शुक्रवार, 13 मई 2016

उत्तराखंड प्रकरण ने कई महत्वपूर्ण प्रश्न खड़े किए हैं

 

अवधेश कुमार

तो उच्चतम न्यायालय के आदेश का पालन हो गया। उसके अनुसार उत्तराखंड के सदन पटल पर बहुमत का परीक्षण हुआ और हरीश रावत के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार फिर गठित हो गई। जो हुआ वह अपेक्षित था। नौ विधायकों को मतदान से वंचित करने के बाद का अकंगणित थोड़ा ही धुंधला था। दोनों पक्ष तू डाल डाल हम पात पात की नीति पर चल रहे थे। इसमें उक्रांद के एक, बसपा के दो एवं तीन निर्दलीय विधायकों का महत्व बढ़ना ही था। उनने यदि कांग्रेस के पक्ष में मतदान किया तो फिर हरीश रावत को बहुमत मिलना निश्चित था। हां, हरीश रावत के खिलाफ कांग्रेस से विद्रोह करने वाले नौ विधायकों को मतधिकार से वंचित नहीं किया जाता तो तस्वीर अलग होती। आखिर उनका विद्रोह तो कांग्रेस नेतृत्व यानी हरीश रावत से ही था। पहले अध्यक्ष ने उनकी सदस्यता रद्द की, फिर उच्च न्यायालय ने और उच्चतम न्यायालय ने सुनवाई को आगे बढ़ा दिया। दरअसल, उच्चतम न्यायालय ने अपने आदेश में पहले ही कह दिया था कि सदन के अंदर बहुमत के परीक्षण में ये नौ विधायक भाग नहीं ले सकेंगे। इसके बाद वह अपना मत इतनी जल्दी बदलेगा इसका कोई कारण नहीं था। तो फैसला हमारे सामने है।

उत्तराखंड में भाजपा और कांग्रेस में से कौन बाजी मार ले गया है यह केवल तात्कालिक दृष्टि से ही महत्व का विषय हो सकता है। लेकिन इसके जो दूरगामी संकेत हैं वो चिंतित करने वाले हैं। कई मायनों में तो डराने वाले भी हैं। अगर किसी नेतृत्व के खिलाफ 31 में से नौ सदस्य विद्रोह कर जाएं या उनके प्रति अविश्वास प्रकट करें तो उनके साथ क्या व्यवहार होना चाहिए? यह प्रश्न पूरी गहराई से इस प्रकरण में उठा है। दल बदल कानून की तलवार उनकी सदस्यता रुपी गर्दन को उड़ा देती है। कानून अपनी जगह और राजनीति अपनी जगह। क्या पार्टी में किसी को नेतृत्व के खिलाफ आवाज उठाने का अधिकार नहीं होना चाहिए? विद्रोहियांे ने यह नहीं कहा कि वे कांग्रेस के विरुद्ध हैं, उन्होंने केवल हरीश रावत का विरोध किया था। उन पर भ्रष्टाचार और कुशासन का आरोप लगाया था। नैतिकता का तकाजा था कि रावत इनके विद्रोह के बाद अपने इस्तीफा की पेशकश कम से कम केन्द्रीय नेतृत्व के सामने करते। इससे उनका नैतिक पक्ष मजबूत होता। आज हम उनके नैतिक पक्ष को मजबूत नहीं कह सकते। अगर उन्होने नहीं किया तो कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व को इसका समय पर संज्ञान लेकर विद्रोहियों की बातें सुननी चाहिएं थी। यदि उनकी बातों में तथ्य हों तो फिर नेतृत्व परिवर्तन पर विचार करना चाहिए। लेकिन सबके मन में यही था कि ये पार्टी के खिलाफ सदन में नहीं जा सकते, क्योंकि दलबदल कानून के अनुसार इनकी सदस्यता चली जाएगी और सदस्यता कौन गंवाना चाहेगा। इस रुप में दलबदल कानून यहां अधिनायकवादी व्यवहार का कारण बना।

इसके साथ यह भी सच है कि अगर भाजपा ने कांग्रेस के अंदर के असंतोष को हवा नहीं दी होती तो वे विधायक शायद इतनी दूर तक आने की नहीं सोचते। इसलिए भाजपा जो भी तर्क दे उसका नैतिक पक्ष भी यहां कमजोर दिखता है। उसने उन विधायकों को जिस तरह चार्टर्ड जहाज से यात्राएं कराई, होटल में रखा, उससे साफ था कि इन विधायकों के पीछे उनका हाथ है। हालांकि वर्तमान राजनीति में इसे बहुत सारे लोग गलत नहीं कहेंगे। लोग कह भी रहे थे कि अगर कांग्रेस के घर में छिद्र होगा तो दूसरे उसका लाभ क्यों नहीं उठाएंगे। वैसे भाजपा की जगह कांग्रेस होती तो वह भी यही करती। लेकिन नैतिक दृष्टि से तो इसे सबल पक्ष नहीं कहा जा सकता। भाजपा को कांग्रेस के अंदरुनी कलह में हाथ डालने की कोई आवश्यकता नहीं थी। अगर वह हरीश रावत के शासन को भ्रष्टाचार और कुशासन का पर्याय मानती है तो उसके विरुद्व आंदोलन करना चाहिए था....जनता के बीच जाना चाहिए था....जनता को सरकार के खिलाफ खड़ा करना चाहिए था....आंदोलन से उसे इस्तीफा देने को मजबूर करने की कोशिश करनी चाहिए थी। यह स्वस्थ और नैतिक राजनीति का रास्ता होता। यह भाजपा ने नहीं किया। कांग्रेस की जगह अपनी सरकार बनाने की मानसिकता में उसने बागी विधायकों को साथ ले लिया। पता नहीं यह रणनीति किस स्तर पर और क्या सोचकर बनाई गई। तो भाजपा ने यहां काफी कुछ खोया है और सत्ता भी नहीं आ रही।

इसमें भी दो राय नहीं कि विधायकों को साथ रखने के लिए धन का प्रयोग हुआ। हरीश रावत के स्टिंग से ही यह बात साफ है कि वो विधायकों को मैनेज करने के लिए धन लेने और उसे लौटाने की बात कर रहे हैं। वे हालांकि स्टिंग करने वाले को पत्रकार की जगह ब्लैकमेलर और न जाने क्या-क्या कहते हैं। हालांकि अब उन्होंने यह मान लिया है कि उस स्टिंग में वे स्वयं हैं और उनकी आवाज भी है। हां, उनका कहना है कि मैंने तो मजाक में वैसा कह दिया। मजाक में कोई मुख्यमंत्री इस तरह की बात करेगा यह गले नहीं उतरता है। जाहिर है, वे अपना बचाव कर रहे हैं। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो हरीश रावत और उनके समर्थक जो भी दावा करें इस पूरे प्रकरण में उनका नैतिक पक्ष बिल्कुल भू लुंठित हो गया है। एक दूसरा स्टिंग उनकी पार्टी के ही नेता का आया जिसने यह बताया कि विधायकों को मैनेज करने यानी खर्चा पानी के लिए एकमुश्त राशियां दी गईं हैं। पहले स्टिंग की जांच सीबीआई कर रही है और यह मामला न्यायालय में भी आएगाा। वहां इसका फैसला जो भी हो, लेकिन स्टिंग देखने वालों ने माना कि यह सही है। स्टिंग में जो कुछ साफ दिख रहा है, जो स्पष्ट आवाज सुनाई दे रहा है उसे कैसे नकारा जा सकता है। तो सरकार के खिलाफ विद्रोह के बाद एक अत्यंत ही जुगुप्सा पैदा करने वाला आचरण राजनीति का हमारे सामने आया है।  

इस प्रकरण में जो एक चिंताजनक प्रवृत्ति उभरी वह है, न्यायालय द्वारा विधानसभा अध्यक्ष के अधिकारों में कटौती। बहुमत का फैसला सदन के पटल पर हो यह सिद्वांत तो सर्वमान्य है। लेकिन वह सदन के अध्यक्ष के नेतृत्व में ही होना चाहिए एवं हार जीत की घोषणा उसी के द्वारा होनी चाहिए। इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने विधानसभा के प्रमुख सचिव को जिम्मेवारी दी की वह मतों की गिनती कर न्यायालय में प्रस्तुत करें और वहां इसकी धोषणा होगी। यह विधानसभा अध्यक्ष के अधिकारों में कटौती ही तो है। लेकिन जब राजनीति में घात-प्रतिघात इस स्तर पर पहुंच जाए जहां अध्यक्ष तक पर पक्षपात का आरोप लगने लगे वहां न्यायालय के हस्तक्षेप का रास्ता अपने आप बन जाता हैं। अध्यक्ष के आचरण को यदि हरीश रावत समर्थकों ने सही करार दिया तो बागी विधायकों एवं भाजपा ने पक्षपात की संज्ञा दी। वास्तव में संसद की सामान्य और मान्य परंपरा है कि यदि विनियोग विधेयक में एक भी सदस्य मत विभाजन की मांग करता है तो उसे मानना अनिवार्य है। यदि विधायकों ने मत विभाजन की मांग की और उसे स्वीकार नहीं किया गया तो फिर 18 मार्च को विनियोग विधेयक पारित ही नहीं हुआ। दूसरे, यहां इस जटिल प्रश्न का भी उत्तर देना होगा कि अगर मत विभाजन हुआ ही नहीं यानी सदन में मतदान हुआ नही ंतो फिर उन विधायकों की सदस्यता खत्म कैसे हो गई? दलबदल कानून सदन के अंदर के व्यवहार पर लागू होता है बाहर के व्यवहार पर नहीं। अगर मत विभाजन होता तो साफ था कि हरीश रावत सरकार गिर जाती और उसके बाद उनकी सदस्यता का फैसला होता। मत विभाजन हुआ नहीं और उनकी सदस्यता चली गई। इसका फैसला उच्चतम न्यायालय को करना होगा।

जो भी हो भले रावत मुख्यमंत्री हो जाएं इस पूरे प्रकरण में देश के एक छोटे राज्य ने हमारी राजनीति के समस्त क्षरण को एकमुश्त प्रदर्शित किया है। वास्तव में एक छोटे राज्य की राजनीति ने जिस तरह देश का ध्यान खींचा और राष्ट्रीय प्रकरण के रुप में परिणत हुआ वह बिल्कुल अस्वाभाविक नहीं हैं। भारतीय राजनीति की विद्रूपताएं एक साथ समग्र रुप में वहां उभरतीं रहीं और सुर्खियां पातीं रहीं। यहां उसमें पूर्णविराम लग जाएगा इसकी कोई संभावना नहीं है।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408,9811027208

 

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