शनिवार, 25 नवंबर 2023

आधुनिक समाज में वरिष्ठ नागरिक तिरस्कृत क्यों

 

बसंत कुमार

कोरोना काल से पहले तक भारतीय रेल 60 वर्ष से अधिक या उससे अधिक आयु के पुरुषों को किराये में 40% की छूट देती थी और महिलाएं जिनकी आयु 58 वर्ष हो गई है उनको 50% छूट दी जाती थी, परंतु कोविड-19 महामारी के प्रसार को रोकने के बहाने 20 मार्च 2020 को वरिष्ठ नागरिकों को दी जाने वाली छूट को वापस ले लिया गया है। इसकी देखा देखी देश के सभी निजी अस्पतालों में वरिष्ठ नागरिकों को दी जाने वाली 10% रियायतें बंद कर दी गई हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि वृद्ध लोग बहुत आवश्यक होने पर ही ट्रेनों में सफर करते हैं और अस्पताल जाते हैं। मगर किसी भी बहाने इनको दी जाने वाली रियायतों को न दिया जाना कहां तक जायज है, जबकि देश की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने स्वयं बताया कि सरकारी बैंकों ने पिछले पांच वर्षों में 10,09,511 करोड़ रुपए के फंसे कर्ज बट्टे खाते (एनपीए) में डाल दिए और सरकारी बैंकों को चूना लगाने वाले करोड़पतियों से कर्ज की वसूली के बजाय उसे एनपीए में डाल देना और वृद्ध लाचार वरिष्ठ नागरिकों को दी जाने वाली छूट को बंद किया जा रहा है।

जीवन बीमा कंपनियां स्वास्थ्य बीमा के लिए वृद्धों को प्रीमियम में छूट देने के बजाय ज्यों-ज्यों बीमा धारक की आयु बढ़ती जाती है त्यों-त्यों बीमा कंपनियों की प्रीमियम राशि बढ़ती जाती है और बीमा धारक की आयु 70-80 वर्ष होने पर उनका स्वास्थ्य बीमा बंद हो जाता है। एक ओर जहां वृद्ध की आय के सभी स्रोत बंद हो जाते हैं वहीं दूसरी ओर बीमार होने की हालत में अस्पतालों द्वारा दी जाने वाली रियायते बंद कर दी जाती हैं और उनका बीमा बंद कर दिया जाता है तो बीमार बुजुर्ग जिनका अधिकांश मामलों में अंतिम ठिकाना अनाथालय या वृद्धाश्रम हो जाता है। यह वृद्ध अपना इलाज कैसे कराएं जबकि यूरोपीय देशों में वरिष्ठ नागरिकों के लिए मुफ्त मेडिकल बीमा दिया जाता है और हमारे देश में इन वृद्धों के लिए कोई सुविधा नहीं है।

प्रश्न यह उठता है कि बुजुर्गों के हितों कि रक्षा का कानून होने के बावजूद इनका इतना तिरस्कार क्यों हो रहा है। बुजुर्गों की इस दयनीय स्थिति में संरक्षण प्रदान करने के लिए वर्ष 2007 में सरकार ने 'माता-पिता तथा वरिष्ठ नागरिक भरण पोषण' कानून बनाया। परंतु हमारे सामाजिक मूल्यों में आ रही गिरावट की वजह से आज बुजुर्गों को अपनी ही संपत्ति में सुरक्षित रहने और संतानों की प्रताड़ना से बचने के लिए अदालतों की शरण में जाना पड़ रहा है। सामाजिक मूल्यों में गिरावट का ही नतीजा है कि संपत्ति के लालच में आज बेटा-बहू और बेटी द्वारा अपने माता-पिता को बेआबरू करने की घटनाएं बढ़ रही हैं, परिवारों में बुजुर्ग माता-पिता अब बोझ समझे जाने लगे हैं और उन्हें अपने ही घर से बाहर निकाल दिया जाता है या फिर इन्हें वृद्धाश्रम या अनाथलायों में रहने के लिए छोड़ दिया जाता है।

वृद्ध अपने ही देश, समाज और घर-परिवार में बेगाने होते जा रहे हैं, उनकी लाचारी भरी जिंदगी पर उच्चतम न्यायालय ने भी चिंता व्यक्त की है और वर्ष 2018 में केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को निर्देश दिया कि बुजुर्गों के हितों की रक्षा के लिए बनाए गए कानूनों "माता-पिता और वरिष्ठ नागरिक भरण पोषण कानून" का सख्ती से पालन करे। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने डॉ. अश्विनी कुमार बनाम यूनियन ऑफ इंडिया में स्वीकार किया की संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रदत्त जीने के अधिकार को व्यापक अर्थ दिया जाए। एक अन्य मामले में आशीष विनोद दलाल एवं अन्य विनोद राम लाल दयाल में टिप्पणी करते हुए बॉम्बे उच्च न्यायालय की पीठ ने कहा कि आशीष दयाल अपने 90 वर्षीय पिता और 89 वर्षीय माता को परेशान करता था जबकि इस मकान का स्वामित्व इस बुजुर्ग दंपत्ति के पास था। कितनी दुखद बात है कि माता-पिता को अपनी ही औलाद से खुद को बचाने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ रहा है, जबकि जीवन की अंतिम बेला में वरिष्ठ नागरिकों के साथ सम्मानजनक व्यवहार किया जाना चाहिए। संतानों का यह कर्तव्य है कि वे अपने माता-पिता के साथ अच्छा व्यवहार करें और उनकी इस तरह से देखभाल करें ताकि वे सम्मान से जीवन व्यतीत कर सके।

अदालतों ने अब 'माता-पिता तथा वरिष्ठ नागरिक भरण पोषण कानून के तहत अधिकरणों के आदेशों के बेदखली के खिलाफ बहुत से मामले पहुंच रहे हैं, इस कानून के तहत वरिष्ठ नागरिकों का परित्याग दंडनीय अपराध है, इस अपराध के तहत तीन महीने की कैद और पांच हजार रुपए तक के जुर्माने का प्रावधान है। इसके बावजूद बड़े पैमाने पर माता-पिता का परित्याग हो रहा है। इस कानून में बुजुर्गों के हितों के खातिर भरण-पोषण न्यायाधिकरण और अपीलीय प्राधिकरण की व्यवस्था है। इन न्यायाधिकरणों को बुजुर्गों की शिकायत का निपटारा 90 दिनों के अंदर करना पड़ता है, भरण-पोषण न्यायाधिकार में ऐसे नागरिकों को दस हजार रुपए का प्रतिमाह भुगतान का आदेश दे सकता है। सरकार ने वृद्ध माता-पिता और परिवार के अन्य वृद्ध सदस्यों के साथ दुर्व्यवहार, उनकी उपेक्षा और उनकी संपत्ति हड़पने उनकी प्रताड़ना को रोकने के लिए ही यह कानून बनाया है।

असहाय बुजुर्गों के लिए काम कर रही गैर-लाभकारी संगठन हेल्पज इंडिया के अनुसार देश में लगभग 15000 वृद्धाश्रम है जिसमें 7,00,000 वृद्ध रहते हैं, धनवानों के कुछ आश्रमों को छोड़ दिया जाए तो अधिकतर वृद्धाश्रम अपने काम के लिए चंदे पर निर्भर करते हैं। परंतु कोरोना काल के बाद सरकार ने, औद्योगिक घरानों ने खर्च में कटौती के नाम पर इनको चंदा देना बंद कर दिया है। इस कारण इन आश्रमों में रहने वालों का सब कुछ दांव पर लग गया है और कुछ वृद्धों को साफ-सफाई कपड़े धोने, खाना पकाने का काम स्वयं करना पड़ रहा है। कुल मिलाकर हमारे समाज में जहां आदिकाल से बड़े बुजुर्गों को सम्मान देने की परंपरा रही है, वहीं उसी समाज में वरिष्ठ नागरिक और बड़े बूढ़े तिरस्कार भरा जीवन जी रहे हैं। एक ओर वृद्ध मां-बाप बुढ़ापे में अपने बच्चों द्वारा दुत्कार दिये जाने के पश्चात् अनाथलायों या वृद्धाश्रमों में रहने को मजबूर हैं, एक ओर जहां सरकार 81 करोड़ लोगों को हर माह मुफ्त राशन वितरित कर रही है वहीं बेसहारा हो चुके वरिष्ठ नागरिकों को दी जाने वाली रियायतों को समाप्त कर रही है। आखिर जो वृद्ध हमारे सनातनी संस्कृति में पूजे जाते रहे हैं वो आज हमारे ऊपर बोझ बन गए हैं। आखिर ये वृद्धजन जीवन की अंतिम संध्या पर कहां जाएं।

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