गुरुवार, 28 अक्तूबर 2021

हिंदुओं को बचाने के लिए आगे आए विश्व समुदाय

 अवधेश कुमार

भारत सहित पूरी दुनिया में इस्कॉन के बैनर से बांग्लादेश में हिंदुओं के विरुद्ध जारी हिंसा का विरोध किया जाना बिलकुल स्वाभाविक है। सभी समुदाय के लोगों को विश्व भर में इस हिंसा के विरुद्ध एकजुट होना चाहिए ।लेकिन हिंदुओं के विरुद्ध कुछ भी हो जाए दुनिया के लिए यह तभी चिंता का कारण बनती है जब भारत की कूटनीति सक्रिय होती है। भारत में स्वयं को सेकुलर मानने वाला खेमा ऐसे खामोश है मानो बांग्लादेश में हिंदुओं के विरुद्ध हमला स्वाभाविक घटना हो। बांग्लादेश में 13 अक्टूबर, 2021 को कोमिल्ला के नानुआर दिधी के दुर्गा मंडप से आरंभ हमले ने देशव्यापी एकपक्षीय दंगे का रूप ले लिया। एक तस्वीर फेसबुक पर वायरल हो रही थी जिसमें कहा गया था कि पवित्र कुरान को दुर्गा के पैरों के नीचे रख अपवित्र किया गया। सात दर्जन से ज्यादा पूजा पंडाल तहस-नहस किए गए,  पूजा में लगे लोग घायल हुए और कोमिल्ला से तब दो शव बरामद हुए। धीरे -धीरे चांदपुर, नोआखाली, रंगपुर, चटगांव, कॉक्स बाजार, मौलवीबाजार, गाजीपुर, फेनी जैसे क्षेत्र भयानक हिंसा की चपेट में आ गए। आज 64 में से 22 प्रशासकीय जिलों में दंगा रोधी पुलिस तैनात है। हालांकि हिंदुओं के विरुद्ध हमलों के काफी मामले दर्ज हुए, गिरफ्तारियां भी हुई है। बावजूद हिंदुओं और हिंदू धर्म स्थलों पर हमले नहीं होनेकी स्थिति नहीं बनी। हिंसा में वे सारे जघन्य कांड हुए जिसके विवरण पुस्तकों में पढ़ते हैं। महिलायें व  बच्चियों से दुराचार से लेकर जघन्य हत्या तक। रंगपुर के पीरगंज से 16 वर्ष के उस किशोर परितोष राय को गिरफ्तार किया गया जिस पर फेसबुक तस्वीर डालने का आरोप था। गिरफ्तारी के बावजूद रंगपुर में शांति स्थापित नहीं हुई। एक तरफ गिरफ्तारी तो दूसरी ओर हमलावरों ने उस क्षेत्र के दो दर्जन से ज्यादा घरों को आग लगा दी और करीब 100 जगहों पर लूटपाट की। 

 नोआखाली के इस्कॉन मंदिर पर बर्बर हमला हुआ।  अबुल अला मौदुदी  द्वारा स्थापित कट्टरपंथी जमात-ए-इस्लामी  सहित अन्य मुस्लिम संगठनों का हाथ इसके पीछे माना जा रहा है। पिछले दिनों प्रधानमंत्री शेख हसीना ने कहा था कि जमात वही स्थिति लाना चाहती है जिसमें खुलेआम कत्लेआम हो। जमात और ऐसे दूसरे संगठन हिंदुओं पर हमले करते रहे हैं, मंदिर और हिंदू घर तोड़े और जलाए जाते रहे हैं। शेख हसीना उदारवादी हैं किंतु इन कट्टरपंथियों के सामने वह भी कमजोर नजर आई हैं।  बांग्लादेश के अखबार ब्लिट्ज ने आबादी का विश्लेषण कर बताया है कि1947 में पूर्वी पाकिस्तान यानी बांग्लादेश में 30 प्रतिशत से ज्यादा हिंदू थे। 2011 की जनगणना में हिंदुओं की आबादी 8 प्रतिशत रह गई।  बांग्लादेश की मीडिया पर नजर रखें तो साफ दिखाई देगा कि हिंदुओं को अपमानित तथा हिन्दू महिलाओ के साथ बदतमीजी की घटनाएं आम हैं। बांग्लादेश की ही संस्था ऐन ओ सालिश सेंटर ने अपनी रिपोर्ट में कहा है 2013 के आरंभ से इस वर्ष सितंबर तक हिंदुओं पर 3679  हमले हो चुके हैं। नोआखाली में स्थिति भयावह है। बांग्लादेश हिंदू बुद्धिस्ट क्रिश्चियन यूनिटी काउंसिल ने चांदपुर एवं नोआखाली हमलों में जान-माल की क्षति की भयावह तस्वीर पेश की है। 

नोआखाली और कोमिल्ला दोनों महत्वपूर्ण जगह है। नोआखाली वह स्थान है, जहां  15 अगस्त, 1947 के पूर्व और बाद में हुए भीषण दंगों के बाद महात्मा गांधी को जाना पड़ा था। कोमिल्ला वह जगह है जहां आठवीं सदी में त्रिपुरा के देव राजवंश का शासन था। 1400 के बाद माणिक वंशी राजाओं ने शासन किया। किंतु 16 वीं सदी से स्थितियां बदलने लगी। 1764 में शमशेर गाजी के नेतृत्व में वह बड़ा आंदोलन हुआ और राजवंश का अंत हो गया। कुछ लोग उसे काजी नज़रुल इस्लाम की कर्मभूमि के रूप में याद करते हैं जहां उन्होंने प्रिंस ऑफ वेल्स के भारत आने के विरुद्ध अपनी चर्चित कविता की रचना की थी। वहां 1931मालगुजारी के खिलाफ भी किसान आंदोलन हुआ था और उसमें भी कुछ मजहबी अंश थे। तब महात्मा गांधी और रविन्द्रनाथ टैगोर दोनों वहां गए थे। नोआखाली का दंगा कोई भूल नहीं सकता। 1946 का यही अक्टूबर महीना था जब वहां हिन्दुओं पर हमले आरंभ हुए थे। गांधीजी वहां नवंबर 1946 में पहुंचे थे। उस समय के बंगाल के कांग्रेस के नेता डॉ बिधान चंद्र राय ने गांधी जी को हिंसा का जो विवरण दिया था वह दिल दहलाने वाला था। उन्होंने कहा था कि हिंदुओं का नरसंहार हो रहा है और हिंदू महिलाओं के साथ लगातार दुष्कर्म किया जा रहा है। मोहम्मद अली जिन्ना के डायरेक्ट एक्शन के बाद कोलकाता से लेकर बंगाल की कई जगहों पर  खुलेआम कत्लेआम हुआ था ।उसकी चपेट में नोआखाली था। गांधी जी के साथ प्यारेलाल नैयर, डॉक्टर राम मनोहर लोहिया, उनकी सहयोगी आभा ,मनु आदि गए थे। उन्होंने सात सप्ताह तक पैदल क्षेत्र का यात्रा की। रिकॉर्ड बताते हैं कि वे करीब 115- 16 मील चलकर47-48 गांव तक पहुंचे । उस समय 10 अक्टूबर, 1946 का दिन था, जिसे कोजागरा पूर्णिमा कहा जाता है। हिन्दुओं की सामूहिक हत्याओं के साथ हजारों को मुसलमान बनाया गया था। बंगाल में मुस्लिम लीग की सरकार थी। बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री हुसैन शाहिद सुहरावर्दी ने गांधीजी को नोआखाली छोड़ने की चेतावनी दी थी। उनके रास्ते अनेक बाधाएं मुस्लिम लीग और उनके कट्टरपंथियों ने खड़ी की। गांधी गांव-गांव घूमते रहे।

काफी लोग इस समय नोआखाली और गांधी को याद कर रहे हैं। क्या आज वही स्थिति बांग्लादेश या पाकिस्तान में है कि कोई गांधी जैसा व्यक्ति वहां जाए, यात्राएं करें और हमलों को शांत करे? कतई नहीं ।  बांग्लादेश के साथ हमारे संबंधों को देखते हुए देश के विरुद्ध कुछ बोलना राजनयिक दृष्टि से विपरीत परिणामों वाला माना जा रहा है। मरणासन्न हो चुकी पार्टी  बीएनपी यानी बांग्लादेश नेशनलिस्ट सक्रिय हो गई। उसने दंगों की जांच के लिए दो समानांतर कमेटियों का गठन कर दिया। सब जानते हैं कि बेगम खालिदा जिया के शासन में किस तरह हिंदुओं पर हमले हुए, कट्टरपंथ और आतंकवाद तेजी से फैला। उन्हें लगता है कि मजहबी उन्मादियों के साथ खड़े होकर वोअपना समर्थन वापस पा सकती हैं। इसलिए भारत सरकार अंदर भले सक्रिय हो स्पष्ट बोलने से बच रही है। 

वास्तव में इस प्रकार की हिंसा अपने आप नहीं होती। इसकी जड़ें गहरी हैं। लंबे समय से हिंदुओं और अल्पसंख्यक समुदाय के विरुद्ध पैदा की गई घृणा तथा बांग्लादेश को सम्पूर्ण इस्लामिक राज बनाने का प्रचार चलता रहा हूं । यह इन सबकी परिणति तो है ही, पाकिस्तान की भूमिका से भी इनकार करना कठिन है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसी साल में 26 27 मार्च को बांग्लादेश की यात्रा पर गए थे और उन्होंने हिंदू मंदिरों में पूजा-पाठ की थी जिससे बेहतर वातावरण बना था। तब शेख मुजीबुर रहमान यानी बंगबंधु की याद में भारत-बांग्लादेश के संबंधों में भावुकता और संवेदनशीलता देखी गई था। पाकिस्तान को यह स्वीकार नहीं हो सकता था। शेख हसीना ने भारत के हिंदुत्ववादी शक्तियों से संयम बरतने की कुछ दिनों पहले अपील की थी। ऐसी घटनाओं में संयम बनाए रखना कठिन है। बांग्लादेश के 4096 किलोमीटर सीमा से लगने वाले पूर्वोत्तर के 5 राज्यों असम, त्रिपुरा ,मिजोरम, मेघालय और पश्चिम बंगाल में इसका असर है। अक्टूबर के नोआखाली तथा मोहम्मद अली जिन्ना के डायरेक्ट एक्शन को पाकिस्तान के साथ बांग्लादेश के कट्टरपंथी हमेशा याद करते हैं। यानी यह छिटपुट हिंसा या अचानक हो गई वारदात नहीं है।  इसके पीछे एक विचार और योजना है। यह यूंही खत्म नहीं होगी।अमेरिका में हिन्दुओं की सक्रियता के कारण संयुक्त राष्ट्रसंघ ने भी संज्ञान लिया और शेख हसीना सरकार से रोकने को कहा। अमेरिका ने भी निंदा की। अमेरिकी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा कि धर्म चुनने की आजादी मानवाधिकार है। दुनिया का प्रत्येक व्यक्ति, चाहे वह किसी धर्म या पंथ को मानने वाला है उसको अपने महत्वपूर्ण पर्व बनाने के लिए  विश्वास दिलाना जरूरी है कि वह सुरक्षित है। लेकिन हिंसा रुकी नहीं। वास्तव में इसके लिए बांग्लादेश सरकार को तो जो कुछ संभव हो सकता है करना ही चाहिए, भारत सहित संपूर्ण दुनिया के हिंदू, सिख, जैन ,बौद्ध ,ईसाई यहां तक कि मुसलमानों को भी प्रतिरोध करना चाहिए अन्यथा एक दिन वहां से गैर मुस्लिमों का नामोनिशान खत्म हो जाएगा ।  

अवधेश कुमार, ई- 30, गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली 110092, मोबाइल 98910 27208

गुरुवार, 21 अक्तूबर 2021

सावरकर और गांधी के संबंधों पर प्रश्न उठाने वाले सच्चाई देखें

अवधेश कुमार

वीर सावरकर या उनके जैसे दूसरे स्वतंत्रता सेनानियों ने कल्पना भी नहीं की होगी कि उनके देश के लोग ही कभी उनके शौर्य, वीरता और इरादे पर प्रश्न उठाएंगे। वीर सावरकर के साथ त्रासदी यही है कि वैचारिक मतभेदों के कारण एक महान स्वतंत्रता सेनानी, योद्धा, समाज सुधारक, लेखक ,कवि ,इतिहासकार को कायर और अंग्रेजों का भक्त साबित करने की ह्रदय विदारक कोशिश हो रही है।यह समझ से परे है कि अगर सावरकर के बारे में सच्चाई देश के सामने आ जाए तो उससे क्या समस्या आ जाएगी? क्या सावरकर का कद बढ़ेगा उससे महात्मा गांधी या अन्य मनीषियों का कद छोटा हो जाएगा? कतई नहीं। जिन लोगों ने शोध नहीं किया, इतिहास ठीक से नहीं पड़ा वे भी सावरकर का नाम आते ही कूद जाते हैं जिसमें असदुद्दीन ओवैसी जैसे लोग हैं। अजीब- अजीब प्रश्न उठाए जा रहे हैं। कोई कहता है कि गांधीजी तो 1915 में भारत आए और सावरकर ने 1913 में माफीनामा लिखा फिर गांधी जी ने उनको कब सलाह दे दिया? ये लोग एक बार गांधी वांग्मय के उन अंशों को पढ़ लेते तो समस्या नहीं होती।  सच यही है कि महात्मा गांधी स्वयं सावरकर के प्रति सम्मान और स्नेह का भाव रखते थे तथा उन्होंने अपनी ओर से दोनों सावरकर बंधुओं को अंडमान सेल्यूलर जेल से रिहा कराने की भरपूर कोशिश की।

जो लोग एक माफीनामा ,दो माफीनामा की बात कर रहे हैं उनको यह ध्यान दिलाना आवश्यक है की वीर सावरकर ने 6 बार रिहाई के लिए अर्जी दायर की। इसमें 1911 से 1919 तक  पांच बार तथा महात्मा गांधी के सुझाव पर 1920 में एक बार। 30 अगस्त, 1911 को सावरकर ने पहला माफीनामा भरा जिसे अंग्रेज सरकार ने तीन दिनों बाद ही खारिज कर दिया। दूसरी याचिका उन्होंने 14 नवंबर, 1913 को लगाई वह भी खारिज हो गई। इस तरह उनकी चार याचिकाएं खारिज हुई।  1919 में अंग्रेजों ने जॉर्ज पंचम के आदेश पर भारतीय कैदियों की सजा माफ करने की घोषणा की। अंग्रेजों ने कहा कि चूंकि प्रथम विश्व युद्ध में भारत के लोगों ने उनका पूरा साथ दिया है इसलिए वे राजनीतिक कैदियों की रिहाई कर रहे हैंं। यह अंग्रेजों द्वारा भारतीयों को दिया गया तोहफा था ।कालापानी यानी अंडमान जेल से भी काफी कैदी रिहा हुए लेकिन इसमें विनायक दामोदर सावरकर और उनके बड़े भाई गणेश दामोदर सावरकर का नाम नहीं था।  इस पर उनके छोटे भाई नारायणराव सावरकर ने महात्मा गांधी को लिखे पत्रों में से 18 जनवरी ,1920 के अपने पहले पत्र में सरकारी माफी के तहत अपने भाइयों की रिहाई सुनिश्चित कराने के संबंध में सलाह और मदद मांगी थी।  इसमें लिखा था, ‘कल (17 जनवरी) को मुझे सरकार की ओर से सूचना मिली कि रिहा किए गए लोगों में सावरकर बंधुओं का नाम नहीं है। स्पष्ट है कि सरकार उन्हें रिहा नहीं कर रही है। कृपया, आप मुझे बताएं कि ऐसे मामले में क्या करना चाहिए? वे पहले ही अंडमान में 10 साल की कठोर सजा काट चुके हैं। उनका स्वास्थ्य भी गिर रहा है। आप इस मामले में क्या कर सकते हैं, उम्मीद है अवगत कराएंगे…।’ एक सप्ताह बाद यानी 25 जनवरी, 1920 को गांधी जी ने उत्तर में  लिखा था, ‘प्रिय डॉ. सावरकर, मुझे आपका पत्र मिला। आपको सलाह देना कठिन लग रहा है, फिर भी मेरी राय है कि आप एक विस्तृत याचिका तैयार कराएं जिसमें मामले से जुड़े तथ्यों का जिक्र हो कि आपके भाइयों द्वारा किया गया अपराध पूरी तरह राजनीतिक था।….जैसा कि मैंने आपसे पिछले एक पत्र में कहा था मैं इस मामले को अपने स्तर पर भी उठा रहा हूं। 

 गांधी जी ने 26 मई, 1920 को यंग इंडिया (महात्‍मा गांधी : कलेक्‍टेड वर्क्‍स, वॉल्‍यूम 20, पृष्ठ 368) में लिखा, 'भारत सरकार और प्रांतीय सरकारों के चलते, कई कैदियों को शाही माफी का लाभ मिला है। लेकिन कई प्रमुख राजनीतिक अपराधी हैं जिन्‍हें अब तक रिहा नहीं किया गया है। मैं इनमें सावरकर बंधुओं को गिनता हूं। वे उसी तरह के राजनीतिक अपराधी हैं जैसे पंजाब में रिहा किए गए हैं और घोषणा के प्रकाशन के पांच महीने बाद भी इन दो भाइयों को अपनी आजादी नहीं मिली है।' एक और पत्र (कलेक्‍टेड वर्क्‍स ऑफ गांधी, वॉल्‍यूम 38, पृष्ठ 138) में गांधी जी ने लिखा, 'मैं राजनीतिक बंदियों के लिए जो कर सकता हूं, वो करूंगा। ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैं डर की वजह से चुप रह गया हूं। राजनीतिक बंदियों के संबंध में, जो हत्‍या के अपराध में जेल में हैं, उनके लिए कुछ भी करना मैं उचित नहीं समझूंगा। मैंइस  बिंदु पर बहस नहीं करूंगा। हां, मैं भाई विनायक सावरकर के लिए जो बन पड़ेगा, वो करूंगा।' गांधी जी और सावरकर के बीच भी पत्र व्यवहार के प्रमाण हैं। ये बताते हैं कि दोनों के बीच संपर्क और संबंध थे। सावरकर के बड़े भाई के निधन के बाद 22 मार्च, 1945 को सेवाग्राम से लिखे एक पत्र (कलेक्टेड वर्क्‍स ऑफ गांधी, वॉल्‍यूम 86, पृष्‍ठ 86) में गांधी जी ने लिखा, 'भाई सावरकर, मैं आपके भाई के निधन का समाचार सुनकर यह पत्र लिख रहा हूं। मैंने उसकी रिहाई के लिए थोड़ी कोशिश की थी और तबसे मुझे उसमें दिलचस्‍पी थी। आपको सांत्‍वना देने की जरूरत कहां हैं? हम खुद ही मौत के पंजों में हैं। मैं आशा करता हूं कि उनका परिवार ठीक होगा।'

जो लोग यह मानने को तैयार नहीं कि गांधीजी ने सावरकर के लिए कोशिश की होगी उन्हें यंग इंडिया का लेख पूरा पढ़ना चाहिए। इसमें सावरकर जी के बारे में गांधी जी लिखते हैं, 'दूसरे भाई को लंदन में कैरियर के लिए जाना जाता है। पुलिस हिरासत से भागने की सनसनीखेज कोशिश और फ्रांसीसी समुद्री सीमा में पोर्टहोल से कूदने की बात अभी तक लोगों के जेहन में ताजा है। उसने फर्ग्‍युसन कॉलेज से पढ़ाई की, फिर लंदन में  बैरिस्‍टर बन गया। वह 1857 की सिपाही क्रांति के इतिहास का लेखक है। 1910 में उसपर मुकदमा चला था और 24 दिसंबर, 1910 को भाई के बराबर ही सजा मिली। 1911 में उसपर हत्‍या के लिए उकसाने का आरोप लगा। उसके खिलाफ हिंसा का कोई आरोप साबित नहीं हुआ। वह भी शादीशुदा है, 1909 में एक बेटा हुआ। उसकी पत्‍नी अब भी जिंदा है।' गांधी जी ने लिखा कि वायसराय को दोनों भाइयों को उनकी आजादी देनी ही चाहिए अगर इस बात के पक्‍के सबूत न हों कि वे राज्‍य के लिए खतरा बन सकते हैं।  गांधीजी का कहना था कि जनता को यह जानने का हक है कि किस आधार पर दोनों भाइयों को कैद में रखा जा रहा है।

 जो लोग आज प्रश्न  उठा रहे हैं वे एक बार सोचे कि गांधीजी ने क्यों इतनी कोशिश की और यह सब लिखा? सावरकर और महात्मा गांधी लंबे समय से एक-दूसरे को जानते थे। गांधीजी की लंदन में 1906  तथा1909 में सावरकर से मुलाकात हुई थी।  तब सावरकर वहां इंडिया हाउस हॉस्टल में रहकर बैरिस्टर की पढ़ाई पूरी कर रहे थे। गांधी जी से उनकी अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्र आंदोलन तथा बाद की व्यवस्था पर गंभीर चर्चा हुई थी। सावरकर मांसाहारी थे और उन्होंने गांधीजी के लिए वही भोजन बनाया था। गांधीजी वैष्णव थे इसलिए मांस देखकर परेशान हो गए। सावरकर ने उन्हें कहा था कि  इस समय तो ऐसे भारतीय चाहिए जो अंग्रेजों को कच्चा खा जाएं और आप तो मांस से ही घबराते हैं। हिंसा और अहिंसा को लेकर दोनों की बहस हुई थी। गांधीजी ने वहीं से गुजरात वापसी के दौरान समुद्री जहाज पर हिंद स्वराज की रचना की जिसमें वे स्वयं संपादक और पाठक के रूप में प्रश्न करते हैं और उत्तर भी देते हैं। इसमें अन्य लोगों से भी उनकी मुलाकात का योगदान होगा लेकिन सावरकर से बहस का भी इसमें बड़ा योगदान था। बाबा साहबअंबेदकर भी वीर सावरकर का नाम सम्मान से लेते थे।  वास्तव में यह बताता है कि वर्तमान राजनीति और वैचारिक खेमेबंदी के विपरीत  उस समय व्यापक वैचारिक मतभेद होते हुए भी नेताओं के बीच एक दूसरे के प्रति सम्मान का भाव था। सावरकर गांधी जी की अहिंसक नीति के आलोचक थे, उनके कई निर्णयों पर उन्होंने प्रश्न उठाया लेकिन कभी उनके विरुद्ध  अपमानजनक टिप्पणी नहीं की। एक उन्मादी और सिरफिरे द्वारा गांधी जी की हत्या में उनका नाम घसीटा गया। उस समय भीड़ ने उनके छोटे भाई पर हमला किया, पत्थर मारे। इससे उनको इतनी चोट आई कि आगे उनकी मृत्यु हो गई।  जरा सोचिए, कितनी बड़ी त्रासदी थी। न सुप्रीम कोर्ट ने उनको दोषी माना, न कपूर आयोग ने। अगर वे दोषी थे तो फिर रिहा कैसे हो गए? नाथूराम गोडसे हिंदू महासभा का सदस्य रह चुका था लेकिन वह सावरकर को लानत भरे पत्र भेजता था। ये पत्र इस बात के प्रमाण थे कि सावरकर  का गांधीजी की हत्या से दूर-दूर तक लेना नहीं था। जिस व्यक्ति से उनके ऐसे पत्र व्यवहार हो रहे हो उसकी वे हत्या कराने की कोशिश करेंगे ऐसी सोच ही शर्मनाक है। सावरकर को एक 11 जुलाई 1911 को अंडमान जेल लाया गया और उनकी रिहाई 6 जनवरी 1924 को हुई। जिस व्यक्ति ने 12 वर्ष से ज्यादा काला पानी में बिताया तथा 23 वर्ष तक अंग्रेजों की निगरानी झेली उसका सम्मान होना ही चाहिए । जिसे माफीनामा कहा जा रहा है वह एक फार्म था जिसका उपयोग स्वतंत्रता सेनानी रिहाई के आवेदन के रूप में करते थे। सावरकर का मानना था कि अंग्रेजों की जेल में रहकर सड़ने से किसी का भला नहीं है। इसलिए हर हाल में बाहर आकर जितना संभव हो राष्ट्र, धर्म और समाज के लिए काम किया जाए।आखिर उन्हें दो काला पानी की सजा मिली थी जो इतिहास में दुर्लभ है। 

अवधेश कुमार, ई30, गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली 110092, मोबाइल 98110 27208



शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2021

पंजाब में कांग्रेस के इस हस्र का जिम्मेवार कौन

अवधेश कुमार

कांग्रेस इस समय यह तर्क दे रही है कि  हमने विधायकों से बातचीत करने के बाद पंजाब के मुख्यमंत्री पद से कैप्टन अमरिंदर सिंह को हटाने का फैसला किया। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता रणदीप सिंह सुरजेवाला का बयान है कि 78 विधायकों ने उनका विरोध किया उसके बाद ही केंद्रीय नेतृत्व को फैसला करना पड़ा। यह बात भी साफ है कि नवजोत सिंह सिद्धू जब अपने साथ ज्यादा से ज्यादा विधायकों के होने का दावा कर रहे थे तो वह निराधार नहीं था।  उन्होंने विधायकों की बैठक बुलाई तो उसमें कैप्टन कैबिनेट के मंत्री तक शामिल हुए थे। किसी भी प्रदेश में मुख्यमंत्री के विरुद्ध  पार्टी के अंदर माहौल बन जाए और बड़ी संख्या में नेता विधायक खुलकर सामने आने लगे तो केंद्रीय नेतृत्व को इस तरह का फैसला करना पड़ता है। कांग्रेस की जगह दूसरी पार्टी भी होतीऔर परिस्थितियां वैसे ही हो जैसे बताई जा रही है तो ऐसा ही फैसला करती। किंतु क्या वाकई जो कुछ इस समय कहां जा रहा है वही सच है? राजनीति की सामान्य समझ रखने वाले भी जानते हैं कि अगर केंद्रीय नेतृत्व सख्त रुख अपना ले तो किसी मुख्यमंत्री के खिलाफ इतनी संख्या में विधायक खुलकर सामने नहीं आ सकते। सच यही है कि सिद्धू ने जबसे कैप्टन के विरुद्ध झंडा उठाया उन्हें रोकने, मनाने, समझाने, चेतावनी देने की कोशिश ही नहीं की गई। वे दिल्ली आते राहुल गांधी, प्रियंका वाड्रा, से भेंट होती और सोशल मीडिया पर फोटो जाता। यह सिलसिला चलता रहा और इसका संदेश पूरे पंजाब के कांग्रेस में जो गया होगा उसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है।

  प्रदेश प्रभारी हरीश रावत परिपक्व और सूझबूझ वाले नेता हैं। उन्हें भी सच पता होगा। भारतीय राजनीति में इस तरह के सच को कोई नेता सार्वजनिक रूप से बाहर नहीं करता। एक तर्क यह भी है कि मलिकार्जुन खड्गे ,हरीश रावत और जेपी अग्रवाल तीनों के समूह ने जो रिपोर्ट दी उसके आधार पर फैसला हुआ। रिपोर्ट पूरी तरह सार्वजनिक नहीं है। कई बार नेताओं का समूह  रिपोर्ट भी केंद्रीय नेतृत्व की मंशा के अनुरूप देता है। राहुल गांधी यह चाहें कि कैप्टन अमरिंदर मुख्यमंत्री से हट जाएं तो कोई समूह उनके सामने आकर ऐसी रिपोर्ट कैसे दे सकता है कि उनका रहना आवश्यक है? पूरी स्थिति को देखने के बाद किसी का भी निष्कर्ष यही आएगा का वर्तमान कांग्रेस नेतृत्व अपनी पार्टी को बचाने की बजाय उसके पतन के लिए जो कुछ संभव है वह कर रहा है। जो करना चाहिए वह कांग्रेस का वर्तमान नेतृत्व नहीं कर रहा है। अगर कैप्टन अमरिंदर सिंह आज नई पार्टी बनाकर कांग्रेस के विरुद्ध मोर्चा खड़ी करने जा रहे हैं तो इसके लिए किसे दोष दिया जाएगा? उन्होंने कहा भी है कि सिद्धू  इसके लिए जिम्मेदार नहीं है? वे कह रहे हैं कि हमने केंद्रीय नेतृत्व को स्पष्ट बता दिया था कि सिद्धू अस्थिर मस्तिष्क का व्यक्ति है ,उस पर भरोसा नहीं करना चाहिए, वह पंजाब के लिए अनुकूल नहीं है लेकिन मेरी बात नहीं मानी गई। कैप्टन प्रश्न कर रहे हैं कि मेरे पास चारा क्या है? उनकी यह शिकायत भी वाजिब है कि मुख्यमंत्री मैं हूं और मुझे बिना सूचना के विधायक दल की बैठक बुला ली गई। जो नेता केंद्रीय नेतृत्व की केवल कृपा से मुख्यमंत्री बना हो वह बहुत कुछ सहन करता है ,कर सकता है। कैप्टन ऐसे नेता हैं, जिन्होंने 2017 में अपनी बदौलत कांग्रेस को जीत दिलाई थी। यह बात सही है कि कैप्टन को भी संगठन के रूप में कांग्रेस का एक मजबूत ढांचा पंजाब में मिला। लेकिन वह ढांचा भी एकजुट होकर कैप्टन के नेतृत्व में ही लड़ने को तैयार हुआ। सोनिया गांधी, प्रियंका वाड्रा या राहुल गांधी पंजाब में कांग्रेस को कितना वोट दिला सकते हैं यह बताने की आवश्यकता नहीं है।

 अगर उम्र ही तकाजा हो और नई पीढ़ी को जिम्मेवारी देनी हो तो फिर उसका तरीका यह नहीं हो सकता जैसा पंजाब में किया गया। कैप्टन जैसे नेता को विश्वास में लेकर सही तरीके से रास्ता आसानी से निकल सकता था। कैप्टन के अनुसार उन्होंने स्वयं सोनिया गांधी को कहा कि मैं चुनाव में भूमिका निभाकर अपने आप हट जाऊंगा। बाद में उन्होंने सोनिया गांधी को यह भी कहा कि अगर मेरे से दिक्कत है ,मेरे पर विश्वास नहीं है तो मैं त्यागपत्र देना चाहता हूं? कैप्टन का कहना है कि उस समय उन्हें त्यागपत्र देने से रोक दिया गया। दुर्भाग्य देखिए कि सोनिया, राहुल, प्रियंका तथा उनके समर्थक, सलाहकार और रणनीतिकार अभी भी पंजाब को संभालने की कोशिश करते नहीं दिखते। कांग्रेस भूल रही है कि उसकी दुर्दशा का एक कारण केंद्रीय नेतृत्व द्वारा स्थानीय नेताओं का अपमान या उनकी अनदेखी रही है। चाहे आंध्र में टी अंजैया का मामला हो या कर्नाटक में वीरेंद्र पाटिल। पुराने लोग जानते हैं कि राजीव गांधी के जमाने में कैसे अंजैया का अपमान हुआ और यह तेलुगु स्वाभिमान का प्रतीक बना। उसी से तेलुगू देशम पार्टी खड़ी हुई। कर्नाटक में कांग्रेस किस तरह पराजित हुई इतिहास के अध्याय में वर्णित है। उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में गलत नेताओं को प्रश्रय और अच्छे नेताओं को अपमानित करने, हाशिए में धकेलने का परिणाम यह है कि इन दोनों जगह कांग्रेस का अस्तित्व समाप्तप्राय है। शायद पंजाब में इतनी बुरी स्थिति अभी न हो।  किंतु कैप्टन के अंदर नवजोत सिंह सिद्धू के साथ-साथ केंद्रीय नेतृत्व के विरुद्ध भी प्रतिशोध की अग्नि धधक रही है। ऐसा व्यक्ति अपना भला करे न करे हरसंभव नुकसान पहुंचा सकता है। 

विडंबना देखिए  कि जिस सिद्धू पर राहुल गांधी ने दांव लगाया उसी ने मिट्टी पलीद कर दी। राजनीति में अपरिपक्व व्यक्ति को ज्यादा महत्व देने का परिणाम हमेशा ऐसे ही आता है। जब वह कैप्टन मंत्रिमंडल में थे तब भी उनकी कल्पना थी कि हर कुछ जैसा वह चाहते हैं वैसा ही हो और जब अध्यक्ष बने तो उसी तरह व्यवहार करना चाहते थे। चरणजीत सिंह चन्नी के नेतृत्व में सरकार बनी तो मंत्री से लेकर उच्चाधिकारी भी उनकी पसंद का होना चाहिए। कोई भी परिपक्व व्यक्ति इस प्रकार की सोच से राजनीति में व्यवहार नहीं कर सकता। किंतु केंद्रीय नेतृत्व को इतनी समझ होनी चाहिए कि वह किस व्यक्ति को आगे बढ़ा रहा है। सिद्धू जो हैं वही कर रहे हैं और वही करेंगे। मूल बात यह है कि उन्हें इतना महत्व दिया किसने? किसने उन्हें अध्यक्ष बनाया? किसने उनको प्रोत्साहित किया ताकि वह कैप्टन के विरुद्ध हर सीमा का उल्लंघन करते जाएं? अब सिद्धू अध्यक्ष रहें या जाएं कांग्रेस की स्थिति पंजाब में क्या होगी और इन सबका असर दूसरे राज्यों में कैसा होगा? दुर्भाग्य यह भी है कि इस समय राहुल , सोनिया  या प्रियंका के निर्णय पर प्रश्न उठाने वालों को कांग्रेस विरोधी करार दे दिया जाता है। ऐसे चापलूस और जी हुजूरी करने वाले भी परिवार के इर्द-गिर्द हैं और उनके समर्थक बाहर फैले हैं। ये लोग सोशल मीडिया से लेकर सड़कों पर भी ऐसे नेताओं व पत्रकारों के विरुद्ध मोर्चाबंदी कर देते हैं। इसमें कोई दुस्साहसी ही परिवार के तीनों सदस्यों के सामने जाकर सच बोल सकता है। सच बोल दिया जाए  तो भी पंजाब के पूरे घटनाक्रम को पीछे नहीं ले जाया जा सकता।  जिस तरह नेताओं का एक समूह पंजाब के निर्णय को सही ठहराने पर तुला है उससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि कांग्रेस सोच और व्यवहार के स्तर पर किस दिशा में जा रही है। 

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