शुक्रवार, 27 मई 2022

धैर्य रखें न्यायालय साक्ष्यों के आधार पर ही फैसला देंगे

अवधेश कुमार

ज्ञानवापी मस्जिद विवाद हो या कृष्ण जन्मभूमि ईदगाह मस्जिद या कुतुबमीनार सूर्य स्तंभ- विष्णु स्तंभ इन पर आम सहमति बनाना कठिन है। बातचीत और आम सहमति से ऐसे धार्मिक स्थलों के विवाद सुलझ जाएं इससे बेहतर कुछ हो नहीं सकता, किंतु परिस्थितियां ऐसी नहीं हैं जिनमें इसकी कल्पना भी की जाए। अयोध्या मामले में कोशिशें हुईं लेकिन अंततः न्यायालय के फैसले से ही समाधान हो सका। वस्तुतः लंबे समय मामला लटकाए जाने के कारण लोगों का आक्रोश बढ़ा और वो न्यायालय से लेकर अन्य स्तरों पर इसके लिए आवाज उठाने लगे। अब चूंकि उच्चतम न्यायालय ने ज्ञानवापी मामले में हस्तक्षेप किया है, इसलिए मानकर चलना चाहिए कि आने वाले समय में इसका कानूनी निपटारा हो जाएगा। उच्चतम न्यायालय के आदेश को भी सही परिप्रेक्ष्य में समझे जाने की आवश्यकता है। उच्चतम न्यायालय ने मुख्यतः तीन आदेश दिए हैं। पहला, मामले को वाराणसी के सिविल न्यायाधीश, सीनियर डिवीजन से जिला न्यायाधीश को स्थानांतरित किया है। न्यायमूर्ति धनंजय चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति टी एस नरसिम्हा कि पीठ ने कहा कि बेहतर होगा कि एक वरिष्ठ न्यायिक अधिकारी इसे देखें क्योंकि मामला जटिल और संवेदनशील है। इसका यह अर्थ नहीं है कि न्यायालय ने दीवानी न्यायाधीश पर कोई टिप्पणी की है। कहा है कि वे दीवानी न्यायाधीश पर कोई आरोप नहीं लगा रहे हैं न उनकी क्षमता पर प्रश्न उठा रहे हैं। हमारे देश में हर कोई फैसले का अपने अनुसार अर्थ लगाने लगता है।  वास्तव में इससे मुकदमे की स्थिति में कोई अंतर नहीं आया है।इससे मां श्रृंगार गौरी की प्रतिदिन पूजा अर्चना की मांग करने वालों या फिर ज्ञानवापी को पूर्व काशी विश्वनाथ मंदिर मानने वालों को किसी तरह  धक्का नहीं लगा है। मस्जिद के पक्ष में आवाज उठाने वाले कह रहे थे कि पूजा स्थल विशेष प्रावधान कानून, 1991 के अनुसार 15 अगस्त, 1947 तक किसी भी स्थान की जो स्थिति थी उसमें अयोध्या को छोड़कर बदलाव नहीं हो सकता। इस आधार पर वे दीवानी न्यायालय में सुनवाई और सर्वे आदेश को भी गलत और कानून विरोधी बता रहे थे। उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया कि पूजा स्थल कानून, 1991 किसी धार्मिक स्थल के धार्मिक स्वरूप का पता लगाने पर रोक नहीं लगाता। मस्जिद कमेटी के वकील ने सिविल न्यायाधीश द्वारा सर्वे के लिए एडवोकेट कमिश्नर नियुक्त करने तथा 16 मई को शिवलिंग के दावे वाले स्थान को सील करने के आदेश को इस कानून का उल्लंघन बताया। इस पर न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा कि अगर धार्मिक स्थल की हाइब्रिड स्थिति हो यानी दो धर्मों के लोगों का दावा है और उनके अवशेष मिल रहे हों तो उसका पता लगाने में यह कानून आड़े नहीं आता है।

इनकी कोई जो भी व्याख्या करे, तत्काल यह ज्ञानवापी को मंदिर मानने वालों के अनुकूल है। विरोधी अपने पक्ष में सबसे बड़ा आधार इसे ही बता रहे थे।  ध्यान रखिए कि श्री कृष्ण जन्मस्थान से शाही ईदगाह मस्जिद को हटाने के लिए दायर हुई याचिका को स्वीकार करते हुए मथुरा के जिला न्यायाधीश ने भी टिप्पणी में लिखा है कि वादी ने शाही मस्जिद ईदगाह कमेटी और श्री कृष्ण जन्मस्थान सेवा संघ के बीच 1968 में हुए समझौते को रद्द करने की मांग की है जबकि उपासना स्थल कानून 1991 में बना है ,इसलिए समझौता रद्द करने की मांग पर यह लागू नहीं होता है। हमें अपनी ओर से इस कानून की व्याख्या करने की बजाय न्यायालय के ही अंतिम मत की प्रतीक्षा करनी चाहिए जहां इस पर याचिका लंबित है। यहां इतना ही समझ लेना पर्याप्त है कि ज्ञानवापी मस्जिद या मंदिर में से क्या होगा, श्री कृष्ण जन्मस्थान ईदगाह मस्जिद को माना जाएगा या नहीं या फिर कुतुबमीनार सूर्य स्तंभ या विष्णु स्तंभ माना जाये या नहीं आदि सुनिश्चित करने में पूजा स्थल कानून, 1991 बाधा नहीं है। तो इसे यहीं छोड़ कर आगे बढें। ध्यान रखिए ,सर्वे के आदेश को चुनौती देने वाली याचिका इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भी खारिज कर दिया था।

उच्चतम न्यायालय का दूसरा आदेश नमाज को बाधित नहीं करने तथा वजू की उचित व्यवस्था से संबंधित है। सिविल जज ने उस स्थान को सील करने का आदेश दिया था और 17 मई को उच्चतम न्यायालय ने उसे जारी रखा था। नमाज के लिए सुरक्षा सुनिश्चित करने का आदेश देते हुए भी उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट कहा कि शिवलिंग के दावे वाली जगह की सुरक्षा सुनिश्चित हो। पीठ ने जिला  प्रशासन से कहा है कि अगर मस्जिद में वजू का उचित इंतजाम न हो तो वह पक्षकारों से विचार-विमर्श करके वजू का उचित इंतजाम कराए। यानी वजू का इंतजाम भी दोनों पक्षों की सहमति से करना है। सील होने के बाद वाले शुक्रवार को वहां नमाज हुआ ,जिसमें भारी संख्या में लोग उपस्थित थे और किसी ने नहीं कहा कि वजू की व्यवस्था नहीं है। इसलिए यह अध्याय तत्काल बंद हो जाना चाहिए। हालांकि उच्चतम न्यायालय के आदेश के बाद मस्जिद पक्ष द्वारा सिविल प्रोसीजर कोड के तहत दायर अर्जी पर प्राथमिकता के आधार पर जिला न्यायाधीश सुनवाई करेगा। यह उसका तीसरा आदेश है ।  अंजुमन इंतजामियां मस्जिद ने पूजा स्थल कानून,  1991 का हवाला देते हुए मुकदमा खारिज करने की मांग की है। यद्यपि उच्चतम न्यायालय ने इस कानून के संदर्भ में तात्कालिक व्याख्या दी है, बावजूद उसने जिला न्यायाधीश को सुनवाई रोकने का आदेश नहीं दिया । यहां भी ध्यान रखने की आवश्यकता है कि जिला न्यायाधीश का फैसला आने के बाद 8 हफ्ते तक उच्चतम न्यायालय का अंतरिम आदेश लागू रहेगा। यानी जो भी फैसला होगा उससे वहां की वर्तमान स्थिति में अंतर नहीं आएगा। शिवलिंग के दावे का स्थान सुरक्षित रहेगा, वजू के लिए दूसरी व्यवस्था रहेगी। किंतु जब उच्चतम न्यायालय ही इसको सुनवाई या धार्मिक स्वरूप के निर्धारण के रास्ते की बाधा नहीं मान रहा तो जिला न्यायाधीश अलग फैसला कैसे दे सकते हैं?

सर्वे में वजूखाने के अंदर मिली आकृति शिवलिंग की तरह दिखता है। विरोधी पक्ष का दावा है कि वह फव्वारा है। इसका निश्चय भी विशेषज्ञों द्वारा होगा और बगैर न्यायालय के आदेश के इसकी जांच नहीं हो सकती। जहां तक पुरातत्व विभाग द्वारा सर्वेक्षण का मामला है तो ज्ञानवापी में निचले न्यायालय ने इसका आदेश दिया था जिस पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने रोक लगा दी थी। चूंकि उस पर अभी बहस चल रही है ,इसलिए उच्च न्यायालय ने रोक की अवधि 21 जुलाई तक बढ़ाई है। यानी वह पूरी होने के बाद फैसला होगा कि वहां पुरातत्व विभाग से सर्वेक्षण कराया जाए या नहीं। अगर उस स्थान के धार्मिक स्वरूप का निर्धारण होना है तो पुरातत्व विभाग का सर्वेक्षण चाहिए। यह मामला 1991 में दायर हुआ था। वाराणसी की जिला अदालत में अपील की गई थी कि वाराणसी में जहां ज्ञानवापी मस्जिद है वहां प्राचीन मंदिर बहाल करने की अनुमति दी जाए।

यह विचार उचित नहीं लगता कि उच्चतम न्यायालय के आने के बाद उच्च न्यायालय सुनवाई नहीं करेगा। उच्चतम न्यायालय का आदेश दूसरी याचिका पर है जिसका इससे लेना -देना नहीं है। दूसरी ओर कमिश्नर की सर्वे रिपोर्ट आ गई है जिसके बारे में अभी तक जितनी जानकारी है उसके अनुसार  सारे प्रमाण मंदिर होने के बताए गए हैं। सर्वे रिपोर्ट लीक करने के आरोप के बाद यद्यपि पहले एडवोकेट सर्वे कमिश्नर अजय मिश्रा हटा दिए गए फिर भी उन्होंने अपनी रिपोर्ट दे दी है । दोनों में काफी समानता है।

तो सभी मामलों का दारोमदार न्यायालयों के फैसलों पर टिका है। जब उच्चतम न्यायालय स्वयं धार्मिक स्वरूप के निर्धारण जैसा शब्द इस्तेमाल कर रहा है तो कम से कम ज्ञानवापी मामले का श्रृंगार गौरी पूजन से आगे अंतिम निर्धारण तक जाना निश्चित हो गया। मां श्रृंगार गौरी की नियमित पूजा अर्चना के साथ संपूर्ण ज्ञानवापी की मुक्ति के लिए संघर्ष करने वालों को न्यायालयों के आदेशों की मनमानी व्याख्या से विचलित होने की जगह धैर्य रखना चाहिए क्योंकि अब पूरा मामला वहां पहुंच गया है जहां नीचे से शीर्ष तक के न्यायालयों द्वारा फैसला आना निश्चित है। और न्यायालय साक्ष्यों के आधार पर ही फैसला देगा जैसा अयोध्या मामले में हुआ।

अवधेश कुमार, ई-30, गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली- 110092, मोबाइल -98110 27208



गुरुवार, 19 मई 2022

इनमें सरकार की भूमिका को नजरअंदाज मत करिए

अवधेश कुमार

निश्चित रूप से कुछ लोगों का मानना होगा कि ज्ञानवापी, मथुरा, ताजमहल आदि मामलों को उठाने से किसी का कोई भला नहीं होगा।  दूसरी ओर देश के बड़े वर्ग को  लगता है कि जो अन्याय हमारे धर्म स्थलों के साथ हुआ उनको स्वीकार कर न्याय करने का यह उपयुक्त समय है। ये विषय ऐसे हैं जिनसे सांप्रदायिक तनाव बढ़ाकर हिंसा कराने की कोशिशों का डर पैदा होता है। ऐसी ही सोच के कारण सरकारें अब तक इन मुद्दों से बचती रही है। क्या ऐसी आशंका या भय से सदियों से विवादित, प्रत्यक्ष या परोक्ष स्थाई तनाव का कारण बने और अपने अंदर भविष्य में हिंदू मुस्लिम संघर्ष के खतरों से निहित मुद्दों का समाधान नहीं होना चाहिए? करोड़ों हिंदुओं, सिखों के अंदर यह भावना है कि उनके महत्वपूर्ण धर्म स्थलों को क्रूरता से ध्वस्त कर उन पर मस्जिदें,  मजारें या अन्य भवन निर्मित हुए और ये हटने चाहिए तो आप यह कह कर कि इससे तनाव बढ़ेगा या समय अब काफी आगे निकल चुका है.. हमको दूसरी ओर देखना चाहिए …भावनाओं को खत्म नहीं कर सकते। उल्टे ऐसी प्रतिक्रियायें से लोगों के अंदर बिक्षोभ और आक्रोश ज्यादा पैदा होता है।सरकार का काम लोगों की भावनाओं को सच्चाई की कसौटी पर ईमानदारी से कसकर उसके अनुरूप कदम उठाना।

निसंदेह  ज्ञानवापी का सर्वे न्यायालय के आदेश से है तो इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मथुरा के स्थानीय न्यायालय को निर्देश दिया कि ईदगाह मस्जिद और श्री कृष्ण जन्मभूमि वाले सारे मुकदमों को एक साथ कर चार महीना के अंदर निपटा दिया जाए। सतही तौर पर सरकार  कहीं दिखाई नहीं देगी। पर ऐसा है नहीं। केंद्र और राज्य सरकारों की कोई औपचारिक प्रतिक्रिया न आना अपने आपमें प्रतिक्रिया है। न केंद्र सरकार न्यायालय गई और न ही उत्तर प्रदेश सरकार। इसका अर्थ है कि सरकारें न्यायालयों के आदेशों से सहमत हैं और चाहती हैं कि इन मामलों का फैसला हो जाना चाहिए। वास्तव में न्यायालय आदेश दे सकता है। उसे क्रियान्वयन करने का दायित्व सरकारों का ही होता है। सरकारें सहयोग न करें तो न्यायालय के ऐसे निर्णय लागू हो ही नहीं सकते। कल्पना करिए, यदि प्रदेश में योगी आदित्यनाथ सरकार नहीं होती ज्ञानवापी मस्जिद में जिस ढंग से वीडियोग्राफी हुई है उस तरह क्या हो पाता? ऐसे आदेश जब भी आते हैं सरकारों के अंदर नकारात्मक सोच उभरतीं हैं। कुछ  तो विकृत वैचारिक दृष्टि से ऐसे मामलों को ही गलत मानते हैं और कुछ कानून और व्यवस्था संभालने के नाम पर ऐसे फैसलों को क्रियान्वित करने से बचते हैं।

उत्तर प्रदेश वैसे भी सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील राज्य है। यहां सांप्रदायिक दंगों का लंबा इतिहास है। इसका ध्यान रखते हुए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ मंत्रिपरिषद  से विमर्श कर इस आधार पर कि इनके क्रियान्वयन से तनाव पैदा होगा विधि विभाग को फैसले के विरुद्ध न्यायालय में अपील करने का आदेश दे सकते थे। इसके विपरीत योगी सरकार ने ज्ञानवापी मस्जिद की ठीक प्रकार से वीडियोग्राफी होने और उस दौरान किसी प्रकार का व्यवधान न आने के सारे पूर्व उपाय किए। कट्टरपंथी उपद्रवी तत्व इसका लाभ उठाकर विघ्न पैदा न करे इसके लिए भी सुरक्षा की पूरी व्यवस्था की गई। कुछ कट्टरपंथी मुस्लिम नेताओं ने जैसा माहौल बनाया हुआ है उसमें न जाने कितने सिरफिरे उन्मादी भ्रमित होकर हिंसा करने पर उतारू हो सकते हैं। सरकार उसी को कहते हैं जो ऐसे मामलों में खतरा ले और निपटाने के लिए जो भी आदेश न्यायालय से मिले उन्हें क्रियान्वित करे या स्वयं समाधान की पहल करे। 

काशी विश्वनाथ मंदिर में दर्शन पूजन के लिए हमेशा भारी भीड़ रहती है। जो सूचना है उसके अनुसार काशी विश्वनाथ परिषद से 2 किलोमीटर तक कड़ी सुरक्षा व्यवस्था की गई। सुरक्षाबलों की संख्या में स्वाभाविक ही भारी वृद्धि की गई। पूरे क्षेत्र के नागरिकों से अपील की गई थी कि वे 12 बजे तक किसी भी बाहरी व्यक्ति या रिश्तेदार को घर नहीं बुलाए। गोदौलिया से मैदागिन तक दुकानें भी 1:30 बजे तक बंद करने का आदेश दिया गया। यानी सुरक्षा की दृष्टि से संपूर्ण घेराबंदी। वाराणसी जैसे सक्रिय शहर में इस तरह की व्यवस्था कितनी कठिन रही होगी इसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है। लोग भी इसके विरुद्ध प्रतिक्रियाएं व्यक्त करते हैं। अनेक लोगों को अपने दैनिक जीवन से लेकर कई प्रकार की समस्याएं उत्पन्न होती हैं। किंतु सरकार वही होती है जो प्राथमिकताओं को समझे और लंबे समय से विवादित मुद्दों के समाधान की दृष्टि से न्यायालय के आदेश का ध्यान रखते हुए जितना कुछ संभव है वह करें। वीडियोग्राफी से लेकर सारी व्यवस्थाएं इस बात का संदेश दे रही थी मानो योगी सरकार पहले से तैयारी कर रही थी। सोच यही रहा होगा कि न्यायालय का आदेश आये  और हम त्वरित गति से पालन सुनिश्चित करें। 

ड्रोन से लेकर अंदर तक उच्च स्तर की वीडियोग्राफी बगैर सरकार के सहयोग हो ही नहीं सकता था। जिन लोगों ने इससे तनाव पैदा होने दंगे भड़कने हिंसा होने या मुस्लिम समुदाय के भारी संख्या में सड़कों पर उतारने आदि की अतिवादी आशंकाएं प्रकट की थी उन लोगों को पूरी तस्वीर से निराशा हाथ लगी है। मीडिया में अवश्य इसके विरुद्ध कुछ बयान आ रहे हैं किंतु धरातल पर कहीं किसी स्तर का बड़ा विरोध प्रदर्शन नहीं दिखा। वीडियोग्राफी हो गई इसलिए आज यह सामान्य लग सकता है। ऐसा है नहीं। पहले कोई सोच नहीं सकता था कि ज्ञानवापी की इस तरह वीडियोग्राफी हो जिसमें मुस्लिम पक्ष भी सहयोग करें । सरकारों के चरित्र का अंतर देखिए। एक सरकार वह थी जिसने ज्ञानवापी परिसर के अंदर स्थित मां श्रृंगार गौरी की प्रतिदिन होने वाली पूजा अर्चना रोक दिया। बाद में केवल वर्ष में एक बार नवरात्रा के चतुर्थी को करने की अनुमति दी गई। सोचिए, कितना दर्दनाक फैसला था? श्रद्धालुओं और भक्तों को बरसों से होने वाली पूजा से इस आधार पर वंचित करना कि उसे सांप्रदायिक तनाव पैदा होगा क्या किसी सरकार के इकबाल का द्योतक है? क्या इसे कानून का राज कहेंगे? सरकार का दायित्व था कि पहले से हो रही पूजा अर्चना को सुरक्षा देकर पूरी तरह सुनिश्चित करता।

वास्तव में पूर्व की सरकारों ने साहस किया होता तो इन मामलों का समाधान भी हो जाता। कोई समाधान सभी को संतुष्ट नहीं करता। अयोध्या पर लंबी सुनवाई के बाद में उच्चतम न्यायालय के इतने विस्तृत फैसलों को भी गलत बताने वाले सामने हैं। उनकी चिंता की जाए तो फिर किसी समस्या का समाधान हो ही नहीं सकता। सरकारों की इसी दुर्बल और घातक मानसिकता के कारण मुद्दे ज्यादा जटिल हुए और उनका समाधान करना पहले से अधिक चुनौतीपूर्ण व कठिन हो चुका है। अयोध्या, मथुरा, काशी और इस तरह के कई विवादास्पद मसलों का समाधान सरकारों को स्वयं पहल करके करना चाहिए था। किसी सरकार ने ऐसी कोशिश की ही नहीं कि इनसे संबंधित मुकदमों की त्वरित सुनवाई हो और उसके लिए सारी व्यवस्था की जाए।  

रवैया ठीक इसके विपरीत रहा। इसी कारण जाना हुआ सच भी लंबे समय तक झुठलाया जाता रहा। भारत में वर्षों से हिंदुओं के बीच पीढ़ी दर पीढ़ी यह जानकारी आ रही है कि इन स्थानों पर हमारे मुख्य मंदिरों को मुस्लिम शासकों ने ध्वस्त कर उनकी जगह मस्जिद या दूसरे भवन बनवाएं, लेकिन सतह पर हमेशा अनेक पार्टियों के नेता, बुद्धिजीवी, एक्टिविस्ट, इतिहासकारों का बड़ा समूह इसके गलत साबित करता रहा उपहास उड़ाता रहा। आप सोचिए, क्या स्वास्तिक,गज, कमल के फूल, दीवारों पर देवताओं की आकृतियां आदि किसी दूसरे धर्म स्थल के निर्माण में उपयोग हो सकते हैं? यह सुखद है कि केंद्र में नरेंद्र मोदी और प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकार इन तर्कों से सहमत नहीं और सच्चाई के प्रति उसकी आस्था दृढ़ है। इसी तरह इन मुद्दों का समाधान हो इसके प्रति भी ये संकल्पित दिखते हैं। 

योगी आदित्यनाथ सरकार ने जिस ढंग से वीडियोग्राफी कराने से लेकर सुरक्षित वातावरण उपलब्ध कराया वह असाधारण है। इस व्यवस्था में यह भी निहित है कि वर्तमान संरचना को  कोई नुकसान न पहुंचे पाये। यह व्यवस्था ज्ञानवापी, ताजमहल से लेकर ईदगाह मस्जिद तक विस्तारित है। कानून के राज का सबसे बड़ा प्रमाण यही हो सकता है। अगर सरकार एकपक्षीय सोच रखती तो उसका व्यवहार दूसरा होता। जिस तरह  पूरा रमजान शांतिपूर्वक बीता, हिंदू उत्सवों की शोभायात्रायें निकलीं, रमजान के अलविदा नमाज के दिन सुड़के बिल्कुल खाली रही ,उनके संदेशों को पढें तो साफ हो जाएगा कि काशी और मथुरा के मामले में न्यायालयों की कार्रवाई निर्बाध होगी और कम से कम उत्तर प्रदेश में इसे बाधित करने का कोई षड्यंत्र सफल नहीं होगा।

अवधेश कुमार, ई-30, गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली 110092,  मोबाइल 98110 27208

शुक्रवार, 13 मई 2022

राज ठाकरे के वर्तमान तेवर के मायने

अवधेश कुमार 

राज ठाकरे अचानक पूरे देश में कई दिनों तक चर्चा के विषय रहेंगे और उनके साथ भारी संख्या में जनशक्ति दिखाई देगी इसकी कल्पना शायद ही किसी ने की होगी। लंबे समय से ऐसा लग रहा था जैसे राज ठाकरे राजनीति में सक्रिय है ही नहीं। उन्होंने मस्जिदों में लाउडस्पीकर से अजान रोकने और अवैध लाउडस्पीकर हटाने की मांग कर घोषणा कर दी कि अगर 3 मई तक नहीं हुआ तो वे दोगुनी आवाज में जगह-जगह हनुमान चालीसा का पाठ करेंगे। यह ऐसी चेतावनी थी जिससे पूरे महाराष्ट्र में सनसनी पैदा हो गई और लगा जैसे कोई बड़ा तनाव पैदा होने वाला है। महाराष्ट्र में अब अवैध लाउडस्पीकर हट रहे हैं या जो हैं उनकी आवाज कम की जा रहीं हैं। तो यह मानना पड़ेगा कि अगर राज ठाकरे ने आवाज नहीं उठाई होती, औरंगाबाद में उनकी भारी भीड़ वाली सभा नहीं होती तो ऐसा नहीं हो पाता। हालांकि अपनी पत्रकार वार्ता में उन्होंने अपने तेवर को थोड़ा मध्दिम किया एवं कहा कि यह सतत् चलने वाला आंदोलन है। इसे उन्होंने धार्मिक की बजाय सामाजिक विषय भी बताया।

निश्चय ही इससे महाराष्ट्र में भविष्य के तनाव की आशंकाएं थोड़ी कम हुई है। लेकिन यह नहीं मानना चाहिए कि मुद्दा खत्म हो गया या राज ठाकरे फिर लंबे समय के लिए घर में बंद हो जाएंगे। महाराष्ट्र की राजनीतिक परिस्थितियों पर नजर रखने वाले बता सकते हैं कि वे लंबे समय तक सक्रिय होने की योजना से बाहर निकले हैं। शरद पवार की अगुवाई में महाविकास अघाडी की बैठक के बाद उप मुख्यमंत्री अजीत पवार ने कहा कि जो भी कानून हाथ में लेगा उसके खिलाफ कार्रवाई होगी। प्रश्न यही है कि कार्रवाई पहले क्यों नहीं हुई? सांसद नवनीत राणा और उनके पति रवि राणा को केवल मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के घर के सामने हनुमान चालीसा पढ़ने की चुनौती पर राजद्रोह लगाकर गिरफ्तार करने वाला महाराष्ट्र प्रशासन राज ठाकरे के संदर्भ में कुछ न कर सका तो आगे वे कोई कठोर कदम उठा पाते इसकी संभावना न के बराबर थी। वास्तव में शिवसेना राज ठाकरे के विरुद्ध कार्रवाई करके उनको हिंदुत्व का हीरो बनने नहीं देना चाहती थी। ऐसा होने से शिवसेना के वोट बैंक का एक बड़ा हिस्सा राज के साथ जा सकता है। 

राज ठाकरे बनाम शिवसेना की यह लड़ाई 2006 से ही आरंभ हुई। अभी तक शिवसेना उसमें  जीत रही है। लेकिन महा विकास आघाडी में आने के बाद शिवसेना की चाल और चरित्र में जो अंतर आया है उसके बाद कई प्रकार की संभावनाएं खड़ी हुई है। शिवसेना के सरकार में आने के बाद अपने ज्यादातर मुद्दों पर पहले के विपरीत रवैया रहा है। वह हिंदुत्व आधारित वोट बैंक को बनाए रखना चाहती है तो दूसरी ओरदोनों साझेदारों के साथ नए समर्थकों को संदेश देना चाहती है कि सेकुलरिज्म के नाम पर उसकी निष्ठा अटूट है। उसे गठबंधन में राजनीति करनी है तो सेक्यूलरवाद के प्रति आक्रामक निष्ठा प्रदर्शित करते रहनी होगी। इसमें खतरा यह है कि धीरे-धीरे हिंदुत्व विचारधारा के आधार पर खड़ा समर्थन कमजोर हो सकता है। हिंदुत्व के कारण शिवसेना से जुड़े लोगों के बड़े समूह में यह विचार प्रबल होने लगा है कि क्या यह वही पार्टी है? जब तक सत्ता है बहुत सारे लोग समर्थन करेंगे लेकिन सत्ता जाने के बाद विचारधारा वाले समर्थक साथ छोड़ सकते हैं। उनके लिए महाराष्ट्र में दो ही विकल्प होंगे, भाजपा या राज ठाकरे की मनसे।

इसलिए राज ठाकरे ने उपयुक्त समय जानकर चोट किया और संभव है भाजपा ने उन्हें प्रोत्साहित किया हो। राज ठाकरे ने यह संदेश दे दिया है कि शिवसेना हिंदुत्व आधारित पार्टी नहीं रही क्योंकि 3 मई यानी रमजान पूरा होने तक उसने मस्जिदों पर लगे लाउडस्पीकर को मुंबई उच्च न्यायालय एवं उच्चतम न्यायालय के आदेशों के अनुसार नियमित करने का साहस नहीं दिखाया। राज ठाकरे यही साबित करना चाहते थे कि मुसलमानों के समक्ष शिवसेना भी उसी ढंग से नतमस्तक है जैसी बाकी तथाकथित सेकुलर पार्टियां। 3 मई के बाद कुछ हो जाए वह मायने नहीं रखता।  प्रश्न है कि आगे क्या होगा? राज ठाकरे का राजनीतिक भविष्य क्या होगा? क्या भाजपा शिवसेना से अलग होने के बाद राज ठाकरे को इतना सशक्त करना चाहती है ताकि उनके साथ राजनीतिक साझेदारी होने का लाभ मिल सके और शिवसेना कमजोर हो जाए?

इन सारे प्रश्नों का उत्तर भविष्य के गर्भ में है। किंतु महाराष्ट्र की राजनीति में बदलाव होगा इससे इनकार नहीं किया जा सकता। राज ठाकरे के साथ उमड़ा जनसमूह इस बात का प्रमाण है कि उनके लिए अभी संभावनाएं मौजूद है। बाला साहब ठाकरे द्वारा उद्धव ठाकरे को उत्तराधिकारी बनाने के कारण विभेद पैदा हुआ और 2006 में राज ठाकरे ने शिवसेना का त्याग कर दिया। उन्होंने मार्च 2006 में महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना या मनसे का गठन किया। लेकिन उन्होंने अपने झंडे में चार ऐसे रंग दिखाएं जिससे लगता था कि वह सेक्यूलर राजनीति करना चाहते हैं। बाला ठाकरे के आरंभिक कार्यकाल की तरह राज ठाकरे ने महाराष्ट्र महाराष्ट्रीयन के लिए यानी भूमि पुत्रों की लड़ाई में उत्तर भारतीयों के खिलाफ अभियान चलाया । इसका शायद आरंभ में थोड़ा असर हुआ और 2009 के विधानसभा चुनाव में मनसे के 13 विधायक जीतकर विधानसभा पहुंचे। इसके बाद नगर निगम चुनावों में भी उनका प्रदर्शन अच्छा रहा। नासिक नगर निगम मनसे के कब्जे में आ गया। 

बीएमसी यानी बृहन्मुंबई नगरपालिका में उनके 27 कॉरपोरेटर निर्वाचित हुए।  वे उसे बनाए नहीं रख सके। 2014 के लोकसभा चुनाव में मनसे एक भी सीट नहीं जीत सकी। उसी साल के विधानसभा चुनाव में  मनसे केवल 1 सीट जीत पाई। 2019 लोकसभा चुनाव उन्होंने नहीं लड़ा। उसी वर्ष  विधानसभा चुनाव में मनसे ने 101 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए जिसमें से केवल 1 पर विजय मिली एवं 87 उम्मीदवारों के जमानत जब्त हो गए। इसके बाद राजनीति में उनकी संभावनाएं खारिज कर दी गई।

सामान्य तौर पर यह हैरत में डालता है कि उनकी सभाओं में किसी राष्ट्रीय नेता की तरह भारी जनसमूह जुड़ता रहा लेकिन  वह वोटों में तब्दील नहीं हुआ। कारण यही माना गया कि उनके पास राजनीतिक और चुनाव प्रबंधन करने वाले लोगों की कमी है। दूसरे, मनसे विचारधारा को लेकर अस्पष्ट रही ।उनका झंडा 4 रंगों का और इसके साथ घोषणा कि हमारी नीति धर्मनिरपेक्षता की है तो फिर लोग मनसे के साथ क्यों आएंगे? तीसरे, उत्तर भारतीयों का विरोध करके उन्होंने भूमि पुत्र सिद्धांत को आगे बढ़ाया जिससे भ्रम पैदा हो गई। तीसरे,राज ठाकरे  बयान देने या मंच पर भाषण देने के अलावा कभी भी सड़क पर उतर कर काम करने का व्यवहार नहीं दिखाया। इसलिए महाराष्ट्र की मीडिया में उन्हें विंडो पॉलीटिशियन की भी संज्ञा दी गई। मीडिया के साथ उनका व्यवहार अत्यंत रूखा और सख्त रहा। इस तरह वे महाराष्ट्र की राजनीति में अलग-थलग पड़ गए। इस समय की परिस्थितियां थोड़ी अलग है। 

2019 का विधानसभा चुनाव भाजपा और शिवसेना ने एक साथ लड़ा। शिवसेना केवल 56 सीटें पाने के बावजूद मुख्यमंत्री पद की जिद पर अड़ गई और गठबंधन टूट गया। शरद पवार ने इसका लाभ उठाया तथा उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री बनाकर उनके नेतृत्व में कांग्रेस राकांपा एवं शिवसेना की सरकार चल रही है। 105 सीटें पाकर भाजपा विपक्ष में है। शिवसेना की धोखेबाजी को लेकर भाजपा के अंदर क्षोभ  स्वाभाविक है। इसलिए भाजपा अगर राज ठाकरे को समर्थन और सहयोग देकर आगे कर रही होगी तो यह अस्वाभाविक नहीं।

राज ठाकरे ने 2020 से अपने पार्टी में बदलाव किया है। उन्होंने 4 रंगों की जगह केसरिया रंग का झंडा अपना लिया और स उसमें छत्रपति शिवाजी के राज प्रतीक अंकित किए हैं। इस तरह हिंदुत्व और मराठा स्वाभिमान को जोड़ा है। वर्तमान समय पूरे देश में हिंदुओं के अंदर हिंदुत्व को लेकर आलोड़न का है। इसमें राज ठाकरे की आवाज को समर्थन मिलना स्वभाविक है। किंतु उत्तर भारतीयों के विरुद्ध उन्होंने जिस तरह का अभियान चलाया उसे लेकर संदेह कायम है। इसे दूर करने के लिए उन्होंने अयोध्या आने की घोषणा की है। मस्जिदों पर लगे लाउडस्पीकर के संदर्भ में उन्होंने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की प्रशंसा कर शिवसेना को घेरने की कोशिश की। इस तरह वे उत्तर भारतीयों के विरोधी होने के दाग से मुक्ति की कोशिश कर रहे हैं। वे अयोध्या आए और यहां भाजपा नेताओं से मुलाकात हुई या योगी आदित्यनाथ से मिले तो इसका संदेश जा सकता है।  तो कुल मिलाकर राज ठाकरे के लिए संभावनाएं हैं और उस दिशा में वे कोशिश कर रहे हैं। भाजपा ने राज ठाकरे के साथ गठबंधन किया तो उनका जनाधार मजबूत होगा और इसकी क्षति शिवसेना की होगी। 

अवधेश कुमार,  ई-30, गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली-110092, मोबाइल-9811027208



शनिवार, 7 मई 2022

जोधपुर की हिंसा प्रशासन की विफलता का परिणाम

अवधेश कुमार

राजस्थान में पहले करौली और अब जोधपुर की हिंसा ने पूरे देश में चिंता पैदा की है। जोधपुर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का गृह नगर भी है । वे कह रहे हैं कि उन्होंने संपूर्ण जीवन धर्मनिरपेक्षता की रक्षा के लिए लगाया है। आखिर ऐसी सफाई देने की नौबत उनके समक्ष आई है क्यों? वे यह भी कह रहे हैं कि अपराधी किसी भी धर्म के हो उनको हमने बख्सा नहीं है और पुलिस कार्रवाई कर रही है। गहलोत और उनके समर्थकों की नजर में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ क्या है इसे भी उन्हें स्पष्ट करना चाहिए। करौली में नव संवत्सर के अवसर पर निकाली गई शोभायात्रा पर हमले और उसके बाद कीकार्रवाईयों निर्भीक निष्पक्षता अभी तक नहीं दिखी है। सच यही है कि अगर करौली घटना के बाद पुलिस प्रशासन ने पूरी सख्ती दिखाई होती,शोभा यात्रा के हमलावर और इसके पीछे के षड्यंत्रकारी पकड़े जाते तथा इनसे पूछताछ करके राज्य भर में ऐसे लोगों की धरपकड़ होती तो जोधपुर की हिंसा देखने को नहीं मिलती । करौली हिंसा का पूरा सच सामने था लेकिन सरकार भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर आरोप लगाने में ज्यादा शक्ति खर्च करती रही है। इसका एक छोटा हिस्सा भी मजहबी कट्टरपंथी जिहादियों पर फोकस होता तो राजस्थान की तस्वीर बदल जाती।

वास्तव में करौली हिंसा पूरे राजस्थान में सतह के अंदर व्याप्त स्थिति का एक प्रकटीकरण मात्र था। निश्चय ही उसके बाद खुफिया रिपोर्टों का अध्ययन सरकार ने किया होगा। यह संभव नहीं कि एक ही दिन ईद और परशुराम जयंती होने के कारण तनाव, हिंसा व आगजनी आदि की संभावनाएं खुफिया रिपोर्टों में नहीं होगा। इसे ध्यान में रखते हुए निश्चित रूप से संवेदनशील स्थानों पर सख्त सुरक्षा व्यवस्था व हिंसा रोकने के उपाय के कदम उठाए जाने चाहिए थे। यही नहीं देशभर में हिंदू धर्म तिथियों से जुड़े शोभा यात्राओं पर हुए हम लोगों ने यह भी साफ कर दिया कि बड़ी संख्या में भारत विरोधी तत्व देश में सांप्रदायिक हिंसा फैला कर एकता अखंडता को बाधित करना चाहते हैं। उम्र में पकड़े गए लोगों से पूछताछ के बाद कई ऐसे तथ्य सामने आ रहे हैं जो भय पैदा करते हैं। जाहिर है उसके बाद ज्यादातर राज्य सरकारों ने स्थिति की समीक्षा कर उसके अनुसार सुरक्षा व्यवस्था में बदलाव किए हैं। राजस्थान हिंसा का शिकार हो गया था इसलिए वहां की सरकार की भी जिम्मेदारी थी कि पूरी स्थिति की समीक्षा कर नए सिरे से सुरक्षा व्यवस्था पुख्ता करें। प्रश्न है कि गहलोत सरकार ने इसे ध्यान में रखते हुए क्या कदम उठाए?अशोक गहलोत सरकार के गृह मंत्री कह रहे हैं पुलिस की सभी संवेदनशील स्थानों पर पुख्ता व्यवस्था की गई थी। तो फिर घटना क्यों घटी?

परशुराम जयंती पर शोभायात्रा निकालने की घोषणा हो चुकी थी। निर्धारित रूट पर यात्रा के आयोजकों ने जगह-जगह भगवे झंडे लगाए थे। चूंकि प्रशासन ने शोभा यात्रा की अनुमति दी थी, इसलिए यह जिम्मेवारी उसकी ही थी कि कहां झंडे लगें और कहां नहीं लगे। यदि आरंभ में उसने  शर्त लगाई होती कि कहीं झंडे नहीं लगेंगे तो नहीं लगता। हालांकि सच यह भी है कि बाद में प्रशासन ने यात्रा के आयोजकों से बातचीत की और ज्यादातर जगहों से भगवा झंडे हट गए। भारी संख्या में लगे होने पर 2-4 झंडे का छुट जाना अस्वाभाविक नहीं था। उन्हीं में से एक स्थान स्वतंत्रता सेनानी बालमुकुंद बिस्सा की प्रतिमा वाला सर्किल था। यहां आधी रात के बाद कुछ मुस्लिम युवक आए, उन्होंने भगवा झंडा निकाल कर फेंक दिया तथा उसकी जगह सफेद कपड़े पर हरे रंग से चांद सितारे बने झंडे लगाने लगे। इसका विरोध होना ही था। झंडा लगाने का विरोध करने वालों की संख्या कम थी तो झंडा लगाने वालों ने जवाब हमले से दिया। बताया गया कि उन्होंने न केवल झंडे लगाए बल्कि प्रतिमा के मुख पर एक टेप लगा दिया।  सच जो भी हो लेकिन इससे तनाव बढ़ गया। यहां पुलिस प्रशासन को न केवल त्वरित कार्रवाई करनी चाहिए थी बल्कि स्थिति न बिगड़े इसके पूर्वोपाय के अनुसार सुरक्षा व्यवस्था होनी चाहिए थी । ऐसा नहीं हुआ। आरोप तो यह भी है कि पुलिस ने हिंदुओं के विरुद्ध भी कार्रवाई शुरू कर दी। जब दोनों समुदायों के लोग एकत्रित थे तो पुलिस की भूमिका क्या होनी चाहिए? हैरत की बात देखिए कि मुस्लिम समुदाय के कुछ घरों से पत्थर चलाए गए जिनमें हरे रंग से रंगे पत्थर भी थे। है न अजीब स्थिति। इसमें पुलिसकर्मी भी घायल हुए। एक जगह शांति होती तब तक दूसरी और तीसरी जगह पत्थरबाजी शुरू हो गई। कोई चारा न होने पर पुलिस को लाठीचार्ज करना पड़ा।

लेकिन ऐसा होने के बाद भी पुलिस की आंखें शायद पूरी तरह नहीं खुली। दूसरे दिन जो कुछ हुआ उसे हर दृष्टि से एक समुदाय के कुछ लोगों के बढ़े हुए मनोबल तथा पुलिस  कमजोरी का ही परिणाम माना जाएगा। ईद की नमाज के लिए भारी संख्या में लोग एकत्रित हुए। नमाज खत्म होने के साथ ही धार्मिक नारे लगने लगे। अनेक हाथों में तलवारें लहराने लगी। इसके साथ पत्थरबाजी शुरू। एक युवक को चाकू घोंप दिया गया। अनेक वाहनों को तोड़ा गया तथा दो दर्जन से ज्यादा वाइको को आग के हवाले कर दिया गया। 10 एटीएम मशीनों में भी तोड़फोड़ की सूचना है। इस तरह  की हिंसा का मतलब पहले से थोड़ी बहुत तैयारी थी। कुछ लोग हिंसा करने के लिए तैयार बैठे थे ,अन्यथा ऐसा कुछ नहीं हुआ जिसकी प्रतिक्रिया में लोगों ने तोड़फोड़ हिंसा या आगजनी की। स्थानीय भाजपा विधायक सूर्यकान्ता व्यास के घर पर हमला हुआ और मोहल्ले में तेजाब की बोतलें तक फेंकी गई। स्थिति बिगड़ने के बाद प्रशासन को मजबूर होकर कर कर्फ्यू लगानी पड़ी।

कहने की जरूरत नहीं कि प्रशासन स्थिति का सही आकलन न कर पाने के कारण छोटे-मोटे उपाय करके मानता रहा है कि कुछ बड़ा नहीं होगा। दूसरे शब्दों में कहें तो प्रशासन ने  घटना घट जाने का इंतजार किया। सामान्यतः ईद के पूर्व प्रशासन शांति और एकता समितियों की बैठक करता है। खुफिया इनपुट के आधार पर हर स्तर की सुरक्षा तैयारी होती है। आवश्यकता पड़ने पर कुछ लोगों को हिरासत में लिया जाता है या गिरफ्तार किया जाता है। ऐसा भी राजस्थान में देखने को नहीं मिला। वास्तव में पुलिस प्रशासन सरकार यानी राजनीतिक नेतृत्व के निर्देश या उसकी सोच के अनुसार ही काम करता है। उत्तर प्रदेश इसका उदाहरण है कि अगर राजनीतिक नेतृत्व कानून और व्यवस्था के प्रति संकल्पबद्ध हो तो इस स्थिति में आमूलचूल परिवर्तन हो सकता है। 1947 के बाद पहला अवसर है जब उत्तर प्रदेश में अलविदा का कोई नमाज सड़क पर अता नहीं किया गया। सड़क पर नमाज अता न करने का अर्थ है कि अभी तक जानबूझकर ऐसा होता रहा। यानी मस्जिदों में इतनी जगह थी कि नमाज आराम से अता किए जा सकते थे। संभल में छोटी घटना हुई । उसके बाद पुलिस प्रशासन ने जैसी सख्ती की वह सामने है। पूरे रमजान के महीने में कोई एक अवांछित घटना नहीं घटी। हर तरह की शोभा यात्राएं निकलीं और शांतिपूर्वक संपन्न भी हो गईं। उत्तर प्रदेश में कई हजार धर्म स्थानों से अवैध लाउडस्पीकर हटाए गए और भारी संख्या में लगे लाउडस्पीकरों की आवाजें कम की गई। कहीं किसी ने इसके विरोध में आक्रमता या हिंसक प्रतिक्रियाएं देखी? इससे दूसरे राज्य सरकारों को भी सीख लेनी चाहिए। जो उत्तर प्रदेश में हो सकता है वह कहीं हो सकता है। बस, राजनीतिक नेतृत्व के अंदर सकल्प होना चाहिए कि हमें कानून क् शासन की अवधारणा कायम रखनी है।

इसके उलट राजस्थान में जगह-जगह सड़कों पर नमाज़ पढ़े गए और यातायात कई घंटे पूरी तरह ठप रहा। लाउडस्पीकरों की गूंज वैसे ही रही जो पहले थी। मुख्यमंत्री गहलोत चाहे स्वयं को धर्मनिरपेक्षता के प्रति जितना प्रतिबद्ध बताएं या कानून की सख्ती का दावा करें सच्चाई सामने है । जब आप किसी समुदाय की गलतियों, कानून के उल्लंघनों की लगातार अनदेखी करते हैं तो उनसे असामाजिक कट्टरपंथी तत्वों का मनोबल बढ़ता है और वे इसका अपने तरीके से लाभ उठाते हैं। करौली मैं शोभायात्रा पर हुआ हमला इसी का परिणाम था। राजस्थान की इस मायने में स्थिति का अनुमान इससे भी लगाया जा सकता है कि वहां के अखबार वैसे लेख तक छापने से बचते हैं  जिनमें कहीं तार्किक दृष्टि से भी मुस्लिम समुदाय के रवैये पर प्रश्न खड़ा किया किया गया हो। पूछने पर बताया जाता है कि वे लोग कार्यालय में धमक जाते हैं, हल्ला करते हैं। राजस्थान में काम करने वाले ज्यादातर पत्रकारों या वहां के अखबारों में लिखने वालों को इसका अच्छी तरह पता है। कोई पूरा समुदाय आक्रामक नहीं होता लेकिन वहां कुछ सक्रिय तत्वों का मनोबल इतना बढ़ जाए तो यह प्रशासन के इकबाल का परिचायक नहीं हो सकता। अच्छा हो कि ना केवल राजस्थान की गहलोत सरकार बल्कि दूसरी भी राज्य सरकारें इस से सीख ले और उसके अनुसार प्रशासनिक व्यवहार करें।

अवधेश कुमार, ई-30, गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली- 110092 , मोबाइल -98110 27208

रविवार, 1 मई 2022

पंचायती राज की सफलता तो हमारे व्यवहार पर निर्भर है

 अवधेश कुमार

24 अप्रैल को पंचायत दिवस आया गया जैसा हो गया। अगर नरेंद्र मोदी सरकारी इस दिवस पर पंचायतों के लिए पुरस्कारों की घोषणा न करें तो किसी को याद भी नहीं होगा कि पंचायत दिवस कब आता है।

जब पी वी नरसिंह राव सरकार ने 24 फरवरी, 1992 को संविधान के 73वें संशोधन के द्वारा पंचायती राज कानून पारित किया तथा इसके एक वर्ष बाद  लागू हुआ तो इसे स्थानीय स्वशासन प्रणाली की दृष्टि से लोकतांत्रिक अहिंसक क्रांति नाम दिया गया। वास्तव में आजाद भारत की सबसे बड़ी विडंबना थी कि महात्मा गांधी को स्वतंत्रता आंदोलन का अपना नेता घोषित करने के बावजूद आजादी के बाद शासन में आई सरकार ने  ग्राम स्वराज के उनके सपने को संविधान के तहत अनिवार्य रूप से संपूर्ण राष्ट्र में साकार करने का कदम नहीं उठाया । पंडित जवाहरलाल नेहरू के शासनकाल में ही 1957 में बलवंत राय मेहता समिति ने जिस त्रीस्तरीय पंचायत प्रणाली की अनुशंसा की उसके अनुसार गांव में ग्राम पंचायत, प्रखंड स्तर पर पंचायत समिति और जिला स्तर पर जिला परिषद को तभी संविधान का अनिवार्य भाग बना दिया जाना चाहिए था। उसने विकेंद्रित लोकतंत्र शब्द भी प्रयोग किया। ध्यान रखिए, स्वतंत्रता के बाद संविधान की सातवीं अनुसूची में केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन संघ, समवर्ती और राज्य सूची के आधार पर ही किया गया जिनमें पंचायतों को अधिकार नहीं मिल सका। 1992 का संशोधन ही था जिसके तहत पंचायतों को कुल 29 विषयों पर काम करने का संवैधानिक अधिकार मिला।  इस व्यवस्था ने 29 वर्ष पूरा कर 30 वें वर्ष में प्रवेश किया है। किसी भी व्यवस्था के मूल्यांकन के लिए इतना समय प्राप्त है। प्रश्न है कि क्या हम पंचायत प्रणाली की वर्तमान स्थिति को संतोषजनक मान सकते हैं? क्या यह कहा जा सकता है कि गांवों तक सत्ता का सहज विस्तार करने तथा स्वशासन की अवधारणा को साकार रूप देने में यह व्यवस्था सफल हुई है?

आज दुनिया के विकसित देश औपचारिक रूप से यह मानने को विवश हैं कि भारत जैसे विशाल और विविधता वाले देश में पंचायती राज के माध्यम से सत्ता को नीचे तक पहुंचाने का काम अद्भुत है। विकसित देशों में विश्व का शायद ही कोई महत्वपूर्ण विश्वविद्यालय, शोध संस्थान या थिंकटैंक हो जो सत्ता के विकेंद्रीकरण या निचले स्तर पर स्वायत्तता के बारे में अध्ययन या विचार करते समय भारत की पंचायती प्रणाली का उल्लेख न करें। विश्व में सबसे ज्यादा शोध यदि किसी एक प्रणाली पर हुआ है तो वह है, भारत की पंचायती राज व्यवस्था। हमें अपने देश में भले यह सामान्य काम लगे लेकिन विश्व के लिए अद्भुत है। इस आधार पर स्वाभाविक निष्कर्ष यही निकलेगा कि अगर विश्व में इस व्यवस्था ने धाक जमाई है तो निश्चित रूप से सफल है। जाति और लिंग के आधार पर सत्ता में भागीदारी की दृष्टि से विचार करें तो इसने समानता के सिद्धांत को साकार किया है। 1992 के संशोधन में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण था जिसे बाद में 50% कर दिया गया। यानी इस समय करीब 2.6 लाख ग्राम पंचायतों में आरक्षण के अनुसार सत्ता की आधी बागडोर महिलाओं के हाथों में है। दूसरे ,दलितों ,आदिवासियों, पिछड़ी जातियों एवं अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधियों की संख्या 80% से ज्यादा है। विधानसभाओं एवं लोकसभा में अनुसूचित जाति -जनजाति एवं अति पिछड़ी जातियों के सांसदों और विधायकों के निर्वाचित होने से जमीनी स्तर पर सामाजिक असमानता में अपेक्षित अंतर नहीं आया। पंचायतों में इनके निर्वाचन से व्यापक अंतर आया है। एक समय स्वयं को उपेक्षित माने जाने वाला वर्ग अब गांवों और मोहल्ले में फैसले करता है तथा ऊंची जाति की मानसिकता में जीने वाले ने लगभग इसे स्वीकार कर समन्वय स्थापित किया है। बाहर से भले लोगों को दिखाई न दे तथा आज भी तीन-चार दशक पहले की जातीय व्यवस्था को याद करते हुए क्रांतिकारी विचार दिए जाएं, धरातल की स्थिति पंचायती राज व्यवस्था के कारण काफी हद तक बदली है। आप किसी जाति के हों, काम के लिए ग्राम प्रधान, मुखिया, सरपंच या वार्ड सदस्य के घर जाना होता है, उसके दरवाजे पर बैठना है। इन सबसे ऊंच-नीच की मानसिकता बदल रही है। इस तरह कहा जा सकता है कि पंचायती राज ने सामाजिक समानता को मनोवैज्ञानिक स्तर पर स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाया है। 

हां ,महिलाओं के मामले में अभी यह लक्ष्य प्राप्त होना शेष है। ज्यादातर जगह निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों के पति व्यवहार में ज्यादा सक्रिय हैं और मुख्य भूमिका उनकी होती है। किंतु अनेक जगह महिलाएं स्वयं भी सक्रिय हैं। चुनाव के दौरान  महिलाएं अपने लिए लोगों से वोट मांगने जाती हैं और इस प्रकार उनका पुरुषों एवं अन्य महिलाओं से आमना- सामना होता है जो बड़ा बदलाव है। पढ़े-लिखे युवाओं में भी निर्वाचित होकर काम करने की ललक बढ़ी है। चुनाव आधारित लोकतांत्रिक प्रणाली की दृष्टि से देखें तो यह लोकतंत्र के मूल सिद्धांत सतत जागरूकता का साकार होना है।

किंतु यह सब एक पक्ष है। इसके दूसरे पक्ष चिंताजनक और कई मायनों में डरावने हैं। सत्ता यदि शक्ति, संपत्ति और प्रभाव स्थापना का कारक बन जाए तो वह हर प्रकार की मानवीय विकृति का शिकार होता है। हालांकि लोकसभा और विधानसभाओं के अनुरूप शक्ति का विकेंद्रीकरण तुलनात्मक रूप से पंचायती राज में कम है। बावजूद पंचायती राज के तीनों स्तरों के अधिकार और कार्य विस्तार के साथ जितने काम आए और उसके अनुरूप संसाधनों में बढ़ोतरी हुई उसी अनुरूप इनके पदों पर निर्वाचित होने की लालसा भी बढी। वर्तमान वोटिंग प्रणाली अनेक प्रकार के भ्रष्ट आचरण की जननी है। इसे आप पंचायती चुनाव में ज्यादा देख सकते हैं। प्रशासन के लिए पंचायतों का चुनाव कराना विधानसभाओं और लोकसभा चुनावों से ज्यादा चुनौतीपूर्ण है।  मतदान केंद्रों पर सामान्यतः कब्जा नहीं होता लेकिन मत खरीदने के लिए हरसंभव हथकंडे अपनाए जाते हैं। नैतिक गिरावट इतनी है कि हर गांव में ऐसे लोग मिल जाएंगे जो अपना मत बेचने को तैयार बैठे हैं। पंचायत प्रमुख एवं जिला परिषद अध्यक्ष आदि के चुनाव में निर्वाचित प्रतिनिधियों की बोली लगती है। पैसे के साथ-साथ ताकत का बोलबाला भी है और जातीय समीकरण तो है ही। जो भारी निवेश कर चुनाव जीतेगा वह उसी अनुरूप में कमाई भी करेगा। यह कल्पना व्यवहार में सफल नहीं है कि पंचायतों को अगर अपने प्रतिनिधियों के निर्वाचन तथा विकास के लिए योजनाएं बनाने और क्रियान्वित करने की ताकत मिल जाए तो आदर्श व्यवस्था स्थापित हो सकती है। विकास और कल्याण की शायद ही कोई योजना है जिसमें भ्रष्टाचार नहीं हो। राशि लाभार्थी के खाते में सीधे जाती है,पर चाहे प्रधानमंत्री आवास योजना हो या स्वच्छता के तहत शौचालय या ऐसी कोई योजना वार्ड प्रतिनिधि तक हस्ताक्षर करने के एवज में कमीशन लेते हैं। मनरेगा भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा कार्यक्रम बन चुका है। एक बार निर्वाचित होने के बाद सत्ता,शक्ति, संपत्ति और प्रभाव का स्वाद मिल जाने के बाद सामान्यत: कोई पद जाने देना नहीं चाहता। इसलिए हर चुनाव में हम ही जीते इस मानसिकता ने पंचायत प्रणाली को प्रभावी लोगों के गिरफ्त में डाला है।  राशन वितरण में बायोमेट्रिक प्रणाली ने चोरी और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया है लेकिन गांव में अच्छी खेती बारी करने वाले खुशहाल परिवार भी सस्ते अनाज लेते हैं। जानते हुए भी ग्राम प्रधान उस पर रोक नहीं लगाते क्योंकि मामला वोट का है। यह इतना बड़ा भ्रष्टाचार है जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती। स्वयं सोचने वाली बात है कि क्या भारत में आज भी 80% लोगों को पूर्णा काल में मुफ्त राशन की आवश्यकता थी?

कुछ -कुछ जगहों में अपने स्तर पर अवश्य संस्कार और चरित्र से निर्वाचित ग्राम प्रधानों, मुखियाओं और सरपंचों ने बेहतर कार्य से व्यवस्था को आकर्षक बनाया है। इनकी संख्या काफी कम है। और पंचायतों की कुछ व्यवस्था तो ठीक से लागू ही नहीं है। उदाहरण के लिए न्याय पंचायत। अगर न्याय पंचायतें कल्पना के अनुरूप सही ढंग से लागू हो तो न्यायालय में बढ़ते मुकदमों का बोझ काफी हद तक कम हो जाए। ऐसा तभी संभव होगा जब समाज के अंदर अपने दायित्व और उससे संबंधित नैतिक चेतना तथा भावी पीढ़ी के भविष्य संवारने का वास्तविक बोध हो। वास्तव में यही किसी व्यवस्था की सफलता का मूल है । समय की मांग पूरी राजनीतिक व्यवस्था की गहरी समीक्षा और उसके अनुरूप व्यापक संशोधन और परिवर्तन का है । हममें से शायद ही किसी के अंदर इसकी तैयारी हो । गांधीजी ने भारत की प्राचीन प्रणाली के अनुरूप मतदान की अति सामान्य व्यवस्था दी थी। लेकिन उनके विचार के केंद्र में परस्पर एक दूसरे का हित चाहने वाला नैतिक और जिम्मेदार व्यक्ति है। तो व्यवस्था में बदलाव की कल्पना के साथ समाज में ऐसे व्यक्तियों का बहुतायत कैसे हो इस पर काम करने की आवश्यकता है।

अवधेश कुमार, ई-30, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली -110092, मोबाइल -98110 27208

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