बुधवार, 23 अगस्त 2017

सरकारी अस्पतालों की चिकित्सा प्रणाली में सुधार की तरफ ध्यान दे सरकार

आर के शर्मा

नई दिल्ली। हमारे देश के सरकारी अस्पतालों की बदहाल चिकित्सा व्यवस्था से सभी भली भांति परिचित हैं।सरकारी अस्पताल चाहे किसी राज्य का हो या केन्द्र सरकार का, सभी अस्पतालों में उपचार कराना आम आदमी की पहुंच से बाहर होता जा रहा है। सरकारी अस्पतालों में चिकित्सकों व चिकित्साकर्मियों की पर्याप्त संख्या में तैनाती न होना, स्ट्रेचरस व बैड्स की कमी और आईसीयू में गंभीर हालत में मरीजों के लिए वेंटिलेटर नहीं मिल पाने जैसी कई समस्याएं ऐसी हैं जिनसे कि देश के अधिकांश सरकारी अस्पतालों में निम्न व मध्यम वर्ग के लोगों को रोजाना बड़ी तादाद में सामना करना पड़ रहा है लेकिन इसके बावजूद भी न तो केन्द्र और ना ही राज्य सरकारें इन समस्याओं के समाधान के लिए गंभीरतापूर्वक प्रयास करती हैं। परिणामस्वरूप, चिकित्सकों व मरीजों के साथ ही उनके तीमारदारों में आए दिन कहीं न कहीं विवाद हो जाता है। हालांकि केन्द्र व राज्य सरकारें चिकित्सा के क्षेत्र में खर्च के लिए हर वर्ष अच्छा खासा बजट अस्पतालों के लिए जारी करती हैं किंतु इसके बावजूद भी उपरोक्त समस्याओं के कारण चिकित्सकों व मरीजों को अपने-अपने स्तर पर परेशानियों से जूझना पड़ रहा है लेकिन इस बात की जानकारी शायद केन्द्र व राज्य सरकारों के स्वास्थय मंत्रियों को नहीं हैं। बहरहाल, केन्द्र व राज्य सरकारों को चाहिए कि सरकारी अस्पतालों में व्याप्त इन सभी समस्याओं को गंभीरतापूर्वक एवं वास्तविक रूप में हल करने के लिए चिकित्सकों व चिकित्साकर्मियों की पर्याप्त संख्या में भर्ती करने के साथ ही स्ट्रेचर, बैड्स और वेंटिलेटर्स भी बढाने की दिशा में कार्य करें जिससे कि सरकारी अस्पतालों में उपचार के लिए जाने वाले मरीजों को बेहतर चिकित्सा सेवाएं मिल सकें।

-आर के शर्मा, वरिष्ठ पत्रकार एवं प्रमुख समाजसेवी, नई दिल्ली।




शनिवार, 19 अगस्त 2017

ऐसी त्रासदी पर सरकार का रुख अफसोसजनक

अवधेश कुमार

 सामान्य स्थिति में यह कल्पना से परे है कि देश के किसी बड़े अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी हो जाए और छटपटाकर मासूमों की मौत होने लगे। चूंकि ऐसा हुआ है इसलिए हमें इसे स्वीकारना पड़ रहा है।  मौत के आंकड़ों पर मत जाइए। इसकी संख्या 30 हो 36 हो या 54 या 68....हमारे देश के होनहारों की इन मौतों का जिम्मेवार कौन है इस पर विचार कीजिए। उत्तर प्रदेश सरकार चाहे जो तर्क दे, वह भले कहे कि ऑक्सीजन की कमी से मौतें नहीं हुईं यानी जो मौतें र्हुइं उनका कारण बीमारी था न कि ऑक्सीजन की कमी। लेकिन सारी सूचनाएं यही बता रही हैं कि अस्तपाल में ऑक्सीजन की भयानक कमी हो चुकी थी। यह बात अस्पताल प्रशासन को पता भी था लेकिन समय रहते कोई कदम नहीं उठाया गया। कुछ तदर्थ कदम ऑक्सीजन सिलेंडर लाने के उठाए गए लेकिन वे नाकाफी थे। परिणामतः संवेदनशील वार्डों में मरीज ऑक्सीजन के अभाव में छटपटाकर मरते रहे और उनको बचाने का कोई ंइंतजाम नहीं था। इस नाते देखा जाए तो 10 और 11 अगस्त को जो मौतें हुईं उनमें कुछ बीमारी के कारण स्वाभाविक मौतें भी होंगी, लेकिन ज्यादातर मौतों को मानवनिर्मित त्रासदी कहना होगा। बाबा राघव दास मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल के प्रधानाचार्य को निलंबित कर दिया गया और उन्होेंने इस्तीफा भी दे दिया। किंतु क्या इतना ही पर्याप्त है? 9 अगस्त को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का उस अस्पताल का दौरा हुआ था। उन्होंने कई घंटे की बैठक लेकर अस्पताल की सारी स्थिति का जायजा लिया था। यह आश्चर्य का विषय होना चाहिए कि उनके संज्ञान में ऑक्सीजन की कमी का मामला नहीं आया।

वास्तव में गोरखपुर और आसपास के स्थानों में जुलाई महीने से दिसंबर के बीच जापानी इंसेफ्लाइटिस का मामला बढ़ जाता है। इसके अलावा डेेगू, चिकनगुनिया, कालाजार आदि के मरीज भी अस्तपाल में आते हैं। चूंकि योगी आदित्यनाथ सांसद रहते हुए इसके लिए लगातार काम करते रहे हैं, इसलिए यह माना जा सकता है कि वे सारी समस्याओं से अवगत होंगे। एक निष्कर्ष तो यही है कि प्रधानाचार्च तथा अस्पताल के अन्य विभाग प्रमुखों ने ऑक्सीजन की कमी का मामला इनको नहीं बताया। अस्पताल को ऑक्सीजन आपूर्ति करने वाला संस्थान पुष्पा सेल्स लिमिटेड ने साफ कर दिया था कि 68 लाख रुपया से ज्यादा उसका बकाया हो चुका है और अगर धन नहीं मिला तो उसके लिए ऑक्सीजन की आपूर्ति संभव नहीं होगी। यह पत्र केवल अस्पताल को ही नहीं लिखा गया। इसे महानिदेशक स्वास्थ्य सेवाएं एवं स्वास्थ्य सचिव तक को भेजा गया। साफ है कि इस पत्र का संज्ञान जिस ढंग से लिया जाना चाहिए नहीं लिया गया। दूसरे, लिक्विड ऑक्सीजन प्लांट संभालने वाले विभाग ने 3 अगस्त को अस्पताल प्रशासन को पत्र लिखा कि ऑक्सीजन खत्म हो रही है। इसका मतलब हुआ कि अस्पताल प्रशासन को 3 अगस्त से ही ऑक्सीजन खत्म होने का पता था। सरकार कह रही है कि 5 अगस्त को अस्पताल को पैसे दिए गए। लेकिन 9 अगस्त तक भुगतान नहीं किया गया। क्यों? जाहिर है, इसके पीछे कहीं न कहीं भ्रष्टाचार है। स्वास्थ्य विभाग कई अन्य विभागों की तरह हमारे देश में भ्रष्टाचार का गढ़ बन चुका है। एक-एक बिल के भुगतान के लिए घुस देने पड़ते हैं। जाहिर है, गैस आपूर्ति के लिए मिलने वाले बकाये में कइयों का हिस्सा रहा होगा। संभव है कंपनी ने वह हिस्सा नहीं दिया इसलिए उसका समय से भुगतान नहीं हुआ।

न तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपनी पत्रकार वार्ता में इस पहलू पर बात की, न स्वास्थ्य मंत्री सिद्धार्थ नाथ सिंह ने और न ही चिकित्सा शिक्षा मंत्री आशुतोष टंडन ने। स्वास्थ्य मंत्री सिद्धार्थ नाथ सिंह की पत्रकार वार्ता सबसे निराशाजनक रही। वो जितनी देर बोल रहे थे उससे क्षोभ पैदा हो रहा था। बच्चों की मौत वाली इतनी बड़ी त्रासदी पर अफसोस प्रकट करने,उनके परिवार वालों को सांत्वना देने तथा बेहतरी का आश्वासन की जगह वे आंकड़ा गिनाकर यह बताने लगे कि इस मौसम में हर साल प्रतिदिन औसत 18 से 19 मौतें होतीं ही हैं। इसलिए जो मौतें हुईं उसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। जरा सोचिए, ऐसी त्रासदी के समय जब देश भर में बच्चों की असमय मौत से गुस्से का माहौल है यदि आप इस तरह का बयान देंगे तो उससे गुस्सा बढ़ेगा या घटेगा? यह तो आग में पेट्रॉल डालने का बयान था। एक ओर घटना पर जांच बिठा दिया गया और दूसरी ओर मंत्री महोदय स्वयं यह कहते रहे कि ऑक्सीजन की कमी से मौत की बातें गलत है। तो फिर जांच का क्या मतलब है? यह वही बयान है जो अस्पताल प्रशासन तथा स्वास्थ्य महकमा उनसे दिलवाना चाहता था। बिना जांच हुए केवल अस्तपाल प्रशासन के कहने पर आपने यह बयान दे दिया! सच सबके सामने है। मृतकों के माता-पिता रोते-रोते बता रहे हैं कि ऑक्सीजन खत्म हो गया था और उनको अम्बू बैग से ऑक्सीजन देने की कोशिश की जाती रही। लोग थक जाते थे। उसमें बच्चों की मौत होने लगी, लेकिन मंत्री महोदय यह मानने को तैयार ही नहीं।

इसका अर्थ यही हुआ कि सरकारें बदल जातीं हैं लेकिन सत्ता का चरित्र आसानी से नहीं बदलता। सत्ता का चरित्र वही रहता है। मंत्री स्वयं मृतकों के परिजनों के पास जाकर उनसे समझने, उनको सांत्वना देने की बजाय, अपने दौरे में स्थानीय प्रशासन तथा अस्पताल प्रशासन से बताकर जो सूचना उनसे मिली उसके आधार पर बयान देने की पतित परंपरा का पालन कर रहे थे। उसमें सच्चाई उनके सामने आ नहीं सकता था। आखिर लोग चुनाव द्वारा सत्ता क्यों बदलते हैं? सत्ता का चरित्र बदलने के लिए ही न। यानी सरकार केवल अधिकारियों की सूचना और उसके परामर्श पर काम न करे। वह जनता से सीधे जुड़े। भाजपा को उत्तर प्रदेश के लोगों ने अपार बहुमत दिया है। उससे उम्मीद है कि वह सत्ता के चरित्र में बदलाव लाएगा। किंतु इतनी बड़ी त्रासदी में उसका रवैया पूर्व सरकारों वाला ही रहा है। किसी मंत्री ने मृतक परिवारों के पास जाने की जहमत नहीं उठाई। यह क्या है? इसका परिणाम है कि उनके पास वास्तविक सूचना नहीं आई। ऑक्सीजन की कमी का आलम तो यह था कि एक डॉक्टर इंसेफेलाइटिस वार्ड के प्रभारी डॉ. कफील खान जिन्हें प्राइवेट प्रैक्टिस करने के कारण अस्पताल से हटा दिया यगा है, छटपटाते हुए जगह-जगह फोन करते रहे। स्थानीय अखबारों की सूचना है कि जब किसी बड़े अधिकारी ने उनका फोन नहीं उठाया या कोई आश्वासन नहीं दिया तो वे अपनी कार लेकर निकल पड़े।  प्राइवेट अस्पतालों में डॉक्टर दोस्तों से मदद मांगी। कार से 12 सिलेंडर लाए। फिर एक कर्मचारी की बाइक पर एसएसबी के डीआईजी के पास पहुंचे। उससे मिन्नतें कीं। वहां से 10 सिलेंडर मिले। सिलेंडर ढोने के लिए एसएसबी ने ट्रक भी भेजा। मोदी केमिकल्स नामक आपूर्तिकर्ता से बात की जिसका ठेका अस्पताल ने रद्द कर दिया था। वह नकद भुगतान पर ऑक्सीजन देने को तैयार हुआ। कहा जा रहा है कि डॉक्टर ने अपना डेबिट कार्ड देकर पैसे निकलवाए। इस प्रसंग की चर्चा यहां इसलिए आवश्यक है ताकि यह पता चल सके कि अस्पताल के अंदर की दशा क्या थी। बिल्कुल आपातस्थिति थी। ऐसी स्थिति में कोई यह दावा करे कि ऑक्सीजन के बिना किसी की मृत्यु नहीं हुई तो इसे कैसे स्वीकार कर लिया जाए।

हम यह नहीं कहते कि इसके पहले वहां मौतें नहीं हुईं हैं। मौत के जो आंकड़े मीडिया में आ रहे हैं वे ही बताने के लिए पर्याप्त हैं कि वर्षों से वहां के लोग इन्सेफ्लाइटिस से अपने बच्चों को मौत के मुंह में जाते देखते रहे हैं। पूर्व की सरकारों को भी जिस तरह युद्ध स्तर पर इस मामले को लेना चाहिए था नहीं लिया गया। इसका एक बड़ा कारण तो यही माना जाएगा कि पूर्वांचल का क्षेत्र वर्षों से उपेक्षित रहा है। अगर वैसी मौतें राजधानी दिल्ली और मुंबई आदि में होने लगे तो पूरी सरकार पैरों पर खड़ी नजर आएंगी। गोरखपुर, देवरिया, कुशीनगर मेें हर वर्ष सैंकड़ों की संख्या में हुई मौतों की गूंज उस रुप में लखनउ या दिल्ली नहीं पहुंचती। सरकार बदलने के बाद स्थिति में बदलाव की उम्मीद थी। योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद गोरखपुर और आसपास के लोगों की उम्मीद ज्यादा बढ़ीं। ऐसा नहीं है उन्होंने कुछ नहीं किया, लेकिन जितना और जिस तरह किया जाना चाहिए था नहीं किया है। वैसे भी स्वास्थ्य महकमा हमारे देश में कई तरह की व्याधियों का शिकार है। स्वास्थ्य सेवा किसी सरकार की प्राथमिकता में होनी चाहिए। हमारे देश में यह प्राथमिकता कभी रही नहीं। जाहिर है, गोरखपुर की दिल दहलानेवाली त्रासदी अब भी प्रदेश एवं केन्द्र सरकार की आंखें खोलें तथा वहां की स्थानीय समस्या का तो निदान हो ही पूरी स्वास्थ्य सेवाओं का जीर्णोद्धार किया जाए।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 9811027208

 

 

शनिवार, 12 अगस्त 2017

सुप्रीम कोर्ट ने एनएफएसए का पालन पूरे देश भर में करने का आदेश केंद्र सरकार को दिया, मनरेगा मामले में सुनवाई 5 दिसम्बर को

नई दिल्ली । स्वराज अभियान द्वारा सुप्रीम कोर्ट में चल रही सूखा राहत याचिका में कई मुद्दे उठाये गये। जिसमें राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, मनरेगा, किसानों को लोन, फ़सल नुक़सान मुआवज़ा आदि योजनों के क्रियान्वयन जैसे कई अहम मुद्दे हैं।

सर्वोच्च न्यायालय ने 21 जुलाई 2017 को दिए गये हाल ही के आदेश में कई निर्देश जारी किये। जिसमें स्वतंत्र district grievance redress officers को नियुक्त करना, राज्य खाद्य आयोग, Vigilance committees और खाद्य सुरक्षा के तहत खाद्य वितरण सिस्टम के स्वतंत्र ऑडिट की व्यवस्था करनी थी। 

9 अगस्त 2017 की सुनवाई में कोर्ट ने इन सारे निर्देशों को सूखाग्रस्त राज्यों से आगे बढ़ाते हुए पूरे देश भर में लागू करने का आदेश दिया। इस सुनवाई में मुख्य फ़ोकस मनरेगा के क्रियान्वयन पर रहा। 

स्वराज अभियान ने निम्नलिखित बिंदुओं पर ऐफ़िडेविट फ़ाइल किया है: 

1. प्रोग्राम के लिए अपर्याप्त फ़ंड और केंद्र सरकार द्वारा मनरेगा के लेबर बजट में एक तिहाई से भी ज़्यादा की कटौती।

2. मज़दूरी देने में देरी। 

3. मजदूरी देने में हुई देरी का मुआवज़ा को केंद्र सरकार के लेवल से हटाकर ग्रामीण विकाश मंत्रालय द्वारा मुआवज़ा देने से इंकार। राज्य सरकार की देरी की वजह से मुआवज़े का 6% भी भुगतान नहीं। 

4. सोशल ऑडिट यूनिट के स्वतंत्र रूप से काम करने के लिए कोई स्वतंत्र फ़ंड नहीं, जो कि सीएजी द्वारा निर्धारित मानक कि मनरेगा के ख़र्च का 0.5% सोशल ऑडिट में ख़र्च होना चाहिये, का भी उल्लंघन है। 

कोर्ट इन मामलों में आगे की सुनवाई 5 दिसम्बर 2017 को करेगा। यह बयान स्वराज अभियान द्वारा नरेगा संघर्ष मोर्चा, राइट टू फ़ूड कैम्पेन और Peoples’ Action for Employment Guarantee के असोसीएशन में जारी किया गया है।

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