शनिवार, 25 अप्रैल 2015

गजेन्द्र की मौत का कारण अलग है

 

अवधेश कुमार

तो गजेन्द्र सिंह राणावत की मौत देश में हर स्तर पर उबाल का कारण बन रहा है। लेकिन इस उबाल से वाकई इसका सच सामने आएगा, देश सच का सामना करेगा और किसानों की समस्या जैसी है जिन कारणों से है उनके बारे में स्पष्टता आएगी यह विश्वास करना मुश्किल है। अब जितनी जानकारी सामने आ गई है उसमें कुछ बातें तो बिल्कुल साफ हैं। एक, गजेन्द्र उतना गरीब किसान परिवार का नहीं था जितना पहले बताया गया था। दो, उसकी फसल प्रभावित हुईं थीं किंतु जिस क्षेत्र से वह आता है वहां फसलों का नुकसान सरकारी अधिकारियों ने 20 25 प्रतिशत तक बताया था। हो सकता है नुकसान उससे ज्यादा हो, पर ऐसा नहीं था जिससे उसके परिवार के सामने जीने मरने की समस्या आ गई हो। तीन, वह राजस्थान की राजनीति में पिछले लंबे समय से सक्रिय था। चार, इस समय वह आम आदमी पार्टी का सक्रिय नेता था। पांच, किसी भी पहलू से यह प्रमाणित नहीं होता कि उसके मन में आत्महत्या की सोच थी। यानी वह आत्महत्या करने नहीं आया था। तो यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि फिर उसकी इहलीला समाप्त कैसे हुई? कोई व्यक्ति आत्महत्या करने आए नहीं और आत्महत्या करने के लिए पेंड़ से लटक जाए तो इसका कुछ तो कारण होगा? जो कारण हैं उनके लिए कुछ जिम्मेवार तत्व भी होंगे।

दिल्ली पुलिस अपनी जाचं कर रही है और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने मजिस्ट्रेट जांच के आदेश दे दिए हैं। संसद में गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने अपने बयान में कहा है कि जब वह पेड़ पर चढ़ा तो लोग पहले तालियां बजाकर उसका हौसला बढ़ा रहे थे। गमछे से फंदा लगाने तक यही दृश्य था। तो फिर कहां से उसके पेड़ पर चढ़ने और फांसी का गले में फंदा लगाने का विचार आया? क्या यह समूह से निकला विचार था या फिर किसी नेता ने उसको इसके लिए तैयार किया था ताकि सभा मंें यह दिखाया जाए कि देखो, सरकार ने किसानों की कैसी हालत कर दी है कि राजस्थान का एक किसान यहां खुदकुशी करने को तैयार है। शायद ऐसा हो और इसके परिणाम की आरंभ में चिंता नहीं की गई हो। जिस तरह उसके फंदा लगाने के बावजूद नेता केवल वोलंटियरों से उसे उतारने की अपील करते रहे, पुलिस से अपील करते रहे और फिर सभा भी चलाते रहे उससे संदेह की सूई तो इस दिशा में घूमती है। कुमार विश्वास का माइक लिए हुए इशारे पूछना कि क्या लटक गया और फिर नेताआंे को इशारे से ही बता देना एवं किसी का बोलना कि लटक गया.....कई संदेह पैदा करते हैं। यह बात अलग है कि जांच के बाद हमारे सामने ये तथ्य आएंगे ही आवश्यक नही। पर किसी दृष्टि से गजेन्द्र की मृत्यु आत्महत्या नहीं मानी जा सकती। उसके पत्र को ही देख लीजिए तो उसमें कहीं मरने का जिक्र नहीं है। यह बात अलग है कि पत्र में उसके लिखावट पर ही प्रश्न खड़ा हो गया है।

तो क्या वाकई उसे ऐसा करने के लिए उकसाया गया था? परिवार के लोगों का कहना है कि वह आप के शीर्ष नेताओं के संपर्क में था। इसमें अस्वाभाविक कुछ नहीं है। लेकिन इसमें जो सबसे ज्यादा क्षोभ पैदा करने वाला पहलू है वह है राजनीतिक व्यवहार। संसद के अंदर और बाहर राजनीतिक दल जिस तरह से व्यवहार कर रहे हैं उनसे सच्चाई सामने आ ही नहीं सकती। सच कहा जाए तो ये अपने राजनीतिक दलों के हितों को ध्यान में रखकर बयान दे रहे हैं और यही हमारी राजनीति की सामूहिक अमानवीयता का परिचायक है। इस समय किसानों के फसल नष्ट होने का मामला ऐसा बना दिया गया है मानो इसके पूर्व कभी किसानों को प्राकृतिक प्रकोप का सामना करना ही नहीं पड़ा। मानो इसके पूर्व हमारे जीवट किसानों ने इसका अपने आत्मबल और परिश्रम से सामना ही नहीं किया। मानो इसके पूर्व प्रकृति का प्रकोप हुआ और सरकारों ने उनके घर रुपयों की थैली ऐसे बरसा दी कि उनका दुख क्षण में दूर हो गया। ये अतिवादी विचार हैं। जो पार्टियां संसद में और बाहर चिल्ला रहीं हैं वे अपने गिरेबान में झांके कि उन्होंने इसके पहले क्या किया है? राज्यों में जहां उनकी सरकारें हैं वे क्या कर रहीं हैं?

यह बात बिल्कुल साफ हो चुका है कि गजेन्द्र की मृत्यु का किसानों की फसल नुकसान से कोई संबंध नहीं है। जब ओला और बारिस से हुए नुकसान के कारण  उसके अंदर मरने की इच्छा पैदा ही नहीं हुई तो फिर यह कारण कैसे हो सकता है उसकी मौत का? उसकी मौत का अगर कोई प्रत्यक्ष कारण सामने है तो वह है, आम आदमी पार्टी की रैली। क्या हम आप यह स्वीकार करेंगे कि नहीं कि अगर रैली नहीं होती तो आज वह जिन्दा होता? तो उसके लिए खलनायक या यमराज बना रैली। कहने का अर्थ यह नहीं कि राजनीतिक दलों को रैली आयोजित नहीं करनी चाहिए। यह लोकतांत्रिक संघर्ष का औजार है। पर आम आदमी पार्टी ने अपने नेताओं को बाहर निकालने के कारण हो रही निंदा से ध्यान हटाने के लिए किसान, किसान की राजनीतिक प्रतिध्वनि में अपनी आवाज गूंजाने की रणनीति अपनाई थी। उसमें आने वाले किसान कम उसके कार्यकर्ता ज्यादा थे। तभी तो उतने लोगों में उसे बचाने के लिए वह भी काफी देर बात चार पांच लोग चढ़े और एक ही उसके पास तक पहंच सका। किसान होते तो कब का पेड़ पर चढ़कर उसे उतार लाये होते।

राजनीतिक दल इन पहलुओं को जो आईने की तरह साफ है देखने की कोशिश क्यों नहीं कर रहे? अगर नहीं करेंगे तो फिर भारत की समस्यायें ऐसे ही बढ़ती जाएंगी, जो समस्या है उसकी पहचान होगी नहीं, जो है नहीं उस पर शोर मचाया जाएगा। लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन का काई बार नेताओं को टोकना पड़ा कि इस तरह हर प्रसंग में राजनीति नहीं होनी चाहिए। उन्हें नेताओं के कई शब्द रिकॉर्ड से बाहर निकलवाने पड़े। प्राकृतिक आपदायें पहले भी आतीं रहीं हैं, किसान उनका सामना पहले भी करते रहे हैं। प्राकृतिक आपदाओं से तो एक समय के संपन्न परिवार निर्धन हो गए। बावजूद इसके आत्महत्या की घटनायें हमने नहीं देखीं। मैं आत्महत्या को नकारता नहीं हूं, पर जिस तरह का शोर मचाया जा रहा है उसमें सच्चाई का अशं बहुत कम है। सरकार की प्रक्रिया है। पहले राज्य सरकार फसल नष्ट होने का आकलन करती है, फिर केन्द्र करती है, उसके बाद राज्य अपना मुआवजा देता है, केन्द्र अपना राज्य सरकार के पास भेजता है। इसमें थोड़ा समय लगता है, लेकिन जिला प्रशासन चाहे तो तुरत आकलन करके जहां जरुरत है अंतरिम सहायता त्वरित स्तर पर मुहैया करा सकता है। यह राज्य सरकार की इच्छा शक्ति और स्थानीय राजनीतिक दलों, सामाजिक धार्मिक संगठनों की सक्रियता पर निर्भर करती है। पूरी तरह सरकारी मशीनरी पर निर्भर होने के कारण भी समस्या आती है। पर यह कहना गलत है कि केन्द्र सरकार ने संज्ञान नहीं लिया, कदम नहीं उठाया। केन्द्र के मंत्रियों की टीम तक अलग-अलग राज्यों में कई, केन्द्र ने मुआवजा राशि बढ़ाई है, मुआवजे के लिए क्षति का अनुपात 50 प्रतिशत से 33 प्रतिशत कर दिया है। इसमें यदि आत्महत्या कहीं हो रही है तो इसका कारण तलाशा जाना चाहिए।

गजेन्द्र की मौत तो एक सबक बनना चाहिए था। उसकी मौत का कारण कुछ और है, पर अचानक किसान हितैषी हमारे दल उसे देखकर भी नजरअंदाज कर रहे हैं। उसी तरह अन्य मामलों में भी हो रहा है। आखिर राजधानी दिल्ली में जहां आकस्मिक सेवा के श्रेष्ठतम साधन और तंत्र उपलब्ध है वहां दिल्ली के दिल में एक व्यक्ति कैसे इस तरह अपना प्राण गंवा बैठा। हमारी मशीनरी में कहां दोष है उसका आकलना होना चाहिए। पुलिस क्यों नहीं उसे बचाने में सफल हुई इसका उत्तर तलाशना चाहिए। उतने लोग क्यों उसे मरते देखते रहे इसका भी जवाब मिलना चाहिए। इसकी बजाय जो कारण नहीं है उस पर राजनीतिक बावेला मचा है। यह स्थिति हमें ज्यादा चिंतित और क्षुब्ध करती है।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

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