शुक्रवार, 29 अप्रैल 2016

सूखा संकट देशव्यापी, समाधान देश व विश्वस्तरीय

 

अवधेश कुमार

राष्ट्रीय मीडिया में सूखे की भयावहता और पानी के संकट की खबरें कुछ राज्यों के कुछ क्षेत्रों तक सीमित है। इससे ऐसी तस्वीर उभरती है मानो देश के शेष भागों में बेहतर या कुछ अच्छी स्थिति होगी। सच है कि भयानक सूखा और जल संकट की गिरफ्त पूरे देश में है। कम से कम 300 लोगों के मरने की खबरें अभी तक आ चुकी हैं और आपको आश्चर्य होगा इनमें मरने वालों में सबसे ज्यादा वहां के लोग नहीं हैं जहां के सूखे पर हम छातियां पीट रहे हैं। आंध्रप्रदेश और तेलांगना में सबसे ज्यादा मौत हुई है और उसके बाद स्थान उड़ीसा का है। मौत के सारे आंकड़े एक साथ नहीं आते। पिछले वर्ष गर्मी और सूखे के कारण 2035 लोगों की मौत का आंकड़ा हमारे सामने आया था। इसमें महाराष्ट्र और बुंदेलखंड का स्थान उपर नहीं था। गरमी से झुलसते जिन शहरों के तापमान 44 डिग्री से उपर गए उनमें देश के अनेक राज्यों के शहर शामिल है। पिछले सप्ताह शुक्रवार को ओडिशा के टिटलागढ़ में तापमान 47 डिग्री और तेलंगाना के रामागुंडम में 46 डिग्री तक पहुंच गया। यह इस मौसम का सबसे ज्यादा तापमान था।

देश में 91 बड़ी झीलंें और तालाब हैं जो पेयजल, बिजली और सिंचाई के प्रमुख स्रोत हैं। इनमें औसत से 23 प्रतिशत पानी की कमी आई है। 21 अप्रैल तक इन तालाबों में 34.082 बिलियन क्यूबिक मीटर (बीसीएम) पानी बचा था। ये जलाशय किसी एक दो राज्य में तो हैं नहीं। जिसे पूर्व मानसून बारिस कहते हैं वो अगर आकाश से धरती पर नहीं उतरा तो फिर इससे पूरा देश प्रभावित है तो देश से बाहर निकलें तो पूरा एशिया, अफ्रिका, दक्षिण अमेरिका और इससे लगे इलाके बुरी तरह प्रभावित हैं। मौसम विभाग का रिकॉर्ड बताता है कि 1901 के बाद पिछला साल भारत का तीसरा सबसे गर्म साल रहा था। 1880 में शुरू हुए रिकॉर्ड के मुताबिक, 2015 में औसत तापमान 0.90 डिग्री ज्यादा था।  2016 भी उसी श्रेणी का वर्ष साबित हो रहा है। वास्तव में सूखे की समस्या और उससे जुड़ा पानी का संकट पूरे देश में है। हां, कुछ राज्य इससे ज्यादा ग्रस्त हैं। हिमाचल, तेलंगाना, पंजाब, ओडिशा, राजस्थान, झारखंड, गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, तमिलनाडु, कर्नाटक और केरल जैसे राज्यों में पिछले साल के मुकाबले भी इस साल जल स्तर में काफी कमी देखी जा रही है।

आपने बिहार में सूखा संकट के राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा नहीं सुनी होगी। पूर्वी उत्तर प्रदेश एवं पश्चिम बंगाल की भी नहीं। बिहार के किसान बताते हैं कि पिछले आठ साल से ठीक से बारिश हुई ही नहीं। बारिश या तो देर से आई या कम आई। प्रदेश के दो तिहाई क्षेत्रों में जल स्तर इतना नीचे चला गया है कि पुराने हैंडपंप एवं बोरिंग बेकार हो रहे हैं। जिलों-जिलों के आंकड़े आ रहे हैं कि किस जिले में कितना हैंडपंप सूखा है, कितने कुंए सूख गए और आंकड़ें भयावह हैं। नदियों वाले जिलांे में भी कई सौ की संख्या में हैंड पंप सूखने की खबरें हैं। गया के मानपुर प्रखंड से खबर है कि पानी की कमी के कारण कई गांवों में शादियां टालनी पड़ रही हैं। जमुई के बरहट प्रखंड के कई गांवों के लोग 10-12 किलोमीटर दूर जाकर पानी लाते हैं या फिर नदी की बालू को खोद कर पानी निकाल रहे हैं। लखीसराय जिले में ऊल नदी मरुभूमि बन चुकी है। चानन में बरसाती पानी रोकने के लिए बनाए गए फाटक नवीनगर से कुंदर तक 5-7 किलोमीटर में जो थोड़ा पानी बचा है, वहां लोग बालू खोद कर पानी निकाल रहे हैं। पश्चिम बंगाल के फरक्का में एक दिन पानी इतना कम हो गया कि वहां के पावर प्लांट को बंद करना पड़ा। यह घटना मार्च की है। इस समय क्या स्थिति होगी इसकी कल्पना करिए। ये कुछ उदाहरण मात्र हैं। अगर सभी खबरों को एकत्रित किया जाए तो एक मोटी पुस्तक बन जाएगी।

अगर मौसम विज्ञान विभाग के अनुसार अल नीनो और ग्लोबल वॉर्मिंग इसका मुख्य वजह है तो यह एक दो राज्यों के लिए तो नहीं हो सकता। इसी तरह यदि पिछले दो सालों से कम बारिश होने के कारण गर्मी ज्यादा पड़ रही है, सूखे की समस्या सामने है तो यह भी देशव्यापी ही है। वास्तव में केन्द्र सरकार ने भी सूखे को लगभग देशव्यापी मान लिया है। 19 अप्रैल को उच्चतम न्यायालय में पेश रिपोर्ट में सरकार ने माना कि कम से कम 10 राज्यों के 256 जिलों में करीब 33 करोड़ लोग सूखे की मार झेल रहे हैं। गुजरात सहित कुछ राज्यों के विस्तृत आंकड़ें केन्द्र के पास नहीं आ सके थे। केंद्र ने उच्चतम न्यायालय को बताया कि सूखाग्रस्त राज्यों की स्थिति के मद्देनजर उसने मनरेगा के तहत निर्धारित 38,500 करोड़ रुपये में से करीब 19,545 करोड़ रुपये जारी कर दिए हैं। ये इन 10 राज्यों को जारी किए गए हैं। दरअसल, सूखे से निपटने का बना बनाया नियम हो गया है कि मनरेगा के तहत 100 दिनों के रोजगार की जगह 150 दिनों के रोजगार के अनुसार राशियां जल्दी जारी की जातीं हैं ताकि वहां गरीबों को काम मिले और जलाशयों या कुंओं आदि की सफाई, खुदाई हो सके। यहां यह विचार का विषय नहीं है।

इस संकट को देशव्यापी और एक हद तक वैश्विक मानकर और इसके तात्कालिक एवं दूरगामी समाधान पर विचार करना होगा। भारत में दुनिया की 16 प्रतिशत आबादी है जबकि उपयोग लायक पानी का केवल 4 प्रतिशत हमारे देश में है। इस बात के प्रति जितनी जागरुकता पैदा की जानी थी नहीं की गई और जल के प्रति हमारे यहां सामाजिक नागरिक दायित्व तो मानो कुछ है ही नहीं। जरा सोचिए, जिन क्षेत्रों में 200 सें. मी. से 1000 सें. मी. तक बारिश होती है वहां तो कभी सूखा या जल संकट नहीं होना चाहिए। वहां क्यों है? साफ है कि जल प्रबंधन के पारंपरिक तरीके जिनमें अपने उपयोग के साथ प्रकृति के संरक्षण के पहलू स्वयमेव निहित थे हमने नष्ट कर दिए। पीढ़ी दर पीढ़ी आने वाले वे ज्ञान तक लुप्त हो गए। आज पहले की तरह पक्का कुंआ खोदने वाले मजदूर आपको नहीं मिलेंगे। पुराने नष्ट और नए तरीके हमने जो विकसित किए वे अंधाधुंघ पानी के निष्काषण और असीमित खर्च का है। खेतों मंें सिंचाई ऐसी की आज भारत के जल खर्च का 80 प्रतिशत केवल सिंचाई में जाता है, जबकि हमारी आधी भूमि भी सिंचित नहीं है। पहाड़ी इलाकों में पानी जमा करने के अनेक तरीके थे, सीढ़ीदार खेतियां थीं। कहां गए वे? जिन गांवों ने उन तरीकों पर काम किया उनके पास आज भी संकट नहीं है। गांधी जी ने शहरों को विनाशक कहा था। वे मानते थे और यही संच है कि औद्योगीकरण और उसके साथ पैदा होते शहर गांवों और प्रकृति का खून चूसकर ही बढ़ते हैं। शहरों में प्रति व्यक्ति पानी की मांग जहां 135 लीटर वहीं गांवों में करीब 40 लीटर।

तो जो कारण हैं उन्हें दूर करने की आवश्यकता है। यह आसान नहीं है। देश के स्तर पर राज्यों और राज्यों में भी कुछ क्षेत्रों के अनुसार समन्वित राष्ट्रीय नीतियों के द्वारा रास्ता निकलेगा। साथ ही जो हमारी सीमा से बाहर निकलकार जातीं हैं उनका उनके अनुसार समाधान करना होगा। हमारे यहां नदियो और झीलों का जुड़ाव चीन, बंगलादेश, नेपाल और भूटान तक से हैं। अगर वे गड़बड़ियां करेंगे तो हम प्रभावित होंगे और होते हैं। तो यहां इस स्तर पर भी निदान करना होगा। इसी तरह ग्लोबल वार्मिंग का इलाज अकेले भारत नहीं कर सकता। हां, भारत की जो जिम्मेवारी है वह पूरी करेगा तभी वह दुनिया को करने की नसीहतें दे सकता है। लेकिन जल के प्रति नागरिक-सामाजिक दायित्व का भान और उसका निर्वहन सर्वोपरि है। प्रकृति के साथ व्यवहार का सरल सिद्वांत है कि उससे हम उतना ही लें जिससे वह सदा देने की स्थिति में रहे। यह हम सीखें, अपने बच्चों को सिखाएं और दुनिया को भी बताएं।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पाण्डव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208 

 

 

 

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