सोमवार, 23 अक्तूबर 2023

बाल्मीकि के राम: विविध आयाम

डा. मीना शर्मा

जिसमें मन रमे, वो राम
जन जन में बसे, वो राम
तन मन में बसे वो राम
मेरे मन में बसे हैं राम
मेरे जीवन में बसे हैं राम
मृत्यु बाद भी लें जो नाम
ऐसे आराध्य देव हैं राम।
गिलहरी से लेकर वानर तक, निर्धन की झोपड़ी से लेकर सोने की लंका तक, कण-कण तक एक ही नाम है, जय श्रीराम जय श्री राम! जीवन के साथ भी और जीवन के बाद भी । जीवनकाल में राम का नाम सत्य है तो मृत्यु की बेला में भी राम नाम सत्य है, नहीं अन्य कोई नाम, नहीं अन्य कोई देवता का नाम, सिर्फ राम नाम सत्य है।
जीवन और मृत्यृ दोनों ही आयामों में राम और राम नाम का विस्तार है। राम से ही जीवन में निस्तार है। मृत्यु की बेला के आखिरी क्षणों में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने अकारण नहीं 'हे राम' का नाम लिया था। राम का नाम लेकर ही शरीर त्याग कर जीवन से मुक्ति पाई थी।
क्रौंच पक्षी वध का आत्र्त पुकार सुनकर जो वेदना प्रस्फुटित हुई थी, उसने करुणा के सागर श्रीराम के नाम के उच्चारण ने, करूणा पुकार ने बाल्मीकि से महर्षि बाल्मीकि का जन्म एक आदिकवि को जन्म दिया। रामायणकार को जन्म दिया। स्वयं बाल्मीकि के जीवन को एक नया आयाम एक नया मुकाम दिया। बाल्मीकि से महर्षि बाल्मीकि का यह रूपान्तरण अद्भुत और अविश्वसनीय है।
राम के बाल्मीकि और बाल्मीकि के राम का आयाम ससीम से असीम तक, जन्म से मरण तक, लोक से परलोक तक, मनुष्य लोक से मानवेत्तर लोक तक स्त्री से पुरुष तक, अवर्ण से सवर्ण तक, विचार से आचरण तक, भारत से लेकर पूरे विश्व तक अनंत विस्तार में फैला हुआ है। अपने-अपने राम नहीं, सबके राम हैं। बाल्मीकि के राम की प्रकृति समावेशी है, जिसमें सभी के लिए स्थान एवं स्पेस है।
राम सबके हैं और सब राम का ही है। बाल्मीकि के राम, शबरी के राम हैं, केवट के राम हैं, अहिल्या के राम हैं, गिलहरी के राम हैं, मधुकर के राम हैं, वानर के राम हैं, दीन के राम हैं, हीन के राम हैं, हर होम में राम हैं, रोम-रोम में राम हैं, आरत के राम हैं, भारत के राम हैं। भारत के चरित्र को मर्यादा पुरुषोत्त भगवान श्रीराम से अलग करके देखा ही नहीं जा सकता है। भारतीय जीवन का चरित्र भगवान श्रीराम के चरित्र से होकर गुजरता है। भारत के राष्ट्रवाद और क्छ। में श्रीराम के जीवन की मर्यादा, आदर्श एवं आचरण शामिल है। राम रसायन भी हैं। राम सेतू भी हैं। सेतू की तरह राम भी सभी को जोड़ते हैं। भारत को राम से छोड़कर नहीं, जोड़कर ही देखा और समझा जा सकता है। जहां गांव की सुबह ही राम-राम जी से शुरू होती है। जहां भोर की पहर राम नाम का पहर होता है। जहां गिनती एक से नहीं, राम से शुरू होती है। ग्रामीण भारत में किसान तौल की गिनती एक से नहीं, राम से शुरु करता है, फिर दो फिर तीन क्रमशः बोलता जाता है। तौलता जाता है।
राम पूरी भारतीयता के प्रतीक हैं। मर्यादित आचरण का आदर्श भारतीय आदर्श मॉडल है । मनसा, वाचा और कर्मणा तीनों स्तरों पर जो संरचित होता है। जो आचरण के स्तर पर घटित होता है। प्रतिकूल परिस्थितियों में भी मर्यादा का पालन करना सबसे बड़ी चुनौती है, चाहे अत्ता/राजगद्दी को ठोकर मारकर 14 वर्ष का कठिन वनवास को धारण करने की चुनौती ही क्यों न हो। राम अपने पिता के वचन को अस्वीकार भी कर सकते थे, पिता के खिलाफ विद्रोह कर सकते थे, किन्तु उन्होंने ऐसे कुछ भी नहीं किया। वो भी उस कुर्सी के लिए जिसके लिए महाभारत का युद्ध तक, विश्व युद्ध तक हो जाता है। मुगल शासन में पिता-पुत्र का सत्ता संग्राम सबने देखा है। सत्ता, वैभव, ऐश्वर्य का त्याग की संस्कृति को दुनिया ने यदि श्रीराम के आदर्शों से प्रभावित होकर अपने जीवन में उतार लिया होता, तो कदाचित युद्ध की संस्कृति ही संसार में नहीं होती। कोई देश किसी दूसरे देश को गुलाम बनाता। औपनिवेशिक शासन की संस्कृति, दास प्रथा आदि का दुनिया में अस्तित्व ही नहीं होता। यदि सभी प्राणियों में जीव दयावान के आधार पर एक मानवता का पाठ पढ़ लिया होता, प्रेम का पाठ पढ़ लिया होता जो प्रेम राम ने सामाजिक रूप से पिछड़ी जाति के आदिवासी शबरी के जूठे बेर खाकर प्रोमाप्लावित होकर दिखाया था। माननीय करूणा और सामाजिक समरसता का बड़ा ही मार्मिक प्रसंग है राम शबरी कथा | भारतीय जीवन में इसे यदि मानवीय मूल्य के रूप में धारण किया जाता तो देश जातिवाद का दंश का खत्मा हो जाता। जब भगवान स्वयं जातीय भेद-भाव नहीं करते थे, तो भक्त भला कैसे कर सकता है? राम के आचरण में कहीं भी वर्णगत कट्टरता और जातिगत संकीर्णता का भाव नहीं है। प्रेम और करुणा मानवीय एकता की माला को एक धागे में पिरोने का काम करता है।
प्रेम की यही सृष्टि व्यापिनी भावना का विस्तार राम के 14 वर्षों के वनवास काल में भी परिलक्षित होता है। जब सीताहरण के पश्चात् राम जंगल में / वन में पशुपक्षी सभी से आत्मीय रूप से हृदयस्थ एकता स्थापित करते हुए पूछते हैं:-
हे खग हे मधुकर श्रेणी
तुम देखी सीता मृगनयनी।
आत्म का विस्तार ही भाव का विस्तार, व्यक्तित्व का विस्तार करती है। इसके अभाव में समस्त ज्ञान धरे के धरे रह जाते हैं। बड़ा बड़ा ज्ञानी भी रावण बन सकता है, अहंकार ग्रस्त हो सकता है और सत्ता के मद में, ऐश्वर्य के नशे में किसी स्त्री का भी हरण कर पशुता मर्यादाओं को तार-तार कर सकता है और मर्यादाविहीन समाज बर्बरता और के स्तर पर भी गिर सकता है और जिसका अंत रावण वध के रूप में रावण और तामसिक प्रवृत्ति के खात्मे के लिए युद्ध के रूप में होता है। राम-रावण युद्ध दो व्यक्तियों की लड़ाई न होकर दो अलग रूचि, दो अलग-अलग दृष्टि, विषम संस्कृति, मानसिकता की प्रतीकात्मक लड़ाई है।
समाज में मर्यादा स्थापित करने के लिए और मर्यादाओं के स्खलन पर मर्यादा पुरुषोत्तम राम को भी शस्त्र धारण करना पड़ता है जो अधर्म पर धर्म की जीत है बुराई पर अच्छाई की जीत है। अर्थात् आचरण की मर्यादा ही धर्म है, अच्छाई है। शक्ति को शील से जोड़कर ही समाज में सौन्दर्य स्थापित किया जा सकता है। शक्ति निर्बल की रक्षा और दुर्जनों को दंड देने के लिए होती है। जो समाज की मर्यादा को भंग करते हैं।
रामायण में केवट का प्रसंग भी सामाजिक समरसता की मर्यादा को स्थापित करने के संदेश का मानवीय दृष्टान्त है। मानवीय करूणा और प्रेम की भावना से परिचालित होकर राम सामाजिक रूप से पिछड़े पाद प्रक्षालन करते हैं, उसे गले से लगाते हैं। आत्मप्रसार श्रेष्ठ मानवीय भावभूमि पर इस मिलन में जातिगत कहरता एवं वर्णगत संकीर्णता का समस्त मानवीय दीवारों को गिरा देता है। रामायण का यह करूणा मानवीय प्रसंग समावेशी मर्यादित समरसता का एक आदर्श भारतीय सामाजिक माडल है। भक्ति में ऊंच-नीच का कोई भेद नहीं होता है, बड़ा छोटा का कोई अंतर नहीं होता है। जिसके अपने सामाजिक निहितार्थ है । समस्त मानवीयता और भारतीयता के प्रतीक श्रीराम के नाम को, जीवन को, आदर्श के मर्यादा को न अपनाना एक बहुत बड़ा पाखंड है। वैसे मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम का नाम लेने से कोई कैसे साम्प्रदायिक हो सकता है। और नाम न लेने से धर्मनिरपेक्ष कैसे हो सकता है? यह विवेक की कसौटी से प्रतिकूल कार्य होगा। और यही कोई छटा सेक्यूलरिज्म के नाम पर बड़े-बड़े प्रगतिशील लेखकों और इतिहासकारों ने किया है। जिनके मरने पर भी उनके परिवार वाले वहीं श्रीराम का नाम लेकर अंतिम संस्कार के समय 'राम नाम सत्य है' के स्वर ध्वनियों के साथ मोक्ष द्वार तक ले जाते हैं।
राम को सिर्फ जाति या धर्म (हिन्दू) से जोड़कर देखना भी संकीर्णता का परिचायक है, जो संकीर्णता राम के जीवन और रामायण में कहीं नहीं दिखाई पड़ती है। यह अत्यन्त विरोधाभासी और पूर्वाग्रह से प्रेरित है। बाल्मीकि के राम दलित विरोधी कैसे हो सकते हैं? बाल्मीकि को मानना और राम को न मानना स्वयं महर्षि बाल्मीकि का अपमान है और उनके संपूर्ण सृजनकार्य, ज्ञान का तिरस्कार एवं अनादर होगा। बाल्मीकि के राम सभी के राम हैं बाल्मीकि से लेकर शबरी के राम, केवट के राम, जन-जन के राम हैं, कण-कण के राम हैं। राम-राम में राम हैं, हर होम के राम हैं।
तथापि धर्म और जाति का चश्मा लगाकर देखने वाले कुछ राह भटके लोग श्रीराम को जाति विशेष और धर्म विशेष से जोड़कर सीमित एवं संकुचित दृष्टिकोण से देखकर मर्यादा पुरुषोत्तम के प्रति अमर्यादा का प्रदर्शन राजनीतिक निहितार्थों के कारण करते हैं। अभी राममंदिर निर्माण के दौरान कुछ ऐसे ही विद्वान श्रीराम को सवर्णों के भगवान के रूप में स्थापित करते नजर आए। राम को रामायण से एवं रामायण को राम से अलग और रामायण को बाल्मीकि से अलग नहीं किया जा सकता है। यह भगवान श्रीराम और महर्षि बाल्मीकि दोनों का ही अपमान अनादर है। उनके अस्तित्व और उपलब्धि के आगे प्रश्न चिन्ह लगाना एवं मर्यादा का अतिक्रमण कर पाप की श्रेणी तक ले जाने वाला कुकृत्य है। ऐसे परम ज्ञानी बाल्मीकि का अपमान कर स्वयं को किस मुंह से बुद्धिजीवी एवं सेक्युलर कहते हैं, यदि मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम का नाम लेने में शर्म आती है। जबकि रामायण में रमा भी उदाहरण सामाजिक न्याय और दलित पिछड़ों के विरोधी के रूप में दूर-दूर तक नहीं दिखाई पड़ता है। इसके विपरीत सामाजिक समरसता, मानवीय करूणा, विशुद्ध प्रेम से एक आदर्श एक सामाजिक मानवीय माइल का आदर्श दिखलाई पड़ता है।आदि सामाजिक रूप से पिछड़ी जातियों का मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम से अलग करे नहीं देखा जा सकता है। जब राम स्वयं अलग नहीं हुए तो ये छ सेक्यूलर बुद्धिजीवी राजनीतिक पूर्वाग्रहों के कारण कैसे अलग कर सकेत हैं?
राम के प्रेम को शबरी और केवट से अलग किया जा सकता है और न बाल्मीकि को रामायण से एवं राम को बाल्मीकि से और बाल्मीकि को समाज से अलग किया जा सकता है। ये सभी एक ही प्रेम के धागे से एक माला के रूप में एक साथ गूंथे हुए हैं। धागा तोड़ते ही माला के साथ-साथ मर्यादाएं बिखड़ जाएंगी। ये नव्य छुआछूत होगा जो भक्त और भगवान के बीच जाति एवं धर्म की ऊंची दीवार खड़ी करने की साजिश पर आधारित होगी, जहां राजनीतिक पूर्वाग्रह मानवीय सरोकार को अपदस्त करने की ओछी राजनीति करते हुए दिखाई पड़ती है।
बाल्मीकि के रमा के मानवीय प्रेम एवं करूणा के रास्ते में न तो कोई छुआछूत है और ना ही जातिवाद है, फिर भी जातिवाद से स्पाम करना हास्यास्पद है। बौद्धिकता और बाल्मीकि दोनों का उपहास है। बाल्मीकि के रामायण में न ही आभिजात्य और सामान्य लोक के बीच का ही कोई अंतर या दीवार है, बल्कि उस दीवार को गिराकर ईश्वर को सामान्य लोक के बीच प्रतिष्ठित लौकिक प्रेम और मानवीय करुणा के साथ चित्रित किया गया है । बाल्मीकि के राम और शबरी के राम शबरी के जूठे बेर भी प्रेम भाव से खाते हैं और शबरी भी प्रेम भावना से ओत-प्रोत होकर बेच चखती है कि कहीं राम का कोई खट्टा बेर न मिल जाए और स्वाद न खराब हो जाए। बेर के आस्वाद से बड़ी बात प्रेमासवादन की है। यदि राम और शबरी के परस्पर इस प्रेम भावना को ठीक पढ़ लिया जाय, आत्मसात कर लिया जाय तो भारत में करुणा, प्रेम, मानवीयता, सामाजिक मर्यादा, मानवीय नैतिकता के प्रेम की धाप ऐसी प्रवाहित हो जाय जिसमें भारत से तमाम छुआछूतसामाजिक भेदभाव, संकीर्णता आदि सब कुछ बह कर निकल जायेगी बचेगा तो सिर्फ विशुद्ध मानवीय प्रेम और करुणा जो सभी को जोड़ती है, तोड़ती नहीं। राम ने तो इसे शबरी की आंखों में, केवट की आंखों में पढ़ लिया था, अब आवश्यकता है कि तथाकथित हृदय बुद्धिजीवियों और सेक्युलर जमात को पढ़ने की। जिन्होंने श्रीराम के प्रेम का पढ़ा ही नहीं, यदि ऐसा वे करते तो राम को लोक से और लोक को राम से जोड़ते, तोड़ते नहीं और धर्म जोड़ता है, तोड़ता नहीं। यही धर्म का मूल स्थिति है मूल आदर्श है। और धर्म की इस मूल भावना की मर्यादा बनी रहे, अक्षुण्ण रहे।
डा. मीना शर्मा
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