शनिवार, 18 नवंबर 2023

पिछड़ों और महादलितों के कल्याण की बात करना राजनीति है या कुछ और?

 

बसंत कुमार

पिछले सप्ताह डॉ. राम मनोहर लोहिया और लोक नायक जयप्रकाश नारायण के आदर्शों की राजनीति का दंभ भरने वाले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सदन में महिलाओं की शिक्षा और बिहार के इतिहास में इकलौते महादलित मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के विषय में इतनी आपत्तिजनक बातें कह दीं, उससे यह पता लगाना मुश्किल है कि जातिगत जनगणना और जितनी जिसकी है आबादी उसकी उतनी हिस्सेदारी की बात करने वाले नीतीश कुमार महिलाओं और दलितों के प्रति किस तरह का पूर्वाग्रह रखते हैं। भरे सदन में शिक्षित महिलाओं के बारे में उन्होंने जो कह दिया उसकी कल्पना नहीं की जा सकती। उसी तरह प्रदेश के इतिहास में महादलित समुदाय से संबंध रखने वाले इकलौते मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी द्वारा दलित समुदाय की उपेक्षा पर बोलना उनको इतना नागवार गुजरा कि उन्होंने भरे सदन में यह कह दिया कि मेरा दिमाग खराब था कि वर्ष 2014 में जीतन राम मांझी को प्रदेश का मुख्यमंत्री बना दिया जबकि वास्तविकता यह है कि श्री मांझी 1980 से विधायक थे और नीतीश जी के मंत्रिमंडल में वरिष्ठ मंत्री थे। नीतीश जी उनकी कार्य क्षमता के बारे में भली भांति जानते थे फिर उन्होंने 2014 में चुनाव में पार्टी द्वारा खराब प्रदर्शन होने के कारण जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाने की गलती क्यों की।

सभी राजनीतिक दलों की कमोबेस रणनीति यही रहती है कि राजनीतिक लाभ के लिए अपनी सुविधा के अनुसार दलित, आदिवासी, पिछड़े नेता का नाम आगे कर दिया जाए जिससे समाज में यह संदेश चला जाए कि हम ही इनके हितैषी हैं और अपना काम निकल जाने के पश्चात् इन्हें दूध में पड़ी मक्खी की तरह बाहर निकाल दो जैसा नीतीश कुमार ने वर्ष 2014 में जीतन राम मांझी के साथ किया। वर्ष 1969 में कांग्रेस का विभाजन होने पर इंदिरा गांधी ने अपनी चुनावी नैया पार करने के लिए बाबू जगजीवन राम को अपनी पार्टी का अध्यक्ष बना दिया और चुनाव जितने के बाद उन्हें पार्टी छोड़कर जनता पार्टी के साथ जाने को मजबूर कर दिया और वर्ष 1980 में उनको प्रधानमंत्री बनने से रोकने के लिए संसद भंग करवा दी। अब कांग्रेस की डूबती नैया पार करने के लिए दलित नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को पार्टी का अध्यक्ष बना दिया है तो क्या यह मान लिया जाए कि पार्टियों द्वारा समय पड़ने पर इन दलितों आदिवासियों को आगे लाकर लाभ उठाना अवसरवादिता है या कुछ और।

आजादी से पहले महात्मा गांधी ने अस्पृश्यता निवारण के अपने आंदोलन के समय यह कहा था कि मेरा सपना तभी साकार होगा जब एक दलित (अछूत) इस देश का प्रधानमंत्री बनेगा। पर कितने आश्चर्य की बात है कि जब देश के आजाद होने का समय आया और देश के प्रधानमंत्री रूप में पंडित नेहरू, सरदार पटेल और मोहम्मद अली जिन्ना के नामों की चर्चा चल रही थी पर गांधी जी ने देश के सबसे शिक्षित नेता जो संविधान के ज्ञाता थे, कानूनविद् थे और अर्थशास्त्री थे यानी डॉ. अंबेडकर का नाम क्यों नहीं चलाया जिससे एक दलित के देश का प्रधानमंत्री बनने का गांधी का सपना पूरा हो जाता। उनके प्रधानमंत्री बनने से देश को निम्न फायदे होते

1. डॉ. अंबेडकर यदि देश के प्रधानमंत्री होते तो संविधान में अनुसूचित जातियों और जनजातियों को दिया जाने वाला आरक्षण मात्र 10 वर्षों के लिए होता क्योंकि एक अर्थशास्त्री होने के नाते वे देश का आर्थिक विकास सुनिश्चित करते जिससे दलित व आदिवासी समाज देश की मुख्यधारा में शामिल हो जाता और उनके लिए आरक्षण की अवधि 10 वर्ष से अधिक बढ़ाने की आवश्यकता न होती। देश के राजनीतिक दलों को दलितों आदिवासियों और अल्पसंख्यकों को वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करने का अवसर न मिलता।

2. अंबेडकर जी का विचार था कि यदि देश का धर्म के आधार पर बंटवारा होना ही है तो जनसंख्या का सम्पूर्ण स्थानांतरण हो यदि वे देश के प्रधानमंत्री बनते तो पाकिस्तान बनने की दशा में देश की सारी मुस्लिम आबादी पाकिस्तान स्थानांतरित हो जाती तो भारत में हिंदू-मुस्लिम का झगड़ा ही नहीं होता और दोनों देश पड़ोसी मित्रों की तरह रहते और दोनों देशों को एक-दूसरे के विरुद्ध इस्तेमाल करने हेतु इतने भारी पैमाने पर हथियारों की खरीद-फरोख्त नहीं करनी पड़ती।

3. अंबेडकर जी शुरू से जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 लागू करने के विरुद्ध में थे और जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देना नहीं चाहते थे। ये दोनों ही काम पंडित नेहरू ने उनकी इच्छा के विरुद्ध किए और सभी जानते हैं कि भारत और पाकिस्तान के बीच विवाद का विषय कश्मीर घाटी ही रहा, परंतु प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी की दृढ़ इच्छा शक्ति की वजह से वर्ष 2019 में अनुच्छेद 370 को समाप्त कर दिया गया।

4. अंबेडकर प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की विदेश नीति के घोर आलोचक थे, वे चाहते थे कि भारत के आजाद होने के पश्चात् गुट निरपेक्ष आंदोलन में अहम भूमिका निभाने के बजाय दो महाशक्तियों यानि सोवियत संघ और अमेरिका के बीच चल रहे शीत युद्ध में अमेरिका के साथ हाथ मिलाते जिससे अमेरिका की सहायता से भारत का विकास होता और भारत को यूएन की सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता मिल जाती और हम इतने सशक्त हो जाते कि चीन 1962 मे आक्रमण करके हमारी हजारों वर्ग किमी जमीन हथियाने का साहस न करता।

डॉ. अंबेडकर में प्रधानमंत्री बनने की सारी योग्यताएं होने के बावजूद अपने पूर्वाग्रह के कारण गांधी जी ने उन्हें देश का प्रधानमंत्री बनने का अवसर नहीं दिया। अन्यथा भारत के आर्थिक विकास की आधारशिला 50 और 60 के दशक में ही रख दी गई होती, जो काम अब 6 दशक के पश्चात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दूरदर्शिता पूर्ण कदम के कारण अब संभव हो पा रहा है। एक दलित को देश का प्रधानमंत्री बनाने का अवसर वर्ष 1980 में आया जब देश के सफल मंत्रियों में से एक बाबू जगजीवन राम को जनता पार्टी का नेता बनाया गया और वे सदन में अपना बहुमत साबित करने की स्थिति में थे पर श्रीमती इंदिरा गांधी और चौधरी चरण सिंह की सांठगांठ के कारण तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने जगजीवन राम को सरकार बनाने का अवसर देने के बजाय लोक सभा भंग कर दी, यदि दक्षिण अफ्रीका जैसे रंगभेद समर्थक देश में अश्वेत प्रधानमंत्री बन सकता है तो क्या कारण है कि भारत में आज तक दलित प्रधानमंत्री का बापू का सपना अधूरा है।

यदि हम जाति और संप्रदाय से दूर एक विकसित भारत की स्थापना करना चाहते हैं और देश को जाति पर आधारित आरक्षण की भरमार से बचना चाहते हैं तो दलितों अछूतों और आदिवासियों के प्रति पूर्वाग्रह से बचना होगा और जो भी दलित आदिवासी अपनी मेहनत और योग्यता के बल पर देश का नेतृत्व करने की स्थिति में हो उनके राह में रोड़े न अटकाएं जाएं, तभी हम एक जाति विहीन और धर्मनिरपेक्ष भारत की स्थापना कर सकेंगे। देश के कोने-कोने से जाति के आधार पर उठ रही मांगों पर विराम लगा सकेंगे और वर्तमान समय की यही आवश्यकता है।

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