गुरुवार, 25 नवंबर 2021

कृषि कानून वापसी के राजनीति के साथ दूसरे पहलू भी महत्वपूर्ण

अवधेश कुमार

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब राष्ट्र के नाम संबोधन की शुरुआत की तो शायद ही किसी ने कल्पना की होगी कि वे तीनों कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा कर देंगे। आखिर जिस कानून को लेकर सरकार पिछले एक वर्ष से अड़ी हुई थी, साफ घोषणा कर रही थी कि वापस नहीं होंगे, कृषि कानून विरोधी आंदोलन के संगठनों के साथ बातचीत के बाद कृषि मंत्री ने स्पष्ट बयान दिया था, स्वयं प्रधानमंत्री ने संसद के संबोधन में आक्रामक रुख अख्तियार किया था उसकी वापसी की उम्मीद आसानी से नहीं की जा सकती थी। तो यह प्रश्न निश्चित रूप से उठेगा कि किन कारणों से प्रधानमंत्री ने यह निर्णय किया? इसके राजनीतिक मायने स्पष्ट हैं और सबसे ज्यादा चर्चा इसी की हो रही है। आगामी विधानसभा चुनाव को देखते हुए यह स्वाभाविक भी है। ऐसा नहीं है कि पूरा देश इस कानून के विरुद्ध था। सच्चाई यही है कि देश का बहुसंख्य  किसान इन कानूनों के पक्ष में था। दिल्ली की सीमाओं पर कभी इतनी भीड़ जमा नहीं हुई या देश के अलग-अलग भागों से उतनी संख्या में लोग आंदोलन का समर्थन करने नहीं आए जिनके आधार पर कोई निष्कर्ष निकाले कि यह देशव्यापी मुद्दा है। इसका सरकार को भी पता था। उच्चतम न्यायालय ने इन कानूनों पर रोक लगा ही रखी थी। स्वयं प्रधानमंत्री मोदी एवं उनके रणनीतिकारों को भी आभास था कि अगर वापसी की घोषणा हुई तो विपक्ष उपहास उड़ायेगा। बावजूद उन्होंने इसकी घोषणा की है तो राजनीति के साथ इसके दूसरे पक्षों को भी समझना होगा।

 यह बात सही नहीं लगती कि प्रधानमंत्री के फैसले के पीछे उत्तर प्रदेश चुनाव मुख्य कारण है। भाजपा के आंतरिक सर्वेक्षणों में कृषि कानूनों को लेकर उत्तर प्रदेश में व्यापक विरोध नहीं मिला। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों में जरूर थोड़ा बहुत विरोध मिला लेकिन उससे चुनाव परिणाम बहुत ज्यादा प्रभावित होता इसकी रिपोर्ट नहीं थी। उत्तराखंड के तराई इलाके में असर था। हरियाणा में भी समस्या पैदा हो रही थी क्योंकि आंदोलन और संगठनों के लोग वहां कई जगहों पर हाबी थे। गठबंधन के साथी जेजेपी को भी समस्या थी किंतु यह भी साफ था कि  उन्होंने गठबंधन तोड़ा, सरकार गिरी तो आगामी चुनाव में उनको फिर से सफलता मिलने की निश्चिंतता नहीं है। कैप्टन अमरिंदर सिंह जब गृह मंत्री अमित शाह से मिले तो आंतरिक सुरक्षा के साथ पंजाब की राजनीति पर चर्चा हुई। कैप्टन अमरिंदर ने कहा भी अगर भाजपा कृषि कानूनों को वापस कर लेती है तो उनके साथ गठबंधन हो सकता है। कैप्टन के अनुसार कृषि कानूनों के पहले भाजपा को लेकर पंजाब में कोई समस्या नहीं थी। भाजपा अकाली गठबंधन इन्हीं कानूनों पर टूट चुका था और प्रधानमंत्री ने स्वयं अकाली दल की जिस ढंग से तीखी आलोचना की, उस पर वार किया उसके बाद पंजाब के अंदर भाजपा के लोगों को लगा कि अब पार्टी स्वतंत्र रूप से खड़ी हो सकती है। पंजाब के अंदर से भाजपा के नेताओं - कार्यकर्ताओं की यह शिकायत लंबे समय से थी कि अकाली उनको काम करने नहीं देते और यह गठबंधन पार्टी के लिए हमेशा नुकसानदायक रहा है। यहां तक कि नवजोत सिंह सिद्धू के भाजपा छोड़ने के पीछे एक बड़ा कारण अकाली से नाराजगी थी । पार्टी ने राज्य से फीडबैक लिया और यह निर्णय का एक कारण है। 

 अमरिंदर की नई पार्टी लोक कांग्रेस और भाजपा के बीच गठबंधन हो सकता है और अकाली दल के साथ आने को भी खारिज नहीं किया जा सकता। इससे कांग्रेस और आम आदमी पार्टी तीनों के लिए चुनौती खड़ी होगी। यद्यपि कैप्टन की पार्टी नयी है लेकिन उनका जनाधार कई क्षेत्रों में व्यापक है। आने वाले समय में इसके बाद उनके समर्थन में कांग्रेस के काफी नेता आ सकते हैं। कांग्रेस में इतनी अंदरूनी कलह है कि उसकी सत्ता में वापसी को लेकर कोई नेता आश्वस्त नहीं है। यहां से पंजाब में  नई राजनीति की शुरुआत हो सकती है। कांग्रेस के नेता चाहे इस पर जो भी बयान दें उनके लिए खतरा पैदा हो गया है। इसी तरह पश्चिमी उत्तर प्रदेश की क्षति को तो भाजपा ने रोका ही है हरियाणा का भी राजनीतिक वायुमंडल बदल लिया है। भाजपा की नजर 2024 के चुनाव पर भी है। कई बार माहौल विरोधियों को सरकार के विरुद्ध आक्रामक होने और व्यापक रूप से घेरेबंदी का आधार दे देता है । कृषि कानून पिछले चुनाव में बड़ा मुद्दा नहीं था। बावजूद इस आधार पर भाजपा विरोधियों ने पश्चिम बंगाल में उसके तथा विरुद्ध तृणमूल कांग्रेस के लिए प्रचार किया ।ऐसे कई समूह जुट जाएं तो कई स्थानों पर भाजपा के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकते थे। यह राज्यों के चुनाव पर भी लागू होता है और लोकसभा पर भी। 

देखा जाए तो संपूर्ण विपक्ष, जिसमें राजनीतिक और गैरराजनीतिक दोनों शामिल है , सरकार को घेरने की बड़ी आधार भूमि कृषि कानूनों को बना चुका था।  अचानक यह छीन जाने से आगामी चुनाव के लिए सरकार विरोधी आक्रामक रणनीति बनाने के लिए सभी को नए सिरे से विचार करना पड़ेगा। जो नेता इस आंदोलन के कारण स्वयं को हीरो मान रहे थे उनके सामने भी कोई चारा नहीं होगा । राकेश टिकैत ने अवश्य कहा और संयुक्त किसान मोर्चा ने निर्णय किया कि संसद  में कानून निरस्तीकरण की प्रतीक्षा करेंगे  किंतु है समर्थन में ऐसा वर्ग भी  जो इस सीमा तक आंदोलन को खींचने के पक्ष में नहीं है।  अगर संयुक्त किसान मोर्चा आगे न्यूनतम गारंटी कानून एवं अन्य मांगों को लेकर आंदोलन को खींचने की कोशिश करते हैं तो उनका समर्थन कम होगा। प्रधानमंत्री ने समर्थन मूल्य के लिए समिति की भी घोषणा कर दी। इसके साथ अपील भी की है कि अब धरना दे रहे किसान घरों और खेतों को वापस चले जाएं । जाहिर है, इसको भी समर्थन मिलेगा और जो जिद परआएंगे उनका आधार कमजोर होगा।इस तरह राजनीति के स्तर पर यह कदम तत्काल भाजपा के लिए लाभदायक एवं  राजनीतिक - गैर राजनीतिक विपक्ष के लिए धक्का साबित होता दिख रहा है। विपक्ष की प्रतिक्रियाओं  में दम नहीं दिखता। सरकार ने कदम क्यों वापस लिया, पहले क्यो नहीं किया जैसै प्रश्न चुनाव में ज्यादा मायने नहीं रखते।

 किंतु इस मामले को राजनीति से बाहर निकल कर देखने की आवश्यकता है। केंद्र के पास पुख्ता रिपोर्ट है और कैप्टन अमरिंदर ने गृहमंत्री  से मुलाकात में इसको विस्तार से समझाया कि कैसे खालिस्तानी तत्व इस आंदोलन के माध्यम से सक्रिय होकर काम कर रहे हैं। पाकिस्तान उनको समर्थन दे रहा है ।  इस बीच इन तत्वों की सक्रियता विदेश के साथ देश में भी दिखी है। निर्णय के पीछे यह एक बड़ा कारण है।लोकतंत्र का आदर्श सिद्धांत कहता है कि कदम चाहे जितना उचित हो अगर उसका विरोध सीमित ही सही हो रहा है ,देश का वातावरण उससे प्रभावित होता है तो उसे वापस लेना चाहिए और भविष्य में वातावरण बनाकर फिर सामने आयें। इसे  आप रणनीति भी कह सकते हैं और लोकतांत्रिक मूल्यों का प्रतिपालन। हालांकि इससे उन लोगों को धक्का लगा है जो कानूनों को आवश्यक मानकर समर्थन में मुखर थे। सरकार को उन्हें भी समझाने में समय लगेगा।  निर्णयों में  हमेशा दूसरा पक्ष होता है।सरकार दूसरे पक्ष को नजरअंदाज नहीं कर सकती। मोदी ने अपने संबोधन में कहा भी कि वे देश से माफी मांगते हैं क्योंकि वे कुछ किसानों को कानून की अच्छाइयां समझा नहीं सके। वैसे सच यही है कि आंदोलन में ऐसे तत्व हावी हो गए थे जो जानते हुए भी समझने के लिए तैयार नहीं थे क्योंकि उनका एजेंडा बिल्कुल अलग था। उन्हें कृषि कानूनों से ज्यादा मोदी सरकार के विरुध्द वातावरण बनाने में रुचि थी थी और है ।  ये चाहते हैं कि सरकार को बल प्रयोग करना पड़े, कुछ हिंसा, अशांति हो और उन्हें सरकार विरोधी देशव्यापी माहौल बनाने में सहायता मिले। मोदी ने इस संभावना और इससे उत्पन्न होने वाले संभावित खतरे को  खत्म करने की कोशिश की है। सरकार की जिम्मेवारी  ऐसे तत्वों से देश को बचाना भी है। हालांकि सरकार ने कोशिश की होती तो आंदोलन खत्म हो चुका होता, तंबू उखड़ चुके होते। पता नहीं किस सोच के तहत एक छोटे से फोड़े को नासूर बनने दिया गया और  जिन कृषि कानूनों  की मांग वर्तमान विपक्ष के अनेक दल स्वयं करते रहे हैं ,उन्होंने स्वयं इसकी पहल की उसे वापस लेने का दुखद कदम उठाना पड़ा है। यह उन लोगों के लिए भी सबक है जो समस्याओं के निपटारे के लिए साहसी कदमों के समर्थक हैं। ऐसे लोग  इस लंबे धरने के विरुद्ध सड़कों पर उतरते तो सरकार के सामने कृषि कानूनों को बनाए रखने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता।  ऐसे लोगों को भविष्य की तैयारी करनी चाहिए ताकि उनकी दृष्टि में अच्छा कोई कदम वापस लेने की नौबत नहीं आए।

 अवधेश कुमार, ई-30, गणेश नगर, पांडव कंपलेक्स, दिल्ली 110092 मोबाइल 98110 27 208



गुरुवार, 18 नवंबर 2021

इस हिंसा को गंभीरता से लेना जरूरी

अवधेश कुमार

महाराष्ट्र के कई शहरों की डरावनी हिंसा ने फिर देश का ध्यान भारत में बढ़ रहे कट्टरपंथी तंजीमों की ओर खींचा है। 12 नवंबर को मुस्लिम समुदाय के अलग-अलग संगठनों द्वारा आयोजित जुलूस, धरने व रैलियों से कुछ समय के लिए हिंसा का जैसा कोहराम मचा सामान्यतः उसकी कल्पना नहीं की जा सकती। देशभर में अलग-अलग संगठन समय-समय पर अपनी मांगों के समर्थन में या किसी घटना पर धरना, प्रदर्शन, रैली, जुलूस आदि के रूप में विरोध जताते हैं। अपने मुद्दों पर प्रशासन की अनुमति तथा उनके द्वारा निर्धारित मार्ग एवं समय सीमा में किसी को भी धरना प्रदर्शन करने का अधिकार है।  अगर प्रदर्शन लक्षित हिंसा करने लगे और उसके पीछे कोई तात्कालिक उकसाने वाली घटना नहीं हो तो मानना चाहिए कि निश्चय ही सुनियोजित साजिश के तहत सब कुछ हो रहा है। महाराष्ट्र में वैसे तो अनेक जगह मुस्लिम संस्थाओं व संगठनों के आह्वान पर विरोध प्रदर्शन आयोजित हुए लेकिन अमरावती, नांदेड़, मालेगांव, भिवंडी जैसे शहर हिंसा के सबसे ज्यादा शिकार हुए। अमरावती में कर्फ्यू तक लगाना पड़ा।

 हिंसा की थोड़ी भी गहराई से विश्लेषण करेंगे तो साफ दिख जाएगा की वह अचानक या अनियोजित नहीं था । उदाहरण के लिए अमरावती में पुराने कॉटन मार्केट चौक में पूर्व मंत्री जगदीश गुप्ता के किराना प्रतिष्ठान पर पत्थरों से हमला हुआ। हमलावरों को मालूम था कि यह किसका प्रतिष्ठान है। पुराने वसंत टॉकीज इलाके मे जिन प्रतिष्ठानों व दुकानों पर हमले हुए वे सब हिंदुओं के थे। पूर्व मंत्री व विधायक प्रवीण पोटे के कैंप कार्यालय पर पथराव किया गया। मालेगांव में जुलूस के रौद्र रूप ने गैर मुस्लिमों को अपने घर में बंद हो जाने या फिर दुकानें बंद करने के लिए मजबूर कर दिया । जहां भी हिंदुओं से जुड़े संस्थान, दुकानें खुली मिली वही भीड़ का पथराव हुआ। पूरा माहौल भयभीत करने वाला बना दिया गया था। रैपिड एक्शन फोर्स पर हमला किया गया। हालांकि महाराष्ट्र के गृह मंत्री और पुलिस महानिदेशक स्थिति को इतना गंभीर नहीं मान रहे हैं तो यह सब पुलिस के रिकॉर्ड में आएगा नहीं। किंतु जो लोगों ने  आंखों से देखा, भुगता उन सबको भुलाना कठिन होगा। 

यह सवाल भी उठेगा कि किस आधार पर इस तरह के बंद एवं विरोध प्रदर्शनों की अनुमति मिली? कहा गया कि त्रिपुरा हिंसा का विरोध करना था। पिछले कुछ समय से देश में तथाकथित मानवाधिकार कार्यकर्ताओं एवं पत्रकारों के एक समूह ने सोशल मीडिया पर त्रिपुरा में मुसलमानों के विरुद्ध हिंसा की जो खबरें और वीडियो वायरल कराए वो पूरी तरह झूठी थी। बांग्लादेश में दुर्गा पूजा के दौरान दुर्गा पंडालों, हिंदू स्थलों तथा हिंदुओं पर हमले के विरोध में त्रिपुरा में शांतिपूर्ण जुलूस निकाला गया था।  हल्के फुल्के तनाव हुए लेकिन कुल मिलाकर आयोजन शांतिपूर्ण ढंग से समाप्त हो गया। अफवाह फैलाई गई कि जुलूस ने मुसलमानों पर और मस्जिदों पर हमले कर दिए। न कोई घायल हुआ न कहीं किसी मस्जिद को कोई क्षति पहुंची। उच्च न्यायालय ने खबर का संज्ञान लिया। वहां  त्रिपुरा के एडवोकेट जनरल सिद्धार्थ शंकर डे ने दायर शपथ-पत्र में कहा कि बांग्लादेश में दुर्गा पूजा पंडालों और मंदिरों में हुई तोड़फोड़ के खिलाफ विश्व हिंदू परिषद ने 26 अक्तूबर को रैली निकाली थी। इसमें दोनों समुदायों के बीच कुछ झड़पें हुई थीं। दोनों पक्षों ने एक-दूसरे पर आरोप लगाए। तीन दुकानों को जलाने, तीन घरों और एक मस्जिद को क्षतिग्रस्त करने का आरोप लगा। शपथ पत्र में भी केवल आरोप की बात है। पुलिस की जांच में इसका कोई प्रमाण नहीं मिला। आयोजकों ने भी अपने जुलूस पर हमले करने का आरोप लगाया।

जरा सोचिए जहां कुछ बड़ी घटना  हुई ही नहीं वहां के बारे में इतना बड़ा दुष्प्रचार करने वाले कौन हो सकते हैं और उनका उद्देश्य क्या होगा? त्रिपुरा में जांच के लिए एक दल पहुंच गया जिसमें पत्रकार तथा कथित मानवाधिकारवादी व वकील शामिल थे। इनका तंत्र देशव्यापी नहीं विश्वव्यापी है। पुराने वीडियो डालकर सोशल मीडिया तथा मुख्यधारा की मीडिया के माध्यम से दुष्प्रचार होता रहा। असामाजिक तत्वों ने इसका लाभ उठाकर पूरे देश में मुस्लिम समुदाय को भड़काया है। त्रिपुरा पुलिस ने जांच करने के बाद ट्विटर से ऐसे 100 लोगों का अकाउंट बंद करने तथा इनकी पूरी जानकारी की मांग की। कुछ लोगों पर जब कठोर धाराओं में मुकदमा दायर हुआ तो बचाव के लिए उच्चतम न्यायालय तक पहुंच गए। कहने का तात्पर्य कि महाराष्ट्र में जो कुछ हुआ उसको केवल वही की घटना मत मानिए । पता नहीं देश में कहां-कहां ऐसे ही उपद्रव की प्रकट परोक्ष तैयारियां चल रही होंगी। महाराष्ट्र में विरोध प्रदर्शन व बंद का आह्वान वैसे तो रेजा अकादमी ने किया था किंतु अलग-अलग जगहों पर कुछ दूसरे संगठन भी शामिल थे । मालेगांव में बंद का आह्वान सुन्नी जमातुल उलमा, रेजा अकादमी और अन्य संगठनों ने किया था।  भिवंडी में भी रजा अकादमी ने बंद का आह्वान किया था लेकिन बंद को एमआईएम, कांग्रेस, एनसीपी और सपा का समर्थन था। तो जो कुछ भी हुआ उसके लिए इन सारे संगठनों को जिम्मेदार माना जाना चाहिए। हालांकि इसके विरोध में सड़कों पर उतरने वाला चाहे भाजपा के हो या अन्य संगठनों के लोग,उन्हें भी शांतिपूर्ण प्रदर्शन करना चाहिए था। अमरावती में उन्होंने हिंसा की और पुलिस को इनके विरुद्ध कार्रवाई का अवसर मिल गया। आप देख सकते हैं कि इनकी हिंसा, तोड़फोड़ और आगजनी के वीडियो प्रचुर मात्रा में चारों और प्रसारित हो रहा है वैसे ही महाराष्ट्र में मुस्लिम समूहों के द्वारा की गई हिंसा के वीडियो इतनी मात्रा में नहीं मिलेंगे। इसलिए विरोध करने वालों को भी अपने ऊपर नियंत्रण रखने की आवश्यकता है। महाराष्ट्र पुलिस ने जिस तत्परता से इनको नियंत्रित किया वैसा ही वह 12 नवंबर को करती तो स्थिति बिगड़ती नहीं।

यहां यह प्रश्न भी उठता है कि किसी देश में हिंदुओं, सिखों आदि के विरुद्ध हिंसा हो तो  भारत के लोगों को उसके विरोध में प्रदर्शन करने का अधिकार है या नहीं? यह मानवाधिकार की परिधि में आता है या नहीं? त्रिपुरा की सीमा बांग्लादेश से लगती है और वहां आक्रोश स्वाभाविक था जिसे लोगों ने प्रकट किया। अगर किसी ने कानून हाथ में लिया तो पुलिस का दायित्व है उनको संभालना। जिन लोगों के लिए त्रिपुरा फासीवादी घटना बन गई उनके लिए बांग्लादेश में हिंदुओं के विरुद्ध हिंसा मामला बना ही नहीं। बांग्लादेश की हिंसा का भी एक सच जानना आवश्यक है। बांग्लादेश की मीडिया में यह समाचार आ चुका है कि दुर्गा पूजा पंडाल तक पवित्र कुरान शरीफ इकबाल हुसैन ले गया। इकराम हुसैन ने 999 फोन नंबर पर पुलिस को सूचित किया तथा फयाज अहमद ने उसे फेसबुक पर डाला। इन तीनों का संबंध किसी न किसी रूप में जमात-ए-इस्लामी या अन्य कट्टरपंथी संगठनों सामने आया है। वहां आरंभ में पुलिस ने पारितोष राय नामक एक किशोर को गिरफ्तार किया था। इससे क्या यह साबित नहीं होता कि कट्टरपंथी मुस्लिम समूह किस मानसिकता से काम कर रहे हैं? इसलिए महाराष्ट्र की घटना को उसके व्यापक परिपेक्ष्य में पूरी गंभीरता से लेना चाहिए। जिन्होंने हिंसा की केवल वे ही नहीं जिन लोगों ने देशव्यापी झूठ प्रचार कर लोगों को भड़काया उन सबको कानून के कटघरे में खड़ा किया जाना जरूरी है।

 अवधेश कुमार, ई 30 ,गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स,  दिल्ली 110092, मोबाइल 98110 27208

शुक्रवार, 12 नवंबर 2021

मोदी और पोप मुलाकात को कम न आंकें

अवधेश कुमार

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वेटिकन में पोप फ्रांसिस के साथ मुलाकात और बातचीत कई मायनों में जितनी महत्वपूर्ण थी उतनी उस पर चर्चा नहीं हुई। वस्तुतः भारत में इसका जितना और जिस तरीके से विश्लेषण होना चाहिए वह नहीं हो पाया है।  पोप की दो प्रकार की भूमिका रही है। एक,  विश्व के सबसे ज्यादा धर्म को मानने वाले कैथोलिकों के शीर्ष धार्मिक नेता हैं ।और दूसरे, वेटिकन को एक संप्रभु राष्ट्र राज्य का दर्जा प्राप्त है इसलिए वे एक देश के प्रमुख भी  हैं। भारत ने 1948 में ही वेटिकन को देश के रूप में मान्यता दी थी। इसलिए भारत और वेटिकन एवं पोप के साथ संबंध नया नहीं है। जिन लोगों ने मोदी और पोप की मुलाकात की लाइव तस्वीरें देखी होंगी वे  मुस्कुराते हाथ मिलाने के लिए बढ़ते और गला लगाते भंगिमा को भूल नहीं पाएंगे। नरेंद्र मोदी विदेशी नेताओं से गले मिलते हैं और उनकी या तस्वीरें मीडिया की सुर्खियां बनती है। पोप से इतने सहज ढंग से हंसते हुए गले मिलना इस मायने में महत्वपूर्ण है क्योंकि नरेंद्र मोदी की छवि भारत और विश्व में एक बड़े समूह ने कट्टर हिंदू नेता की बनाई है। उनके बारे में प्रचार यह किया जाता है कि दूसरे धर्मावलंबियों को महत्व नहीं देते या उनके विरुद्ध सरकार कार्रवाई करती है। इसलिए भारत एवं विश्व के छोटे हलकों में पोप के साथ उनकी मुलाकात पर आश्चर्य व्यक्त किया गया। कइयों के लिए तो यह भी आश्चर्य का विषय था कि दोनों की मुलाकात का समय केवल 20 मिनट था लेकिन वह एक घंटे तक चली। जो प्रेस वक्तव्य आया उसके अनुसार इसमें कोई विवादास्पद मुद्दा नहीं उठा । विश्व के कल्याण सैसंबंधित जलवायु परिवर्तन महामारी, आर्थिक विकास आदि विषय में बातचीत के बीच रहे । मोदी ने पोप को भारत आने का निमंत्रण दिया और उन्होंने स्वीकार भी कर लिया । इस तरह 1999 के बाद भारत आने वाले पहले होंगे।

 उनके  आगमन से भारत वेटिकन- पोप  के संबंध ज्यादा बेहतर होने की कल्पना की जा सकती है।  पोप फ्रांसिस के पहले  पोक पाॅल-4  1964 में एक बार तथा पोप जाॅन पाॅल द्वितीय 1986 एवं 1999 में यानी दो बार भारत आए थे। इस तरह पोप फ्रांसिस के रूप में पोप की चौथी भारत यात्रा होगीभारत में लगभग दो करोड़ कैथोलिक ईसाई हैं और यह संख्या छोटी नहीं है। एशिया में कैथोलिक ईसाइयों की आबादी के मामले में फिलीपींस का नंबर पहला है तो भारत दूसरे स्थान पर है। इसाई समुदाय के लोग को किस दृष्टि से देखते हैं यह बताने की आवश्यकता नहीं। मोदी वेटिकन में पोप से मिलने वाले पहले नेता नहीं है। इसके पहले 1955 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू वेटिकन में पोप पायस12 से मिले थे। उस समय पुर्तगालियों के विरुद्ध गोवा मुक्ति का आंदोलन चरम पर था। नेहरू पर पुर्तगाल की ओर से ईसाइयों के विरुद्ध कार्रवाई का आरोप लगाया गया। नेहरू जी ने जो वक्तव्य दिया उसके पोप संतुष्ट हुए और दुनिया के कैथोलिक ईसाई भी। उन्होंने स्पष्ट कहा कि पुर्तगाल की लड़ाई से ईसाइयों का कोई लेना देना नहीं है, देश के दूसरे क्षेत्र में भी ईसाई रहते हैं और सबको पूरी धार्मिक स्वतंत्रता है। यही बात भारत के संदर्भ में पहले भी सच थी आज भी है ।उसके बाद इंदिरा गांधी 1981 तथा इंद्र कुमार गुजराल 1997 में एवं अटल बिहारी वाजपेई सन 2000 में पोप से मिले थे। 2005 में पोप जॉन पॉल द्वितीय का निधन होने के बाद तत्कालीन उपराष्ट्रपति भैरोसिंह शेखावत अंत्येष्टि में भाग लेने गए थे ।  हालांकि तब  यूपीए सरकार थी एवं शेखावास भारत सरकार के प्रतिनिधि थे, पर थे तो भाजपा के ही नेता।

निस्संदेह ,इतिहास के लंबे कालखंड में पोप और चर्चों के कार्यों का अध्याय अच्छा नहीं रहा। आम नागरिक तो छोड़िए राजाओं तक को सजा देने का अधिकार इन्होंने अपने हाथों रख लिया था। यूरोप के कई क्रांतियों के पीछे कैथोलिक चर्च की निरंकुश ,अतिवादी ,अंधविश्वास फैलाने वाली, जनता के अधिकारों को अस्वीकार करने वाली नीतियों के विरुद्ध रहा। फ्रांस की क्रांति केवल लुई 14 वें के खिलाफ नहीं थी, कैथोलिक चर्चों के विरुद्ध भी जनता के अंदर उतना ही गुस्सा था। यूरोप में जिसे पुनर्जागरण काल कहते हैं वह भी एक प्रकार से कैथोलिक नियंत्रित राज्य ,समाज व धर्म के बंदिशों से बाहर आना था। वैज्ञानिक दृष्टि से खोज और अध्ययन करने वाले चर्च मान्यताओं और नीतियों को ही तो चुनौती दे रहे थे। इसलिए इतिहासकारों के एक बड़े समूह ने लंबे कालखंड को डार्क एज यानी अंधकार युग की संज्ञा दी है। आप सोच सकते हैं कि पृथ्वी गोल है या अपनी गति से घूमती है इतना भी चर्च स्वीकार करने को तैयार नहीं था तो कैसे स्थिति रही होगी। यूरोप में दार्शनिकों के लंबी श्रृंखला है जिन्होंने पोप और चर्च के विरुद्ध सोच और विचारों से अभियान चला दिया। वॉल्तेयर, रूसो, विक्टर ह्युगो, जैसे दार्शनिक इसी श्रेणी के थे । रूसो, माॅटेस्क्यू और वॉल्तेयर जैसे दार्शनिकों के विचारों की फ्रांस की क्रांति में बहुत बड़ी भूमिका थी। धीरे - धीरे पोप ने पुरानी मान्यताओं और नीतियों में संशोधन परिवर्तन करते हुए वैज्ञानिक अध्ययनों खोज विचारों तथा मानवीय अधिकारों की मांगों को स्वीकार करना आरंभ किया। इससे पोप की प्रतिष्ठा विश्व भर में बड़ी। पोप फ्रांसिस तथा इनके पूर्व पोप जॉन पॉल द्वितीय ने मानवाधिकारों के नाम पर ऐसी कई बातों को स्वीकार किया जिसकी पहले कल्पना तक नहीं थी। आज पोप विश्व में सर्वाधिक प्रतिष्ठित धर्म एवं राज्य प्रमुख माने जाते हैं । विश्व के सभी प्रमुख ईसाई देश उनका सम्मान करते हैं तथा वेटिकन से निकली आवाज को पूरा महत्व देते हैं। इस नाते भी विचार करें तो मोदी और पोप की यह मुलाकात काफी महत्वपूर्ण जाएगी। 

यह कहना आसान है कि मोदी ने इसके माध्यम से अपने राजनीतिक लक्ष्य को भी सादने की कोशिश की है। मसलन, गोवा ,केरल तथा पूर्वोत्तर में राजनीति करने के लिए कैथोलिक ईसाइयों का साथ आना जरूरी है। भाजपा आगामी विधानसभा चुनाव में गोवा में पुनर्वापसी चाहती है तो केरल में राजनीति की मुख्यधारा में आना। संभव है मुलाकात के पीछे राजनीतिक सोच भी हो । केरल के कई बड़े नेता पोप से मुलाकात कर चुके हैं। इसमें वर्तमान मुख्यमंत्री पी विजयन भी शामिल हैं। कुछ केरल के एक बड़े कार्डिनल ने मुलाकात का स्वागत भी किया है।  जिन हलकों में मोदी की पोप से मुलाकात को लेकर थोड़ा नाक भौं सिकोड़ा गया उनके कारण राजनीतिक ज्यादा हैं। हो सकता है भाजपा को इसका कुछ चुनावी लाभ मिले। ऐसा नहीं भी हो सकता है। किंतु इस दृष्टि से मोदी मुलाकात तथा पोप की भावी यात्रा को देखना इसके व्यापक आयामों को संकुचित कर देता है। भारत बहुपंथी देश है। हार पंथ और मजहब को उनकी मान्यताओं के अनुसार धार्मिक क्रियाकलापों के लिए शत प्रतिशत स्वतंत्रता देने वाला भारत विश्व के सभ्य देशों में गिना जाता है। इस सफल मुलाकात के बाद पोप की भावी यात्रा सफलतापूर्वक संपन्न हो गई तो आर्थिक और सामरिक दृष्टि से विश्व में महाशक्ति की ओर अग्रसर भारत का कद बढ़ेगा ही ,इसके प्रति विश्व भर के ईसाई समुदाय का भावनात्मक लगाव भी थोड़ा मजबूत होगा। बताने की आवश्यकता नहीं कि इनमें विश्व के प्रमुख देश भी शामिल हैं। मोदी के सत्ता में आने के बाद छोटी-छोटी घटनाओं को बड़ा बनाकर ऐसे पेश किया गया मानो यहां ईसाइयों के लिए दुर्दिन आ गए हो। इस दुष्प्रचार में भारत के साथ विश्व के अनेक संगठन तथा व्यक्ति शामिल हैं। अमेरिका जैसे देश से जारी होने वाले धार्मिक स्वतंत्रता की वार्षिक रिपोर्ट में भी इसकी आलोचना है। कई देशों की मीडिया से संसद तक में आवाज उठी। भाजपा की राज्य सरकारों द्वारा धर्म परिवर्तन विरुद्ध बने और  बनाये जा रहे कानूनों की भी विश्व भर के ईसाई संगठन आलोचना करते हैं। भले मोदी और पोप के बीच बातचीत का यह मुद्दा नहीं रहा हो लेकिन भारत ने राजनीयिक स्तर पर निश्चित रूप से वेटिकन को सच्चाई से अवगत कराया होगा। तो यह मानने में हर्ज नहीं है कि मोदी पोप मुलाकात से विरोधी दुष्प्रचार और आलोचना के स्वर धीमै और कमजोर होंगे। यह भारत के हित में है। 1999 में पोप की यात्रा के दौरान भी भाजपा नेतृत्व वाली सरकार थी पर उस समय संघ परिवार के संगठनों सहित कई हिंदू संगठनों और व्यक्तियों ने विरोध किया था। भारत में धर्म परिवर्तन एक बड़ा मुद्दा है। वेटिकन धर्म परिवर्तन को मान्यता देता है। अलग-अलग क्षेत्रों में और कई बार देश स्तर पर भी धर्म परिवर्तन की घटनाओं पर विरोध हम देखते रहे हैं। अभी तक इन संगठनों की ओर से किसी तरह की विरोधी प्रतिक्रिया नहीं आई है। इसका मतलब यह है कि पोप फ्रांसिस की यात्रा बिना बड़े विरोध और बाधा के संपन्न हो जाएगी। धर्म परिवर्तन का विरोध करने में कोई हर्ज नहीं है लेकिन राजकीय यात्रा में मेहमान के साथ जिस तरह का सम्मानजनक व्यवहार होना चाहिए वही व्यवहार होगा ऐसी उम्मीद की जा सकती है। हां इसमें सरकार की ओर से बुद्धिमत्ता पूर्वक यह संदेश अवश्य निकलना चाहिए की पॉप का सम्मान करते हुए भी भारत लोभ, लालच या बल से धर्म परिवर्तन के विरुद्ध है।

अवधेश कुमार,ई 30,गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली 110092, मोबाइल 98110 27208

बुधवार, 3 नवंबर 2021

शाह ने कश्मीर में नए दौर को सशक्त करने का ही संदेश दिया

 

अवधेश कुमार

गृह मंत्री अमित शाह की जम्मू कश्मीर यात्रा ऐसे समय हुई जब प्रदेश को उनकी आवश्यकता थी तथा देश भी जानना चाहता था कि सरकार की नीति रणनीति क्या है। ऐसे समय जब हिंदुओं ,सिख ,गैर कश्मीरियों तथा भारत की बात करने वालों पर आतंकवादी हमले हो रहे हों, आतंकवादियों और सुरक्षा बलों के बीच लगातार मुठभेड़ जारी हो, कोई गृह मंत्री शायद ही जाने का फैसला करता। इसके पूर्व केंद्र शासित प्रदेश के रूप में जम्मू-कश्मीर था नहीं और न 370 से विहीन था। इस नाते उनकी यात्रा की तुलना किसी से की भी नहीं जा सकती। अगर तुलना हो सकती है तो स्वयं अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा पैदा की गई उम्मीदें और दिए गए बयानों से। 

जिन लोगों को भी किंचित आशंका रही होगी कि अमित शाह या मोदी सरकार जम्मू कश्मीर की वर्तमान स्थिति को लेकर थोड़े निराश होंगे या कुछ अनिश्चय भरी बातें करेंगे निश्चित रूप से उन्हें धक्का लगा होगा। सुरक्षा व्यवस्था को लेकर सरकारी अधिकारियों एवं पुलिस सहित सुरक्षा बलों के उच्चाधिकारियों के साथ बैठक में क्या बातें हुईं वह पूरी तरह सार्वजनिक नहीं हो सकता। बावजूद जितनी बातें सामने आई उनसे सुरक्षा अभियान को ज्यादा सघन और व्यापक रूप से लक्षित किया जा रहा है। यह मानने का कोई कारण नहीं कि अमित शाह बगैरआगामी सुस्पष्ट योजना के आए होंगे। उनके हाव भाव और शब्दों में आत्मविश्वास और ओजस्विता की वही झलक थी जो लंबे समय से देश उनके अंदर देख रहा है।

आप हम अमित शाह की राजनीति से सहमत असहमत हो सकते हैं, किंतु निष्पक्ष होकर विचार करेंगे तो मानना होगा कि जम्मू कश्मीर के संदर्भ में उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जो कदम उठाया उसने इतिहास न केवल बदला, बल्कि नया अध्याय लिख दिया। 5 अगस्त, 1919 को जब वे संसद परिसर में हाथों में कुछ प्रश्नों का कागज लिए प्रवेश कर रहे थे तो क्या किसी को रत्ती भर भी उम्मीद थी कि आज जम्मू कश्मीर और देश के लिए नासूर बने अनुच्छेद 370 की लीला समाप्त हो जाएगी? देश के जेहन में उसके पूर्व उठाए गए सुरक्षा के सख्त कदमों के साथ राज्यसभा औरलोकसभा में हुई बहस तथा मतदान के दृश्य लंबे समय तक ताजा रहेंगे। जिस ढंग से अमित शाह ने पूरे मामले को हैंडल किया, विपक्ष के सारे आरोपों का एक-एक कर उत्तर दिया तथा योजनानुसार 370 की मृत्यु का विधेयक पारित करा लिया वह अभूतपूर्व था।

निश्चय ही देश और जम्मू कश्मीर में रुचि रखने वाले पाकिस्तान सहित कई देश प्रतीक्षा कर रहे थे कि वह कब जम्मू-कश्मीर आते हैं। सबकी गहरी दृष्टि उनकी यात्रा पर लगी हुई थी।नरेंद्र मोदी सरकार, जम्मू-कश्मीर, देश तथा स्वयं अमित शाह के लिए यह यात्रा सामान्य नहीं हो सकती क्योंकि 370 निरस्त कराने के बाद वे पहली बार कदम रख रहे थे। यहां उन आंकड़ों में जाने की आवश्यकता नहीं है और न उन सबको गिनाना संभव है कि उनकी सरकार ने वहां समेकित विकास के लिए क्या क्या कदम उठाए हैं। कृषि से लेकर व्यापार, उद्योग ,निवेश, स्वास्थ्य, शिक्षा,कला-संस्कृति ,खेलकूद आदि सभी क्षेत्रों में योजनाबद्ध तरीके से प्रयास हुआ है। उपराज्यपाल मनोज सिन्हा सारी नीतियों को न केवल क्रियान्वित करने में लगे हैं, बल्कि जमीनी अनुभव के अनुरूप अपने अधिकारों के तहत उसमें संशोधन परिवर्तन करते हैं या फिर आवश्यकता पड़ने पर केंद्र सरकार से ऐसा कराते हैं। जम्मू कश्मीर में पिछले दो - ढाई वर्षो में आया परिवर्तन कोई भी देख सकता है। पाकिस्‍तान, सीमा के इस पार बैठे भारत विरोधी तथा आतंकवादी इसे ही  सहन नहीं कर पा रहे हैं। नेशनल कांफ्रेंस, पीडीपी आदि की बेचैनी इसीलिए है क्योंकि बदलाव जारी रहा तो राजनीतिक वर्णक्रम पूरी तरह बदल जाएगा। 

अमित शाह गृह मंत्री हैं तो भाजपा के नेता भी। बगैर राजनीतिक लक्ष्य कोई सरकार काम नहीं करती। उनका राजनीतिक लक्ष्य तभी पूरा हो सकता है जब भाजपा और संघ के मुख्य लक्ष्य आतंकवाद का खात्मा ,कश्मीर में भारतीय राष्ट्र का उद्घोष, जम्मू के साथ कश्मीर में भी हिंदुओं, सिखों तथा अन्य गैर मुस्लिमों का पूरे भ्रमित माहौल में अपने धार्मिक सांस्कृतिक क्रियाकलापों के साथ सहज रूप में निवास करना पूरी होती दिखे। सुरक्षा को लेकर वर्तमान कठिन समय में गृह मंत्री इस दृष्टि से संकेत देने में अगर सफल रहे तो मान लेना चाहिए कि जम्मू-कश्मीर में बदलाव की धारा वाकई अपने मुकाम तक पहुंचेगी। तो क्या माना जाए?

ध्यान रखिए, जब वह जम्मू राज्य की एक सभा को प्रतिकूल मौसम में संबोधित कर रहे थे उसी समय पूंछ से लेकर दूसरे क्षेत्र में सुरक्षा बलों की आतंकवादियों के साथ मुठभेड़ जारी थी। गृह मंत्री ने उसी स्वर को प्रतिध्वनित की जिसे उन्होंने 5 अगस्त ,2019 को राज्यसभा में गुंजित किया था। मोदी सरकार की जम्मू-कश्मीर नीति बहुआयामी है। सुरक्षा का माहौल,  हिन्दुओं, सिखों सहित गैर मुस्लिमों को भी विश्वास दिलाना कि रहने की स्थिति बन गई है,अलगाववाद और आतंकवाद की गतिविधियों से विरत करने के लिए शिक्षा ,संस्कृति, खेलकूद ,उद्यमिता आदि के लिए प्रोत्साहित करना, पंचायत स्तर पर लोकतांत्रिक प्रक्रिया को सशक्त कर आम लोगों को सच्चाई का एहसास कराना, प्परंपरागत राजनीतिक दलों को चुनौती देना, राजनीति की नई धारा को प्रोत्साहित करना, सुरक्षा का विश्वास दिलाना, जम्मू कश्मीर के बीच आर्थिक व प्रशासनिक संतुलन कायम करना आदि इनमें शामिल है।

सीमा पर भारत की आखिरी पोस्ट मकवाल सीमा पर अग्रिम इलाकों का दौरा और  बीएसएफ के बंकर में जाना, सीमा के गांव में बैठकर जनता से संवाद करना तथा श्रीनगर की सभा में बुलेट प्रूफ शीशा हटाकर लोगों कहना कि मैं आपके बीच बात करने आया हूं डरिए नहीं आदि सुरक्षा के प्रति सरकार की कठोरता और प्रतिबद्धता का संदेश देने तथा लोगों के अंदर सुरक्षा का विश्वास जगाने की दृष्टि से महत्वपूर्ण था। गांदेरबल के प्रसिद्ध खीर भवानी मंदिर में पूजा अर्चना का संदेश भी स्पष्ट था।शाह ने सरकार के प्रयासों से गठित 4500  युवा क्लब के युवाओं से बातचीत करते हुए कहा कि विकास की जो यात्रा शुरू हुई है उसमें किसी को खलल नहीं डालने देंगे तथा आपको सहयात्री बनाने आया हूं। यहां उन्होंने कहा कि पाकिस्तान का नाम लेने वालों को मैं बहुत कुछ कह सकता हूं लेकिन कहूंगा नहीं केवल यही कहूंगा कि बगल में ही पीओके है जाकर देख लें कि वहां क्या स्थिति है और यहां क्या। वास्तव में पाकिस्तान का राग अलापने वालों के लिए यही सीधा जवाब था और इसका वहां के युवाओं और लोगों पर कुछ न कुछ असर हुआ होगा। उसकी तुलना वहां शुरू होगी। जम्मू की सभा में अमित शाह अपने सहज रूप में थे जब उन्होंने वहां के राजनीतिक दलों पर हमला करते हुए कहा कि तीन दल मेरे से पूछ रहे थे कि क्या दोगे ,मैं तो हिसाब लेकर आया हूं लेकिन आपने 70 सालों में क्या दिया है उसका हिसाब जनता मांग रही है वह तो दीजिए। 3 परिवार से उनका मतलब जम्मू कश्मीर में शासन करने वाली कांग्रेस, नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी। फिर उन्होंने वो सारी बातें दोहराई जिनसे वहां के राजनीतिक दल और परंपरागत प्रशासन कटघरे में खड़ा होता है। यानी आम महिलाओं को पूरा अधिकार नहीं मिला ,शरणार्थी नागरिक नहीं बने, बाल्मीकि समुदाय, परंपरागत रूप से रहने वाले गुज्जर और दूसरी जातियों को जमीन तक खरीदने का अधिकार नहीं था और वह सब अब मिल रहा है। भाजपा और सरकार की नीति के अनुरूप उनकी यह घोषणा महत्वपूर्ण थी कि अब तीन परिवार से नहीं गांव में जीतने वाला सरपंच और पंच भी मुख्यमंत्री बन सकता है। उन्होंने गुर्जर लोगों की ओर देखते हुए कहा कि आप भी यहां के मुख्यमंत्री बन सकते हो। इसके साथ उन्होंने अपने दो वायदे प्रखरता से दोहराया - एक -एक व्यक्ति यहां सुरक्षित होगा तथा जम्मू के साथ होने वाला अन्याय अब कभी नहीं दिखेगा।यानी दोनों क्षेत्रों का विकास समान होगा, दोनों को समान महत्व मिलेगा। उनके द्वारा यह साफ करना भी महत्वपूर्ण था कि परिसीमन के बाद चुनाव होंगे तथा आने वाले समय में पूर्ण राज्य का दर्जा मिल जाएगा। यानी जो परिसीमन का विरोध करते हैं उनका असर नहीं होने वाला है और जो गलतफहमी फैला रहे हैं कि स्थाई रूप से केंद्र शासित प्रदेश रहेगा वह भी झूठ है। 

इस तरह उन्होंने वहां के लोगों को संदेश दिया कि आप डरिये नहीं, राजनीति में आइए ,आपको सुरक्षा मिलेगा , यहां के नेता आप बन सकते हैं। मीडिया में ये बातें चल रही थी लेकिन राष्ट्रीय स्तर के किसी नेता ने जम्मू-कश्मीर में आकर इस तरह की बातें नहीं की थी। इस नाते अमित शाह की यात्रा का महत्व जम्मू कश्मीर की दृष्टि से तो व्यापक होता ही है ,पाकिस्तान और उनके समर्थकों के लिए भी इसमें सीधा संदेश है। 

अवधेश कुमार, ई-30, गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली 1100 92, मोबाइल 98910 27208

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