अवधेश कुमार
अचानक कांग्रेस ने अपनी पूरी ताकत वाराणसी में लगाना आरंभ कर दिया है। उसके बड़े नेता व चुनाव प्रबंधक वहां पहुंच रहे हैं। नरेन्द्र मोदी की घेरेबंदी स्वाभाविक ही इनकी रणनीति का मुख्य अंग है। इस घेरेबंदी का सबसे प्रमुख लक्ष्य मुस्लिम मतों को अपने पक्ष में खींचना है जिसकी संख्या इतनी है कि अगर वे एकमुश्त मिल जाएं तो कांग्रेस के अपने मतों के साथ परिणाम में बेहतर अंकगणित सामने आ सकता है। गुजरात के वे मौलवी साहब जिनकी टोपी पहनने से नरेन्द्र मोदी ने इन्कार कर दिया था अजय राय के साथ देखे जा रहे हैं। लेकिन कांग्रेस घेरेबंदी का जो सबसे बड़ा कदम व सफलता मान रही है, वह है मुख्तार अंसारी और अफजाल अंसारी की पार्टी कौमी एकता दल का समर्थन। अफजाल अंसारी ने जैसे ही यह घोषणा की कि उन्होंने मोदी के विरुद्ध कांग्रेस को समर्थन देने का फैसला किया है, कांग्रेसी नेताओं की बांछे खिल गईं। कांग्रेस इसे बहुत बड़ी रणनीतिक सफलता मानती है। क्या वाकई यह इतनी बड़ी सफलता है जिससे कांग्रेस की बांछे खिलनी चाहिए? या इसके ऐसे दूसरे पक्ष भी हैं जिनमें कांग्रेस के लिए क्षति की संभावना निहित हैं?
इसका उत्तर देने के लिए हमें इसके कई पहलुओं पर गौर करना होगा। हम न भूलें कि 2009 में भाजपा के डाॅ. मुरली मनोहर जोशी की विजय के पीछे मुख्तार अंसारी भी एक प्रमुख कारक थे। जब वाराणसी के लोगों ने देखा कि अंसारी जीत सकते हैं...यानी बसपा के दलितों का मत, मुसलमानों के बड़े तबके का मत ...तो उन लोगों ने भी जोशी के पक्ष में मत दे दिया जो कभी भाजपा को वोट नहीं देते थे। तो अंसारी के नाम के साथ एक विपरीत प्रतिक्रिया भी जुड़ी है, जिसका कांग्रेस को विचार करना चाहिए था। पता नहीं कौमी एकता दल कांग्रेस के उम्मीदवार अजय राय को मुसलमानों का कितना वोट दिला पाएगा, किंतु उ. प्र. के चैथे चरण के चुनाव के एक दिन पहले इस खबर ने भाजपा को बिना मांगे ध्रुवीकरण का उपहार अवश्य दे दिया था। यह खबर फैलने के साथ जो प्रतिक्रिया आम जनता में हुई उसे महसूसते हुए यह कहा जा सकता है कि कांग्रेस ने भाजपा उम्मीदवारों के वोट में इजाफा करा दिया।
वास्तव में इस बात का खतरा बढ़ रहा है कि अंसारी समर्थन कहीं कांग्रेस को लाभ के बदले क्षति न पहुंचा दे। उसकी प्रतिक्रिया में वाराणसी में और दूसरे क्षेत्रों में कहीं भाजपा के मतों में इजाफा न हो जाए। इसमें तो दो राय नहीं कि असंरी बंधुओं की छवि सांप्रदायिक दबंग की है। उन्हें गैंगस्टर एवं पूर्वांचल का डाॅन भी कहा जाता है और यह निराधार भी नहीं है। मुख्तार एवं अफजाल दोनों पर जघन्य अपराधों के मामले दर्ज हैं। मुखतार पर दर्ज मुकदमों में हत्या, अपहरण, डकैती, गैंगवार, अवैध हथियार रखने, आतंकवाद, दंगा फैलाने आदि शामिल है। उन पर मकोका कानून भी लगा है। टाडा न्यायालय ने उन्हें सजा भी दी थी लेकिन बाद में उच्चतम न्यायालय ने उन्हें टाडा से मुक्त कर दिया। दोनों भाइयों ने पिछले चुनाव के अपने शपथ पत्र में जो विवरण दिया वह किसी को भी डरा सकता है। अफजाल अंसारी पर भी हत्या, डकैती, हत्या के प्रयास, आपराधिक षडयंत्र, हथियार के साथ सरकारी कार्य में बाधा डालने आदि मामले दर्ज हैं। जब भाजपा सहित दूसरे विरोधी ये सारीे बातें जनता के सामने रखते हैं तो कांग्रेस के लिए इसका जवाब देना कठिन हो जाता है। वैसे भी राजनीति में अपराध और बाहुबल के अंत के इस माहौल में कांग्रेस ऐसा करके अपने को ही प्रश्नों के घेरे मंे ला दिया है। खासकर जब राहुल गांधी ने उस अध्यादेश को कूडेदान में फेंकने का बयान दिया जिसमें निचली आदालत से सजा पाए या जेल में बंद़ नेताओं के चुनाव लड़ने पर उच्च्तम न्यायालय के प्रतिबंध का अंत किया गया था। उसे कांग्रेस ने राजनीति के अपराधीकरण के विरुद्ध पार्टी नेतृत्व की प्रतिबद्धता का प्रमाण बताया था। आज ऐसे लोगों से समर्थन लेकर कांग्रेस देश को क्या संदेश देना चाहती है? यह प्रश्न यकीनन उठता रहेगा जिसका जवाब देना कांग्रेस के लिए कठिन होगा।
यह इस मायने में भी हैरत भरा कदम है कि मुख्तार अंसारी पर अजय राय के ही बड़े भाई अवधेश राय की 1991 में हत्या कराने का आरोप है। विधायक कृष्णानंद राय की हत्या का आरोप भी इन्हीं पर है। अजय राय के साथ उनकी दुश्मनी इसी कारण थी। इसलिए अजय राय के समाज में भी इस समर्थन को अत्यंत ही जुगुप्सा की नजर से देखा जा रहा है। कुछ लोग खुलेआम कहते सुने जा सकते हैं कि अजय राय ने अपने मृतक भाई तथा कृष्णानंद राय की आत्मा से गद्दारी की है। ऐसा सोचने वाले लोग अजय राय को वोट देंगे यह कल्पना कौन कर सकता है। उनके अपने परिवार और गांव में इसका मुखर विरोध हो रहा है। हालांकि यह पार्टी का निर्णय है जिसमें अजय राय कुछ नहीं कर सकते, लेकिन उनने भी आरंभ में इसका स्वागत किया था। यह ऐसा पक्ष है जो चुनाव में मतदाताओं के संदर्भ में कांग्रेस के लिए चुम्बक के समान ध्रुव के बीच विकर्षण सदृश स्थिति पैदा कर सकती है।
कहा जाता है कि अंसारी बंधुओं के नाम के साथ ध्रुवीकरण नत्थी है। अल्पसंख्यकों को वोट उनके पक्ष में ध्रुवीकृत हो सकता है। लेकिन वाराणसी और उसके आसपास उसके विरोध में भी जो धु्रवीकरण होगा उसका लाभ किसे मिलेगा? वैसे अंसारी परिवार एवं कौमी एकता दल के जनाधार को लेकर भी सही समझ व जानकारी का अभाव दिखता है। 2009 के लोकसभा चुनाव में मुख्तार अंसारी को 1 लाख 85 हजार 911 मत मिले थे जो पहली नजर मेें आकर्षित करता है। वे दूसरे स्थान पर थे एवं मात्र 17 हजार वोटों से पराजित हुए। लेकिन यह न भूलें की तब वे बसपा के उम्मीदवार थे। इसलिए उसमें बसपा के मतों का योगदान सर्वाधिक था। तब बसपा की सरकार भी प्रदेश में थी। उनके जनाधार का मूल्यांकन तो इससे होगा कि कौमी एकता दल को जनता कितना समर्थन मिला। वास्तव में बसपा से बाहर आने के बाद जब उन्होंने कौमी एकता दल का गठन किया तो उनका प्रदर्शन अत्यंत खराब रहा है। 2012 के विधानसभा चुनाव में कुल 43 स्थानांे पर कौमी एकता दल ने उम्मीदवार खड़े किए। इनमें से केवल 2 जीते और एक उम्मीदवार दूसरे स्थान पर रहा। इनको केवल 0.55 प्रतिशत मत मिला। जो दो सीटें उन्हें मिली उनमें वाराणसी से कोई नहीं था। कहने का तात्पर्य यह कि उनका जनाधार वैसा है नहीं जैसा कांग्रेस ने कल्पना की है।
इसलिए कुल मिलाकर कांग्रेस भले मोदी की घेरेबंदी की सोच में इसे एक उपलब्धि मान रही हो, यह उसके लिए एक भूल भी साबित हो सकती है। चुनावी अंकगणित के स्तर पर और राजनीतिक को अपराधीकरण से मुक्ति के सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक कसौटी पर भी।