहीं किया। राजीव गांधी के हत्यारे पेरारिवालन, संथान और मुरुगन का मामला लीजिए। निचली अदालत ने 8 नवंबर 1997 में फांसी की सजा सुनाई थी। उच्चतम न्यायालयने 11 मई 1999 को फांसी की सजा बरकार रखी। इसके बाद राष्ट्रपति के सामने दया याचिका दायर की गई, जिसे राष्ट्रपति ने करीब 12 वर्ष बाद 2011 में खारिज किया। इसका क्या अर्थ है? अंततः इन दोषियों को 9 सितंबर 2012 को फांसी पर लटकाया जाना तय किया गया लेकिन इसी बीच इन्होंने दया याचिका में देरी के आधार पर मद्रास उच्च न्यायालय में फांसी रोकने की गुहार लगाई जिसे न्यायालय ने स्वीकार कर लिया।

इस तरह सारे मामलों पर विचार करें तो फैसला का कारण केवल दया याचिका के निपटारे एवं अमल में हुआ विलंब है। कह सकते हैं कि न्यायालय ने इन प्रमाणित अपराधियों को सरकारी दुर्बलता का लाभ दे दिया है। जाहिर है, इससे फांसी की सजा के बाद दया याचिकाओं के निपटारे और उसके क्रियान्वयन को नए सिरे से पटरी पर लाने की अनिवार्यता भी महसूस होती है। उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि राष्ट्रपति और राज्यपाल को संविधान में प्राप्त माफी देने का अधिकार संवैधानिक दायित्व है। वे दया यायिका कितने दिनों में निपटाएं इसकी समय सीमा निर्धारित नहीं की जा सकती, पर अगर कोई दया याचिका डालता है तो प्राधिकरण का दायित्व है कि हर स्तर पर तेजी से काम किया जाए। न्यायालय ने फांसी को उम्रकैद में बदलने के लिए कई आधार दिए है- जैसे देरी, पागलपन, फैसले का आधार गलत साबित हो जाए, प्रक्रियागत खामियां...आदि। लेकिन उसने साफ कर दिया है कि अगर अनुचित और अतार्किक विलंब होता है तो फांसी को उम्रकैद में बदला जा सकता है। इन याचिकाओं को स्वीकार करने के लिए उसने अपने अंतिम तर्क को ही आधार बनाया है। हालांकि पागलपन का प्रमाण पत्र फर्जी भी हो सकता है। किंतु राष्ट्रपति के यहां दया यायिकाएं इतने लंबे समय तक लंबित क्यों रहनी चाहिए? यहीं पर सरकार की भूमिका सामने आती है। राष्ट्रपति और राज्यपाल अंततः सरकार के सुझाव पर ही अमल करते है। याचिका गृहमंत्रालय जाता है जो कानून मंत्रालय को स्थानांतरित करता है वह संबंधित राज्य से जानकारी लेकर अपनी राय देता है और उसके आधार पर गृहमंत्रालय अनुशंसाएं करता है। यायिकाओं पर विचार सरकार की प्राथमिकता कभी नहीं रही। इस फैसले में उसे परोक्ष तौर पर यही कहा गया है कि आप इसे भी प्राथमिकता में लें। उम्मीद करनी चाहिए कि केन्द्र एवं राज्य सरकारें तथा जेल प्रशासन उच्चतम न्यायालय के इस फैसले को उसकी भावनाओं के अनुरुप स्वीकार करते हुए अपनी सोच और कार्यप्रणाली में बदलाव लाएगा जिससे न्यायालय की सजा उसके सिद्धांत के अनुरुप अमल में आएगा।  

अवधेश कुमार, ई-30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाष-1122483408, 09811027208

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