निस्संदेह, लालकृष्ण आडवाणी द्वारा गांधीनगर से चुनाव लड़ने की घोषणा से भाजपा नेताओं ने राहत की सांस ली है। किंतु इससे यह मान लेना कि पार्टी का अंतर्द्वंद्व समाप्त हो गया, गलत होगा। वास्तव मे आडवाणी की उम्मीदवारी प्रसंग वर्तमान चुनाव में किसी दल के अंतर्द्वंद्व की सबसे बड़ी चिंताजनक राजनीतिक घटना हो गई है। उनके कद, चरित्र और पार्टी में योगदान को ध्यान रखा जाए तो उन्हें भाजपा मे अपने लिए इस बात की आजादी होनी चाहिए थी कि वे जहां से चाहें चुनाव लड़ें और अगर वे किसी उम्मीदवार को कहीं से लड़ाने की इच्छा रखते हैं तो उसे पार्टी स्वीकार कर ले। होना तो यह चाहिए था कि पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह और प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी पहले चरण के टिकट वितरण के पूर्व स्वयं उनसे उनकी चाहत पूछ लेते। ऐसा नहीं हुआ तो उन्होंने अपनी मंशा व्यक्त कर दी। उनने पहले यह कहा कि वे लोकसभा चुनाव लड़ेंगे, फिर गांधीनगर से ही लड़ने का विचार व्यक्त किया। शालीनता और सभ्य व्यवहार का तकाजा था कि अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने जो बयान अब दिया है वही पहले देना चाहिए। अगर पार्टी नेतृत्व तत्क्षण यह कहते हुए प्रतिक्रिया दे देता कि आडवाणी जहां से चाहें लड़ेेंगे तो यह नौबत ही नहीं आती। हुआ इसके उलट। 301 उम्मीदवारों के नाम जारी हो गए, पांच बार संसदीय बोर्ड बैठा लेकिन आडवाणी के नाम की घोषणा नहीं हुई। इसका अर्थ क्या है? अगर इसके बाद वे गांधीनगर से चुनाव न लड़ने पर अड़े थे तो इसे सर्वथा उचित व्यवहार मानना होगा।
प्रश्न किया जा सकता है कि आखिर गुजरात प्रदेश संसदीय बोर्ड की बैठक ही बाद में हुई तो उनका नाम पहले कैसे आ जाता? सच यह है कि पार्टी की ओर से आडवाणी को यह संकेत दिया गया कि वे लोकसभा चुनाव लड़ने की जगह राज्य सभा में जाने पर विचार करें। ऐसा लगा जैसे उन्हें चुनाव लड़ने से रोका जा रहा है। तुरत आडवाणी ने चुनाव लड़ने की मंशा सार्वजनिक की। इसके बाद उनके नाम और क्षेत्र पर विचार न करने को किस राजनीतिक व्यवहार की श्रेणी में रखा जाएगा? इस संकेत के बाद मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने बिना देर लगाए उन्हें अपने प्रदेश से लड़ने का प्रस्ताव दे दिया और कैलाश जोशी ने बयान दिया कि आडवाणी जी उनके संसदीय क्षेत्र भोपाल से लड़ें। जोशी उस दौर के नेता हैं जब जनसंघ या भाजपा में सत्ता और पद से परे रहकर काम करने को सम्मान देने का भाव और माहौल था। वे आडवाणी के हमउम्र हैं और उनके प्रति उनके मन मंे सम्मान भाव तथा उनकी देनों की तस्वीर निश्चय ही कायम होगी। सच कहेें तो भोपाल से प्रस्ताव मिलने के बाद गुजरात संसदीय बोर्ड ने गांधीनगर से उनके नाम का प्रस्ताव भेजा। जो सूचना है उनके अनुसार आडवाणी को मनाने के लिए स्वयं मोदी ने उनसे फोन पर बात की, पर वे नहीं माने। लेकिन इतना होने के बाद संसदीय बोर्ड और केन्द्रीय चुनाव समिति के पास गांधीनगर से उनके नाम की घोषणा के अलावा अपने बचाव के लिए कोई विकल्प नहीं बचा था। इस प्रकार निष्कर्ष यह कि भाजपा नेतृत्व ने मजबूरी में या हारकर आडवाणी को गांधीनगर से उम्मीदवार बनाया।
आडवाणी को अपनी उम्र के अनुसार सक्रिय सत्ता राजनीति से दूर रहकर अभिभावक की भूमिका में आ जाना चाहिए था यह सोच संघ की थी और उसने अभिव्यक्त भी किया था। लेकिन उसी संघ ने आडवाणी को 2009 में प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने को हरि झंडी भी दी। कुछ ही दिनों पूर्व उनकी पुस्तक के विमोचन कार्यक्रम में संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा कि आडवाणी जी को राजनीति में ही रहना है, क्योंकि उनके रहने मात्र से एक नैतिक दबाव बना रहता है। आडवाणी की भाजपा, राजनीति, चुनाव एवं सत्ता समीकरण संबंधी सभी विचारों से सहमत नहीं हुआ जा सकता। आज उनकी और भाजपा की जो दशा है उसकी जिम्मेवारी से वे स्वयं भी मुक्त नहीं हो सकते। भाजपा को विचारधारा से परे सत्ता की राजनीति करने वाला दल बनाने के लिए उनने जो किया, इस उद्देश्य से जैसे लोगों को उनने बढ़ावा दिया और इस कारण जो लोग हाशिए पर गए या पार्टी से बाहर चले गए...उनकी ही परिणति है आज की भाजपा। जिस प्रकार के उनने अपने साथ सहयोगी और सलाहकार खड़े किए उसका परिणाम था पाकिस्तान मेें जिन्ना की मजार पर दिया गया उनका बयान, जिसके पूर्व उनने पार्टी के अंदर सलाह तक नहीं की। उसके बाद से उनकी आभा संगठन के अंदर कमजोर हो गई। रणनीतिक दृष्टि से देखें तो उन्होंने पिछले जून में गोवा कार्यकारिणी की बैठक में न जाकर जीवन की संभवतः सबसे बडी राजनीतिक भूल की। उससे संदेश यह गया कि जब भाजपा एवं संघ परिवार के सारे कार्यकर्ता, नेता मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीवार बनाना चाहते हैं तो आडवाणी रास्ते की बाधा बन रहे हैं। अंततः राजनाथ सिंह ने उनकी अनुपस्थिति में मोदी को चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष घोषित कर दिया। सभी पदों से त्यागपत्र देना और फिर कई दिनों की मान मनौव्वल के बाद उसे वापस लेने के कदम का संकेत भी अच्छा नहीं गया। इस समय भी यही हुआ है। आडवाणी को यह समझना चाहिए था कि उनकी पीढ़ी के या वो लोग, जिनने उनके निर्देश को ब्रह्मवाक्य मानकर काम किया या तो काल कवलित हो गए, पार्टी से बाहर चले गए या निष्प्रभावी हो चुके हैं। इस नाते वे लगभग अकेले है। जो नेता उनके साथ दिखते हैं उनके भी कारण दूसरे हैं।
बावजूद इन सबके भाजपा में आडवाणी के योगदान को देखते हुए यह निर्णय करने का अधिकार भी उन्हें ही मिलना चाहिए था कि वे कब स्वयं को किस भूमिका में लाएं। यह स्थिति तो होनी ही चाहिए थी कि जो भी महत्वपूर्ण निर्णय हों, उसमें उन्हें विश्वास में लिया जाए। अगर आडवाणी कई निर्णयों के सामने अड़े तो उनसे व्यवहार करने का ऐसा तरीका हो सकता था जिससे उनका सम्मान कायम रहता। साफ है कि ऐसा नहीं हुआ। अगर वे मोदी से नाखुश हुए या उनके अंतर्मन में मोदी को लेकर असंतोष पैदा हुआ तो इसका कारण कम से कम वे स्वयं नहीं हो सकते। जो लोग भाजपा पर नजर रख रहे हैं उन्हें 2007 तक के मोदी और 2012 13 14 के मोदी में बदलाव दिख सकता है। 2007 के शपथग्रहण समारोह में मोदी ने आडवाणी का चरण स्पर्श कर सार्वजनिक आशीर्वाद लिया था, जबकि 2012 में उन्होंने अन्य नेताओं के समान ही हाथ मिलाकर उनका अभिवादन किया। आडवाणी मोदी के विरोधी होंगे ऐसा सोचना गलत होगा। जिस मोदी की उन्होंने कठिन समय में रक्षा की उसके विरुद्ध वे क्यों होंगे? दिल्ली में आयोजित राष्ट्रीय परिषद के समापन संबोधन में उन्होंने कहा कि आज मोदी के भाषण में उन्हेें विवेकानंद की छवि दिखाई दी। साफ था कि आडवाणी दिल से उनके प्रति कोई कुंठा नहीं रखते हैं, पर राजनीति में साधु व्यवहार की कल्पना हम क्यों करें!!
तो इस प्रश्न का उत्तर देना कठिन नहीं है कि आडवाणी अगर दुखी होकर या रणनीति के तहत ही सही, कोई चारा न देखकर भोपाल से चुनाव न लड़ने पर अड़े और उसका जो गलत संदेश गया उसके लिए किसे दोषी ठहराया जाएगा। वे सारे लोग इसमें शामिल माने जाने जाएंगे जो निर्णय प्रक्रिया में भागीदार होते हुए पार्टी मेे अपनी स्थिति बनाए रखने की सोच से इस विषय को उठाने से बचते रहे। पूरे चुनाव में और आगे भी विरोधी इस प्रसंग को उठाते रहेंगे और भाजपा के लिए बचाव करना कठिन होगा। लेकिन यहां प्रश्न केवल विरोधियों का नहीं है। आखिर भाजपा कैसी राजनीतिक संस्कृति पैदा कर रही है जिसमें पार्टी के सक्रिय वरिष्ठतम नेता तक को विश्वास में नहीं लिया जा सकता? यानी उनका सम्मान नहीं रखा जा सकता। कल्पना करिए, आज के नेताओं और कार्यकर्ताओं पर इसका कैसा मनोवैज्ञानिक असर होगा! कल वे भी ऐसा ही व्यवहार करेंगे। अगर इसे विस्तारित करें तो हमारी पूरी भारतीय राजनीति पर इसका नकारात्मक असर हो सकता है। दूसरी पार्टियों के बुजूर्ग नेता आशंकित होंगे और मौका आने पर नई पीढ़ी के नेता इसका अनुसरण कर सकते हैं। आडवाणी भारतीय राजनीति के उन गिने-चुने लोगों में हैं जिनने यद्यपि चुनावी विजय या अन्य ऐसे अनेक अवसरों पर रणनीतियां तो अपनाईं, पर अपने परिवार या रिश्तेदारों को कभी राजनीति में भूमिका नहीं दी, न कभी अपने लिए संपत्ति अर्जित की। वे चाहते तो भाजपा में जिस तरह उनका और अटल बिहारी वाजपेयी का एकच्छत्र नियंत्रण था, परिवार, रिश्तेदार या चहेतों को मुख्य स्थान पर लाकर अपने लिए आजीवन नेतृत्व सुरक्षित रख सकते थे। उनने ऐसा नहीं किया, अन्यथा आज दूसरे लोग टिकट और पद के लिए उनके सामने समर्पित होते। ऐसे व्यक्ति के साथ इस व्यवहार का संदेश पूरी राजनीति के लिए घातक होगा। वास्तव में यह भाजपा की और हमारी पूरी राजनीति की वर्तमान अमानवीय, संवेदनहीन माहौल का परिचायक है।
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