गुरुवार, 26 नवंबर 2015

म्यांमार का चुनाव परिणाम उम्मीद पैदा करने वाला

 

अवधेश कुमार

म्यान्मार चुनाव परिणाम उस देश के लिए, हमारे लिए और पूरी दुनिया के लिए महत्वपूर्ण है। वैसे म्यान्मार में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव होना ही अपने आपमें एक बड़ी उपलब्धि तथा पड़ोसी होने के नाते हमारे लिए भी राहत का संदेश देने वाली है। वास्तव में वहां पर्यवेक्षक के रुप में काम कर रहे करीब 10 हजार देशी-विदेशी पर्यवेक्षकों ने माना है कि कुछ सामान्य गड़बड़ियों को छोड़कर मतदान बिल्कुल निष्पक्ष एवं शांतिपूर्ण रहा। जो थोड़ी बहुत गड़बड़िया हुईं उसमें भी सरकार की कोई भूमिका नहीं थी। ऐसा एशिया के चुनावों में सामान्य तौर पर होता है। इस तरह हमें वहां के सैन्य नेतृत्व एवं उसके समर्थन से चल रही सरकार को इसका श्रेय देना चाहिए कि उसने अंतरराष्ट्रीय समुदाय से किया गया अपना वायदा पूरा किया। 25 वर्ष बाद इस तरह का चुनाव यकीनन कई अपेक्षाएं पैदा करतीं हैं। वास्तव में यह उम्मीद की जा सकती है कि यहां से म्यान्मार में संसदीय लोकतंत्र के एक नए दौर की शुरुआत होगी जो इस जन भावनाओं के अनुरुप शासन संचालन करेगी एवं इसके सही भविष्य का निर्माण कर सकेगी। नए दौर की शुरुआत केवल चुनाव की निष्पक्षता एवं भारी संख्या में लोगों की भागीदारी के रुप में ही नहीं हुई, आंग सान सू की की पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) को मिली भारी सफलता भी वहां के लिए एक नए दौर के आगाज का ही संकेत है। वहां सैनिक शासकों यानी जुंटा के समर्थन से सत्तारुढ़ यूनियन सॉलिडरिटी एंड डेवलपमेंट पार्टी (यूएसडीपी) के खिलाफ लोगों का असंतोष मतदान के द्वारा साफ उभरकर सामने आया है और उसने पहले दौर में ही अपनी हार स्वीकार कर ली। व्यावसायिक राजधानी और यूएसडीपी के गढ़ माने जाने वाले यंगून में ही 16 सीटों की मतगणना में आए नतीजों में से 15 एनएलडी के पक्ष में आए। यूएसडीपी के कार्यकारी अध्यक्ष भी हिंथादा संसदीय क्षेत्र में हार गए।

 कम से कम अब 1990 की उस स्थिति की पुनरावृत्ति नहीं होनी चाहिए जब चुनाव में एनएलडी को मिली सफलता को नकारते हुए सैनिक जुंटा ने उसे खारिज कर अपने हाथों में शासन कायम रखा एवं सू की को जेल में डाल दिया था। सू की 20 वर्षों तक जेल में रहीं। उम्मीद है कि सैन्य तंत्र जनता की आवाज को समझते हुए आसानी से सत्ता का लोकतांत्रिक हस्तांतरण होने देगा और इसे काम भी करने देगा। यूएसडीपी ने सार्वजनिक तौर पर हार स्वीकारते हुए कहा कि हम इस स्थिति के लिए तैयार हैं। विपक्ष की भूमिका के लिए उसकी मानसिक तैयारी लोकतंत्र की सफलता की आशा पैदा करती है। लेकिन करीब आधी सदी तक सैन्य शासन झेलने वाले देश में आशंकाएं पूरी तरह दूर नहीं हो सकतीं। यानी सैनिक शासन के इतिहास को देखते हुए जब तक सत्ता का हस्तांतरण नहीं हो जाता और कुछ वर्ष निर्वाचित सरकार स्वतंत्रतापूर्वक काम नहीं कर लेती हम आश्वस्त नहीं हो सकते। हालांकि सैन्य तंत्र को यह समझ में आ गया है कि देश में लोगों के अंदर लोकतंत्र को लेकर समर्थन व उत्साह दोनों है। आखिर तीन स्तरीय चुनाव में 91 राजनीतिक दलों के 6038 तथा 310 निर्दलीय उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतरे। यह सामान्य बात नहीं है। यह तो जानी हुई बात थी कि मुख्य मुकाबला एनएलडी एवं यूएसडीपी के बीच ही होगा और वही हुआ। किंतु इतनी अधिक पार्टियों और उम्मीदवारों का उतरना भी म्यान्मार के बदलते राजनीतिक माहौल का प्रमाण है। साफ है कि वहां सामान्य राजनीतिक प्रक्रिया की स्थिति पिछले पांच वर्षों में कायम हुई है।

संभव था पिछले चुनाव में ही कुछ परिवर्तन हो जाता। लेकिन उस समय तक सैनिक जुंटा ने वैसी स्थिति पैदा नहीं की थी जिससे दूसरी पार्टियां चुनाव की निष्पक्षता को लेकर आश्वस्त हो सके। इसलिए 2010 में सू की की एनएलडी ने चुनाव मंे धांधली सहित कई आरोप लगाते हुए बहिष्कार किया था। जब वह मैदान से ही हट गई तो फिर एकमात्र सशक्त पार्टी यूएसडीपी रह गई थी जिसको बहुमत मिल गया। इसे सेना समर्थित पार्टी माना जाता है। 2011 से म्यान्मार इसके शासन में चल रहा था। हालांकि यह सच भी स्वीकार करना होगा कि इसने किसी लोकतांत्रिक आंदोलन को कुचलने या लोकतांत्रिक गतिविधियों पर अंकुश लगाने की कोशिश नहीं की। इसने सामान्य तौर से शासन का संचालन किया है। कहने का अर्थ यह कि सैन्य समर्थित शासन होते हुए भी वहां लोकतंत्र का माहौल कामय हो चुका है।  अब इसे पीछे ले जाने के विरुद्व प्रतिक्रिया हो सकती है। इसलिए सैन्य नेतृत्व ऐसा करने की चेष्टा नहीं करेगा। वैसे यह ध्यान रखने की बात है कि म्यान्मार के संविधान में वहां की संसद के केवल 75 प्रतिशत सीटों का ही निर्वाचत होता है। शेष 25 प्रतिशत अनिर्वाचित सैन्य प्रतिनिधियों के लिए आरक्षित है जिसका मनोनयन सेना करती है। तो नीतियां बनाने में यानी संसद के फैसलों में इनकी भूमिका रहेगी। इसका वहां अभी तक ज्यादा विरोध नहीं है। आप देखेंगे कि दक्षिण पूर्व एशिया के ज्यादातर देशों में लोकतंत्र का स्वरुप बिल्कुल वैसा नहीं है जो हमारे यहां हैं। अभी राजा का तंत्र है और उनकी भूमिका वहां होती है। इसलिए म्यान्मार को हम अपवाद नहीं मान सकते।

भारत में भी सू की की पार्टी को बहुमत मिलने पर हर्ष प्रकट किया गया है। लेकिन म्यान्मार के संवैधानिक व्यवस्था मेंऐसे पहलू हैं जो भारी बहुमत के बावजूद सू की को सीधे सत्ता संभालने से रोकते हैं। संविधान के अनुसार विदेशों में जन्मे बच्चों के माता-पिता देश के राष्ट्रपति नहीं बन सकते। सू की के दोनों बच्चे विदेशों में पैदा हुए है। दूसरे, वहां राष्ट्रपति बनने के लिए संसद में दो तिहाई स्थान पाना अनिवार्य है। जैसा हमने कहा संसद में एक चौथाई सीटें अगर गैर निर्वाचित सैनिक प्रतिनिधियों के लिए आरक्षित हैं तो एनएलडी के लिए संसद में दो तिहाई बहुमत पाना जरा कठिन लगता है। लेकिन अब साफ है कि वह उस सीमा रेखा को पार कर जाएगी।  इस तरह सत्ता का केन्द्र एनएलडी का बनना निश्चित है। हां, सू की प्रत्यक्ष तौर पर सत्ता का नेतृत्व नहीं कर सकतीं। यह बात अलग है कि भले वो राष्ट्रपति न बने किंतु सत्ता पर उनका प्रभाव कायम रहेगा। उन्होंने इसे स्वीकार किया भी है कि वो नीतियों से लेकर प्रत्येक स्तर पर सत्ता को प्रभावित करेगी। मार्च में राष्ट्रपति का निर्वाचन होना है। वास्तव में एनएलडी की सफलता सू की के समर्थन की सफलता है। इसलिए राष्ट्रपति कोई भी हो उनका प्रभाव कायम रहेगा। म्यान्मार सहित दुनिया को अपेक्षा है कि वो उसे एक शुद्व संतुलित लोकतांत्रिक देश में परिणत करेंगी जहां सेना और नागरिक शासन के बीच मान्य दूरी होगी तथा जाति, संप्रदाय, मजहब के परे सबको समानता के अधिकार हासिल होंगे। यह भारत सहित दूसरे देशों का भी दायित्व है कि नए शासन को पूरा सहयोग दे और सैन्य तंत्र को भी अनावश्यक खलनायक न बनाया जाए।

भारत ने म्यान्मार चुनाव प्रक्रिया एवं परिणाम दोनों का स्वागत किया है। हमारे पर्यवेक्षक भी वहां उपस्थित थे। हाल के वर्षों में म्यान्मार से हमारे संबंध बेहतर हुए हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दक्षिण पूर्व एशिया के सम्मेलन में वहां गए थे और वहां के नेताओं से मुलाकात कर बातचीत की। सू की का वैसे भी भारत से गहरा लगाव रहा है। उनकी आरंभिक पढ़ाई भारत में ही हुई। उनके जेल में रहने के दौरान लोकतंत्र के संघर्ष का प्रमुख केन्द्र भारत ही था। भारत ने कभी भी लोकतांत्रिक संघर्ष के लिए भारत में आत्मनिर्वासित जीवन जीने वालों के सामने बाधाएं उत्पन्न नहीं कीं। जेल से रिहा होने के बाद सू की स्वयं कई बार भारत आ चुकीं हैं। इसलिए यह उम्मीद करनी चाहिए कि भारत के साथ म्यान्मार के संबंध प्रगाढ़ होंगे। वहां गैस पाइप लाइन सहित कई परियोजनाओं को लेकर भारत के सामने समस्याएं पैदा हुई जो दूर होंगी। साथ ही पूर्वोत्तर में आतंकवादी समूहांें ने म्यान्मार के जंगलों को अपने लिए जिस तरह शरणगाह बनाया हुआ है उसका भी अंत हो सकेगा।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

 

 

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