गुरुवार, 6 फ़रवरी 2020

समझौते से असम में शांति की उम्मीद

अवधेश कुमार

यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि पूर्वाेत्तर के राज्यों से उग्रवाद खत्म करने के लक्ष्य की दृष्टि से केन्द्र सरकार, असम सरकार और बोडो उग्रवादियों के प्रतिनिधियों के बीच संपन्न असम समझौता काफी महत्वपूर्ण है। हालांकि इस समझौते के विरोध में बंद का भी आह्वान किया गया लेकिन इससे ज्यादा अंतर आएगा यह लगता नहीं। बोडो समूहों के साथ इस समझौते के विरोध में बंद का आह्वान गैर बोडों समूहों ने किया था। वास्तव में अगर यह समझौता अपने शब्दों और भावनाओं के साथ क्रियान्वित हुआ तो 50 साल से ज्यादा समय चला आ रहा बोडोलैंड विवाद समाप्त हो सकता है, जिसमें अब तक सरकारी रिकॉर्ड के अनुसार 2823 लोग अपनी जान गंवा चुके हैं। समझौते के बारे में जितनी जानकारी सामने आई है उसके अनुसार बोडो आदिवासियों को कुछ राजनीतिक अधिकार और समुदाय के लिए आर्थिक पैकेज दिया जाए। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि समझौते में असम की क्षेत्रीय अखंडता बरकरार रखने तथा बोडो समूहो ने अलग राज्य या केंद्र शासित प्रदेश की प्रमुख मांग का परित्याग कर दिया है। यानी राज्य के विभाजन की मांग समाप्त हो गई है। वैसे पिछले 27 साल में यह तीसरा असम समझौता है और पूर्व के समझौतों के बावजूद शांति स्थापित नहीं हो सकी। इसलिए जो लोग कुछ संदेह व्यक्त कर रहे हैं उन्हें आप एकबारगी खारिज भी नहीं ंकर सकते। लेकिन यह पहली बार है जब किसी सरकार ने सभी समूहों से एक साथ समझौता किया है। नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड (एनडीएफबी) एक दुर्दांत उग्रवादी समूह माना जाता है। इसके सभी चार धड़ों के नेतृत्वों एबीएसयू प्रमुख प्रमोद बोरो, बीटीसी प्रमुख हागरामा मोहीलरी, सोनोवाल और शर्मा ने हस्ताक्षर किए। लंबे समय से बोडो राज्य की मांग करते हुए आंदोलन चलाने वाले ऑल बोडो स्टूडेंट्स यूनियन (एबीएसयू) ने भी इस समझौते पर हस्ताक्षर किए।

इस नाते यह एक समग्र और समेकित समझौता है। वास्तव मंें इस दिशा में केन्द्र सरकार काफी समय से सक्रिय थी। गृहमंत्री अमित शाह भी सभी संगठनों के साथ बातचीत कर रहे थे। पूर्ण सहमति बनने के बाद गृह मंत्री की उपस्थिति में समझौता हुआ। समझौते के बाद नैशनल डेमोक्रैटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड के 1550 कैडरों ने हथियार सौंप कर आत्मसमर्पण कर दिया है। शाह ने आश्वासन दिया कि केंद्र सरकार बोडो लोगों से किए गए अपने सभी वायदों को समयबद्ध तरीके से पूरा करेगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट कर कहा कि बोडो समझौते के बाद अब शांति, सद्भाव और एकजुटता का नया सवेरा आएगा। समझौते से बोडो लोगों के लिए परिवर्तनकारी परिणाम सामने आएंगे। यह प्रमुख संबंधित पक्षों को एक प्रारूप के अंतर्गत साथ लेकर आया है। यह समझौता बोडो लोगों की अनोखी संस्कृति की रक्षा करेगा और उसे लोकप्रिय बनाएगा तथा उन्हें विकासोन्मुखी पहल तक पहुंच मिलेगी। तो यह सरकार का वायदा है। 

इस समझौते का महत्व समझने के लिए बोडो आंदोलन पर संक्षिप्त नजर डालना जरुरी है। सबसे पहले तो यह समझने की जरुरत है कि बोडो असम का सबसे बड़ा आदिवासी समुदाय है। राज्य की कुल जनसंख्या में इनका अंश करीब 12 प्रतिशत है। इतिहास में झांके तो लंबे समय तक असम के बड़े हिस्से पर बोडो आदिवासियों का नियंत्रण रहा है। असम के चार जिलों कोकराझार, बाक्सा, उदालगुरी और चिरांग को मिलाकर बोडो टेरिटोरिअल एरिया डिस्ट्रिक का गठन किया गया था। बोडो लोगों ने वर्ष 1966-67 में राजनीतिक समूह प्लेन्स ट्राइबल काउंसिल ऑफ असम के बैनर तले अलग राज्य बोडोलैंड बनाए जाने की मांग की। यह आंदोलन हिंसक हो गया और फिर इसका नेतृत्व एनडीएफबी के हाथों आ गया। उसके बाद असम धू-धू कर जलने लगा। हिंसा, आगजनी तथा अन्य गैर कानूनी गतिविधियां इतनी बढ़ गई कि केंद्र सरकार ने गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) कानून के तहत एनडीएफबी को गैरकानूनी घोषित कर दिया। समय के साथ बोडो उग्रवादियों पर हिंसा, जबरन उगाही और हत्या का आरोप भी लगा। इससे आंदोलन को धक्का लगा। 

लेकिन वर्ष 1987 में ऑल बोडो स्टूडेंट यूनियन ने फिर से बोडोलैंड बनाए जाने की मांग की। यूनियन के नेता उपेंद्र नाथ ब्रह्मा ने असम को आधा-आधा बांटने की मांग की। यह नया दौर असम आंदोलन (1979-85) का परिणाम था जो असम समझौते के बाद शुरू हुआ। समझौते में असम के लोगों के हितों, उनकी परंपराओं, भाषा, संस्कृति आदि के संरक्षण की बात कही गई थी। बोडो लोगों ने आरोप लगाया कि उनकी पहचान के लिए कुछ नहीं किया जा रहा है। इसके बाद आंदोलन आरंभ हुआ। यह सच है कि 1985 समझौते का सही क्रियान्वयन नहीं हुआ। उस समझौते की धारा छः, जिसमें इनकी पहचान, संस्कृति, परंपरा के लिए समिति बनाने तथा उसकी अनुशंसा के आधार पर कदम उठाने की बात थी साकार हुआ ही नहीं। बोडो एक ओर राजनीतिक आंदोलनों कर रहे थे तो दूसरी ओर हथियारबंद समूहों ने अलग बोडो राज्य बनाने का संघर्ष आरंभ कर दिया। अक्टूबर 1986 में रंजन दाइमारी द्वारा उग्रवादी गुट बोडो सिक्यॉरिटी फोर्स के गठन का मामला सामने आया। इस समूह ने अपना नाम नैशनल डेमोक्रैटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड एनडीएफबी कर लिया। जैसा उपर बताया गया इस एनडीएफबी ने राज्य में भयावह स्थिति पैदा की। हिन्दी और बांग्लाभाषियों की सामूहिक हत्याएं कीं। वर्ष 2012 में बोडो-मुस्लिम दंगों की भयावहता असम को झेलना पड़ा जिसमें भारी संख्या में लोग मारे गए एवं 5 लाख से ज्यादा लोग विस्थापित हो गए। ध्यान रखने की बात है कि 1990 के दशक में सुरक्षा बलों ने एनडीएफबी के खिलाफ सैन्य ऑपरेशन आरंभ कर दिया। इस कारण एनडीएफबी उग्रवादी पड़ोसी देश भूटान भाग गए। वहां से एनडीएफबी ने अपना अभियान जारी रखा। वर्ष 2000 में भूटान की शाही सेना ने भारतीय सेना के साथ मिलकर आतंकवाद निरोधक अभियान चलाया जिसमें एनडीएफबी की कमर टूट गई। कुछ ने आत्मसमर्पण किया तो कई मारे गए। लेकिन धीरे-धीरे इसने फिर सिर उठाना आरंभ किया। अक्टूबर 2008 में एनडीएफबी ने असम के कई हिस्सों में बम हमले करके अपनी हिंसक शक्ति का आभास कराया जिसमें 90 लोगों की मौत हो गई। एनडीएफबी के संस्थापक रंजन दिमारी को हमलों के लिए दोषी ठहराया गया। 

लेकिन यहां से एनडीएफबी में दरार आरंभ होता है। वस्तुतः हमले को लेकर एनडीएफबी में सहमति नहीं थी। इस कारण यह दो भागों में बंट गया। एनडीएफबी (पी) का नेतृत्व गोविंदा बासुमतारी और एनडीएफबी (आर) का नेतृत्व रंजन के हाथों आया। वर्ष 2009 में एनडीएफबी (पी)ने केंद्र सरकार के साथ बाचतीत शुरू की लेकिन विशेष परिणाम नहीं निकला। वर्ष 2010 में रंजन दिमारी को बांग्लादेश ने गिरफ्तार करके भारत को सौंप दिया। दोनों ही गुट केंद्र के साथ बातचीत कर रहे थे। अगर उस समय ठीक से कोशिश की जाती तो मामला सुलझ सकता था। वर्ष 2012 में इंगती कठार सोंगबिजित ने एनडीएफबी (आर) से खुद को अलग कर लिया और एनडीएफबी (एस) बनाया। समझौते की संभावना के कारण वर्ष 2013 में रंजन को जमानत मिल गई। माना जाता है कि इंगती के गुट ने दिसंबर 2014 में 66 आदिवासियों की हत्या की। यह गुट बातचीत के खिलाफ था। वर्ष 2015 में इंगती की जगह पर बी साओरैग्वारा ने गुट की कमान संभाली। बाद में इंगती ने एनडीएफबी (एस) से अलग होकर अपना अलग गुट बना लिया। इस तरह पूरा समूह 4 भागों में बंट गया। इसीलिए केन्द्र ने इन चारों समूहों से समझौता किया है। जो जेल में थे उनसे भी बातचीत होती रही। समझौते पर सहमति के बाद दाईमारी को जेल से रिहा किया गया था।

पूरी पृष्ठभूमि को समझने के बाद यह कल्पना करना आसान है कि अगर समझौता सफल हो गया तो नरेन्द्र मोदी सरकार की यह ऐतिहासिक उपलब्धि होगी। असम में हिंसा, उपद्रव और दंगे का मूल कारण बोडो समस्या में ही निहित थी। उल्फा का जो गुट बचा हुआ है वह काफी कमजोर हो चुका है। बोडो का समाधान करने के बाद उल्फा के बचे-खुचे लड़ाकुओं को आराम से नियंत्रित किया जा सकता है। समझौते के विरोध में चार जगहों पर गणतंत्र दिवस के दिन विस्फोट करके उल्फा आई ने सरकार को चुनौती दी है। निस्संदेह, ऐसे समूह हैं जो समझौते के पक्ष में नहीं हैं। उन्हीं ने 12 घंटे का बंद भी बुलाया था जिसका बोडोलैंड क्षेत्रीय परिषद (बीटीसी) के तहत आने वाले चार जिलों कोकराझार, बक्सा, चिरांग और उदलगुड़ी जिलों में असर हुआ। लेकिन समझौते के क्रियान्वयन की प्रक्रिया आरंभ होने के साथ इसमें कमी आएगी। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि समझौते को बीटीसी प्रमुख हागरामा मोहीलरी का पूरा समर्थन प्राप्त है। हालांकि वहां जातीय एवं सांप्रदायिक विभाजन इतना तीखा हो चुका है उसे पूरी तरह सामान्य बनाने में समय लगेगा, लेकिन सबसे शक्तिशाली और प्रभावी पक्ष यदि समझौता के अमल में सहयोग कर रहा है और सरकार ने ईमानदारी से काम किया तो तनाव भी कम होगा एवं लोगों का विश्वास भी कायम होगा। वैसे भी विरोध करने वालों में राजनीतिक हित देखने वालों से लेकर सांप्रदायिक आधार पर विचार करने वाले समूह भी शामिल हैं। 

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, मोबाइलः9811027208



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